रियासते इस्लामी कैसे क़ायम होगी
इस्लामी अफ़्कार की ताक़त जो फ़ीनफ़सिही इस्लाम में है और इसका तरीका ए कार दोनों इस्लामी रियासत के क़ायम करने के लिए काफ़ी हैं बशर्तेके इस्लामी अफ़्कार दिलों में गहराई से उतर जाएं, नुफ़ूस में समां जाएं और मुसलमान इसके पीकर-ए-मुजस्सम बन जाएं तो इस्लाम इंसानों में ज़िंदा हो जाएगा। लेकिन इन सब के बावजूद कुछ ग़ैरमामूली अफ़आल और अ़ज़ीमुश्शान काविशें लाज़िमी होंगी जिन से इस्लामी रियासत वजूद में आए और इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी का अहया हो सके। इसके लिए मेहज़ ख़्वाब, ख़ुश ख़्याली, उम्मीद परस्ती और रजाईयत काफ़ी नहीं। इस उम्मउल वाजबात के लिए अपनी तमाम तर सलाहियतों को बरुए कार लाकर इन अड़चनों और रुकावटों की शनाख़्त की जाय जो इस राह में हाइल हैं ताके उन पर ग़लबा पाया जा सके।
यहां इन मुसलमानों को जो इस अज़ीमुश्शान काम के लिए उठ खड़े हों, इन्हें आगाह कर देना भी ज़रूरी है के इन के सामने किस क़दर अज़ीमउलहीकल ज़िम्मेदारी है और दानिष्वरों को जो इस काम के लिए तैय्यार हों, इन्हें ख़बरदार कर देना भी ज़रूरी है के इस काम के लिए उनकी आवाज़ के क्या मुम्किना नताइज हो सकते हैं और क्या क्या मशक़्क़तें उन्हें झेलना पड़ सकती हैं ताके मुकम्मल शऊ़र, शौक़, इरादे और हिम्मत के साथ उनके अक़्वाल-ओ-अफ़आल हम आहंग हो जाएं। जो इस्लामी ज़िंदगी के अहया की इस कठिन राह पर चलें उन्हें पूरा शऊ़र हो के वोह एक सख़्त चट्टान में अपनी राह बना रहे हैं और ख़ुशख़बरी भी हो ये के मज़बूत इरादे और मुकम्मल इख़लास से ये मुम्किन भी है।
उन्हें ये भी मालूम हो के वोह एक निहायत नाज़्ाुक और दक़ीक़ ज़िम्मेदारी निबाह रहे हैं जिस में इनकी शख़्सिय्यत की लताफ़त को तमाम तर बरुए कार लाना होगा नीज़ उनकी राह ख़ारदार है लेकिन वोह उसे उबूर कर सकते हैं। वोह जिस राह पर चलने की ठान चुके हैं उन्हें इससे भटकना नहीं है क्योंके ये वोह राह है जिस पर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सललल्लाहो अलैहि वसल्लम चले और अगर इस राह पर कमा हक़्क़हु चला जाय तो नताइज यक़ीनी हैं और कामयाबी में ज़रा भी शक नहीं बशर्तिके इस राह पर हुज़ूर अकरम स.अ. की मिसाल को सामने रखा जाय और इससे गुरेज़ ना किया जाय ताके राह की ठोकर से बचा जा सके क्योंके इस राह में हर ठोकर और इस्तिंबात की हर ग़लती इस काम को बेअसर बना देगी। लिहाज़ा मेहज़ खि़लाफ़त के लिए कान्फ्रेन्सें मुनआक़िद कर लेना या मुस्लिम मुमालिक को मुत्तहिद करने की कोशिश कर लेना इस्लामी रियासत के क़ायम करने का तरीक़ा नहीं है और ना ही इस्लामी कान्फ्रेन्सें मुनआक़िद कर लेने से इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी बहाल हो सकती है। ये चीज़ें और उन जैसी तमाम कोशिशें बेसूद हैं क्योंके ये मेहज़ मुसलमानों के जज़्बात को वक़्ती तौर पर मुतमइन करती हैं और उन्हें दिलासा देती हैं के उन्होंने कुछ कर लिया जबके अभी अस्ल काम तो दूर की बात है।
फिर मज़ीद ये के मेहज़ ये तमाम तरीक़े इस्लाम से मुतनाक़िज़ हैं। इस्लामी रियासत के क़ायम करने का वाहिद रास्ता ये है के इस्लाम के पैग़ाम को लेकर इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की बहाली के लिए काम किया जाय और इस में निहायत ज़रूरी है के तमाम मुस्लिम मुमालिक को शामिल किया जाय क्योंके तमाम मुसलमान एक ही उम्मत हैं। ये इंसानों की वोह जमाअ़त हैं जिन का एक ही अ़क़ीदा है जिस से एक निज़ाम ए हयात निकलता है। किसी भी मुस्लिम मुल्क की सतह पर किया जाने वाला कोई भी अमल जो मुसलमानों के अफ़्कार ओ जज़्बात को मुतास्सिर करे, नागुज़ीर है के उसके असरात दूसरे मुस्लिम मुमालिक में भी अयाँ हों, लिहाज़ा ये निहायत अहम है के तमाम मुस्लिम मुमालिक को इस दावत में शामिल किया जाय ताके इसके असरात हर जगह हों।
इस उम्मत की मिसाल एक बर्तन में पानी की सी है। जब बर्तन को नीचे से हरारत फ़राहम की जाय तो पानी गर्म होगा और इस में उबाल आएगा और पानी बुख़ार में तबदील होगा और इस में हरकत होगी। इसी तरह मिसाल इस्लामी मुआषिरे की है को इस्लाम पेश किया जाये जिस से इस में हरारत आए और फिर हरकत हो और वोह इस हरकत से उठ खड़ा हो। लिहाज़ा ये ज़रूरी है के ये दावत पूरे आलमे इस्लामी के लिए हो ताके उम्मत इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की तरफ़ राग़िब हो। इस काम के लिए दावत देने के तमाम ज़राए और वसाइल इख़्तियार किए जाएं जैसे किताबें, रिसाले और राबते, ख़ास तौर पर राबते अहम हैं क्योंके राबतों में तासीर होती है। अलबत्ता इस दावत की हैसिय्यत मुआषिरे में ईंधन की तरह हो जिस से मौजूदा जुमूद जो उम्मत में आम है वोह हरारत-ओ-हरकत में तबदील हो जाय। ये उस वक़्त ही हासिल किया जा सकता है जब ये अमली दावत एक सियासी पहलू से एक मुल्क में महसूर हो जो इस अज़ीम काम का नुक़तए-आग़ाज़ बने और ये दावत तमाम आलमे इस्लामी में फैल जाय। ये मुल्क या एैसे मुमालिक मिल कर इस दावत का नुक़तए-इंतिलाक़ बनें और इस्लाम की दावत फिर सारे आलम तक पहुंचाई जा सके। यही वोह मनहज है जो हुज़ूर अकरम स.अ. ने इख़्तियार फ़रमाई थी। आपने दावत तमाम लोगों को दी और ये दावत अ़मली नहज पर थी। ये दावत अहल-ए-मक्का को दी गई और हज के मौसम में सारे अ़रब को इसकी तरफ़ बुलाया गया और ये दावत सारे जज़ीरा नुमाए अ़रब में फैल गई। इसकी मिसाल एैसी है जैसे आपं इस मुआषिरे को ईंधन फ़राहम कर रहे थे जिस से सारे अ़रब में हरारत फैल रही थी। लोग इस्लाम की तरफ़ बुलाए जाते, आप हज के मौसम में अ़रबों से राबिता करते और उन्हें दावत पेश करते, उनके घरों और क़बीलों को जाते और इस्लाम की तरफ़ बुलाते थे। फिर आप और कफ़्फ़ार-ए-क़ुरैश के दरमयान मुख़ासिमत की गूंज सारे अ़रब में फैल रही थी और इस गूंज के साथ इस्लाम की दावत भी आम हो रही थी और अ़रबों में इस दावत के लिए तजस्सुस पैदा हो रहा था। गो के दावत-ए-आम थी लेकिन बहरहाल ये मक्का तक महसूर थी। फिर ये दावत मदीना पहुंची जहां हिजाज़ में एक इस्लामी रियासत की बिना पड़ी तब ही ये ईंधन रंग लाया और इसकी हरारत से हुज़ूरं को फ़तह हुई और लोग इस दावत पर ईमान लाए यहां तक के ये फैल कर सारे जज़ीरा नुमाए अ़रब पर मुहीत हुई और फिर इसका पैग़ाम सारे आलम को पहुंचाया गया। इसलिए हम पर ये लाज़िम है के हम दावत-ए-इस्लाम का काम सब सँभालें और इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की बहाली के लिए मेहनत करें और इसको इस्लामी रियासत के क़ायम करने की नेहज का तरीक़ा बनाएं।
हम पर ये भी लाज़िम है के हम तमाम मुस्लिम मुमालिक को एक ही वहदत समझें और उन्हें अपनी दावत का हदफ़ बनाएं। लेकिन बहरहाल इस काम को एक या कुछ विलाएतों में महसूर करके वहां के मुसलमानों को इस्लामी अफ़्कार की तर्बीयत की जाय ताके इन में ये इन में ज़िंदा हो जाएं और वोह इस दावत से और इस दावत की ख़ातिर उठ खड़े हों और वहां हम आम शऊ़र पैदा करें और राय आममा इस तरफ़ राग़िब करें। इस से दावत के मुबल्लग़ीन और मुआषिरे के दरमयान रब्त होगा जो फ़आल और मुसीर हो इस बाहमी तफ़ाउल के ज़रीये एक जिददो जेहद होगी जिस का मक़सद इस्लामी रियासत का क़ियाम है जो उम्मत के इस हिस्से से निकलेगा जहां ये दावत मुरतकिज़ होगी। अब ये दावत मेहज़ एक दिमाग़ी फ़िक्र नहीं बल्के सरापा मुआशरा बन जाएगी और मेहज़ एक तेहरीक नहीं बल्के एक रियासत बन जाएगी। अब ये दावत अपने तमहीदी मराहिल से गुज़र चिकने के बाद नुक़तए-आग़ाज़ पर नहीं बल्के नुक़तए-इंतिलाक़ को पहुंच जाएगी और एक एैसी रियासत की शक्ल में तबदील हो जाएगी जिस में रियासत के तमाम अनासिर भी मौजूद हों और दावत पेश करने की क़ुव्वत-ओ-सलाहियत भी हो। यहां से ये रियासत एैसे दौर में दाखि़ल हो जाएगी जहां शरीयत ने इस रियासत पर और उन तमाम मुसलमानों पर जो इन इलाक़ों में रहते हों जो इस रियासत के दायरए- इक़्तदार से बाहर हैं, कुछ वाजिबात मुक़र्रर की हैं। इस रियासत पर वाजिब ये है के वोह अल्लाह तआला के नाज़िल करदा इस्लाम को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करे फिर वोह बाक़ी इस्लामी मुमालिक को अपने में शामिल करने या ख़ुद को बक़ीया इस्लामी मुमालिक में मुत्तहिद करने को अपनी दाखि़ली पाॅलिसी का हिस्सा बनाए जिसके लिए इस रियासत को इस्लामी ज़िंदगी की बहाली की दावत के लिए पहल करना होगा ख़ासतौर इन मुमालिक में जो इस रियासत के पड़ोसी हों। फिर वोह इन मफ़रूज़ा और वहमी सरहदों को ख़त्म करे जो काफ़िर इस्तिमार ने इन मुमालिक के बीच डाल रखी हैं और जिन के हाकिमों को इन मसनूई सरहदों का मुहाफ़िज़ बना रखा है। रियासत पर लाज़िम होगा के वोह इन सरहदों को ख़त्म करे चाहे इसके आस पास के मुमालिक ख़त्म ना भी करें। वोह इन सरहदों से गुज़रने के लिए वीज़े और कस्टम के नाके बंद करदे और लोगों की आमद-ओ-रफ़्त खोल दे। इस से उन मुस्लिम मुमालिक के अ़वाम को ये तास्सुर जाएगा के ये हक़ीक़तन एक इस्लामी रियासत है और वोह इस रियासत में इस्लाम की ततबीक़ और निफ़ाज़ के शाहिद होंगे। इन मुसलमानों पर जो इस रियासत की सरहदों से बाहर हों उन पर ये वाजिब है के वोह अपने मुमालिक में जो दार उल कुफ्ऱ है, और जहां इस्लाम नाफ़िज़ नहीं हो रहा है मुसलमान इस मुल्क की इस हालत को बदलने के लिए काम करें ताकेवोह दार-उल-इस्लाम बन जाय ये काम इस मुल्क को दार-उल-इस्लाम से मुत्तहिद करने के लिए दावत वतबलीग़ के ज़रीये होगा। इस अमल से ये यक़ीनी बन जाएगा के पूरा का पूरा इस्लामी मुआशरा इस नुक़तए-हरारत को पहुंच जाय जिस से तमाम मुसलमानों का इस्लामी रियासत में मुत्तहिद हो जाना तै होजाएगा। इस तरह एक जामेअ इस्लामी रियासत वजूद पाएगी जो एक आलमगीर फ़िक्री क़ियादत होगी और इस मेंवोह इस्तिताअत होगी जो सारे आलम में इस्लाम की दावत पहुंचाएगी और दुनिया को उन फ़सादी हालात और शर से नजात दिला पाएगी।
अगरचे उम्मते-मुस्लिमा पहले सिर्फ़ एक मुल्क में आबाद थी जिसकी हदें जज़ीरा नुमाए अ़रब में महसूर थीं और मुसलमानों की तादाद चंद लाख से ज़्यादा ना थी इसके बावजूद जब इसने इस्लाम को इख़्तियार किया और इसकी दावत को लेकर उठी तोवोह उस वक़्त की दो अज़ीम ताक़तों के दरमयान एक आलमी ताक़त की शक्ल में उभरी और दोनों का एक साथ ख़ातमा किया और उनके मुल्कों पर क़बज़ा करके वहां के बेशतर इलाक़ों में इस्लाम को फैलाया तो फिर आज की उम्मते-मुस्लिमा के बारे क्या तवक़्क़ुआत हों जो दुनिया की आबादी का चैथाई हिस्सा है और जिन के मुमालिक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं के इन के लिए मुत्तहिद होकर एक रियासत में शामिल होजाना कोई मुहाल नहीं। ये मुमालिक मग़रिब में मराक़श से हिंदस्तान और फिर इंडोनेशिया तक फैले हुए हैं। उम्मत-ए-मुस्लिमा के पास वसाइल के एतबार से दुनिया का बेहतरीन हिस्सा है जो फ़ौजी तदाबीर के लिहाज़ से भी बेहतरीन है और जिन के पास दुनिया का वाहिद सही मब्दा-ओ-अ़क़ीदा है। यक़ीनन ये उम्मत दुनिया की बड़ी ताक़तों के सामने एक अज़ीम क़ुव्वत होगी जिस में कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
लिहाज़ा अब से ही ये हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है केवोह एक जामि इस्लामी रियासत के क़ियाम की ख़ातिर उठ खड़ा हो जो सारी दुनिया को इस्लाम की दावत पेश करेगी। मुसलमान को इस्लाम की दावत लेकर इस मक़सद से उठ खड़े होना चाहिए केवोह दुनिया के हर मुस्लिम मुल्क में इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी को बहाल करे और अपने काम को अमली तौर से एक मुल्क या कुछ मुमालिक में मुरतकिज़ रखे ताके वोह इस नुक़ता ए इंतिलाक़ तक पहुंच जाय। इस क़दर अज़ीम मक़सद को हासिल करने के लिए ये निहायत अ़मली और वाजे़ह तरीक़ए-कार है जिसे हर मुसलमान को चाहिए के वोह इसका इत्तिबा करे और इसके रास्ते में पेश आने वाली हर मशक़्क़त और दुशवारी को झेलने के लिए तैय्यार हो जाए और अपनी इस कोशिश में वोह कोई कसर ना उठा रखे। इस कार-ए-अज़ीम में वोह अल्लाह तआला की मदद ओ नुसरत पर मुतवक्किल रहे और इस कार-ए-ख़ैर के इवज़ वोह किसी इनाम का तालिब ना हो बजुज़ अल्लाह की रज़ा के।
इस्लामी अफ़्कार की ताक़त जो फ़ीनफ़सिही इस्लाम में है और इसका तरीका ए कार दोनों इस्लामी रियासत के क़ायम करने के लिए काफ़ी हैं बशर्तेके इस्लामी अफ़्कार दिलों में गहराई से उतर जाएं, नुफ़ूस में समां जाएं और मुसलमान इसके पीकर-ए-मुजस्सम बन जाएं तो इस्लाम इंसानों में ज़िंदा हो जाएगा। लेकिन इन सब के बावजूद कुछ ग़ैरमामूली अफ़आल और अ़ज़ीमुश्शान काविशें लाज़िमी होंगी जिन से इस्लामी रियासत वजूद में आए और इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी का अहया हो सके। इसके लिए मेहज़ ख़्वाब, ख़ुश ख़्याली, उम्मीद परस्ती और रजाईयत काफ़ी नहीं। इस उम्मउल वाजबात के लिए अपनी तमाम तर सलाहियतों को बरुए कार लाकर इन अड़चनों और रुकावटों की शनाख़्त की जाय जो इस राह में हाइल हैं ताके उन पर ग़लबा पाया जा सके।
यहां इन मुसलमानों को जो इस अज़ीमुश्शान काम के लिए उठ खड़े हों, इन्हें आगाह कर देना भी ज़रूरी है के इन के सामने किस क़दर अज़ीमउलहीकल ज़िम्मेदारी है और दानिष्वरों को जो इस काम के लिए तैय्यार हों, इन्हें ख़बरदार कर देना भी ज़रूरी है के इस काम के लिए उनकी आवाज़ के क्या मुम्किना नताइज हो सकते हैं और क्या क्या मशक़्क़तें उन्हें झेलना पड़ सकती हैं ताके मुकम्मल शऊ़र, शौक़, इरादे और हिम्मत के साथ उनके अक़्वाल-ओ-अफ़आल हम आहंग हो जाएं। जो इस्लामी ज़िंदगी के अहया की इस कठिन राह पर चलें उन्हें पूरा शऊ़र हो के वोह एक सख़्त चट्टान में अपनी राह बना रहे हैं और ख़ुशख़बरी भी हो ये के मज़बूत इरादे और मुकम्मल इख़लास से ये मुम्किन भी है।
उन्हें ये भी मालूम हो के वोह एक निहायत नाज़्ाुक और दक़ीक़ ज़िम्मेदारी निबाह रहे हैं जिस में इनकी शख़्सिय्यत की लताफ़त को तमाम तर बरुए कार लाना होगा नीज़ उनकी राह ख़ारदार है लेकिन वोह उसे उबूर कर सकते हैं। वोह जिस राह पर चलने की ठान चुके हैं उन्हें इससे भटकना नहीं है क्योंके ये वोह राह है जिस पर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सललल्लाहो अलैहि वसल्लम चले और अगर इस राह पर कमा हक़्क़हु चला जाय तो नताइज यक़ीनी हैं और कामयाबी में ज़रा भी शक नहीं बशर्तिके इस राह पर हुज़ूर अकरम स.अ. की मिसाल को सामने रखा जाय और इससे गुरेज़ ना किया जाय ताके राह की ठोकर से बचा जा सके क्योंके इस राह में हर ठोकर और इस्तिंबात की हर ग़लती इस काम को बेअसर बना देगी। लिहाज़ा मेहज़ खि़लाफ़त के लिए कान्फ्रेन्सें मुनआक़िद कर लेना या मुस्लिम मुमालिक को मुत्तहिद करने की कोशिश कर लेना इस्लामी रियासत के क़ायम करने का तरीक़ा नहीं है और ना ही इस्लामी कान्फ्रेन्सें मुनआक़िद कर लेने से इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी बहाल हो सकती है। ये चीज़ें और उन जैसी तमाम कोशिशें बेसूद हैं क्योंके ये मेहज़ मुसलमानों के जज़्बात को वक़्ती तौर पर मुतमइन करती हैं और उन्हें दिलासा देती हैं के उन्होंने कुछ कर लिया जबके अभी अस्ल काम तो दूर की बात है।
फिर मज़ीद ये के मेहज़ ये तमाम तरीक़े इस्लाम से मुतनाक़िज़ हैं। इस्लामी रियासत के क़ायम करने का वाहिद रास्ता ये है के इस्लाम के पैग़ाम को लेकर इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की बहाली के लिए काम किया जाय और इस में निहायत ज़रूरी है के तमाम मुस्लिम मुमालिक को शामिल किया जाय क्योंके तमाम मुसलमान एक ही उम्मत हैं। ये इंसानों की वोह जमाअ़त हैं जिन का एक ही अ़क़ीदा है जिस से एक निज़ाम ए हयात निकलता है। किसी भी मुस्लिम मुल्क की सतह पर किया जाने वाला कोई भी अमल जो मुसलमानों के अफ़्कार ओ जज़्बात को मुतास्सिर करे, नागुज़ीर है के उसके असरात दूसरे मुस्लिम मुमालिक में भी अयाँ हों, लिहाज़ा ये निहायत अहम है के तमाम मुस्लिम मुमालिक को इस दावत में शामिल किया जाय ताके इसके असरात हर जगह हों।
इस उम्मत की मिसाल एक बर्तन में पानी की सी है। जब बर्तन को नीचे से हरारत फ़राहम की जाय तो पानी गर्म होगा और इस में उबाल आएगा और पानी बुख़ार में तबदील होगा और इस में हरकत होगी। इसी तरह मिसाल इस्लामी मुआषिरे की है को इस्लाम पेश किया जाये जिस से इस में हरारत आए और फिर हरकत हो और वोह इस हरकत से उठ खड़ा हो। लिहाज़ा ये ज़रूरी है के ये दावत पूरे आलमे इस्लामी के लिए हो ताके उम्मत इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की तरफ़ राग़िब हो। इस काम के लिए दावत देने के तमाम ज़राए और वसाइल इख़्तियार किए जाएं जैसे किताबें, रिसाले और राबते, ख़ास तौर पर राबते अहम हैं क्योंके राबतों में तासीर होती है। अलबत्ता इस दावत की हैसिय्यत मुआषिरे में ईंधन की तरह हो जिस से मौजूदा जुमूद जो उम्मत में आम है वोह हरारत-ओ-हरकत में तबदील हो जाय। ये उस वक़्त ही हासिल किया जा सकता है जब ये अमली दावत एक सियासी पहलू से एक मुल्क में महसूर हो जो इस अज़ीम काम का नुक़तए-आग़ाज़ बने और ये दावत तमाम आलमे इस्लामी में फैल जाय। ये मुल्क या एैसे मुमालिक मिल कर इस दावत का नुक़तए-इंतिलाक़ बनें और इस्लाम की दावत फिर सारे आलम तक पहुंचाई जा सके। यही वोह मनहज है जो हुज़ूर अकरम स.अ. ने इख़्तियार फ़रमाई थी। आपने दावत तमाम लोगों को दी और ये दावत अ़मली नहज पर थी। ये दावत अहल-ए-मक्का को दी गई और हज के मौसम में सारे अ़रब को इसकी तरफ़ बुलाया गया और ये दावत सारे जज़ीरा नुमाए अ़रब में फैल गई। इसकी मिसाल एैसी है जैसे आपं इस मुआषिरे को ईंधन फ़राहम कर रहे थे जिस से सारे अ़रब में हरारत फैल रही थी। लोग इस्लाम की तरफ़ बुलाए जाते, आप हज के मौसम में अ़रबों से राबिता करते और उन्हें दावत पेश करते, उनके घरों और क़बीलों को जाते और इस्लाम की तरफ़ बुलाते थे। फिर आप और कफ़्फ़ार-ए-क़ुरैश के दरमयान मुख़ासिमत की गूंज सारे अ़रब में फैल रही थी और इस गूंज के साथ इस्लाम की दावत भी आम हो रही थी और अ़रबों में इस दावत के लिए तजस्सुस पैदा हो रहा था। गो के दावत-ए-आम थी लेकिन बहरहाल ये मक्का तक महसूर थी। फिर ये दावत मदीना पहुंची जहां हिजाज़ में एक इस्लामी रियासत की बिना पड़ी तब ही ये ईंधन रंग लाया और इसकी हरारत से हुज़ूरं को फ़तह हुई और लोग इस दावत पर ईमान लाए यहां तक के ये फैल कर सारे जज़ीरा नुमाए अ़रब पर मुहीत हुई और फिर इसका पैग़ाम सारे आलम को पहुंचाया गया। इसलिए हम पर ये लाज़िम है के हम दावत-ए-इस्लाम का काम सब सँभालें और इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी की बहाली के लिए मेहनत करें और इसको इस्लामी रियासत के क़ायम करने की नेहज का तरीक़ा बनाएं।
हम पर ये भी लाज़िम है के हम तमाम मुस्लिम मुमालिक को एक ही वहदत समझें और उन्हें अपनी दावत का हदफ़ बनाएं। लेकिन बहरहाल इस काम को एक या कुछ विलाएतों में महसूर करके वहां के मुसलमानों को इस्लामी अफ़्कार की तर्बीयत की जाय ताके इन में ये इन में ज़िंदा हो जाएं और वोह इस दावत से और इस दावत की ख़ातिर उठ खड़े हों और वहां हम आम शऊ़र पैदा करें और राय आममा इस तरफ़ राग़िब करें। इस से दावत के मुबल्लग़ीन और मुआषिरे के दरमयान रब्त होगा जो फ़आल और मुसीर हो इस बाहमी तफ़ाउल के ज़रीये एक जिददो जेहद होगी जिस का मक़सद इस्लामी रियासत का क़ियाम है जो उम्मत के इस हिस्से से निकलेगा जहां ये दावत मुरतकिज़ होगी। अब ये दावत मेहज़ एक दिमाग़ी फ़िक्र नहीं बल्के सरापा मुआशरा बन जाएगी और मेहज़ एक तेहरीक नहीं बल्के एक रियासत बन जाएगी। अब ये दावत अपने तमहीदी मराहिल से गुज़र चिकने के बाद नुक़तए-आग़ाज़ पर नहीं बल्के नुक़तए-इंतिलाक़ को पहुंच जाएगी और एक एैसी रियासत की शक्ल में तबदील हो जाएगी जिस में रियासत के तमाम अनासिर भी मौजूद हों और दावत पेश करने की क़ुव्वत-ओ-सलाहियत भी हो। यहां से ये रियासत एैसे दौर में दाखि़ल हो जाएगी जहां शरीयत ने इस रियासत पर और उन तमाम मुसलमानों पर जो इन इलाक़ों में रहते हों जो इस रियासत के दायरए- इक़्तदार से बाहर हैं, कुछ वाजिबात मुक़र्रर की हैं। इस रियासत पर वाजिब ये है के वोह अल्लाह तआला के नाज़िल करदा इस्लाम को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करे फिर वोह बाक़ी इस्लामी मुमालिक को अपने में शामिल करने या ख़ुद को बक़ीया इस्लामी मुमालिक में मुत्तहिद करने को अपनी दाखि़ली पाॅलिसी का हिस्सा बनाए जिसके लिए इस रियासत को इस्लामी ज़िंदगी की बहाली की दावत के लिए पहल करना होगा ख़ासतौर इन मुमालिक में जो इस रियासत के पड़ोसी हों। फिर वोह इन मफ़रूज़ा और वहमी सरहदों को ख़त्म करे जो काफ़िर इस्तिमार ने इन मुमालिक के बीच डाल रखी हैं और जिन के हाकिमों को इन मसनूई सरहदों का मुहाफ़िज़ बना रखा है। रियासत पर लाज़िम होगा के वोह इन सरहदों को ख़त्म करे चाहे इसके आस पास के मुमालिक ख़त्म ना भी करें। वोह इन सरहदों से गुज़रने के लिए वीज़े और कस्टम के नाके बंद करदे और लोगों की आमद-ओ-रफ़्त खोल दे। इस से उन मुस्लिम मुमालिक के अ़वाम को ये तास्सुर जाएगा के ये हक़ीक़तन एक इस्लामी रियासत है और वोह इस रियासत में इस्लाम की ततबीक़ और निफ़ाज़ के शाहिद होंगे। इन मुसलमानों पर जो इस रियासत की सरहदों से बाहर हों उन पर ये वाजिब है के वोह अपने मुमालिक में जो दार उल कुफ्ऱ है, और जहां इस्लाम नाफ़िज़ नहीं हो रहा है मुसलमान इस मुल्क की इस हालत को बदलने के लिए काम करें ताकेवोह दार-उल-इस्लाम बन जाय ये काम इस मुल्क को दार-उल-इस्लाम से मुत्तहिद करने के लिए दावत वतबलीग़ के ज़रीये होगा। इस अमल से ये यक़ीनी बन जाएगा के पूरा का पूरा इस्लामी मुआशरा इस नुक़तए-हरारत को पहुंच जाय जिस से तमाम मुसलमानों का इस्लामी रियासत में मुत्तहिद हो जाना तै होजाएगा। इस तरह एक जामेअ इस्लामी रियासत वजूद पाएगी जो एक आलमगीर फ़िक्री क़ियादत होगी और इस मेंवोह इस्तिताअत होगी जो सारे आलम में इस्लाम की दावत पहुंचाएगी और दुनिया को उन फ़सादी हालात और शर से नजात दिला पाएगी।
अगरचे उम्मते-मुस्लिमा पहले सिर्फ़ एक मुल्क में आबाद थी जिसकी हदें जज़ीरा नुमाए अ़रब में महसूर थीं और मुसलमानों की तादाद चंद लाख से ज़्यादा ना थी इसके बावजूद जब इसने इस्लाम को इख़्तियार किया और इसकी दावत को लेकर उठी तोवोह उस वक़्त की दो अज़ीम ताक़तों के दरमयान एक आलमी ताक़त की शक्ल में उभरी और दोनों का एक साथ ख़ातमा किया और उनके मुल्कों पर क़बज़ा करके वहां के बेशतर इलाक़ों में इस्लाम को फैलाया तो फिर आज की उम्मते-मुस्लिमा के बारे क्या तवक़्क़ुआत हों जो दुनिया की आबादी का चैथाई हिस्सा है और जिन के मुमालिक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं के इन के लिए मुत्तहिद होकर एक रियासत में शामिल होजाना कोई मुहाल नहीं। ये मुमालिक मग़रिब में मराक़श से हिंदस्तान और फिर इंडोनेशिया तक फैले हुए हैं। उम्मत-ए-मुस्लिमा के पास वसाइल के एतबार से दुनिया का बेहतरीन हिस्सा है जो फ़ौजी तदाबीर के लिहाज़ से भी बेहतरीन है और जिन के पास दुनिया का वाहिद सही मब्दा-ओ-अ़क़ीदा है। यक़ीनन ये उम्मत दुनिया की बड़ी ताक़तों के सामने एक अज़ीम क़ुव्वत होगी जिस में कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
लिहाज़ा अब से ही ये हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है केवोह एक जामि इस्लामी रियासत के क़ियाम की ख़ातिर उठ खड़ा हो जो सारी दुनिया को इस्लाम की दावत पेश करेगी। मुसलमान को इस्लाम की दावत लेकर इस मक़सद से उठ खड़े होना चाहिए केवोह दुनिया के हर मुस्लिम मुल्क में इस्लामी तर्ज़े ज़िंदगी को बहाल करे और अपने काम को अमली तौर से एक मुल्क या कुछ मुमालिक में मुरतकिज़ रखे ताके वोह इस नुक़ता ए इंतिलाक़ तक पहुंच जाय। इस क़दर अज़ीम मक़सद को हासिल करने के लिए ये निहायत अ़मली और वाजे़ह तरीक़ए-कार है जिसे हर मुसलमान को चाहिए के वोह इसका इत्तिबा करे और इसके रास्ते में पेश आने वाली हर मशक़्क़त और दुशवारी को झेलने के लिए तैय्यार हो जाए और अपनी इस कोशिश में वोह कोई कसर ना उठा रखे। इस कार-ए-अज़ीम में वोह अल्लाह तआला की मदद ओ नुसरत पर मुतवक्किल रहे और इस कार-ए-ख़ैर के इवज़ वोह किसी इनाम का तालिब ना हो बजुज़ अल्लाह की रज़ा के।
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