➡ सवाल नं. (9) क्या खिलाफत में पार्लियामेंट (संसद) होगी?
जवाब
🅾 संसद लोकतांत्रिक व्यवस्था में पाई जाने वाली वोह संस्था है, जिसके सबसे ज़्यादा ज़रूरी क़ामों में से एक काम क़ानून बनाना होता है। संसद के सदस्यों को सांसद (एम.पी.) कहा जाता है जिनका काम सरकार का मुहासबा (जवाबतलबी) करना, क़ानून बनाना, विश्वास मत देना, मुआहिदों और योजनाओं को मंज़ूर करना और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को चुनना और सरकार को समर्थन देना होता है।
✅ खिलाफत में ''मजलिसे उम्मा'' नाम की एक संस्था होती है जिसकी कुछ बातें संसद से मिलती जुलती है, लेकिन इसके सदस्यों के काम सांसदों से अलग है। हांलाकि मजलिसे उम्मा भी जनता के नुमाइंदों से मिलकर बनेगी, लेकिन इसकी तुलना संसद से करना उचित नहीं है।
✅ मजलिसे उम्मा का काम खलीफा को मश्वरा देना, खलीफा से क़ानून के बारे मे चर्चा करना (खलीफा की मर्ज़ी पर होगा कि चाहे तो उसे अपनाए या ना अपनाए), हुक्मरानों की जवाब तलबी और उनका मुहासिबा करना, और किसी नीति या मुआहिदे पर मंज़ूरी देना होगा।
🅾 जबकि संसद में जनता के नुमाइंदे जो तय कर लेते हैं वही प्रधानमंत्री को मानना पड़ता है। ज़्यादा से ज़्यादा वो उसको दुबारा विचार के लिए वापस भेज सकता है और तीसरी बार में तो उसको मानना ही पडे़गा।
✅ इस्लामी रियासत में खलीफा जनता के नुमाइंदों की बात मानने के लिए बाध्य नहीं है। खलीफा को उनका मश्वरा देने का काम इसलिए होगा क्योंकि उसमें अलग-अलग ईलाके के नुमाइंदे होगें वो उनकी समस्याओं को ज़्यादा अच्छी तरह जानेंगे, उसी हिसाब से वो खलीफा को मश्वरा देंगे।
✅ मजलिसे उम्मा में मुसलमान और गै़र-मुस्लिम भी होगें। उसमें खलीफा को चुनने का अधिकार सिर्फ मुसलमान नुमाइंदो को होगा क्योंकि इस व्यवस्था का ताल्लुक अक़ीदे से है।
🅾 संसद एक क़ानूनसाज़ इदारा है जबकि इस्लाम में क़ानून क़ुरआन और सुन्नत के ज़रिए तय है इसलिए यह इदारा बुनियादी तौर पर इस्लाम के विरूध है।
✅ मजलिसे उम्मा क़ानूनसाजी नहीं करती, मजलिसे उम्मा सिर्फ मुबाह मामलात में खलीफा को मश्वरा दे सकती है, बाक़ी फर्ज़ और सुन्नत, हराम और हलाल के मामलात में उसको कोई हक़ नहीं होगा। ।
✅ खिलाफत में ''मजलिसे उम्मा'' नाम की एक संस्था होती है जिसकी कुछ बातें संसद से मिलती जुलती है, लेकिन इसके सदस्यों के काम सांसदों से अलग है। हांलाकि मजलिसे उम्मा भी जनता के नुमाइंदों से मिलकर बनेगी, लेकिन इसकी तुलना संसद से करना उचित नहीं है।
✅ मजलिसे उम्मा का काम खलीफा को मश्वरा देना, खलीफा से क़ानून के बारे मे चर्चा करना (खलीफा की मर्ज़ी पर होगा कि चाहे तो उसे अपनाए या ना अपनाए), हुक्मरानों की जवाब तलबी और उनका मुहासिबा करना, और किसी नीति या मुआहिदे पर मंज़ूरी देना होगा।
🅾 जबकि संसद में जनता के नुमाइंदे जो तय कर लेते हैं वही प्रधानमंत्री को मानना पड़ता है। ज़्यादा से ज़्यादा वो उसको दुबारा विचार के लिए वापस भेज सकता है और तीसरी बार में तो उसको मानना ही पडे़गा।
✅ इस्लामी रियासत में खलीफा जनता के नुमाइंदों की बात मानने के लिए बाध्य नहीं है। खलीफा को उनका मश्वरा देने का काम इसलिए होगा क्योंकि उसमें अलग-अलग ईलाके के नुमाइंदे होगें वो उनकी समस्याओं को ज़्यादा अच्छी तरह जानेंगे, उसी हिसाब से वो खलीफा को मश्वरा देंगे।
✅ मजलिसे उम्मा में मुसलमान और गै़र-मुस्लिम भी होगें। उसमें खलीफा को चुनने का अधिकार सिर्फ मुसलमान नुमाइंदो को होगा क्योंकि इस व्यवस्था का ताल्लुक अक़ीदे से है।
🅾 संसद एक क़ानूनसाज़ इदारा है जबकि इस्लाम में क़ानून क़ुरआन और सुन्नत के ज़रिए तय है इसलिए यह इदारा बुनियादी तौर पर इस्लाम के विरूध है।
✅ मजलिसे उम्मा क़ानूनसाजी नहीं करती, मजलिसे उम्मा सिर्फ मुबाह मामलात में खलीफा को मश्वरा दे सकती है, बाक़ी फर्ज़ और सुन्नत, हराम और हलाल के मामलात में उसको कोई हक़ नहीं होगा। ।
🌙🌙खिलाफ़ते राशिदा सनी पर 100 सवाल 🌙🌙
✳ सवाल नं. (10) खिलाफत के अलावा इस्लाम में और कोई निज़ाम है?
➡ अगर हम क़ुरआन और सुन्नत का अच्छी तरह अध्ययन करते है तो हमें पता लगता है कि इनमें बहुत तफ्सील के साथ ऐसे बहुत से क़वानीन बताए है जो कि जराईम यानी अपराध, सियासत, अर्थव्यवस्था, फौज वगैराह से ताल्लुक़ रखते है।
✳ इन सभी क़वानीन को खुद अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी ज़िन्दगी में लागू किया, उनके बाद खुल्फाए राशीदीन ने लागू किया, फिर उनके बाद, बाद के खुलफा ने लागू किया। ये बात अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) की एक हदीस से पता लगती है। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया :
' كَانَتْ بَنُو إِسْرَائِيلَ تَسُوسُهُمُ الأَنْبِيَاءُ كُلَّمَا هَلَكَ نَبِيٌّ خَلَفَهُ نَبِيٌّ وَإِنَّهُ لاَ نَبِيَّ بَعْدِي وَسَيَكُونُ خُلَفَاءُ فَيَكْثُرُونَ قَالُوا : فَمَا تَأْمُرُنَا قَالَ فُوا بِبَيْعَةِ الأَوَّلِ فَالأَوَّلِ أَعْطُوهُمْ حَقَّهُمْ فَإِنَّ اللَّهَ سَائِلُهُمْ عَمَّا اسْتَرْعَاهُمْ
🍁 “बनी इस्राईल पर अम्बिया हुकूमत करते थे, जब किसी पैग़म्बर का इंतेक़ाल हो जाता था तो उसकी जगह दूसरा पैग़म्बर ले लेता था, और मेंरे बाद कोई नबी नहीं होगा बल्कि खुलफा (कई खलीफा) होंगे और वोह (तादाद में) कई होंगे।” सहाबा (رضی اللہ عنھم ) ने पूछा की “हमारे बारे में क्या हुक्म है?” इस पर हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया, “तुम एक के बाद दूसरे से अक़्दे बैअत पूरी करो, और उन्हे उनका हक़ दो, और यक़ीनन अल्लाह उन से उनकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछेगा ।”🍁
📚 (बुखारी और मुस्लिम)
✅ इससे मालूम हुआ कि इस्लाम में खिलाफत के अलावा और कोई निज़ाम नहीं है। खिलाफत वाहिद इस्लाम की निज़ाम- हुक्मरानी है।
✳ इन सभी क़वानीन को खुद अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी ज़िन्दगी में लागू किया, उनके बाद खुल्फाए राशीदीन ने लागू किया, फिर उनके बाद, बाद के खुलफा ने लागू किया। ये बात अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) की एक हदीस से पता लगती है। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया :
' كَانَتْ بَنُو إِسْرَائِيلَ تَسُوسُهُمُ الأَنْبِيَاءُ كُلَّمَا هَلَكَ نَبِيٌّ خَلَفَهُ نَبِيٌّ وَإِنَّهُ لاَ نَبِيَّ بَعْدِي وَسَيَكُونُ خُلَفَاءُ فَيَكْثُرُونَ قَالُوا : فَمَا تَأْمُرُنَا قَالَ فُوا بِبَيْعَةِ الأَوَّلِ فَالأَوَّلِ أَعْطُوهُمْ حَقَّهُمْ فَإِنَّ اللَّهَ سَائِلُهُمْ عَمَّا اسْتَرْعَاهُمْ
🍁 “बनी इस्राईल पर अम्बिया हुकूमत करते थे, जब किसी पैग़म्बर का इंतेक़ाल हो जाता था तो उसकी जगह दूसरा पैग़म्बर ले लेता था, और मेंरे बाद कोई नबी नहीं होगा बल्कि खुलफा (कई खलीफा) होंगे और वोह (तादाद में) कई होंगे।” सहाबा (رضی اللہ عنھم ) ने पूछा की “हमारे बारे में क्या हुक्म है?” इस पर हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया, “तुम एक के बाद दूसरे से अक़्दे बैअत पूरी करो, और उन्हे उनका हक़ दो, और यक़ीनन अल्लाह उन से उनकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछेगा ।”🍁
📚 (बुखारी और मुस्लिम)
✅ इससे मालूम हुआ कि इस्लाम में खिलाफत के अलावा और कोई निज़ाम नहीं है। खिलाफत वाहिद इस्लाम की निज़ाम- हुक्मरानी है।
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