तफ़ाउ़ले दावत - 5

तफ़ाउ़ले दावत - 5

इस्लाम की दावत से क़ुरैश का टकराव एक फ़ितरी चीज़ थी क्योंके आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी दावत और सहाबा ए किराम रज़ि0 को निहायत वाजे़ह, सरीह और एक चैलेंज के तौर पर क़रैश के सामने रखा था। फिर यह दावत बज़ाते ख़ुुद अपने आप में क़ुरैश के लिये एक चैलेंज ही थी क्योंके यह दावत एक अल्लाह की तरफ़ बुलाती थी और एक ही अल्लाह की इ़बादत का केहती थी, बाक़ी तमाम बुतों और असनाम की इ़बादत से रोकती थी और जिस फ़ासिद निज़ाम में मक्के का मुआषिरा था उससे हटाने की बात केहती थी तो यह खुला हुआ टकराव ही था। आप  सल्ल0 वाजे़ह तौर पर उनके बुतौं की तहक़ीर करते, और जो उम्मीदें मुश्रिकीन ने उन बुतों से बाँधा रखी थी उनकी खुली इहानत भी करते थे, उनके तरीक़ ए-ज़िनदगी की बुराई भी गिनवाते और उनके ज़ालिमाना रिवाजों और आ़दात पर भी चोट करते थे, र्क़ुआन की आयत नाज़िल होती तो सराहतन उन्हें सुनाते।

اِنَّڪُمۡ وَمَا تَعۡبُدُوۡنَ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰهِ حَصَبُ جَهَـنَّمَؕ اَنۡـتُمۡ لَهَا وَارِدُوۡنَ‏ ﴿۹۸﴾
यक़ीनन तुम और और वोह जिनको तुम अल्लाह को छोड़ कर पूजते हो, सब जहन्नुम का ईंधन हो, तुम इसके घाट उतरोगे। (तर्जुमा मआनी र्क़ुअान करीमः अल-अन्बियाः 98)
फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने सूद पर वार किया जिस पर ये मुश्रिकीन मुन्हसिर थे और क़ुरआन की यह आयात सुनाते।

وَمَاۤ اٰتَيۡتُمۡ مِّنۡ رِّبًا لِّيَرۡبُوَا۟ فِىۡۤ اَمۡوَالِ النَّاسِ فَلَا يَرۡبُوۡا عِنۡدَ اللّٰهِ‌ۚ وَمَاۤ اٰتَيۡتُمۡ مِّنۡ زَكٰوةٍ تُرِيۡدُوۡنَ وَجۡهَ اللّٰهِ فَاُولٰٓٮِٕكَ هُمُ الۡمُضۡعِفُوۡنَ‏ ﴿۳۹﴾
जो कुछ तुम सूद पर देते हो, ताके वोह लोगों के अन्दर परवान चढ़े, तो वोह अल्लाह के नज़दीक़ नहीं बढ़ता, जो ज़कात तुमने अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हुये दी, तो एैसी ही लोग अपना माल बढ़ाते हैं।
(तर्जुमा मआनी र्क़ुअान करीमः सूरहः अर-रूमः आययः39)

जो लोग लेन-देन और नापतौल में कमी करते थे उनको आप (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह का ख़ौफ दिलायाः
وَيۡلٌ لِّلۡمُطَفِّفِيۡنَۙ‏ ﴿۱﴾  الَّذِيۡنَ اِذَا اڪۡتَالُوۡا عَلَى النَّاسِ يَسۡتَوۡفُوۡنَۖ‏ ﴿۲﴾  وَاِذَا ڪَالُوۡهُمۡ اَوْ وَّزَنُوۡهُمۡ يُخۡسِرُوۡنَؕ‏ ﴿۳﴾

तबाही है घटानेे वालौं के लिये, जो नाप कर जब लोगों पर नज़र जमाये हुये लेते हैं तो पूरा लेते हैं मगर जब उन्हें नाप कर या तौल कर देते हैं तो घटा देते हैं।
(तर्जुमा मआनी र्क़ुअान करीमः सूरहः मुतफ़्फ़िीनः आयतः 1-2)

इसलिये क़रैश ने आप (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा-ए-किराम रज़ि0 का मुक़ाबला किया और इस ज़िम्न में क़ुरैश ने आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़ात, सहाबा-ए-किराम रज़ि0 और दावते इस्लामी के मुक़ाबले में कभी ईज़ा रसानी और कभी परोपैगन्डे और अफ़वाहों का जाल बिछाया और जवाबन आप (صلى الله عليه وسلم) क़ुरैश के फ़ासिद अ़क़ाइद और ग़लत अफ़्कार के खि़लाफ़ अपनी मुहिम जारी रखी ताके इन अफ़्कार के मुक़ाबले में इस्लामी अफ़्कार फैलते रहें। आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लाम की दावत मुकम्मल सरीह तरीके़ से देते, न किसी मौज़ू पर इस्लाम की राये से कुछ छुपाते न किसी मौज़्ाू को टालते, न किसी इस्लामी हुक्म को हल्का करके बताते, न किसी इस्लामी राय को कुन्द कर के बताते और न किसी की मुदाहिनत चाप्लूसी या तारीफ़ को अपनी दावत पर असर अन्दाज़ होने देते। यह सब बावजूद इसके के आप (صلى الله عليه وسلم) क़ुरैश की तरफ़ से दी गई तमाम मशक़्कतें झेल रहे थे, आप (صلى الله عليه وسلم) का अपनी ज़ात का कोई दिफ़ा नहीं था, कोई मदद नहीं थी, कोई हलीफ़ नहीं था कोई माद्दी ज़राए नहीं थे और न कोई हथियार, बड़ी इस्तिक़ामत और क़ुव्वते ईमानी के साथ, तमाम मसाइब और माद्दी कमज़ोरियों से क़ता नज़र, आप (صلى الله عليه وسلم) ने दीन की दावत को निहायत वज़ाहत और बहादुरी के साथ एक चैलेंज के अन्दाज में सामने रखा, उसी से आप (صلى الله عليه وسلم) को क़ुव्वत मिली आप क़ुरैश की हर तदबीर जिसका मक़्सद लोगों तक दावते इस्लाम को पहुंचने से रोकना था, उस पर ग़ल्बा पा सके और लोगों तक इस्लाम की दावत पहुंचा सके, लोगों ने हक़ को पेहचाना भी क्योंके बहरहाल हक़ की एक ताक़त होती है जो बातिल पर ग़ालिब आ ही जाती है। अब इस्लाम का नूर अ़रब में फैलने लगा और कई लोग जो अब तक बुतों के परस्तार थे वोह इस्लाम के गरवीदा हो गये, ईसाई भी इस्लाम की तरफ़ आये और क़ुरैश के कुछ बड़े लोगों के दिल भी र्क़ुअान सुनने की तरफ़ माइल हो गये।
अ़रब का शायर तुफ़ैल बिन अ़म्र अद्दौसी लोगों में एक दाना, खि़रदमन्द दानिश्वराना हैसिय्यत रखता था, जब यह मक्का आया तो क़ुरैश ने इससे पहले ही मिलकर आप (صلى الله عليه وسلم) के खि़लाफ़ उसकी राय पर असर अन्दाज़ होने के लिये उसे मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के बारे में डराया के यह शख़्स एैसी बातें करता है जो इन्सान को उसके अहल से अलग कर देती हैं, और यह के कहीं एैसा न हो के आप (صلى الله عليه وسلم) की बातों में तुम आ जाओ और तुम्हारी और तुम्हारे लोगों की भी वही हाल हालत हो जो मक्के की हुई है इस्लिये बेहतर यही है के न तुम मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) से बात करो और न उनकी बात सुनोे। एक दिन जब वोह कअ़बा गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) लोगों से मुख़ातिब थे तुफ़ैल ने आप (صلى الله عليه وسلم) की कुछ बातें सुनीं जो अच्छी लगी तो दिल में सोचा के मैं एक शायर हूूं दाना हूं और किसी अच्छी बात में अगर कोई बुरी और क़बीह बात भी छुपी हो तो वोह मुझ से नहीं छुप सकती, फिर मुझे क्या चीज़ रोक सकती है। उस शख़्स की बात सनने से? अगर यह शख़्स सल्ल0 कोई अच्छी बात कहेंगे तो क़ुबूल कर लूंगा और अगर बात बुरी होगी तो छोड़ दूँगा, यह सोच कर तुफ़ैल पीछे-पीछे आप (صلى الله عليه وسلم) के घर तक आये और अपना मन्शा ज़ाहिर किया, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें इस्लाम के बारे में बताया और क़ुरआन पढ़कर सुनाया, जिसपर उन्होंने इस्लाम की शहादत दी और अपने लोगों में वापस आकर उन्हें इस्लाम की दावत दी।

आप (صلى الله عليه وسلم) के पास बीस ईसाई हाज़िर हुये जिन्हें इस्लाम की दावत का इल्म था, यह लोग आप (صلى الله عليه وسلم) से मिले, आप (صلى الله عليه وسلم) की बात सुनी, अपने सवालात किये, उनके जवाबात सुने, इस्लाम की सच्चाई की शहादत दी और मुसलमानों में दाखि़ल हो गये उस पर क़ुरैश बहुत भड़के और जब यह काफ़िला मक्का से रवाना हुआ तो क़ुरैश ने उन्हें घेर लिया और उनसे बदकलामी की, कहा के तुम बदनसीब लोग हो, तुम्हारी क़ौम ने तुम्हारी कौ़म ने तुम्हें मालूमात हासिल करने के लिये भेजा था और तुम मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की बात सुनकर अपना दीन छोड़ दिया, इससे उन लोगों पर कोई बुरा असर तो नहीं पड़ा अलबत्ता उनके ईमान ही में इज़ाफ़ा हुआ इससे आप (صلى الله عليه وسلم) की शोहरत ही बढ़ी और लोगों में शौक़ हुआ के र्क़ुआन सुनें, यहाँ तक के क़ुरैश के ही बदतरीन ख़ुसूमत रखने वाले येह सोचने पर मजबूर हो गये के क्या इस दावत में वाक़ई कोई सच्चाई है? और छुप-छुप कर क़ुरआन सुनने लगे अबू सुफ़्यान बिन हरब, अबू जेहल, अम्र बिन हाशिम और अल-अख़नस बिन सुरैक़ मक्के के सरदारों में थे उन्होंने तय किया के आप (صلى الله عليه وسلم) के घर जाकर र्क़ुआन सुना जाये, चुनाँचे एक दूसरे से अलग यह लोग वहां पहुंचे इनमें सेे किसी को ख़बर न थी के दो और हैं जो छुपकर सुन रहे हैं आप (صلى الله عليه وسلم) के मामूल के मुताबिक़ शब का एक बहुत बड़ा हिस्सा इ़बादत में गुज़रता था इन लोगों ने एक दूसरे की मौजूदगी से बे ख़बर अपनी-अपनी जगह ले ली और सुबह सादिक़ तक सुनते रहे, जब वापस अपने घर जाने लगे तो एक जगह यह तीनों टकराये और एक दूसरे से शर्मिन्दगी भी हुई और एक दूसरे को मलामत भी किया के एैसा करने से हम कमज़ोर पड़ेंगे और आप (صلى الله عليه وسلم) के ही हाथ मज़बूत होंगे इसलिये अब सुनने नहीं आयेंगे। अगली शब फिर यही हुआ और सुबह जब येह लोग फिर टकराये तो फिर एक दूसरे को मलामत की लेकिन तीसरी रात भी येह लोग ख़ुद को न रोक पाये और एक दूसरे के आने से बे ख़बर फिर क़ुरआन सुनने आ गये अब उन लोगों ने जो कुछ सुना था उस पर गुफ़्तगू की तो बहुत झुंझुलाये के उनके इस अ़मल से उनकी कमज़ोरी जा़हिर होती थी जो किसी क़बीले के सरदार के शायाने शान नहीं और इससे दूसरे लोग मुतअस्सिर हो सकते हैं जो किसी तरह क़रैश के मफ़ाद में नहीं है।
इस तरह क़ुरैश की तमाम रुकावटों के बावजूद जो दावते इस्लामी के फैलाव में हाइल थीं, इस्लाम का पैग़ाम बहरहाल लोगों तक पहुँचता रहे। जैसे-जैसे यह दावत फैल कर आगे बढ़ती, क़ुरैश का ख़ौफ़़ भी बढ़ता और साथ ही उनके मज़ालिम जो वोह अस्हाबे रसूल पर करते थे। हुजुर (صلى الله عليه وسلم) ताईफ़ तशरीफ़ ले गये के अगर सक़ीफ़ के लोग इस्लाम की दावत क़ुबूल कर लें तो फिर उनसे नुसरत और हिमायत तलब की जाये। हालांके आप (صلى الله عليه وسلم) सक़ीफ़ के पास गये थे। लेकिन उन लोगों ने मेहमान नवाज़ी की अपनी रिवायत के खि़लाफ़ आप (صلى الله عليه وسلم) से निहायत शदीद लहजे में गुफ़्तगू की और बहुत बद अख़्लाक़ी से पेश आये, उन्होंने अपने आवारा बदलगाम लड़के और ग़ुलाम आप (صلى الله عليه وسلم) के पीछे छोड़ दिये जो हतक आमेज़ फ़िक़रे भी आप (صلى الله عليه وسلم) पर कसते थे और पथराव भी करते थे जिससे आप (صلى الله عليه وسلم) के जिस्म अतहर और क़दम पर चोटें आईं के लहू बहने लगा। किसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) ने एक नख़्ल में पनाह ली जो शबीब इब्ने रबीआ और शैबा इब्ने रबीआ का था। यहां आप (صلى الله عليه وسلم) बहुत मुतफ़क्किर थे और इस नई सूरते हाल पर ग़ौर फ़रमा रहे थे के जब तक मक्के के किसी सरदार की हिमायत हासिल न हो, आप (صلى الله عليه وسلم) मक्के नहीं जा सकते और जिस तरह एहले ताईफ़ ने सुलूक किया था, अब वहां जाना भी नामुम्किन था, न ही इस बाग़ में बैठे रह सकते थे के वोह बाग़ भी दो काफ़िर भाईयों का था। शदीद दर्द की मायूस हालत में आप (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह तआला के आगे हाथ पूरे एैतमाद से हाथ उठाये और उसकी रज़ा तलब की, ये दुआ मांगी।

(एै अल्लाह में अपनी कमज़ोर ताक़त, कम सामानी और इंसानांे के आगे अपनी बेबसी की तुझ से शिकायत करता हूँ एै अरहमुर्राहिमीन तू कमज़ोरो का सहारा है तू मेरा रब है, तू मुझे किसके हवाले करता है वोह जो मुझ पर हमला करते हैं या वोह दुशमन जिनको तूने मेरे ऊपर हावी किया है। अगर तू मुझसे नाराज़ नहीं है तो मुझे कोई परवाह नहीं है। तेरी दी हुई आफ़ियत ही मेरे लिये बस करती है। मैं तेरे नूर की पनाह लेता हूँ जो तमाम अंधोरो को छाँट देता है। और सारी दुनिया की चीज़ों और आखि़रत की जिस में ख़ैर है, ताके तेरा नूर मुझ पर रहे न के तेरा ग़ज़ब और क़हर। तुझ पर ही मेरा भरोसा और सहारा है ताके तू मुझ से राज़ी हो। और तेरे सिवा कोई ताकत और कोई क़ुव्वत नहीं है।)

आप (صلى الله عليه وسلم) अलमुतअि़म इब्ने अ़दी की हिफ़ाज़त में मक्के वापिस तशरीफ़ लाये और जब मक्के वालों को एहले ताइफ़ के सुलूक का इल्म हुआ तो उनकी ज़्यादतियाँ और बढ़ गयीं अब वोह लोगों को आप (صلى الله عليه وسلم) से बात नहीं करने देते थे। इस तरह उन्होंने अपनी पकड़ दावते इस्लाम पर मज़बूत की। जब लोग आप (صلى الله عليه وسلم) से बात नहीं कर पा रहे थे तरे आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी तवज्जोह उन क़बाईल पर मरकूज़ की जो अ़रब के दूसरे हिस्सों से मौसम हज या दूसरे मौक़ौ पर मक्के आते थे लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा अ़ब्दुल उज़्जा इब्ने अ़ब्दुल मुत्तलिब यानि अबू लहब हमेशा आपके पीछे साये की तरह रहने लगा ताके वोह उन क़बाईल को आप (صلى الله عليه وسلم) से बात करने से रोक सके। अब आप (صلى الله عليه وسلم) ने इन क़बाईल से बात करने के लिये उनके खै़मों में जाना शुरू किया। इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) बनू कन्दी, बनू कल्ब, बनू हनीफ़ा और बनू आमिर इब्ने सअ़सा के क़बाइल से उनके ख़ैमों में जाकर मिले और इस्लाम की दावत रखी। इन तमाम क़बाइल का निहायत ना मुनासिब रवैया रहा। ख़ास तौर पर बनी हनीफ़ा ने बद सुलूकी की और सब ही ने आप (صلى الله عليه وسلم) को वापस कर दिया। बनू आमिर का मुतालबा था के वोह इस क़ीमत पर आप (صلى الله عليه وسلم) से बैअ़त करेंगे अगर उनकी मदद से फ़तह मिली तो आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद इक़्ितदार उनके क़बीले को मिले। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया के येह तो अल्लाह का मुआमिला है चाहे जिसे दे। इस तरह अहले मक्के, अहले ताइफ़ और यह क़बाइल इस्लाम की दावत को रद कर चुके थे, और जो क़बाइल बाहर से किसी काम से मक्का आते वोह भी मुसलमानों के इस तरह अ़लाहिदा पड़ने की वजह से इस्लाम से दूर रहते और यूं सूरते हाल अब्तर हो गई थी, इस्लाम की दावत देना मुश्किल होता जा रहा था, मक्के के लोग पूरी तरह उसको ठुकरा चुके थे, और उनकी हटधरमी, कुफ्ऱ की वजह से अब मक्के में दावत से बहुत कम उम्मीद बची थी।
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