ग़ज़वा-ए-मुअता - 22

ग़ज़वा-ए-मुअता - 22

मुख़्तलिफ़़ बादशाहों से जो ख़ुतूत के जवाबात आये तो हुज़ूर सल्ल0 ने सुफ़रा के लौटने के बाद ही जज़ीरानुमा-ए-अ़रब के बाहर दावत को आम करने के लिये जिहाद की ग़र्ज़ से एक फ़ौज की तशकील देना शुरू कर दिया था। इस मक़्सद से आप (صلى الله عليه وسلم) फ़ारिस और शाम की ख़बरों पर नज़र रखा करते थे, मुल्क शाम की क्योंके हुदूद मिली हुई थी इसलिये ख़बरों पर नज़र रखी जाती थी। आप (صلى الله عليه وسلم) येह देख रहे थे के दावते इस्लाम जज़ीरानुमा-ए-अ़रब से निकल कर जब लोगों को मालूम होगी तो खूब़ फैल सकेगी, और यह के मुल्क शाम ही से यह सिल्सिला शुरू होगा। किसरा के यमन में साबिक़ा आमिल बाज़ान की तरफ़ से इतमिनान था क्योंके वोह पहले ही इस्लाम कुबूल कर चूके थे लिहाज़ा अब आप (صلى الله عليه وسلم) ने शाम की जानिब फ़ौज भेजने का इरादा किया, चुनांचे जमादिल अव्वल 8 हि़ यानी उ़मरा ए क़ज़ा के चन्द ही माह बाद मुसलामनों के तीन हज़ार बेहतरीन सिपाहियों की फ़ौज तशकील की गई जिस की क़यादत हज़रत जै़द इब्ने हारिसा रज़ि0 को सोंपी और फ़रमायाः
إن أصيب زيدٌ فجعفر إبن أبي طالب على الناس فإن أصيب جعفر فعبدالله إبن رواحة على الناس   
अगर हज़रत जै़द रज़ि0 ज़ख़्मी हो जायें तो हज़रत जाफ़र इब्ने अबीतालिब रज़ि0 क़ियादत करें और अगर जाफ़र रज़ि0 भी ज़ख़्मी हो जायें तो हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने रवाहा रज़ि0 क़यादत करेंगे।

फ़ौज रवाना हुई, उसमें ख़ालिद इब्ने वलीद रज़ि0 भी शामिल थे जो सुलेह हुुदैबिया के बाद इस्लाम में दाखि़ल हुये थे, हुज़ूर अकरम सल्ल0 फ़ौज को भेजने के लिये मदीने के बाहर तक साथ आये और उन्हें नसीहत फ़रमाई के वोह औरतों और बच्चों और नाबीनाऔं को ना मारें, घरों को मिस्मार न करें और दरख़त न काटें, फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ौज के साथ दुआ कीः

صبحكم الله و دفع عنكم و رد إلينا سالمين
अल्लाह तम्हारे साथ है वही तुम्हारी हिफ़ाज़त फ़रमायेगा और तुमहें बा हिफ़ाज़त हमारे पास वापस लायेगा।

यह फ़ौज रवाना हुई और उसके क़ाइद जंग के लिये अपना मन्सूबा तय करने लगे और तय किया के जिस तरह हुजू़र सल्ल0 का मामूल था के अचानक हमला करते थे, यह फ़ौज भी उसी हिक्मते अ़मली को इख़्तियार करेगी। जब यह फ़ौज शाम में मअ़न के मुक़ाम पर पहुंची तो ख़बर मिली के हिरक़्ल का मुक़ामी वाली मालिक इब्ने ज़ाफ़िला अ़रब क़बाइल से जमा एक लाख सिपाहियों की फ़ौज के साथ मुक़ाबिला को तैयार है और ख़ुद हिरक़्ल मज़ीद एक लाख सिपाही साथ लाया है। मुसलमानों ने दो रातों तक मअ़न में ही क़याम किया और यह सोचते ही रहे के वोह चंद सो सिपाही इस क़दर बडी़ तादाद के मुक़ाबले में किया कर पायेंगे। आम ख़्याल यह था के हुजू़र अकरम सल्ल0 को मुरासिला भेजकर दुशमन की तादाद बताई जाये के मुम्किन है के वोह मदद् भेजेंगे या कोई और हुक्म दें, लेकिन हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने रवाहा रज़ि0 ने लोगों को मुख़ातिब करके फ़रमायाः एै लोगो क्या तुम्हें वोह चीज़ ही मुशकिल लग रही है जिसके लिये हम घरों से निकले हैं?.......शहादत, हम दुषमन से कुव्वत या तादाद के दम पर नहीं लड़ते बल्के उस दीन के दम पर लड़ते हैं जिस से अल्लाह जल्ला जलालुहू ने हमें नवाज़ा है, लिहाज़ा निकलो, हमारे लिये दोनो ही रास्ते अच्छे हैं ......फ़तह या शहादत। लोगों के दिल क़ुव्वते ईमानी से ताज़ा हो गये और उनमें हिम्मत हो गई।

फ़ौज रवाना हुई और आगे बढ़ती हुई मशारिफ़ के मुक़ाम पर पहुंची जहां रूमी फ़ौज की एक जमाअ़त मौजूद थी। चुनांचे मुसलमान फ़ौज वहां से हटकर मुअता के मुक़ाम को पहुंची और पड़ाव डाल दिया। यहीं रूमीयों से जंग शुरू हुई जो निहायत खूंरेज़ और शदीद थी जिसमें बे पनाह ख़ूून बहा और लोग हलाक हुये। येह जंग मेहज़ तीन हज़ार मुसलमानों ने जो सिर्फ़ शहादत चाहते थे, दो लाख रूमीयों से लड़ी जो मुसलमानों का काम तमाम करने आये थे, मअ़रिके के आग़ाज़ में हज़रत जै़द इब्ने हारिसा रज़ि0 ने इस्लाम का परचम उठाया और आगे बढ़कर एैन दुशमन के बीचों-बीच घुस गये, वोह अपने सामने मौत को देख रहे थे लेकिन उस से डरे नहीं थे क्योंके येह तो अल्लाह जल्ला जलालुहू के रास्ते में शहादत थी, हज़रत ज़ैद इब्ने हारिसा रज़ि0 एैसी जुर्रत से आगे बढ़े जो तसव्वुर नहीं की जा सकती थी, यहां तक के दुशमन का एक तीर आकर उनके जिस्म को चीरता हुआ निकल गया और वोह शहीद हो गये, इसके बाद हज़रत जाफ़र इब्ने अबी तालिब रज़ि0 ने परचमे क़यादत संभाला जो अभी मेहज़ तैंतीस साल के बहादुर और ख़ूब षक्ल जवान थे।

वोह बड़ी बहादुरी से दुशमन की सफ़ों में चले गये यहां तक के दुशमन ने उनके घोड़े को घेरकर ज़ख़्मी कर दिया, हज़रत जाफ़र रज़ि0 घोड़े से उतर कर सिर्फ़ अपनी तलवार से लड़ते रहे, एक रूमी सिपाही ने एक कारी ज़र्ब लगाकर जिस्म के टुकड़े कर दिये, हज़रत जाफ़र इब्ने अबी तालिब रज़ि0 की शहादत के बाद हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने रवाहा रज़ि0 ने परचम उठाकर फ़ौज की क़यादत संभाली और क़दरे तरद्दुद के बावुजूद आगे बढ़ते रहे और शहीद कर दिये गये। इसके बाद साबित इब्ने अक़रम ने परचम उठाकर लोगों से कहाः एै लोगो एक शख़्स के गिर्द जमा हो, जाओ फ़ौज हज़रत ख़ालिद इब्ने वलीद रज़ि0 के गिर्द जमा हो गई, हज़रत ख़ालिद इब्ने वलीद ने परचम संभाला और फ़ौज का दौरा करके उनकी मुनासिब सफ़ बंदी की और थोड़ी बहुत झड़पें होती रहीं। फिर षब के वक़्त दोनों फ़ौजें सुब्ह तक के लिए पीछे हट गयीं। इस रात को हज़रत ख़लिद इब्ने वलीद ने एैसा मन्सूबा तैयार किया जिससे बगै़र क़िताल के मज़ीद जंग से बच जाए, क्योंके दुशमन एक बहुत ही बड़ी ताक़त लेकर सामने था।

इस हिक्मते अ़मली के बमौजब उन्होंने अपनी फ़ौज की ख़ासी तादाद को पाबन्द किया के वोह अ़लस्सुबहे पीछे हटकर कुछ दूर चले जायें और शोर करते हुये आगे बढ़ें, इससे दुशमन को लगेगा के अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने मजी़द कुमक भेज दी है। जिससे वोह बोखला गये लेकिन अब हज़रत ख़ालिद इब्ने वलीद रज़ि0 ने हमला नहीं किया जैसी के उनकी हिक्मती अ़मली थी, इससे दुशमन को इतमिनान हुआ। उधर हज़रत ख़ालिद इब्ने वलीद रज़ि0 अपनी फ़ौज को लेकर मदीना लौट गये, यूं इस मन्सूबे की बदौलत मुसलमान न जंग जीते और न हारे लेकिन एक कारनामा अंजाम दिया।

फा़ैज की पूरी क़यादत और तमाम बहादुर फ़ौजी मौत को मेहसूस कर रहे थे बल्के अपने सामने देख रहे थे, लेकिन फिर भी उन्होंने दुशमन का डटकर मुक़ाबला किया और क़त्ल भी हुये क्योंके इस्लाम एक मुसलमान को यही हुक्म देता है के वोह अल्लाह सुबहानहू व तआला की राह में जिहाद करे यहां तक के या वोह ख़ु़द क़त्ल हो जाये या दुशमन को हलाक कर दे, और येह के येह सौदा नफ़ा का सौदा है क्योंके अल्लाह सुबहानहू व तआला की राह का सौदा है अल्लाह जल्ला जलालुहू का फ़रमान हैः

اِنَّ اللّٰهَ اشۡتَرٰى مِنَ الۡمُؤۡمِنِيۡنَ اَنۡفُسَهُمۡ وَاَمۡوَالَهُمۡ بِاَنَّ لَهُمُ الۡجَــنَّةَ‌ ؕ يُقَاتِلُوۡنَ فِىۡ سَبِيۡلِ اللّٰهِ فَيَقۡتُلُوۡنَ وَ يُقۡتَلُوۡنَ‌وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقًّا فِى التَّوۡرٰٮةِ وَالۡاِنۡجِيۡلِ وَالۡقُرۡاٰنِ‌ ؕ وَمَنۡ اَوۡفٰى بِعَهۡدِهٖ مِنَ اللّٰهِ فَاسۡتَـبۡشِرُوۡا بِبَيۡعِڪُمُ الَّذِىۡ بَايَعۡتُمۡ بِهٖ‌ ؕ وَذٰ لِكَ هُوَ الۡفَوۡزُ الۡعَظِيۡمُ‏ ﴿۱۱۱﴾

बिलाशुबह अल्लाह तआला ने मुसलमानों से उनकी जानों को और उनकी मालों को इस बात के एवज़ ख़रीद लिया है के उनको जन्नत मिलेगी, वोह लोग अल्लाह की राह में लड़ते हैं जिस में क़त्ल करते हैं और क़त्ल किये जाते हैं, इसपर सच्चा वादा किया गया है तौरेत में और इंजील में और कुऱ्आन में और अल्लाह से ज़्यादा अपने अ़हद को कौन पूरा करने वाला है। (तजुर्मा मआनी कुऱ्आन करीमः तौबाः 111)

इसी ग़र्ज़ से येह फ़ौज लड़ती थी हालांके मौत यक़ीनी थी मुसलमान को जब कोई और राह न बचे तो वोह लड़ने से पीछे नहीं हटता, ख़्वाह मौत यक़ीनी हो या न हो, जिहाद और क़िताल में मुआमिला की नाप-तौल का मेअ़यार दुशमन की ताक़त या तादाद नहीं होता बल्के इस से क़ता नज़र जिहाद से हासिल होने वाले नताइज पेशे नज़र होतेे हैं चाहे उनमें जानी नुक़्सान कुछ भी हो। मुअता की जंग में सूरते हाल येह थी के मुसलमानों को बहरहाल येह लड़ाई तो लड़ना ही थी ख़्वाह फ़ौज की क़यादत की नज़र में सामने कितनी ही ख़ून से लथ पथ लाशें हों। फिर मुसलमान अल्लाह अ़ज़्ज़ा व जल के रासते में किसी भी शै को ख़ातिर में नहीं लाता और न मौत को अहमियत देता है। हज़रत नबी करीम सल्ल0 इससे अच्छी तरह वाक़िफ़ थे के रूमियों से उन्हीं की हुदूद में जाकर लड़ने में किस क़दर ख़तरात का सामना है, लेकिन बहरहाल रूमियों को येह जता देना ज़रूरी था के मुसलमान किस क़दर बहादुरी और दिलेरी से लड़ते हैं चाहे उनकी तादाद कितनी ही क़लील ही हो। इसी तरह उनको मुसलमानों के दबदबे और रोअ़ब से आगाह किया जा सकता था, येह ख़तरा तो मोल लेना ही था के आइंदा जिहाद का रास्ता खुले जिस से इस्लाम की दावत उन इलाक़ों में फैलाई जा सके जो मुसलमान फ़तह करने वाले थे, नीज़ येह भी के यही मअ़रका जंगे तबूक का पेशे खै़मा बना और उसी जंग में मुसलमानों की हिकमते अ़मली से मुक़ाबला आराई से रूमी दहशत ज़दा हुये और बिल-आखि़र शाम की फ़तह हासिल हुई।
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