मारिका-ए-हुनैन - 25
क़बीले हवाज़िन को जब फतहे मक्का की ख़बर हुई तो उन्हें डर हुआ के मुसलमान अब उन पर हमला करने आयेंगे, चुनांचे उन्होंने पहले ही तैयारियां शुरू कर दीं। मालिक इब्ने अ़ौफ़ अन्नसरी ने हवाज़िन और सक़ीफ़ को इस ग़र्ज़ से मुत्तहिद किया और उन्हे लेकर वादी औतास पहुंचा। मुसलमानो को इसकी इत्तिलाह फ़तहे मक्के के पंद्रह दिन बाद मिली और वोह हवाज़िन का मुक़ाबिला करने की तैयारी करने लगे। इधर मालिक इब्ने अ़ौफ़ औतास से अपनी फ़ौज को निकाल कर हुनैन की चोटियों पर चला गया जिसके दर्मियान एक तंग वादी थी। यहां उसने अपनी फ़ौज को मुनज़्ज़म किया और येह हुक्म दिया के जब मुसलमान यहां पहुँचे तो उन पर एक साथी मिलकर बड़ी शिद्दत से हमला करें जिससे उनकी सफ़ें टूट कर बिखर जायें और वोह एक दूसरे पर टूट पड़ें और उन्हें बड़ी हार का सामना करना पड़े। अपने इस मंसूबे को तेय कर के अब वोह मुसलमानों की आमद का इंतेज़ार करने लगा।
इधर हूज़ुर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के दस हज़ार सिपाहियों के साथ जो फ़तहे मक्का में शामिल थे और उनके साथ दो हज़ार मक्के के मुसलमान जो अभी-अभी इस्लाम में दाखि़ल हुये थे मदीने से निकल कर शाम के वक़्त हुनैन पहुँचे और अगली सुबह फ़ज्र के वक़्त तक वहीं रहे। फ़ज्र के वक़्त अंधेरे में ये फ़ौज वादी की तरफ़ बड़ी और हूज़ुर सल्ल0 अपने सफ़ेद ख़च्चर पर फ़ौज के पिछले हिस्से में रहे। फ़ज्र के अंधेरे में मुसलमानों को पता भी न चला और दुश्मन ने अपने क़ायद के हुक्म पर बैयक वक़्त हमला कर दिया। इस हमले में हर जानिब से मुसलमानों पर तीरों की बोछार होने लगी और वोह दहशत ज़दा इधर-उधर भागने लगे। इस घबराहट और दहशत के आलम में उनके दिलों पर दुश्मन का ग़लबा छा गया, शिकस्त उन पर हावी हो गई और वोह एक दूसरे की भी सुने बग़ैर बस भागने लगे। यहां तक के वोह इस भगदड़ में वोह हूज़ुर सल्ल0 के पास से भी बग़ैर रुके गुज़रते गये और सिर्फ़ हज़रत अ़ब्बास रज़ि0, अंसार और मुहाजिर सहाबा की एक बहुत थोड़ी सी जमाअ़त और एहले बैत ही रह गये जो आप (صلى الله عليه وسلم) को घेरे हुये थे।
हुज़ुर सल्ल0 लोगों को पुकारते थे के एै लोगो कहां चले, लेकिन उन पर मौत का ख़ौफ़़ और दुश्मन की दहशत एैसी तारी थी के वोह येह भी नहीं सुन पा रहे थे। वोह तो बस पीछे पड़े हुये दुश्मन से भाग रहे थे, जो उन्हें जहां आ लपकता क़त्ल करता जा रहा था। येह बड़ी सख़्त घड़ी थी के पूरी की पूरी फ़ौज भागी जा रही थी, इस में सहाबा-ए-किराम रज़ि0 शामिल थे और वोह भी जो अभी हाल में इस्लाम में दाखि़ल हुये थे। हुज़ुर सल्ल0 उनको पुकारते थे और वोह बग़ैर सुने भागे जा रहे थे। बाज़ वोह लोब जो अभी अभी ईमान लाएै थे, उनके दिलों की हक़ीक़त सामने आ रही थी और वोह इस शिकस्त का ज़िक्र कर करके खुश हो रहे थे। किलदह बिन हम्बल केह रहा था के आज येह जादू टूट गया, शैबा बिन उ़स्मान बिन अबी तलहा केह रहा था आज मैं मोहम्मद0 (सल्ल) से बदला ले पाऊँगा, आज में उन्हें क़त्ल कर दूँगा, अबू सुफ़्यान की ज़बान पर ये कलिमात थे।
لا تنتهي هزيمتهم دون البحر
यानि इनकी येह हार उनका समंदर तक पीछा करते-करते ही ख़त्म होगी। येह कलिमात और इन जैसी बातें करने वाले लोग वोह थे जो अभी मक्का में इस्लाम में दाखि़ल हुये थे और आँहज़रत सल्ल0 के साथ लड़ने चले आये थे, लकिन इस शिकस्त ने उनके दिलों के राज़ को ज़ाहिर कर दिया था। इनके साथ-साथ वोह सहाबा रज़ि0 भी घबराये हुये भाग रहे थे जो नियत के एैतेबार से मुख़लिस थे। अब इस जंग के जीतने की कोई उम्मीद बाक़ी नहीं रह गई थी। येह घड़ी हुज़ुर सल्ल0 पर बड़ी सख़्त और शदीद आज़माईश वाली और पुरख़तर घड़ी थी। इस मुश्किल तरीन वक़्त अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने फ़ैसला किया के मैदान ही में टिके रहना है और अपना सफे़द ख़च्चर दुश्मन की तरफ़ बढ़ाते हुये आगे बढ़ गये। आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ इस वक़्त आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा हज़रत अ़ब्बास इब्ने अ़ब्दुल मुत्तलिब रज़ि0 और हज़रत अबू सुफ़्यान इब्न हारिस बिन अ़ब्दुल मुत्तलिब थे जो आप (صلى الله عليه وسلم) के ख़च्चर की नकेल पकड़े हुये थे के वोह भागने न लगे। हुज़ुर सल्ल0 के चचा हज़रत अ़ब्बास इब्ने अ़ब्दुल मत्ुतलिब रज़ि0 बड़ी ज़ौर आवाज़ में लोगों को फकार रहे थे, बिल-आखि़र लोगों ने उनकी आवाज़ पर तवज्जोह की और उन्हें याद आया के वोह यहां जिहाद के लिये ख़ुद अल्लाह के रसूल सल्ल0 के साथ आये हैं और अगर आज वोह शिकस्त खाकर मग़लूब हो गये तो उनके दीन का क्या अंजाम होगा जिसकी हिमायत उन्होंने अपनी जान से ज़्यादा करने का अ़हद किया था।
अब लोग आगे बढ़ने लगे, इनमें यकायक बहादुरी और जांबाज़ी का जज़्बा जाग उठा था और जैसे-जैसे लोग वापिस आने लगे तादाद बढ़ती गई। निहायत दिलेरी से येह लोग दुश्मन पर हमलावर हुये और जंग में शिद्दत आ गई। अब अल्लाह के रसूल सल्ल0 को क़दरे इतमिनान हुआ। आप सलल0 ने अपनी मुट्ठी में कंकरियां लेकर दुश्मन की तरफ़ येह केहकर फेंकी के तुम्हारा मुँह सियाह हो गया। यानि अब तुम शिकस्त खा गये। अब मुसलमान दुश्मन की तरफ़ शहादत के जज़्बे से बढ़ रहे थे। क़िताल इतनी शिद्दत से हो रहा था के हवाज़िन और सक़ीफ़ बौखला उठे और उन्हें यक़ीन हो गया के अब उनकी मौत यक़ीनन है। इसी बौखलाहट में वोह अपने माल और औरतों को मुसलमानों के लिये माले ग़नीमत छोड़कर शिकस्त ख़ुरदा भाग उठे। उनकी एक बड़ी तादाद क़त्ल हो चुकी थी और काफ़ी बड़ी तादाद को मुसलमानों ने पकड़ कर क़ैद कर लिया था। मुसलमानों ने जो अब दिल जमई से लड़ रहे थे, उनका पीछा किया यहां तक के वोह वादी औतास तक भागे जहां उनकी मज़ीद तादाद हलाक हुई और शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। उनका सरग़ना मालिक बिन अ़ौफ़ भाग कर ताइफ पोहँचा और पनाह हासिल की। इस तरह अल्लाह अज़्ज़ व जल ने मुसलमानों को अज़ीमुश्शान से फ़तह से हमकिनार फ़रमाया और येह आयात नाज़िल की।
لَـقَدۡ نَصَرَڪُمُ اللّٰهُ فِىۡ مَوَاطِنَ ڪَثِيۡرَةٍ ۙ وَّيَوۡمَ حُنَيۡنٍ ۙ اِذۡ اَعۡجَبَـتۡڪُمۡ ڪَثۡرَتُڪُمۡ فَلَمۡ تُغۡنِ عَنۡڪُمۡ شَيۡـًٔـا وَّضَاقَتۡ عَلَيۡڪُمُ الۡاَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ ثُمَّ وَلَّـيۡتُمۡ مُّدۡبِرِيۡنَۚ ﴿۲۵﴾ ثُمَّ اَنۡزَلَ اللّٰهُ سَڪِيۡنَـتَهٗ عَلٰى رَسُوۡلِهٖ وَعَلَى الۡمُؤۡمِنِيۡنَ وَاَنۡزَلَ جُنُوۡدًا لَّمۡ تَرَوۡهَا ۚ وَعَذَّبَ الَّذِيۡنَ ڪَفَرُوۡا ؕ وَذٰ لِكَ جَزَآءُ الۡـڪٰفِرِيۡنَ
यक़ीनन अल्लाह तआला ने बहुत से मैदानों में तुम्हें फ़तह दी है और हुनैन की लड़ाई वाले दिन भी जब के तुम्हें अपनी कसरत पर नाज़ हो गया था। लेकिन इसने तुम्हें कोई फ़ायदा न दिया बल्के ज़मीन बावुजूद अपनी कुशादगी के तुम पर तंग हो गई फिर तुम पीठ फेरकर मुड़ गयें फिर अल्लाह ने अपनी तस्कीन अपने नबी पर और मोमिनों पर उतारी और अपने वोह लशकर भेजे जिन्हें तुम देख नहीं रहे थे और काफ़िरों को पूरी सज़ा दी। इन कुफ़्फ़ार का यही बदला था। (तजुर्मा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः तौबाः आयतः26)
मुसलमानों को बहुत बड़ी मिक़दार में माले ग़नीमत हासिल हुआ था, जब इसका हिसाब किया गया तो बाईस हज़ार ऊँट, चालीस हज़ार बकरियां, एक सौ पच्चीस किलो चाँदी, मुश्रिकीन की एक बड़ी तादाद क़त्ल हो चुकी थी, क़ैदियों, औरतों और बच्चों की तादाद छहः हज़ार तक पहुँच गई थी, जिन्हें मुसलमान अपनी पनाह और हिफ़ाज़त में वादी जुअ़राना तक ले गये। मुसलमानों में कितने लोग शहीद हुये येह तफ़सील नहीं मिलती, अलबत्ता इतना ज़रूर है के काफ़ी बड़ी तादाद में जानी नुक़सान हुआ, सीरत की किताबों में दर्ज है के मुसलमानों के दो क़बीले पूरी तरह फ़ना हो गये।
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने क़ैदियों और माले ग़नीमत को वहीं छोड़ा और ताइफ़ के मुहासिरे के लिये बढ़ गये जहां मालिक इब्ने अ़ौफ़ अपनी शिकस्त के बाद पनाह में था, और इस पर अपना घेरा कस दिया, लेकिन ताइफ़ एक बहुत ही किला बंद शहर था जहां कबीला सक़ीफ़ आबाद था। सक़ीफ़ वाले बहुत ही साहिबे हैसिय्यत थे और मुहासिरे वाली लड़ाई और तीरअंदाज़ी के फ़न में कमाल महारत रखते थे। उन्होंने बढ़ते हुये मुसलमानों पर तीरों की बारिश की और कई को शहीद कर दिया। मुसलमानों के लिये उनकी क़िलआ बंदी को तोड़ देना आसान नहीं था लिहाज़ा वोह दुश्मन के क़िलों से दूर ख़ैमा-ज़न हो गये और इंतेज़ार में थे के अब हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) क्या क़दम उठाते हैं।
हुज़ूर सल्ल0 ने क़बीले बनी दौस से मदद तलब की जो मुहासिरे के चार दिन बाद अपनी मिनजनीक़ और दीगर सामान लेकर पहँुचे। अब ताइफ़ पर मिनजनिक़ से गोले बरसाये गये और बकतर बंद तोपें आगे बड़ी ताके किलों की दिवारों को ज़र्ब लगाई जाये। लेकिन एहले ताईफ़ ने धातों के गर्म और जलते हुये टुकड़े बरसाये जिसकी वजह से इनको पीछे आ जाना पड़ा। सक़ीफ़ ने पहले ही लोहे के टुकड़ों को पिघलाकर रखा के उन्हें बकतर बंद तोपों पर फेंक कर जला दें। अब मुसलमानों ने तीरों से हमला किया और कई को हलाक कर दिया। मुसलमानों ने ताइफ़ में दाखि़ल होने की कोशिश को तर्क करके सक़ीफ़ के अंगूरों के बाग़ात का रुख़ किया जिन्हें काट कर जला दिया गया ताके दुश्मन हथियार डालने पर मजबूर हो जाये। लेकिन एैसा नहीं हुआ। इधर ज़ी-क़अ़दा का महीना शुरु हो गया और अब हराम महीनों में लड़ाई से बचने के लिये हूज़ुर सल्ल0 ने मक्के का रुख़ किया। रास्ते में आप (صلى الله عليه وسلم) जुअ़राना के मुक़ाम पर रुके जहां माले ग़नीमत और क़ैदियों को छोड़ा था। अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने एैलान किया था के अगर मालिक इब्ने ओफ मुसलमान हो कर लौट आये तो इसे उसके एहल और माल वापिस कर दिया जायगा और सौ ऊँट अलैहिदा दे दिये जायेंगे।
मालिक बिन अ़ौफ़ को ख़बर मिली तो वोह वापिस आया और अपने इस्लाम में आने का एैलान किया और हूज़ुर सल्ल0 ने इससे अपना वायदा पूरा फ़रमाया। लोगों को येह ख़दशा हुआ के अगर हुज़ुर सल्ल0 इसी तरह हवाज़िन में माले ग़नीमत तक़सीम करते रहे तो उनका हिस्सा बहुत थोड़ा रह जायेगा, लिहाज़ा उन्होंने मुतालिबा किया के माले ग़नीमत को उन में तक़सीम कर दिया जाये ताके हर एक अपना अपना हिस्सा ले ले। आपस में इसी मौज़ू पर सरगोशियां होती थी जिनकी ख़बर हूज़ुर सल्ल0 को हुई तो आप (صلى الله عليه وسلم) माल के एक ढेर के पास आकर खड़े हुये और उस में से एक बाल निकाल कर अपनी उँगलियों में पकड़ कर फ़रमाया।
ياايهاالناس والله ما لي من فئكم ولا هذه الوبرة إلا الخمس والخمس مردودٌ عليكم فادوا الخياط والمخيط فإن الغلول يكون على أهله عار أو نار أو شنارا يوم القيامة
एै लोगो- अल्लाह की क़सम तुम्हारे इस माल में से मेरा पाचवाँ हिस्सा है और वोह तुम में लौटा दिया जायेगा, यहां तक के इस धागे का भी हिसाब होगा। जो कोई इस में बे ईमानी से बाल बराबर भी लेगा तो क़यामत के दिन वोह बाल उसके लिये शर्म का बाइस, आग और रुसवाई होगी।
फिर ये हुक्म दिया के जिस किसी ने भी जो कुछ इस माल मे से लिया हो वोह उसे वापस रखदे ताके फिर इसे बराबरी से तक़सीम किया जा सके। तमाम माले ग़नीमत के पाँच हिस्से किये गये, एक हिस्सा आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपने लिये मख़्सूस कर लिया और बाक़ी तमाम सहाबा ए किराम रज़ि0 में मुन्क़िसम हो गया। फिर आँहज़रत सल्ल0 ने अपने ज़ाती हिस्से में से उन लोगों को हिस्सा दिया जो अब से पहले आप (صلى الله عليه وسلم) के षदीद तरीन दुश्मन रहे थे, इन में अबू सुफ़्यान, मुआविया बिन अबी सुफ़्यान, हारिस बिन हारिस, हारिस बिन हिशाम, सुहैल बिन उ़मर, हुयेतब बिन अ़ब्दुल उज़्जा, हकीम बिन हज़ाम, अलअलाय बिन जारिया असक़फी, उ़ईयैना बिन हिस्न, अलअक़रा बिन हाबिस, सफ़्वान बिन उमइया और मालिक बिन अ़ौफ़ अन्नसरी शामिल थे।
आप (صلى الله عليه وسلم) ने इनमें हर एक को हिस्से के अ़लावा सौ सौ ऊँट इज़ाफी दिये। ये माल उन्हें तालीफ़ ए क़ल्ब के लिये यानि उनके दिल जीतने के लिये दिया गया था। इन के अ़लावा और लोगों को उनके हिस्से के ज़्यादा पचास पचास ऊँट दिये गये, जिनसे उनकी तमाम ज़रूरीयात पूरी हो सकंे। माल की इस तक़्सीम में जहां हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने निहायत फ़िराख़ दिली से मेहरबानी का मुज़ाहिरा किया वहीं आप (صلى الله عليه وسلم) की सियासी बसीरत और तदबीर ओ फ़हम भी बदर्जा अतम अयँा था। लेकिन वहां एैसे भी मुसलमान थे जो हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के इस फ़हम ओ कमाल तदब्बुर की तेह को नहीं समझ पाये। माले ग़नीमत की इस तक़सीम पर अंसार एक दूसरे से बात करते और केहते के अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने अपनी क़ौम में माले ग़नीमत तक़सीम किया, और येह बात उनके दिलों पर असर अंदाज़ हो रही थी। हज़रत सअ़द बिन उ़बादह रज़ि0 भी इन्ही हज़रात में से थे, उन्होने ये बात हुज़ूर सल्ल0 तक पहुँचा दी। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे पूछा।
فاين أنت من ذلك يا سعد؟
एै सअ़द इस मुआमिले में तुम्हारा क्या मौक़ि़फ़ है?
हज़रत सअ़द रज़ि0 ने जवाब दिया के वोह अपनी क़ौम से जुदा नहीं हैं और अपनी क़ौम की ताईद करते हैं। फिर हुज़ूर सल्ल0 ने उनसे फ़रमाया के वोह अपनी क़ौम यानि अंसार को जमा करें जब लोग जमा हुये तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को मुख़ातिब फ़रमाया।
يا معشر الأنصار ماقالة بلغتني عنكم وجدة وجدتموها عليَّ في أنفسكم ألم آتكم ضلالا فهداكم الله و عالة فأغناكم الله وأعداء فالف الله بين قلوبكم؟
एै क़ौमे अंसार जो कुछ तुमने कहा वोह मुझ तक पहुँचा है। तुम्हें मुझे अपने दिलों में कैसा पाते हो? क्या मैं तुम्हारे पास उस वक़्त नहीं आया जब तुम गुमराह थे तो अल्लाह ने तुम्हें राहे रास्त दिखाई? तुम उ़स्रतों में थे तो अल्लाह ने तुम्हें माल दिया और तुम एक दूसरे के दुश्मन थे तो अल्लाह ने तुम्हारे दिलों को आपस में मिला दिया ?
लोगों ने कहा बजा है अल्लाह और उसका रसूल सबसे बेहतर और महरबान हंै। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया एै अंसार जवाब दो। लोगों ने पूछा के एै अल्लाह के रसूल सल्ल0 किस बात का? मेहरबानी और फ़ज़ीलत अल्लाह की है और उसके रसूल की। हुज़ूर सल्ल0 ने फिर फ़रमाया।
يا معشر الأنصار ما قالة بلغتنى عنكم وجدة وجدتموها فى أنفسكم ألم آتكم ضلالا فهداكم الله وعالة فأغناكم الله وأعداء فألف الله بين قلوبكم قالوا بلى قال ألا تجيبونى يا معشر الأنصار أما والله لو شئتم لقلتم فصدقتم أتيتنا مكذبا فصدقناك ومخذولا فنصرناك وطريدا فآويناك وعائلا فواسيناك أوجدتم فى أنفسكم يا معشر الأنصار فى لعاعة من الدنيا تألفت بها قوما ليسلموا ووكلتكم إلى إسلامكم أفلا ترضون يا معشر الأنصار أن يذهب الناس بالشاة والبعير وترجعون برسول الله إلى رحالكم فوالذى نفس محمد بيده لولا الهجرة لكنت امرأ من الأنصار ولو سلك الناس شعبا وسلكت الأنصار شعبا لسلكت شعب الأنصار اللهم ارحم الأنصار وأبناء الأنصار وأبناء أبناء الأنصار
अल्लाह की क़सम अगर तुम चाहते तो यूँ केहते, और येह सच था और उस पर यक़ीन किया जाता, के तुम उस वक़्त हमारे पास आए जब तुम झुटलाये जा रहे है और हमने तुम्हें सच्चा माना, तुम मायूस हमारे पास आए और हम ने तुम्हें कामयाब किया, तुम ठुकराये हुये आए और हम ने तुम्हें सहारा दिया, तुम मुफ़लिस हो कर आए और हम ने मदद की, एै अन्सार क्या तुम इस बात पर नालां ओ हो के दुनिया की हक़ीर सी चीज़े दंे ताके उन लोगों के दिल इसलाम की तरफ मुलतफ़ित हो जायें, जबके तुम्हें तुम्हारे इसलाम के हवाला कर दो। एै क़ोम अन्सार, क्या तुम इस बात से राजी़ नहीं हो के वोह लोग बकरियाँ और गाये ले जाये, और तुम अल्लाह के रसूल सल्ल0 को लेकर अपने घरों को लोट जाओ? उस ज़ात की क़सम जिस के क़ब्जे़ में मोहम्मद सल्ल0 की जान है, अगर हिज़रत होना नहीं होता तो में ख़ुद अन्सारी ही होता, अगर तमाम लोग एक तरफ चलें और अन्सार दूसरी तरफ, तो मैं अन्सार की राह इख़्तियार करूँगा। एै अल्लाह अन्सार पर रहम फ़रमा और उन की आॅल पर और उनकी आॅल की आॅल पर रहम फ़रमा।
इधर अल्लाह के रसूल सल्ल0 की बात ख़त्म ही हुई थी की अन्सार ज़ारो क़तार रो रहे थे, आंसूओं से उनकी दाड़ीयाँ तर होने लगी और उन्होंने कहा हम अल्लाह के रसूल सल्ल0 से राज़ी हैं और उस हिस्से से जो उसने हमें दिया है फिर अंसार अपने ख़ैमों को लौट गये। अब हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी फ़ौज के साथ जुअ़राना से खु़रुज और उ़मरा के लिये मक्का का रुख़ किया। उ़मरा हो जाने के बाद आप (صلى الله عليه وسلم) ने अ़ताब इब्ने उसैद रज़ि0 को मक्के का वाली मुक़र्रर फरमाया और हज़रत मुआज़ इब्ने जबल रज़ि0 को ज़िम्मेदारी दी के वोह एहले मक्का की इस्लामी अक़दार में तरबियत करें और उन्हें इस्लामी अफ़्कार में ढालें। अहल मक्का के मुआमिलात का इस तरह एहतेमाम फ़रमा कर आप (صلى الله عليه وسلم) अपने अंसार और मुहाजिर सहाबा-ए-किराम रज़ि के हमराह मदीना मुनव्वराः वापस तशरीफ़ लाये।
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