दावत के दो मराहिल - 6

दावत के दो मराहिल - 6

मक्के में आप (صلى الله عليه وسلم) दावत के दो मराहिल से गुज़रेः पहला मरहला तालीम, फ़िक्री और रूहानी तर्बियत यानी (culturing) का मरहला और दूसरा दावत को फैलाने, उसके लिये जिद्दो जुहद ओेर कशमुकश का। पहला दौर इस्लामी अफ़्कार की समझ पैदा करने, उन अफ़्कार को मुसलमानों में पैकर करने और मुसलमानों की जमाअ़त को उन अफ़्कार पर तश्कील देने का मरहला-दूसरे मरहले में येह उन अफ़्कार को एक मुहर्रिक क़ुव्वत के तौर पर मुआषरे तक पहुंचाने का ताके वोह ज़िन्दगी हर मुआमले में नाफ़िज़ हो सकें, क्योंके बहरहाल जब तक येह अफ़्कार दावत के ज़रिये मुआषरे में मुनफ़्फ़ज़ न हों वोह मेहज़ बे जान मालूमात की हैसिय्यत रखती हैं जिन की अपनी कोई क़ुव्वते दाफ़ेआ न हो। और एैसी मालूमात चाहे किताबों में हों या इन्सानी दिमाग़ों में बहरहाल वोह मदफ़ून ही रहेेगी ता वक़्तेके उसको मुआ़शरे में अ़मली किरदार न हो, और एैसे अफ़्कार की कोई अ़मली क़ीमत नहीं होती। किसी अफ़्कार को एक एैसे मरहले से गुज़रना पड़ता है जिसमें वोह अफ़्कार मेहज़ फ़िक्र न रहकर मुआषरे में एक जानदार क़ुव्वते दाफ़ेआ और मुहर्रिक बन जाये जिसे लोग अपनायें, उसके सच और हक़ होने की शहादत दें, उसको फैलायें और उसके नाफ़िज़ होने की जिद्दो जुहद करें, इसी फ़ितरी तरीक़े से उन अफ़्कार का निफ़ाज़ यक़ीनी और क़त्ई बनाया जा सकता है आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्के में इसी उसलूब पर मेहनत की और इन्हीं दो मराहिल से गुज़रे। पहले मरहलेे में आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्के में दावते इस्लाम रखी, दावत के मानने वालों की फ़िक्री तर्बियत की और उसके अहकाम की तलक़ीन की, येह मरहला एक ख़ुफ़ि़या मरहला था जिस में आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लाम के मानने वालों की दारे अरक़म में या किसी पहाड़ की वादी में या फिर उन्हीं के घरों में कुछ लोंगों के हलक़े बनाकर किसी को भेज देते ताके उन लोगों की उस ख़ास नेहज़ पर तर्बियत हो सके, येह सब कार्रवाई राज़दाराना तौर पर होती थी इसी तरह उन हल्कों में शामिल मुसलमानों के ईमान इस्लामी अ़क़ाइद पर रोज़ बरोज़ क़वी तर होते, आपसी तअ़ल्लुक़ात मज़्बूत होते और अपनी मुहिम जो उन्हें दरपेश थीं, उसका इदराक उन पर अ़याँ होता रहता, येह हर क़ुर्बानी के लिये तैयार रहते ताके दावत उनके नुफ़ूस की गहराईयों में घर कर ले।

यह जमाअ़त एैसी थी के उनमें इस्लाम पैकर था यह सरापा इस्लाम का नमूना थे। अब इस जमाअ़त की राज़दाराना नौईयत कोशिश के बावजूद क़ैद नहीं रह सकती थी और यह अपनी जमाअ़त को राज़ में रखने की हर मुम्किन कोशिश करते थे। यह लोग जिस किसी पर एैतेमाद होता, या जिस किसी में दावत की क़ुबूलियत की इस्तेदाद देखते, उससे इस्लाम की बात करते जिस से लोगांे को इस दावत और इस जमाअ़त के वुजूद का शुऊ़र हुआ। यह दावत का नुक़्ता ए इब्तेदा था। अब बात बाहर आ चुकी थी पहले मरहले का फ़ितरी इख़्तेताम जिसमें एक जमाअ़त तशकील पाई और कुदरती अम्र था के यहां से दावत का आग़ाज़ हो। यहां से येह होना ही था के इस्लाम की दावत अपने दूसरे मरहले में दाखि़ल हो जिसमें कशमकश और जिद्दो जुहद थी लोगों को इस्लाम समझाना था जिनमें से बाज़ ने मुस्बत मानते हुये क़ुबूल किया और इस जमाअ़त में शामिल हो गये और बाज़ ने उसे रद किया जिन से अब तसादुम और टकराव की हालत थी। फिर यह टकराव तो ज़रूरी था ही क़बल इसके के बातिल अफ़्कार ख़त्म हों और इनकी जगह हक़ और हिदायत की रौषनी ले। क्योंके इंसानी अक़्लें कितनी ही हट धर्मी क्यों ना करें सही फ़िक्र के आगे कितने ही दरवाज़े क्यों न बंद कर लें बहरहाल सही फ़िक्र की ताक़त हावी ही होती ही है। अब यह दूसरा दौर था जहां मअ़र्का आराई थी, एक फ़िक्र का दूसरी फ़िक्र से तसादुम और मुसलमान का काफ़िर से टकराव था। हुजुर अकरम सल्ल0 अपने सहाबा रज़ि0 के साथ निकले और इस तरह के पहले अ़रबों ने कभी एैसा बा नज़्म मंज़र न देखा था। उन्होंने कअ़बे का तवाफ़ किया और अपनी दावत का एैलाने आम लोगों में, वाज़ेह सरीह और एक चैलेंज की षक्ल में किया।
अब क़ुरआनी आयात नाज़िल हुईं जिनमें अल्लाह सुबहानहु व तआला की वहदानियत का ज़िक्र था, कुफ्ऱ और बुत परस्ती की मलामत थी और उन लोगों पर हमला था जो आबाओ अज्ददाद की अंधी पैरवी करते थे। वोह आयात आप (صلى الله عليه وسلم) पर नाज़िल हुईं जिनमें मुआषिरे में पहले फ़ासिद मुआमिलात पर हमला किया गया जैसे सूद का लेन-देन और नाप तौल में कमी बेशी आप (صلى الله عليه وسلم) बयक वक़्त कुछ लोगांे की एक जमाअ़त से मुलाक़ात करते, अपने क़रीबी अज़ीज़ों को घर बुलाते खाने की दावत करते और इस्लाम की तरफ़ रग़बत दिलाते, लेकिन वोह लोग इस सब को रद करते रहे। अब आप (صلى الله عليه وسلم) ने क़ुरैश को सफ़ा की चोटी पर बुलाया और इस्लाम का पैग़ाम दिया जिसको सब रद कर दिया ख़ास कर अबू लहब ने बड़ी शिद्दत से रद किया। इसके बाद अहले इस्लाम की एक और क़ुरैश और दीगर अ़रबों से दूसरी तरफ़ मुख़ासिमत गेहरी हो गई। लेकिन इस वाक़िये से एक बात येह भी हुई के जो इस्लाम अब तक लोगांे के घरों में हल्क़ों की षक्ल में या पहाड़ों के दामन में या दारे अर्क़म में छुप-छुप कर सीखा और सिखाया जा रहा था वोह इस वाक़िये से मंज़रे आम पर आ गया। इस ग़ैर ममूली तब्दीली से जो बात अब तक कुछ ख़ास लोगों को बताई जा रही थी जो इस्तेदादे क़ुबूलियत रखते थे, अब हर एक को दावत दी जाने लगी और इससे जैसे-जैसे क़ुरैश को दावत के ख़तरात नज़र आते गये, मुख़ासिमत बढ़ती गयी।

अब क़ुरैश ने मेहसूस किया के इस दावत से सर्फे़ नज़र नहीं किया सकता और वोह एैसे इक़दामात करने लगे जिनसे इस्लाम का सद्दे बाब किया जा सके। इस तरह आम दावत का असर भी मुख़्तलिफ़़ हुआ और दावत मक्के में फैल गई, हर एक दिन कोई न कोई इस्लाम के दायरे में दाखि़ल होता जिन में ग़रीब महरूम और मज़लूम भी होते, शुरफ़ा-ए-मक्का भी और ताजिर भी, एैसे ताजिर जिन की तिजारत उन्हें हक़ शनासी से और आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत से न रोक पाती यह वोह लोग थे जिनके नफ़्स, तहारत, पाकीज़गी, सच्चाई और दानाई से भरे थे। यह शरीफुन-नफ़्स ख़ुद की अपनी बेजा ज़िद और सरकशी को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते थे और जैसे ही अल्लाह के दीन की दावत और इसका हक़ होना इन नेक तबअ़ नुफूस पर आशकारा हुआ, उन्होंने फ़ौरन लब्बैक कहा। इनमें मर्द भी थे और औरतें भी। हालांके आम दावत की वजह से मुसलमानों को बड़ी मशक्कतें भी झेलना पड़ी ताहम इस के ज़रिये बहुत ज़्यादा लोगों तक इस्लाम का पैग़ाम पहुँच पाया और बड़े मुअस्सिर नताईज मुरत्तब हुये। इस कामयाबी ने अहले क़ुरैश को बहुत ग़ज़बनाक बना दिया और उनके दिल खौलने लगे। हुज़ुर सल्ल0 ने बग़ैर तवक़्क़ुफ़ के एक मुसलसल महाज़ खोल रखा था जिसमें वोह मक्के की आम बुराईयों जैसे ना इंसाफी, संगदिली, और इंसानी ख़रीद ओ फ़रोख़्त और ग़ुलामी की रस्मों को वाज़ेह और सरीह अंदाज़ में उनकी ख़बासत को बे नक़ाब किया था।

येह एक निहायत ही शदीद और पुरतशद्दुद मरहले की इब्तेदा थी, एक तरफ़ आप (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा-ए-किराम रज़ि0 और दूसरी तरफ़ कुफ़्फ़ारे मक्का। हालांके अम्रे वाके़ यह है के दावत का दूसरा मरहला यानि मरहला तफ़ाउ़ल निहायत सख़्त और सब्र आज़मा होता है क्योंके इसमें नताइज और हालात से बे परवाह होकर अपनी बात सरीह तौर पर केहना होती है लेकिन पहले और दूसरे मरहले के दरमियान का दौर एक बहुत ही नाज़ुक दौर होता है, के इस में सब्र के साथ दानाई मामला संजी और बारीक बीनी से काम लेना पड़ता है, जिसके लिये मुसलमानों को पहले दौर में तर्बियत दी गई थी। इस दरमियानी मुद्दत में कुफ़्फ़ार से पहला-पहला साबक़ा पड़ता है और मुसलमान के लिये, उसके ईमान के लिये एक सख़्त इम्तिहान होता है। अब आप (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा ए किराम रज़ि0 ने इस दर्मियानी मरहले में एैसे ज़ुल्म तअ़ज़ीब और जब्र की आज़माइशों को बर्दाश्त किया जो एक पहाड़ को भी मुतज़लज़ल कर देती। इस दौरान बाज़ सहाबा रज़ि0 ने हबषा की तरफ़ हिज़रत की, बाज़ और इन मज़ालिम और जब्र के सहते-सहते शहीइ हो गये और बाज़ येह सब सऊ़बतें बर्दाश्त करते रहे और अपनी दावत में इस्तेक़ामत से लगे रहे हत्ता के मक्के की ज़ुल्मात छठीं और नूरे इस्लाम से मक्का भी बिल्-आखि़र मुतअस्सिर हुआ। इस हक़ीक़त के बावजूद के आप (صلى الله عليه وسلم) दारे अर्क़म में निहायत राज़दारी से लगातार तीन साल तक मुसलमानों की फ़िक्री तर्बीयत में लगे रहे मज़ीद आठ साल तक आप (صلى الله عليه وسلم) को अहले कुफ्ऱ के साथ जिद्दो जुहद और कशमुकश करना पड़ी और अपनी नबुव्वत के सुबूत के तौर पर मोजिज़ात दिखाने पड़े क़ुरैश ने मुसलमानों को कभी चैन से बैठने न दिया और न ही अपनी जंग में ज़रा सुस्ती आने दी के मुसलमान कुछ राहत पा लें।

बहरहाल इस तफ़ाउ़ल की बदौलत और हज के क़ाफ़िलों के ज़रिये जज़ीरा नुमाये अ़रब में इस्लाम की दावत की ख़बर फैल चुकी थी और अ़रब में इस का चर्चा आम हो गया था। लेकिन येह अ़रब क़बाइल मेहज़ तमाशबीन बने हुये थे और दावत की क़ुबूलियत में एक क़दम भी आगे न बढ़ाया था, क्योंके येह क़बाइले अ़रब बहरहाल क़ुरैश से मुख़ासिमत मोल लेना नहीं चाहते थे। अब एक तरफ़ तो आप (صلى الله عليه وسلم) येह मुशाहिदा कर रहे थे के क़ुरैश की हटधर्मी के थमने के कोई आसार नहीं हैं और दूसरी तरफ़ येह के इस्लाम को हर हाल में ग़ालिब होना ही है। लेकिन चूंके क़ुरैश अब भी इस्लाम को रद कर रहे थे इसलिये येह इम्कान ही नहीं था के इस्लाम मक्के में नाफ़िज़ हो सके। मज़ीद यह के अहले मक्का के मज़ालिम इस बात में मानेअ़ थे के मुसलमान दावत के काम को और फैलायें, फिर क़ुरैश के मुसलसल इंकार ने मुसलमानों के ज़ख़्मों पर नमक का काम किया था और आज़माइश और मसाइब में इज़ाफ़ा ही हुआ था। अब यह सूरतेहाल किसी तरह मुसलमानों को क़ुबूल न थी क्योंके इस तरह उस तीसरे मरहले यानि मरहले जिस में इस्लाम नाफ़िज़ हो, दाखि़ला मुम्किन न था, चुनांचे अब वक़्त आ गया था के इस जमूद और थमी हुई सूरतेहाल को बदल डाला जाये।
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