➡ सवाल नं. (29): क्या खिलाफत में ज़ानी को संगसार यानी पत्थर मार कर क़त्ल की सज़ा दी जायेगी?
✳ इस्लाम में ज़िना (व्याभीचार/adultery), बिना शादी के मर्द और औरत के दर्मियान शारिरीक संबध बनाने को कहते है, क्योंकि इस्लाम शादी के रिश्तें में अस्दवाज़ी सम्बन्धों (रिश्तों) को क़ैद करता हैं।
✅ संगसार यानी पत्थर मार कर क़त्ल की सख्त सज़ा इसीलिए है क्योंकि समाज की सबसे बडी़ बुनियाद को बचाया जा सके और लोगो को इस बुनियाद को खराब करने से रोका जा सके, और यह बुनियाद “एक परिवार” है।
परिवार बहुत कीमती चीज़ होती है। इस्लाम शादी यानी मेरिटल रिलेशन के अलावा और दूसरे रिश्ते कि ईजाज़त नही देता।
✅ ज़िना को आम करने से परिवार टूट जाते है। इसी कारण आज पश्चिमी दुनिया का बहुत बुरा हाल है, वहाँ मॉ-बाप बच्चों की ज़िम्मेदारी लेने को तय्यार नही है क्योंकि उन्होंने न तो किसी तरह का वादा और न ही किसी तरह कि सन्धि की होती हैं, इसलिए वह फैमिली बनाने के मूड़ से बच्चे पैदा नही करते है जिससे नाजायज़ बच्चे पैदा होते हैं, जिनकी देखरेख करने वाला कोई नही होता।
✔ इस्लाम ने ऐसे जुर्मो के मामले में सबूत पेश करने को बहुत मुश्किल बना दिया है. इसके तीन तरीक़े बताए हैं, जिनके बिना सज़ा नही दी जा सकती चाहे दूसरे कई सबूत मिल जाए। अत: इन तीन तरीक़ो के अलावा कोई और तरीक़ा भी हो या और गवाह और सबूत भी पेश आ रहे हो तो इस्लाम में वोह क़ाबिले कबूल नही है।
✴ इन तीन तरीक़ो में पहला तरीक़ा यह है की :
✔ इंसान स्वयं गुनाह का इक़रार करले जिसमें वह कहे कि, उसने इस जुर्म का इर्तिकाब किया है।
✔ दूसरा तरीक़ा यह है कि चार लोग इस जुर्म की गवाही दे
✔ तीसरा तरीक़े में प्रेग्नेंसी (गर्भवती/हामला हो जाना) कि स्थिति होना।
इन तीन तरीक़ो के अलावा कोई और तरीका नही है जिसके ज़रिए किसी को ज़िना की सज़ा लागू होगी। इसकी दलील बुखारी शरीफ की यह हदीस है :
✅ संगसार यानी पत्थर मार कर क़त्ल की सख्त सज़ा इसीलिए है क्योंकि समाज की सबसे बडी़ बुनियाद को बचाया जा सके और लोगो को इस बुनियाद को खराब करने से रोका जा सके, और यह बुनियाद “एक परिवार” है।
परिवार बहुत कीमती चीज़ होती है। इस्लाम शादी यानी मेरिटल रिलेशन के अलावा और दूसरे रिश्ते कि ईजाज़त नही देता।
✅ ज़िना को आम करने से परिवार टूट जाते है। इसी कारण आज पश्चिमी दुनिया का बहुत बुरा हाल है, वहाँ मॉ-बाप बच्चों की ज़िम्मेदारी लेने को तय्यार नही है क्योंकि उन्होंने न तो किसी तरह का वादा और न ही किसी तरह कि सन्धि की होती हैं, इसलिए वह फैमिली बनाने के मूड़ से बच्चे पैदा नही करते है जिससे नाजायज़ बच्चे पैदा होते हैं, जिनकी देखरेख करने वाला कोई नही होता।
✔ इस्लाम ने ऐसे जुर्मो के मामले में सबूत पेश करने को बहुत मुश्किल बना दिया है. इसके तीन तरीक़े बताए हैं, जिनके बिना सज़ा नही दी जा सकती चाहे दूसरे कई सबूत मिल जाए। अत: इन तीन तरीक़ो के अलावा कोई और तरीक़ा भी हो या और गवाह और सबूत भी पेश आ रहे हो तो इस्लाम में वोह क़ाबिले कबूल नही है।
✴ इन तीन तरीक़ो में पहला तरीक़ा यह है की :
✔ इंसान स्वयं गुनाह का इक़रार करले जिसमें वह कहे कि, उसने इस जुर्म का इर्तिकाब किया है।
✔ दूसरा तरीक़ा यह है कि चार लोग इस जुर्म की गवाही दे
✔ तीसरा तरीक़े में प्रेग्नेंसी (गर्भवती/हामला हो जाना) कि स्थिति होना।
इन तीन तरीक़ो के अलावा कोई और तरीका नही है जिसके ज़रिए किसी को ज़िना की सज़ा लागू होगी। इसकी दलील बुखारी शरीफ की यह हदीस है :
✳ अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) की इब्ने अब्बास से रिवायत है आप (صلى الله عليه وسلم) फरमाते है के ''बिना सबूत के अगर मुझे किसी को संगसार करना होता तो मैं फलॉ फलॉ औरत को संसार कर देता क्योंकि मुझे उसके किरदार पर शक़ है”
✔ इस हदीस मे जिस बद अख्लाक़ औरत का बयान किया गया है, उसके खिलाफ ज़िना का सबूत नही था जैसे चार गवाह, इक़रार नामा या गर्भवती कि स्थिति, तो इस हालत मे उस पर कोई सज़ा लागू नही की गई।
✔ इससे ज्ञात हुआ कि शक़ वगैराह कोई मायने नही रखते, अदालत में जब तक मज़कूरा तीन तरीक़े सामने नही आते तब तक सज़ा नही दी जायेगी।
🔱🔱खिलाफते रशिदा सानी (II) पर 100 सवाल🔱🔱
➡ सवाल नं. (30): खिलाफत उन लोगों के साथ क्या मामला करेगी जो इस्लाम छोड़ देते है या मुर्तद हो जाते है?
✳ इस्लाम ने मुर्तद (Apostasy) के मुद्दे पर, इस्लामी व्यवस्था और इस्लामी विचारधारा की रक्षा के लिए इर्ताद के क़वानीन बनाए है ताकि इस्लाम की हिफाजत की जा सके।
✔ इस्लाम के लिये यह बात मशहूर है कि इर्ताद (इस्लाम से फिर जाने) की सज़ा मौत होती है। यह सिर्फ इस्लाम के साथ खास नही है बल्कि दुनिया के हर नज़रिया चाहे वह पूंजीवाद हो या वह साम्यवाद सभी आडियोलोजी व सभी जीवन व्यवस्थाओं में ऐसे क़ायदे क़ानून और ऐसी प्रणाली पाइ जाती है, जिसमे उस विचारधारा की रक्षा के लिए उसमें नियम व क़ायदे क़ानून होते है। ताकि उसके अपने शहरी उस नज़रिए की जड़ खोखली ना करे और ना ही उसे कमज़ोर करे।
✅ इर्ताद का मामला इस्लामी क़ानून के पसमंज़र में सही तरीक़े से समझने कि ज़रूरत है। इस्लाम में दाखिल होना, एक फर्द और अक़ीदे के बीच एक अक़्द (कॉन्ट्रेक/मुआहिदा) होता हैं । जिसमें किसी तरह कि कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नही है।
✅ कोई भी अपनी स्वेच्छा से इस्लाम मे दाखिल हो सकता है और उसे अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ मुसलमान बनने की आज़ादी है। जबकि उन पर कोई ज़ोर ज़बरदस्ती और किसी क़िस्म कि पाबन्दी नही होती. वह इस्लाम के बारे मे अच्छी तरह जानकर और अक़्ली दलायल पर मुतमईन होने पर ही इस्लाम में दाखिल होगें.
✔ इसी तरह उन्हें यह भी पता होगा कि इस्लाम में एक बार दाखिल होने के बाद कोई वापसी नही है और इस्लाम में दाखिल होने के बाद उससे फिर जाने पर मौत की सज़ा (डैथ पैनल्टी) है।
✔ यह चीज़ उन लोगो को रोकेगी, जो इस्लामी विचारधारा में शक पैदा करने के लिए पहले सार्वजनिक तौर पर पहले मुसलमान बन जाते है, और बाद में मुर्तद हो जाते हैं, जोकि इस्लाम के ताल्लुक से लोगो को शक मे डाल सकती है।
✔ इस तरह लोग इस्लाम को गंभीरता से नही लेगें और आवाम की निगाह में अल्लाह के दीन की कद्र व क़ीमत घट जायेगी। दुनिया कि कोई भी विचारधारा रखने वाली रियासत (Ideological State) इस बात की ईजाज़त नही देती के समाज में कोई उसकी बुनियाद को खुला चैलेंज दे, कि वह गलत है। जब कोई ऐसा करता है वह न सिर्फ उस आइडियालोजी को चैलेंज कर रहा है बल्कि वह उस आइडियालोजी को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहा है और इसके साथ वह यह भी चाह रहा है कि इस आइडियालोजी की जगह दूसरी आइडियालोजी कि प्रभुसत्ता क़ायम हो जाए।
✅ खिलाफत कोई सर्व सत्तावादी राज्य (Totalitarian State) नही है। और न ही यह लोगो कि निजी ज़िन्दगी मे किसी क़िस्म कि दखल अन्दाज़ी देता है, इसके विपरीत वह लोगो कि निजी ज़िन्दगी यानी घरेलू ज़िन्दगी को बहुत ज़्यादा अहमियत देता है.
✅ घरेलू ज़िन्दगी से मुराद किस की पूजा कर रहे है, कौनसा तरीका अपना रहे है, कौनसा त्योहार कर रहे है, कौनसा गुनाह कर रहे है, रियासत को इससे कोई मतलब नही है। खिलाफत राज्य के अंदर सभी शहरी अपने घरो में जो चाहे करने की आज़ादी देती है. वह चीज़ घर से बाहर आती है तो फिर लॉ (क़ानून) अपना काम करेगा।
✔ इसलिए अगर खिलाफत में कोई मुर्तद हो जाता है, मगर उसे छुपा लेता है, अलल ऐलान ज़ाहिर नही करता या वह खिलाफत छोड़कर कहीं ओंर चला जाता हैं तो खिलाफत न तो उसका पीछा करेगी और न ही उसे सज़ा देगी।
✔ इस्लामी शरई दलायल, जिसमें हज़रत मोहम्मद (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा (رضی اللہ عنھم) के आमाल का ध्यान पूर्वक अध्ययन करने पर हम पाते है, जब भी कोई इंसान इस्लाम छोड़ने का फैसला करता तो पहले उसे अक़्ली दलायल व बेहतर तरीक़े से समझाने की पूरी कोशिश की जाती थी। अच्छी तरह समझाने और कोशिश करने के बाद अगर वह नहीं मानता है और तौबा नही करता है तो उस पर सज़ाए मौत लागू होगी क्योंकि वोह इस्लामी विचाराधारा (आइडियालोजी) की जड़ खोखली करने की कोशिश कर रहा है।
❓अक़्सर सवाल यह आता है कि कैपिटल पनिश्मेंट यानी सज़ाए मौत तो बहुत सख्त सज़ा है?
💠मौत की सज़ा, इस्लाम के साथ मख्सूस नही है।
👉कैपिटल पनिश्मेंट यूनाईटेड स्टेट यानी अमरीका के 50 राज्यों में से 38 राज्यों में क़ानूनी तौर जायज़ है। इसके अलावा अमरीका के एक सर्वे में जनता कि अक्सरियत (बहुसंख्या) ने मौत की सज़ा का समर्थन किया। सन 2006 में ए.बी.सी. न्यूज़ द्वारा किए गए सर्वे में 65 प्रतिशत लोगों ने मौत की सज़ा का समर्थन किया इस सर्वे के अलावा 2000 और सर्वों में यह बात सामने आई के, आधे से ज़्यादा अमेरीकी इस बात पर यक़ीन रखते है कि “मौत की सज़ा प्रयाप्त तादाद में लागू नही की जाती” ।
👉ब्रिटेन में, 1998 में हाऊस ऑफ कॉमन ने एक यूरोपीयन कन्वेंशन ऑफ हूमन राईट्स के छठे प्रोटोकॉल के एक क़ानून को बदल कर दिया उन्होंने मौत की सज़ा को शामिल किया। मौत की सज़ा को सिर्फ एक सूरत यानी जंग की हालत में नहीं रखा गया. ब्रिटेन मे कुछ खास अपराधों के लिए जैसे कोई राष्ट्र के खिलाफ बगावत करता है, देश के खिलाफ गद्दारी करता है तो उसको मौत की सज़ा दी जाती है।
✅ इससे पता चला कि इस्लाम का भी काफी मिलता जुलता क़ानून है कि जब आप इस्लामी आइडियालोजी (विचाराधारा) से फिरते हो तो इस्लाम उसको बगावत मानता है, इसलिए वोह मौत की सज़ा देता है।
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