मदीना मे यहूद और ईसाइयों के मबाहिस ओ मुजादले - 15

मदीना मे यहूद और ईसाइयों के मबाहिस ओ मुजादले - 15

गै़र मुस्लिमों को मुसलमानों की क़ुव्वत का अन्दाज़ा बहुत जल्द हो गया वोह येह जान रहे थे के मुसलमानों की कु़व्वत इस बात से है के येह इस्लाम की राह में बड़ी से बड़ी कु़र्बानी देने के लिये तैयार रहते हैं एैसे दिल जो इस्लाम के लिये अपने जान देने में दरेग़ नहीं करते मुसलमान अपने आमाल में एैसे मग़न हैं के येह सुबह होने पर शाम का और शाम होने पर सुबह का इन्तिज़ार नहीं करते, मुसलमान अपने दीन से खु़श हैं, उसके अहकाम नाफ़िज़ करते हैं उसका कल्मा बुलंद करते हैं और उसी में खु़श हैं, इस्लाम के दुशमनों को येह बात हज़म नहीं होती थी, इसके असरात सब से पहले मदीने के आस-पास के यहूदीयों में नज़र आये इस्लाम की तरफ़ लोगों का रुजहान और इस्लाम की ताक़त में तरक़्की, यह एैसी चीजें थी जिन से उन यहूद को मेहसूस हुआ और वोह इस्लाम और आप (صلى الله عليه وسلم) के हवाले से अपने मौक़िफ़ पर नज़्रे सानी करने लगे, यहूद इस बात पर शदीद बरहम थे के उनके ही कई लोग इस्लाम कु़बूल कर रहे थे और इस से यहूदियों को यह ख़तरा लाहिक़ हुआ के इस्लाम फैल कर उन पर ही न छा जाये, इस ग़र्ज़ से वोह इस्लाम, उसके अ़क़ाइद और अहकाम पर अमल करने लगे और येह हमले उन हमलों से ज़्यादा शदीद और साज़िशी थे जो मक्के के क़ुरैश किया करते थे यहूदियों के पास एैसे फ़िक्री जंग के लिये अस्लेहा भी काफ़ी था, साज़िशें, मक्र, निफ़ाक़, साबिक़ा अंबिया के हालात ओ वाक़िआत से उनकी वाक़्िफ़य्यत उनके कुछ पेशवा बज़ाहिर मुसलमान भी हुये, मुसलमानों में बैठते अपने तक़्वे का इज़्हार करते लेकिन उनके शुकूक और गै़र यक़ीनी भी अ़यां हो गई, येह लोग आप (صلى الله عليه وسلم) से इस ग़र्ज़ से सवालात करते के मुसलमानों का इस्लामी अ़क़ीदे से यक़ीन मांद पड़ जाये, औस ओख़ज़रज के कुछ और लोग जो उन्हीं की तरह मेहज़ बज़ाहिर इस्लाम लाये थे, इनका साथ देते थे ताके मुसलमान तज़बजुब और तरद्दुद का शिकार हों और इनमें दुशमनी और मुख़ासमत पड़ जाये, इस हक़ीकत के बावुजूद के आपस में मुआहिदे थे, एैसे मुजादले बसा औक़ात हाथा पाई की षक्ल इख़्तियार कर लेते थे उसकी एक मिसाल हज़रत अबू बक्र रज़ि0 की है जो एक निहायत मुदब्बिर दाना और सुलझी हुई तबीअ़त के हामिल थे। वाक़िआ़ येह हुआ के हज़रत अबू बक्र रज़ि0 ने फ़िनहास नामी एक यहूदी को अल्लाह का ख़ौफ़़ दिला रहे थे और इस्लाम की दावत दे रहे थे, उसने जवाब दिया के हम अल्लाह की तरह फ़क़ीर नहीं हैं बल्के वोह ख़ु़द फ़क़ीर है, हम उसके मोहताज नहीं हैं बल्के वोह हमारा मोहताज है, अगर वोह हमारा मोहताज नहीं होता तो हमसे क़र्ज़ नहीं मांगता जैसा के तुम्हारे नबी सल्ल0 बताते हैं उसने तुम पर तो सूद हराम कर दिया है और हमारे लिये हलाल किया है, अगर वोह हमारा मोहताज न होता तो हमें सूद क्यों देता, फ़िनहास दर अस्ल अल्लाह तआला के इस फ़रमान का हवाला दे रहा था।

مَنۡ ذَا الَّذِىۡ  ‌ؕيُقۡرِضُ اللّٰهَ قَرۡضًا حَسَنًا فَيُضٰعِفَهٗ لَهٗۤ اَضۡعَافًا ڪَثِيۡرَةً وَاللّٰهُ يَقۡبِضُ وَيَبۡصُۜطُ وَ اِلَيۡهِ تُرۡجَعُوۡنَ‏ ﴿۲۴۵﴾
कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे के वोह उसे उसके लिये कई गुना बढ़ा दे?(तर्जुमा मआनी र्कुआन: बकरा:245)

इस पर हज़रत अबू बक्र रज़ि0 से रहा न गया और उन्होंने यहूदी के मुंह पर तमांचा मार दिया के एै अल्लाह के दुशमन अगर हमारे आपस में मुआहिदा न होता तो मैं तेरा सर क़लम कर देता। इस तरह मुसलमानों और यहूदियों के दरमियान बहसें काफ़ी अर्से तक चलती रहीं। इस असना में नजरान से साठ ईसाइयों का एक वफ़द मदीने आया उन्हें यह इल्म रहा होगा के मदीने में मुसलमान और यहूदी आपस में भिड़े हुये हैं सो उनका मक़्सद था के किसी तरह इस बहस ओ मुबाहसे को इस्तेमाल करके मुसलमान और यहूदीयों में दुशमनी करदी जाये ताके फिर उस दीने क़दीम (यहूदियत) और दीने जदीद (इस्लाम) के मअ़रके से यह दोनों कमज़ोर हो जायें और ईसाईयत का बोल बाला हो जाये। यह वफ़्द नबी करीम सल्ल0 और यहूदियों से मिला, आप (صلى الله عليه وسلم) बहरहाल नसरानी और यहूदियों को अहले किताब ही मानते थे और दोेनों को ही इस्लाम की दावत देते और दोनों को अल्लाह तआला का यह पैग़ाम सुनाते थे ।

قُلۡ يٰۤـاَهۡلَ الۡڪِتٰبِ تَعَالَوۡا اِلٰى ڪَلِمَةٍ سَوَآءٍۢ بَيۡنَـنَا وَبَيۡنَڪُمۡ اَلَّا نَـعۡبُدَ اِلَّا اللّٰهَ وَلَا نُشۡرِكَ بِهٖ شَيۡـــًٔا وَّلَا يَتَّخِذَ بَعۡضُنَا بَعۡضًا اَرۡبَابًا مِّنۡ دُوۡنِ اللّٰهِ‌ؕ فَاِنۡ تَوَلَّوۡا فَقُوۡلُوا اشۡهَدُوۡا بِاَنَّا مُسۡلِمُوۡنَ‏ ﴿۶۴﴾

कहो एै अहले किताब हमारे और अपने दरमियान एक सीधी यकसां बात की तरफ़ आओ, येह के हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, और न उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ठेहरायें और न आपस में हम कोई एक दूसरे को अल्लाह से हटकर रब बनायें।
(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः आले इम्रानः आयतः 64)
यहूदी और ईसाईयों के इस सवाल के बारे में के आप (صلى الله عليه وسلم) अंबिया में से किसको मानते हैं आप (صلى الله عليه وسلم) अल्लाह का यह इरशाद सुनाते।
قُوۡلُوۡٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنۡزِلَ اِلَيۡنَا وَمَآ اُنۡزِلَ اِلٰٓى اِبۡرٰهٖمَ وَاِسۡمٰعِيۡلَ وَاِسۡحٰقَ وَيَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَمَآ اُوۡتِىَ مُوۡسٰى وَعِيۡسٰى وَمَآ اُوۡتِىَ النَّبِيُّوۡنَ مِنۡ رَّبِّهِمۡ‌ۚ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ اَحَدٍ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهٗ مُسۡلِمُوۡنَ‏ ﴿۱۳۶﴾
कहो हम ईमान लाये ख़ुदा पर और उस चीज़ पर जो हमारी तरफ़ उतरी और जो इब्राहीम अ़लै0 और इस्माईल अ़लै0 और इस्हाक़ अ़लै0 और याकू़ब अ़लै0 और उनकी औलाद की तरफ़ नाज़िल हुई और जो मूसा अ़लै0 और जो ईसा अ़लै0 को मिली और जो तमाम नबियों को उनकी रब की तरफ़ से अ़ता हुई हम उनमें से किसी को उस तअ़ल्लुक़ से जो उनमें पाया जाता है अलग नहीं करते और हम सिर्फ़़ उसी के फ़रमांबरदार हैं।
(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः बक़राः आयतः 136)
अब उनके पास केहने को और न रह जाता उनके कु़लूब इस हक़ीक़त को समझते थे लेकिन वोह ईमान नहीं लाते थे क्योेंके एैसा करने से उनकी का़ैम में उनके शर्फ़ का मुक़ाम ख़त्म हो जाता येह बात उनमें से बाज़ ने तस्लीम भी की मसलन नजरान के वफ़्द एक शख़्स अबू हारिसा जो उस वफ़्द में अपने इल्म ओ मरतबे में बुलंद पाये का था उससे जब उसके एक साथी ने सवाल किया के अब तुम्हें क्या बात इस्लाम कु़बूल करने से रोक रही है? तो उसने कहा जिस तरह रूमियों ने हमें माल इज़्ज़त और एैज़ाज़ से नवाज़ा है और हमें इसकी (इस्लाम की) मुख़ालफ़त करने को कहा है अगर हम उसे तस्लीम कर लें तो वोह (नस्रानी रूमी) हम से येह सब छीन लेंगे। इससे येह अच्छी तरह साबित होता है के जो चीज़ उन्हें इस्लाम कु़बूल करने से रोक रही थी वोह उनका अपना ज़ाती मफ़ाद और अपनी हटधर्मी थी। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने ईसाइयों को कुऱ्आन हकीम की येह आयत सुनाईं और एक मुबाहिले की दावत दी।
فَمَنۡ حَآجَّكَ فِيۡهِ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ الۡعِلۡمِ فَقُلۡ تَعَالَوۡا نَدۡعُ اَبۡنَآءَنَا وَاَبۡنَآءَڪُمۡ وَنِسَآءَنَا وَنِسَآءَڪُمۡ وَاَنۡفُسَنَا وَاَنۡفُسَڪُمۡ ثُمَّ نَبۡتَهِلۡ فَنَجۡعَل لَّعۡنَتَ اللّٰهِ عَلَى الۡڪٰذِبِيۡنَ‏ ﴿۶۱﴾
अब इसके बाद के तम्हारे इल्म आचुका है, कोई तुमसे हुज्जत करे तो केहदो, और हम अपने बेटों को बुला लें और तुम अपने बेटोें को बुला लो, और हम अपनी औरतों को बुलालें और तुम अपनी औरतों को, और हम अपने आपको और तुम अपने आप को ले आओ, फिर मिलकर दुआ करें और झूटों पर अल्लाह की लअ़न्त भेजें।
(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः आले इम्रानःआयतः 61)

इस वफ़्द ने आपस में मशवरा किया के और कहा के हम आप (صلى الله عليه وسلم) से मुबाहिला करना नहीं चाहते, आप (صلى الله عليه وسلم) अपने दीन पर क़ायम रहें और हम अपने दीन पर, साथ ही यह अर्ज़ की के आप (صلى الله عليه وسلم) उनके साथ किसी एैसे शख़्स को भेज दें जो उनके (ईसाइयों के) दरमियान माली मुआमिलात में इख़्तिलाफ़ की सूरत में फै़सला कर सके, चुनाँचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत अबू उ़बैदा इब्ने जर्राह रज़ि0 को उस वफ़्द के साथ किया के वोह ईसाइयों के माली मुआमिलात में इस्लाम के मुताबिक़ फै़सले करें।
इस तरह इस्लाम की दावत, अफ़्कार की क़ुव्वत और मुस्तहकम इस्तिदलाल, यहूद नसारा और मुनाफ़िक़ीन के बातिल मुबाहिसों पर ग़ालिब आया और तमाम बातिल तफ़क्कुरात ज़ाइल होकर सिर्फ़़ इस्लाम ही अच्छे सही मब्दा से हावी रहा, लोग उसी की बात करते उसी की दावत देते हत्ता के इस्लाम ही की फ़िक्र रही और उसी की हुकूमत, अल्बत्ता मुनाफ़िक़ीन और यहूद के कु़लूब मुसलमानों के लिये नफ़रत और कीना से भरे रहे। इस तरह वोह फ़ौजी मुहिम्मात जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने भेजी थीं उनके नतीजे में यह बीमार ज़ेहन लोग सुकूत पर मजबूर हो गये और इस्लाम का कलमा बुलंद हुआ मदीने और उसके आस पास इस्लाम के दुशमनों ने या तो ख़ामोशी इख़्तियार की या ख़ुद को इस्लामी हुकूमत के मातेहत कर लिया ।
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.