दावते इस्लामी की मुख़ालिफ़त - 4

दावते इस्लामी की मुख़ालिफ़त - 4

जब हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) दीने इस्लाम की दावत के साथ मबऊ़स हुये तो लोगों में आप (صلى الله عليه وسلم) और इस दावत का आम चर्चा होने लगा लेकिन क़ुरैश ने इस सूरते हाल को यह सोच कर नज़र अन्दाज़ किया के आम दानिश्वरों की गुफ़्तगू की तरह यह दावत भी अपना असर ख़ुद खो देगी और लोग दोबारा अपने आबाई दीन की तरफ़ लौट आयेंगे। इसी वजह से वोह एक मुद्दत तक उस दावत को नज़र अन्दाज़ करते रहे बल्के आप (صلى الله عليه وسلم) जब क़ुरैश की मजालिस के क़रीब से गुज़रते तो यह लोग केहते वोह देखो वोह अ़ब्दुल मुत्तलिब का बेटा जा रहा है जो आसमानी बातें करता है। लेकिन एक थोड़ी सी मुद्दत गुज़रने के बाद जब क़ुरैश ने इस दावत में अपने लिये ख़तरा मह्सूस किया तो फिर मुख़ालिफ़त की ठान ली, इब्तिदा में यह मुख़ालिफ़त रिसालत के दावे पर तज़हीक और तज़लील तक मह्दूद रही फिर उन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) को चैलेंज किया के अगर आप (صلى الله عليه وسلم) सच्चे हैं तो अपने दावे की तस्दीक़ के लिये कोई मोजिजा़ दिखायें यह भी केहते के इन्हें क्या हुआ है यह सफ़ा और मरवा की पहाड़ियों को सोने में क्यों तब्दील नहीं कर देते? जिस किताब की यह बात करते हैं यह क्यों नहीं लिखी हुई षक्ल में आस्मान से उतरती? जिब्रील जिनकी बातें यह किया करते हैं हमें नज़र क्यों नहीं आते? यह क्यों मुर्दों को ज़िन्दा नहीं करते? मक्के के अतराफ़ जो पहाड़ हैं उन्हें यह क्यों नहीं हटा देते, यह जानते हैं के हम लोगों को पानी की कितनी क़िल्लत रहती है फिर क्यों ज़म-ज़म से मीठे पानी का ज़रिया नहीं निकालते? उन्हें क्यों अशया की वोह कीमतें वही के ज़रिये नहीं बताई जातीं जो मुस्तक़बिल में होगी ताके हम अभी से मालूम होने की वजह से उन क़ीमतों से कोई फ़ायदा हासिल कर लें? इस तरह क़ुरैश आप (صلى الله عليه وسلم) की और इस्लाम की दावत का मज़ाक़ उड़ाया करते, कभी हतक आमेज़ बातों से, कभी तौहीन, से और कभी तन्ज़ से लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) अपने मक़्सद से ज़रा भी नहीं डगमगाये और लोगों को अपनी दावत देने पर इस्तिक़ामत से डटे रहे। आप (صلى الله عليه وسلم) उन बुतों की इ़बादत करने वालों को अ़क़्ल की दावत देते और समझाते के किस क़दर सत्हुज़-ज़ेहनी की अ़लामत है के उन बुतों की इ़बादत की जाये और उन से उम्मीदें बान्धी जायें, अब यह क़ुरैश की क़ुव्वते बर्दाश्त से बाहर हो रहा था, उन्होंने हर क़िस्म के वसीले अपनाये जो उन्हें मुहैय्या थे के आप (صلى الله عليه وسلم) को इस दावत से बाज़ रख पायें लेकिन बे सूद, क़ुरैश ने दावत की इस मुख़ालिफ़त में जिन वसाइल को इस्तेमाल किया वोह हैंः1) तअ़ज़ीब 2) अन्दुरूनी तौर पर और बेरूनी तौर पर दावत केे खि़लाफ़ परौपैगन्डा और 3) मुक़ातिआ

जहाँ तक तअ़ज़ीब की बात है तो आप (صلى الله عليه وسلم) को बावुजूद उनके अपने क़बीले की और अपने अस्हाब की हिमायत के तअ़ज़ीब झेलना पड़ी, आले यासिर को सिर्फ़ इसलिये यह तअ़ज़ीब झेलना पड़ी ताके वोह अपने आबाई दीन की तरफ़ लौट आयें लेकिन उन मसाइब ने उनके ईमान और साबित क़दमी में ही इज़ाफ़ा किया। एक बार जब आप (صلى الله عليه وسلم) आले यासिर के मुहल्ले से गुज़रे तो उन्हें उसी तरह अ़ज़ाब दिया जा रहा था, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन से फ़रमायाः

صبرًا آل ياسر فإن موعدكم الجنة إني لا أملك لكم من الله شيئًا
 
ऐ आले यासिर सब्र करो तुम्हारा बदला जन्नत है और तुम्हारा मुक़द्दर अल्लाह के पास है।
इस पर हज़रत सुमैय्या रज़ि0 ने फ़रमायाः
إني أراها ظاهرة يا رسول الله

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) मैं (जन्नत) देख रही हूँ।
इस तरह क़ुरैश आप (صلى الله عليه وسلم) की और सहाबा-ए-किराम की तअ़ज़ीब करते रहे जब तक के उन्हें यह एहसास न हो गया के अब मेहज़ जिस्मानी ईज़ायें काफ़ी नहीं हैं और उस दावत को रोकने के लिये और किसे हरबे का सहारा लेना पड़ेगा। अब क़ुरैश ने बाक़ायदा परोपैगन्डे शरू किये जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत और ख़ुद आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़ात को तौहीन का निशाना बनाया गया, यह नश्रो इशाअ़त बाज़ाब्ता तौर पर की गई, दाखि़ली तौर पर तो मक्के में और खा़रजी तौर पर हबषा में, इसमें बहस ओ मुबाहसे, तज़हीके दावत और इल्ज़ाम तराशी जैसे हरबे शामिल थे। इल्ज़ाम तराशी इस्लामी अ़क़ीदे पर भी की गई और आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़ाते मुबारक पर भी, और उसमें झूट का बे दरेग़ इस्तेमाल किया गया मुख़्तलिफ़़ तरीक़ों से दावते इस्लामी और आप (صلى الله عليه وسلم) को ग़ैर मोतबर ज़ाहिर करने की साज़िशें हुईं, सोचे-समझे तरीक़े से यह इल्ज़ाम तराशी ख़ास तौर से हज के मौसम में की जाती, बड़ी बारीकी से आपस में वलीद इब्ने मुग़ीरा के साथ गुफ़्तगू करके एैसे तरीक़े निकाले जाते के यह इल्ज़ाम तराशी ज़्यादा से ज़्यादा मुअस्सिर हो, बड़े सोच-विचार से एैसी बातें घड़ी जातीं जो हज के दौरान अ़रबों से कही जातीं ताके हज के दौरान बाहर से मक्के आये अ़रब इस दावत से मरऊ़ब न हों और बदज़न हो जायें। किसी का मश्वरा होता के मो. सल्ल0 को काहिन बताया जाय तो वलीद इब्ने मुग़ीरा केहता के सही नहीं है इसलिये के मोहम्मद सल्ल0 न तो काहिनों की तरह बड़बड़ाते हैं और न उन्की बात काहिनों की तरह हैं इसलिये यह मश्वरा वलीद रद कर देता। कोई केहता के मोहम्मद सल्ल0 को (नऊज़ुबिल्ला) दीवाना या जुनून के असर में बताया जाये, वलीद उसको भी रद कर देता के मोहम्मद सल्ल0 की कोई बात एैसी ज़ाहिर नहीं होती जिस से यह तोहमत मौज़ूँ गरदानी जाये, कुछ और यह मश्वरा देते के आप (صلى الله عليه وسلم) पर जादूगर होने की तोहमत लगाई जाये, तो वलीद उसे भी रद कर देता क्योेंके आप (صلى الله عليه وسلم) के कलाम में या उनके अ़मल में एैसी कोई बात नहीं जिसे लोग जादू मानने पर तैयार हों।
इस तरह की लम्बी चैड़ी बहसौं के बाद यह तय पाया के अल्लाह के रसूल सल्ल0 को लफ़्जौं के जादूगर (साहिर-उल-बयान) बताया जाये, फिर यह लोग मुन्तशिर हुये और अ़रबों के दरमियान यह बात कही के मोहम्मद सल्ल0 की बात न सुनो क्योंके उनके कलाम में जादू है, वोह अपनी बातों से लोगों में तफ़र्रक़ा डाल कर भाई को भाई से, माँ-बाप से बीवी और बहन से जुदा कर देते हैं और जो कोई उनकी बात सुनेगा तो वोह उनके असर में आकर अपने अहल से अलाहिदा हो जायेगा। बहर हाल इस क़िस्म के इत्तेहामात और एैसी साज़िशें भी इस्लाम की दावत को लोगों तक पहूंचने से न रोक सकीं, अब क़ुरैश ने नज़र बिन हारिस को यह ज़िम्मेदारी सोंपी के वोह आप (صلى الله عليه وسلم) के खि़लाफ़ इस परोपैगन्डे का मौरचा संभाले, नज़र का तरीक़े कार यह होता के जब कभी आप (صلى الله عليه وسلم) किसी मजलिस को मुख़ातिब करते और पिछली क़ौमों पर हुये अल्लाह के अ़ज़ाब की बात बताते, तो वोह ताक में रहता और जैसे ही आप (صلى الله عليه وسلم) की बात ख़त्म होती और आप (صلى الله عليه وسلم) रवाना होते तो वोह उन्हीं लोगों को मुख़ातिब करता और फ़ार्सियों के पिछले क़िस्से और उनके मज़हब के बारे में कहानियाँ सुनाने लगता और केहता के मेरे सुनाये हुये क़िस्से मोेहम्मद सल्ल0 के क़िस्सों से बेहतर हैं वोह भी तो पुराने क़िस्से सुनाते हैं, इस तरह क़ुरैश ने कई अफ़वाहें आप (صلى الله عليه وسلم) के बारे में मशहूर कीं के जो कुछ आप (صلى الله عليه وسلم) केहते हैं वोह अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल किया हुआ है, वोह दर अस्ल उन्हें जब्र नाम का एक ईसाई बताता है, यह अफ़वाहें एक अर्से तक अ़रबों में आप (صلى الله عليه وسلم) के बारे में आम हुईं यहाँ तक के अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल फरमाईः

وَلَـقَدۡ نَـعۡلَمُ اَنَّهُمۡ يَقُوۡلُوۡنَ اِنَّمَا يُعَلِّمُهٗ بَشَرٌ‌ؕ لِسَانُ الَّذِىۡ يُلۡحِدُوۡنَ اِلَيۡهِ اَعۡجَمِىٌّ وَّهٰذَا لِسَانٌ عَرَبِىٌّ مُّبِيۡنٌ‏ ﴿۱۰۳﴾

हमें मालूम है के वोह केहते हैं के उसे तो बस एक आदमी सिखाता पढ़ाता है। हांलांके जिसकी तरफ़ वोह इशारा करते हैं उसकी ज़ुबान अ़जमी है, और यह साफ़ फ़सीह अ़रबी जुबान है। (तर्जुमा मआनी र्क़आनः सूरहः नहलः 103)
इस तरह की मुख़ालिफ़त तो मक्के के अन्दर होती रही लेकिन अहले क़ुरैश ने उस पर इक्तिफ़ा न किया बल्के जब उन्हें पता चला के बाज़ मुसलमान हबषा की तरफ़ हिज़रत कर गये हैं तो क़ुरैश ने वहाँ भी उन्हें चैन से न बैठने देने की पूरी तदबीरें कीं। क़ुरैश के दो सफ़ीर हबषा के बादशाह नजाशी के पास इस्लाम के खि़लाफ़ परोपैगन्डे के लिये भेजे गये ताके नजाशी मुसलमानों को अपने मुल्क से निकाल दे, यह दोनों सफ़ीर अम्र बिन अल आस और अ़ब्दुल्लाह बिन रबीआ तहाइफ़ लेकर नजाशी के पास गये ताके वोह इन तहाइफ़ से ख़़ुश हो और मुसलमानों को वहाँ न रहने दे। इन सफ़ीरों ने नजाशी से कहाः एै शाहे हबषा, हमारे कुछ दीवाने लोग आपके मुल्क आ गये हैं वोह हमारे दीन से फिर गये हैं और आपके दीन में भी शामिल नहीं हुये हैं उन्हें अपना एक दीन घड़ लिया है जिस के बारे में न हम कुछ जानते हैं और आप के लिये भी वोह कोई नया दीन है। हमें हमारी क़ौम के शरीफौं ने और उनके बाप, चचा, और अहले खाना ने हमें आपके पास भेजा है ताके हम उन्हें लेजा कर उनके अहल तक लौटा दें। नजाशी ने मुसलमानों को तलब किया के ख़ुद उनसे मुआमले के बारे में दरयाफ़्त करे, उनसे पूछा यह क्या दीन है जिसने तुमको अपनी क़ौम से अ़लाहिदा कर दिया है और न ही तुम उन दीनों में से किसी दीन पर हो? हज़रत जाफ़र इब्ने अबी तालिब ने जवाब दिया और बताया के पहले यानी दौरे जाहिलियत में वोह कैसे थे, उनमें क्या-क्या बुरी सिफ़ात थीं, फिर नजाशी को बताया के इस्लाम क्या हिदायत लेकर आया और मुसलमानों को कैसा बना दिया, फिर क़ुरैश की ईज़ा रसानियों का ज़िक्र किया, उनके क़हर और ज़ुल्म के बारे में बताया जो क़ुरैश ने मुसलमानों को उनके दीन हिदायत से दूर करने के लिये किये, हज़रत जाफ़र ने फिर फ़रमाया के उसके बाद हम अपना वतन छोड़ कर आपके मुल्क को पसन्द किया के आपके मुल्क में हम चैन से रह सकेंगे और उम्मीद ज़ाहिर की के यहाँ आपके पास यह लोग हम पर ज़ुल्म न करें। नजाशी ने हज़रत जाफ़र रज़ि0 से कहा, क्या तुम्हारे पास वोह आयात हैं जो तुम्हारे रसूल सल्ल0 पर नाज़िल हुई हैं, वोह पढ़कर सुनाओ, हज़रत जाफ़र रज़ि0 ने फ़रमाया हाँ और फिर सूरहः मरयम की पहली आयत से तिलावत शुरू की और अल्लाह तआला जल्ला जलालुहू के इस क़ौल तक पहुंचेः

فَاَشَارَتۡ اِلَيۡهِ‌ ؕ قَالُوۡا ڪَيۡفَ نُڪَلِّمُ مَنۡ كَانَ فِى الۡمَهۡدِ صَبِيًّا‏ ﴿۲۹﴾

तब उसने उसकी तरफ़ इशारा किया। वोह केहने लगे,हम उससे कैसे बात करें जो गहवारे का एक बच्चा है? (तर्जुमा मआनी र्क़ुआन करीमः सूरहः मरयमः आयतः 29)

ईसाई पादरियों ने सूरहः मरयम की यह आयत सुनकर नजाशी से कहाः यह कलाम और ईसा मसीह जो कलाम लाये थे यह दोनों एक ही मस्दर से हैं। नजाशी ने एैलान किया यह दोनों कलाम एक मिशकात के हैं। यह केहकर नजाशी क़ुरैश सफ़ीरौं से मुख़ातिब हुये कहा ,तुम लोग वापस जाओ बख़ुदा मैं इन्हें तुम्हारे हवाले नहीं करूंगा। दोनों सफ़ीर दरबार से निकलते हुये अपने अगले क़दम के बारे में सोचते रहे और दूसरे दिन अ़म्र बिन अल-आस फिर नजाशी के पास पहुंचे और उनको वरग़लाया के यह मुसलमान हज़रत ईसा इब्ने मरयम अलै0 के बारे में निहायत ग़ज़बनाक और मकरूह बातें करते हैं, चुनाँचे नजाशी ने फिर मुसलमानों को तलब करके उनसे वज़ाहत चाही। हज़रत जाफ़र इब्ने अबी तालिब रज़ि0 ने जवाब दिया के हज़रत ईसा अलै0 के बारे में हम वोही केहते हैं जो हमारे नबी पर वही हुआ है वोह यह है के ईसा अलै0 अल्लाह के बन्दे और उनके रसूल हैं, वोह उसकी रूह और कलाम हैं जो अल्लाह ने हज़रत मरयम अलै0 पर नाज़िल फ़रमाया जो बेदाग़ और पारसा थीं इस जवाब से नजाशी मुतअस्सिर हुये उन्होंने एक छुड़ी उठाकर फ़र्श पर लकीर खेंची और जाफ़र रज़ि0 से फ़रमाया के हमारे और तुम्हारे दीन में इस लकीर से ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। इस तरह क़ुरैश के सफ़ीरों को मायूस और ख़ाली हाथ लौटना पड़ा। इस तरह जब क़ुरैश जब मक्का के इस हथियार से भी खि़लाफ़े तवक़्क़ो ख़ातिर ख़्वाह नताइज नहीं निकले और हुजू़र सल्ल0 की दावत की तजल्ली क़ुरैश के तमाम झूट, उनके परोपेगन्डे और अफ़्वाहों पर हावी होती गई तो मुश्रिकीन ने अपने तरकश से एक नया तीर निकाला और यह था तमाम अहले मक्का का बनू हाशिम और बनी अ़ब्दुल मुत्तल्बि के लोगों और बाक़ी मुसलमानों का मुक़ातेआ करके उन्हेें मुहासिरे में लेने का हथियार। क़ुरैश ने एक काग़ज़ तैयार किया जिसमें यह मुआहिदा बा क़ायेदा लिखा गया और जिसकी रू से तमाम बनू हाशिम और बनी अ़ब्दुल मुत्तलिब के लोगों को वादी-ए-अबी तालिब में महसूर कर देना, उनसे क़िस्म की ख़रीद और फ़रोख़्त का न किया जाना, उनकी औरतों से शादियां न करना और न अपनी औरतों की शादी उनमें करना। इस मुआहिदे को लिखकर कअ़बे की दीवार पर लगा दिया गया ताके हर एक उसकी पाबंदी करे, उन्हें उस मुक़ातेआ से यह तवक़्को थी के यह दूसरे तरीकौं से ज्यादा मुअस्सिर साबित होगा उनका अन्दाज़ा यह था के बनू हाशिम मोहम्मद सल्ल0 का साथ छोड़ देंगे और मुसलमान अपने दीन को, इस तरह हुज़ूर सल्ल0 तन्हा रह जायेंगे और एैसी हालत में या तो वोह ख़ुद ही अपनी यह दावत तर्क कर देंगे या उनकी दावत बे असर हो जायेगी जिससे क़ुरैश और उनके दीन के लिये कोई ख़तरा नहीं रह जायेगा, लेकिन मुआमिला यह हुआ के आप (صلى الله عليه وسلم) और मुसलमान अपने दीन पर और मज़बूती से क़ायम रहे और इसकी दावत के लिये उनके इरादे क़वी तर। इस मुहासिरे की खबरें मक्के के बाहर अ़रब के दूसरे क़बाइल को भी होतीं रहीं और उससे दीन की ख़बर भी फैलती गई। अब जज़ीरानुमाये अ़रब के हर इलाक़े में इस्लाम का ज़िक्र था, लेकिन मुसलमान बहरहाल इस मुहासिरे के तीन साल के दौरान सख़्त उ़सरतों और फ़ाक़ों का शिकार रहे, यह मुसलमान मुहासिरे की वादी से निकल कर लोगों से मिल भी नहीं सकते थे, सिवाये मौसमे हज में जब आप (صلى الله عليه وسلم) निकल कर जाते और मक्के के बाहर से आये अ़रब क़बाइल को इस्लाम का पैग़ाम सुनाते, अ़रब क़बाइल मुसलमानों की हाल की वजह से उनसे मुतअिस्सर भी थे आप (صلى الله عليه وسلم) उन्हें अल्लाह तआला के इनआम की बशारतें देते और उसके अज़ाब से डराते। इस तरह बाज़ लोग मुशर्रफ़ बा इस्लाम हुये और बाज़ लोग मुसलमानों के लिये ग़िज़ा और पानी भी मुहैय्या कराते। एैसा ही एक शख़्स हिशाम इब्ने अ़म्र थे जो एक ऊंट पर ग़िज़ा और पानी बान्ध कर उस वादी के दहाने तक रात के अन्धेरे में ले जाते और वहाँ उसे वादी की तरफ़ रुख़ कर पीछे से धका देते जिस से वोह ऊंट वादी में दाखि़ल हो जाता और मुसलमान उन ग़िजाओं का इस्तेमाल करते और फिर जब वोह ख़त्म हो जातीं तो उसी ऊंट को ज़िबह कर लेते, इसी तरह मसाइब और आज़माइश लिये यह तीन साल गुज़रे और फिर अल्लाह तआला की मदद आई। कु़रैश के पाँच नौजवान यानी जु़हैर इब्ने अबी उमैय्या, हिशाम इब्ने अ़म्र, अल मुत्इम बिन अ़दई, अबुल बख़्तरी इब्ने हिशाम और ज़मआ बिन अल असवद जमा हुये और इस मुहासिरे ओ मुक़ातए पर गुफ़्तगू की, उस पर अपने ग़़्ाुस्सा और नाराज़गी का इज़्हार किया और यह तय किया के वोह इस मुहासिरे के मुआहिदे को फाड़ देंगे। अगले दिन यह लोग काबा पहुंचे उसके अतराफ़ तवाफ़ किया और फिर ज़ोहैर इब्ने अबी उमैय्या लोगों से मुख़ातिब हुये और कहा के हम खाना खाते हैं और हमें लिबास मुयस्सर है जब्के बनू हाशिम वहाँ हलाक हो रहे हैं उनसे न तो कोई ख़रीद ही कर सकता है न वोह कुछ ख़रीद सकते हैं, और अपना इरादा ज़ाहिर किया के वोह उस वक़्त तक चैन से न बैठेंगे जब तक यह मुहासिरा ख़त्म न हो जाये और वोह उस काग़ज़ को फाड़ न डालें, उस पर अबू जेहल, जो उस वक़्त वहीं था चिल्लाया के येह शख़्स झूट बोलता है और यह के मुहासिरा ख़त्म नहीं होगा। बाक़ी के चार साथी जोे लोगों में मुन्तशिर हो गये थे अपनी-अपनी जगह से बोल पड़े यह सब ग़लत है और उन्होंने ज़ोहैर इब्ने अबी उमय्या की ताईद की। इस तरह अबू जेहल ने यह अन्दाज़ा लगा या के यह लोग पहले ही सब तय करके आये हैं और उसने वहाँ से चुप चाप निकल जाने में ही अपनी खै़िरयत समझी। अब अल मुतइम आगे बढ़े के उस काग़ज़ पर लिखे मुआहिदे को उतार कर फाड़ दें तो पता चला के पहले ही दीमक उस काग़ज़ को खा गई है सिवाये उस हिस्से के जिस पर अल्लाह का नाम (बिइस्मिका अल्लाहुम्मा) लिखा था। इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) और मुसलमान दोबारा मक्का आये और यह मुहासिरा ओ मुक़ातिआ ख़त्म हुआ। आप (صلى الله عليه وسلم) इस वापसी के बाद फिर दावत में लग गये ताके अल्लाह के मानने वाले बढ़तेे जायें और इस तरह क़ुरैश के तमाम वसाइल उनके तीन हथियारों यानी ईज़ा रसानी, झूठे परोपैगन्डे और आखि़र में यह मुक़ातिआ पर सर्फ़ हुये जिन से न वोह मुसलमानों को इस्लाम से हटा सके और न ही हुज़ूर सल्ल0 को इस्लाम की दावत से बाज़ रख सके बावजूदेके आप (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा-ए-किराम रजि0 ने निहायत सब्र आज़मा हालात और मसाइब में अब तक तवील अर्सा गुज़रा था।
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