क़िताल की तैयारी - 13

क़िताल की तैयारी - 13

अब जबके आप (صلى الله عليه وسلم) मदीने के मुआशरे की तरफ़ से मुतमइन हो गये और पड़ोसी यहूदियों से मुआहिदात हो गये तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने मदीने में जिहाद की तैयारी शुरू की क्योंके इस्लामी रियासत की येह ज़िम्मेदारी है के वोह अपने इलाक़ा-ए-इक़्ितदार में इस्लामी अहकामात को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करे और अपनी सरहदों से बाहर इस्लामी दावत पहुँचाये। इस्लामी दावत या पैग़ाम के पहुँचाने का मतलब सिर्फ़़ येह नहीं होता के किसी ईसाई मिशनरी की तरह, बल्के इस में इस्लाम की तरफ़ दावत देना, लोगों की इस्लामी अफ़्कार और अहकामात में तरबीयत करना और इस दावत के रास्ते में हाइल किसी भी माद्दी रुकावट को बज़रिये एैसी क़ुव्वत से ज़ाइल करना जो इस की अहल हो, भी शामिल हैं।
कु़रैश इस्लामी दावत के रास्ते में एक माद्दी रुकावट ही बने हुये थे और येह ज़रूरी था के एक एैसी क़ुव्वत तैयार की जाये जो इनको ज़ाइल कर सके। इस ग़र्ज़ से और इस्लाम की दावत को आगे बढ़ाने की ग़र्ज़ से अब एक फ़ौज के बनाने की तैयारी शुरू हुई। आप (صلى الله عليه وسلم) ने क़सदन कुछ इक़दामात किये जिनका मक़सद एक तरफ़ तो क़ुरैश को ललकारना मक़सूद था और दूसरी तरफ़ मदीने और आस पास के यहूदियों और मुनाफ़िक़ीन पर रोअ़ब तारी करना था। इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) ने चार माह के दौरान तीन मुहिम्मात मदीने के बाहर भेंजीं। एक मुहिम में अंसार को छोड़कर तीस मुहाजिरीन पर मुशतमिल एक टुकड़ी हज़रत हमज़ा इब्ने अ़ब्दुल मुत्तलिब रज़ि0 की सरबराही में भेजी जो अलईस के मुक़ाम पर समंदर के किनारे अबू जेहल इब्ने हिशाम की सरबराही में तीन सौ अफ़्राद की फ़ौज से टकराई।

क़रीब था के इनके माबइन मअ़रका होता लेकिन मजदी बिन अ़म्र अलजुहन्नी के बीच में आने से येह टल गया और हज़रत हमज़ा बग़ैर क़िताल किये मदीने वापस पहुँचे। इसी तरह एक और टुकड़ी आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत अबू उ़बैदह इब्ने अलहारिस रज़ि0 की क़यादत में रवाना की, इसमें सिर्फ़़ मुहाजिरीन थे जिनकी तादाद साठ थी। इनका सामना इ़करिमा बिन अबी जेहल से वादी राबिग़ में हुआ। इसमें सिर्फ़़ एक तीर चला जो हज़रत सअ़द बिन अबी वक़ास रज़ि0 ने चलाया था। फिर फ़रीक़ैन अलाहदा हो गये और कोई मुक़ाबला आराई नहीं हुई। इसके बाद हज़रत सअ़द बिन अबी वक़ास रज़ि0 को बीस सवारों की टुकड़ी की क़यादत देकर मक्के की जानिब भेजा गया। येह टुकड़ी भी बग़ैर मारका अराई के लौट आई। इन मुहिम्मात से एक तो मदीने में जिहाद की फ़िज़ा बनी और दूसरी तरफ़ क़ुरैश पर हैबत तारी हो गई और वोह अब हुज़ूर सल्ल0 से ख़तरा मेहसूस करने लगे जो पहले कभी नहीं किया था, और अगर यह मुहिम्मात न भेजी गईं होतीं तो उन पर यह हैबत तारी न होती। आप (صلى الله عليه وسلم) ने मेहज़ इतने पर इक्तिफ़ा न किया बल्के हिज़रत का एक साल पूरा होने के मौक़े पर आप (صلى الله عليه وسلم) ख़ुुद एक मुहिम पर रवाना हुए, साथ में हज़रत सअ़द इब्ने उ़बादा भी थे, आप (صلى الله عليه وسلم) क़ुरैश और बनी ज़मरा को तलाश करते हुए अल-अबवा और फिर वुद्दान पहुंचे। क़रैश तो नहीं मिले, अलबत्ता बनी ज़मरा ने आप (صلى الله عليه وسلم) से अम्न कर लिया।

इसके एक महीने के बाद आप दो सौ अन्सार और मुहाजिरीन पर मुशतमिल एक टुकड़ी के साथ बुवात, उमैय्या बिन ख़लफ़ की क़यादत में एक क़ाफ़िले की टोह के लिए निकले। इस क़ाफ़िले में एक सौ लड़ाकू थे और दो हज़ार पाँच सौ मवेशी। इस बार भी मुक़ाबला नहीं हुआ क्योंके येह क़ाफ़िला एक एैसे रास्ते से निकल गया जिस पर आम तौर से नहीं जाता था। इसके तीन माह बाद अबू सलमा बिन अ़ब्दुल असद रज़ि0 को मदीने की ज़िम्मेदारी देकर आप (صلى الله عليه وسلم) दो सौ अफ़्राद की फ़ौज के हमराह यमबूअ़ में अल-अ़शीरा पहुंचे, यह बात जुमादल-अव्वल के आखि़र की है, वहीं आप (صلى الله عليه وسلم) ने जुमादल-आखि़र के इब्तिदाअ़ी दिनों तक  क़ुरैश की एक फ़ौज का इन्तिज़ार किया जो अबू सुफ़्यान की क़यादत में थी। यह हिजरी का दूसरा साल था, बहरहाल क़ुरैश के क़ाफ़िले से टकराव नहीं हुआ लेकिन यह मुहिम रायगाँ नहीं गई, इसके दौरान बनी मुदलज और उनके हलीफ़, बनी ज़मरा के क़बाइल से मुआहिदे हुए। अभी इस मुहिम से मदीने वापसी को दस दिन ही गुज़रे थे के क़ुरैश के एक हलीफ़ कर्ज़ बिन जाबिर अलफ़हरी ने मदीने के ऊँटों और मवेशियों पर हमला किया, आप (صلى الله عليه وسلم) मदीने की ज़िम्मेदारी हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ि0 को सौंपकर उसकी तलाश में रवाना हुए और बदर की जानिब सफ़वान की वादी तक पीछा किया लेकिन वोह पकड़ा न जा सका, यह बदर की शुरूआत थी।
इस तरह मुहिम्मात ने मुस्लिम फ़ौजों की एक धाक बिठा दी। हालांके इन मुहिम्मात में कोई बाक़ायदा लड़ाई नहीं हुई, ताहम यह बड़ी अज़ीम कामयाबी रही क्योंके इस वक़्त यह हुआ के मुसलमान अफ़्वाज की बड़ी जंगों के लिये रियाज़त हो गई। मज़ीद येह के इससे मदीने और अतराफ़ के यहूद और मुनाफ़िक़ीन को एक हैबत में डाल दिया के अगर वोह किसी क़िस्म की मुहिमजोई के बारे में सोच भी रहे हों तो बाज़ आ जाएैं। क़ुरैश की हिम्मतें पस्त हुईं और दुशमनों के दिल में रोअ़ब छा गया। फिर इसका फ़ायदा येह भी हुआ के मदीने और बह्रे अह्मर के दर्मियान जो क़बाइल आबाद थे जैसे बनी मुदलज और बनी ज़मरा, उनसे मुआहिदात हो गए और येह क़बाइल मक्के और शाम के तिजारती रास्ते में थे।
क़िताल की शुरूआत
हुजू़रे अकरम सल्ल0 मदीने में मुसलसल इस्लामी अहकाम को मुआशरे पर नाफ़िज़ करते रहे और अब इस्लामी क़ानून यानी तशरीई आयात का नुज़़ूल होने लगा, एक तरफ़ तो आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लामी रियासत को मज़्बूत कर रहे थे और दूसरी तरफ़ मुआशरे को इस्लाम और उसके निज़ाम पर उस्तवार कर रहे थे, मुसलमानों के दरमियान भाईचारा हुआ और इस्लाम मुआशरे में बहैसिय्यत अहकाम और तशरीअ़ के नाफ़िज़ हुआ तो अब यह ज़िन्दगी से भर गया था क्योंके एक मुआशरे ने उसकी दावत को अपने ज़िम्मे कर लिया था, और मुसलमानों की तादाद में रोज़ अफ़्जूं इज़ाफ़ा हो रहा था, साथ ही उसकी ताक़त और मुज़ाहिमती क़ुव्वत भी बढ़ रही थी, मुश्रिकीन और यहूद बहैसिय्यते फ़र्द और जमाअ़त की षक्लों में इस्लाम में शामिल हो रहे थे, अब मदीने के अन्दर इस्लाम और उसकी दावत की तरफ़ से आप (صلى الله عليه وسلم) मुतमइन हुये तो सारे अ़रब में दावत पर तवज्जोह फ़रमाई लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) यह बात अच्छी तरह जानते थे के कु़रैश इस दावत की राह में एक माद्दी रुकावट हैं और इन पर इस्लाम के माक़ूल दलाइल ओ बुरहान का क़तई असर होने वाला नहीं, येह तो माद्दी क़ुव्वत से ही क़ाबू में आ सकते हैं। जब तक आप (صلى الله عليه وسلم) मक्के में रहे, येह ना मुम्किन था क्योंके इस्लाम के पास कोई रियासत नहीं थी जो एक एैसी फ़ौज तैयार कर सके जो एैसी माद्दी रुकावटों के इज़ाले के लिये नागुजी़र होती है, लेकिन अब एक इस्लामी रियासत मौजूद थी और येह कर सकती थी के दावत में रुकावट और रोड़ा बनने वाली हर क़ुव्वत को अपनी ज़ोरे बाज़ू से जे़र कर द। अब क्योंके वसाइल मुहैय्या थे, ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की थी के एक जंगी फ़िज़ा क़ायम की जाये और एक मुतअैय्यन पॉलिसी के तेहत दावत को आगे बढ़या जाये।
इसी ग़र्ज़ से आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ौजी मुहिम्मात शुरू की थीं जिनमें से बाज़ में आप (صلى الله عليه وسلم) ख़ुद भी शरीक रहे थे के क़़ुरैश पर इस्लामी कु़व्वत की धाक बैठ जाय। इन मुहिम्मात में सबसे बाद की मुहिम वोह थी जो हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने जहश की क़यादत में रजब स्न दो हि. में रवाना की गयी। यह बदर की शुरूआत कही जा सकती है, इस टुकड़ी में हज़रत अ़ब्दुल्लाह रज़ि0 के साथ मुहाजिरीन की एक जमाअ़त थी और आप (صلى الله عليه وسلم) ने एक ख़त दिया था, इस हुक्म के साथ के उसे दो दिन के बाद ही खोला जाये, और किसी भी साथी पर कोई सख़्ती न की जाये, हस्बे हुक्म जब हज़रत अ़ब्दुल्लाह ने वोह ख़त खोला तो उस में लिखा था यह ख़त पढ़ने बाद मक्का और ताइफ़ के दरमियान नख़्ला में पहुंचो और कु़रैश पर निगाह रखो और हमें उन्के हालात से आगाह करो। उन्होंने अपने साथियों को आप (صلى الله عليه وسلم) का हुक्म सुनाया और बताया के येह हुक्म भी दिया है के किसी पर सख़्ती न की जाये।
येह लोग चलते रहे, हज़रत सअ़द इब्ने अबी वक़्क़ास रज़ि0 और उ़तबा इब्ने ग़ज़वान रज़ि0 जो एक ऊंट पर बारी-बारी सवार होते थे, वोह गुम गया तो येह दोनों उसे ढूँढने में भटक गये उधर हज़रत अ़ब्दुल्लाह रज़ि0 नख़्ला में क़ुरैश की ताक में बैठे थे के एक कारवां गुज़रा जिसमें कुछ तिजारती सामान था, यह रजब के आख़री दिन थे जो हुरमात का महीना था, चुनाँचे हज़रत अ़ब्दुल्लाह रज़ि0 ने अपने साथियों से मश्वरा किया, लोगों की राय यह थी इस मुआमले में हमें कोई मख़्सूस हुक्म नहीं है, लेकिन अगर हम इन्हें आज की रात छोड़ देते हैं तो येह हरम में दाखि़ल हो जायेंगे और हमारी ज़द से बाहर भी, लेकिन अगर हम लड़ते हैं तो येह हराम महीनों में लड़ाई होगी, लड़ाई के तअ़ल्लुक़ से इस तरद्दुद और तज़बज़ुब के बाद वोह हत्मी नतीजे पर पहुंचे और एक तीर फेंका जो क़ाफ़ि़ले के सरदार अ़म्र बिन अलहदरमी के लगा और वोह मारा गया। मुसलमानों ने कु़रैश के दो आदमियों को कै़दी बनाया, सामान अपने क़ब्ज़े में लिया और मदीने लौट आये। जब आप (صلى الله عليه وسلم) ने देखा तो फ़रमाया के मैंने तुम्हें हराम महीने में क़त्ल का हुक्म नहीं दिया था, आप (صلى الله عليه وسلم) ने कारवां को रोक लिया और क़ैदियों को भी लेकिन उस में से कोई चीज़ नहीं ली।
कु़रैश की टोह में भेजे गये हज़रत अ़ब्दुल्लाह की मुहिम का ख़ु़लासा यह हुआ के एक टुकड़ी को इस ग़र्ज़ से भेजा था के वोह कु़रैश की ख़बर लाये, लेकिन हुआ यह के हमला हुआ, एक क़त्ल हुआ, कै़दी बनाये गये और सामान ज़ब्त किया गया और यह सब रजब के हराम महीने में हुआ। अब इस मुआमले में इस्लाम का मौक़िफ़ क्या होगा? आप (صلى الله عليه وسلم) इसी पर ग़ौर फ़रमा रहे थे और अल्लाह के हुक्म का इन्तिज़ार कर रहे थे, इसी लिये आप (صلى الله عليه وسلم) ने क़ैदी और माल के मुआमले को जूं का तूं रखा। कु़रैश ने इस मुआमले को हीला बनाकर आप (صلى الله عليه وسلم) और मुसलमानों पर इल्ज़ाम तराशी की और सारे अ़रब में यह बात फैलाई के मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) और उनके अस्हाब रज़ि0 ने हराम महीनों की हुरमत का पास नहीं रखा और क़िताल किया, सामान ज़ब्त किया और आदमियों को क़ैदी बनाया। मक्के में जो मुसलमान बचे थे, उनसे भी क़ुरैश उलझे, उन मुसलमानों ने येह सफ़ाई पेश की के येह मुआमिला शाबान में हुआ था न के रजब में लेकिन यह वज़ाहत काफ़ी नहीं थी, इससे कु़रैश के परोपेगन्डे पर असर नहीं पड़ा, यहूदी भी कु़रैश का साथ देेने लगे, और अ़ब्दुल्लाह बिन जहश रज़ि0 पर इल्ज़ाम लगाने लगे। इसका असर मुसलमानों पर भी ख़ातिर ख़्वाह पड़ा, उधार आप (صلى الله عليه وسلم) इस मुआमले में अल्लाह तआला के हुक्म का इन्तिज़ार कर रहे थे जो सूरहः बक़राः की यह आयत थी।
يَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيْهِ١ؕ قُلْ قِتَالٌ فِيْهِ ڪَبِيْرٌ١ؕ وَ صَدٌّ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَڪُفْرٌۢ بِهٖ وَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ١ۗ وَ اِخْرَاجُ اَهْلِهٖ مِنْهُ اَڪْبَرُ عِنْدَ اللّٰهِ١ۚ وَ الْفِتْنَةُ اَڪْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ١ؕ وَ لَا يَزَالُوْنَ يُقَاتِلُوْنَڪُمْ حَتّٰى يَرُدُّوْڪُمْ عَنْ دِيْنِڪُمْ اِنِ اسْتَطَاعُوْا١ؕ
तुम से माहे हराम में जंग के बारे में पूछते हैं, कहो के इसमें लड़ना बड़ी संगीन बात है लेकिन अल्लाह के रास्ते से रोकना, अल्लाह के नज़दीक उस से भी ज़्यादा संगीन है, और फ़ितना क़त्ल से शदीद तर है। उनका बस चले तो वोह तुमसे बराबर लड़ते रहें ताके तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें। (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः बक़राः 217)
अब इन आयात के नाज़िल होने पर आप (صلى الله عليه وسلم) ने माले ग़नीमत तक़्सीम किया और कु़रैश के दो क़ैदियों के एवज़ हज़रत सअ़द इब्ने अबी वक़्कास रज़ि0 और उ़तबा इब्ने ग़ज़वान रज़ि0 की रिहाई हासिल की, यह आयात कु़रैश की इल्ज़ाम तराशियों का कड़ा जवाब थीं, कु़रैश का यह कहना था के हुरमत के महीनों में क़िताल एक बड़ा जुर्म है, कुऱ्आन ने जवाब दिया के इससे बड़ा जुर्म लोगों को हरमे कअ़बा से दूर रखना और वहाँ से भगा देना है, कुरैश के मज़ालिम के मुसलमानों को उनके दीन के सबब डराया जाये, तअ़ज़ीब की जाये, और हिरासां किया जाये, यह बड़े जुर्म हैं बनिस्बत इसके के हुर्मात के महीनों में क़िताल करना, क़रैश ने बिला तवक़्कुफ़ मुसलमानों पर मज़ालिम किये ताके उनको उनके दीन से हटा सकें, इसलिये अब मुसलमानों को यह हक़ था के वोह इन महीनों भी क़िताल करें, उनके लिये कोई चीज़ मानेअ़ नहीं होगी, यह कु़रैश ही थे जो दावत की राह में आड़ बनकर, लोगों को अल्लाह के रास्ते से दूर करके, अल्लाह से कुफ्ऱ करके, मुसलमानों को मस्जिदे हराम से भगाकर और उनपर मज़ालिम करके उससे बड़े जुर्म और गुनाह के मुर्तकिब हो रहे थे, उनके लिये यही ठीक है के उनसे जब मुनासिब हो तब क़िताल किया जाये ख़्वाह वोह माहे हुर्मात हों या दीगर।
चुनाँचे हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन जहश रज़ि0 की मअ़र्का आराई न उनके लिये और न मुसलमानों के लिये बाइसे शर्म थी, बल्के येह तारीख़े इस्लाम में एक मोड़ की हैसिय्यत रखती थी, यहाँ यह तय हुआ के इस्लामी दावत की क्या सियासत (पॉलिसी) होना चाहिये, इसमें वाक़िद इब्ने अ़ब्दुल्लाह अत् तमीमी रज़ि0 का फेंका हुआ तीर अ़म्र अल-हज़रमी को लगा और वोह हलाक हुआ, येह पहला खू़न था जो अल्लाह के रासते में (काफ़िर का) बहाया गया।
इन आयात से पहले हराम महीनों में क़िताल की मुमानिअ़त थी, अब मुसलमान किसी भी जगह, किसी वक़्त लड़ सकते थे, इन आयात में हुक्म उमूमी से पहले की पाबंदी मंसूख़ हो गई।
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