खिलाफत व्यवस्था के सम्बन्धित 100 सवाल
🌙🌙 इस्लामी शासन व्यवस्था 🌙🌙
💐 इस्लाम मे प्रभुत्व (Sovereignty) शरियत को हासिल है, सर्वोच्च मनबा (स्रोत) अल्लाह का क़ानून है। हुक्मराँ का चुनाव (निर्वाचन) महज़ शरियत के निफाज़ के लिए है।
💐 हुक्मराँ के निर्वाचन (Election) का अधिकार जनता के लिए है, कोई हुक्मराँ उस वक़्त तक जायज़ हुक्मराँ नहीं हैं, जब तक कि अक्सरियत का जनादेश न हो।
💐 इस्लाम अपने अधिकार क्षेत्र (Islamic Jurisidiction) के ज़ेरे-साए, तमाम तर इलाक़ो पर मुकम्मल और संपूर्णता के साथ लागू होता है।
💐 इस्लाम में चन्द क़वानीन के लिए, जगह या वक़्त की क़ैद में, तदरीजी निफाज़ (क्रमिक/ Gradual Implementation) जैसा कोई तसव्वुर नहीं है।
💐 हुक्मराँ एक दफा मुकर्रर (नियुक्त) होने पर इस्लामी इलाक़ो की तरक्कीयाती पॉलिसी बनाने के तमाम इख्तियारात से लबरेज़ होगा, जब तक कि उसकी पॉलिसी इस्लामी नस के खिलाफ न हो।
💐 इस्लामी शासन व्यवस्था यानी खिलाफत के ताल्लुक़ से अवाम मे कुछ आम सवालात पाये जाते है. इन सवालो के मुख्तसर और जामेअ जवाब इंशा अल्लाह इस सीरीज़ मे पेश किये जायेंगे.
🌙🌙 खिलाफत व्यवस्था के सम्बन्धित 100 सवाल
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🌙🌙 इस्लामी शासन व्यवस्था 🌙🌙
💐 इस्लाम मे प्रभुत्व (Sovereignty) शरियत को हासिल है, सर्वोच्च मनबा (स्रोत) अल्लाह का क़ानून है। हुक्मराँ का चुनाव (निर्वाचन) महज़ शरियत के निफाज़ के लिए है।
💐 हुक्मराँ के निर्वाचन (Election) का अधिकार जनता के लिए है, कोई हुक्मराँ उस वक़्त तक जायज़ हुक्मराँ नहीं हैं, जब तक कि अक्सरियत का जनादेश न हो।
💐 इस्लाम अपने अधिकार क्षेत्र (Islamic Jurisidiction) के ज़ेरे-साए, तमाम तर इलाक़ो पर मुकम्मल और संपूर्णता के साथ लागू होता है।
💐 इस्लाम में चन्द क़वानीन के लिए, जगह या वक़्त की क़ैद में, तदरीजी निफाज़ (क्रमिक/ Gradual Implementation) जैसा कोई तसव्वुर नहीं है।
💐 हुक्मराँ एक दफा मुकर्रर (नियुक्त) होने पर इस्लामी इलाक़ो की तरक्कीयाती पॉलिसी बनाने के तमाम इख्तियारात से लबरेज़ होगा, जब तक कि उसकी पॉलिसी इस्लामी नस के खिलाफ न हो।
💐 इस्लामी शासन व्यवस्था यानी खिलाफत के ताल्लुक़ से अवाम मे कुछ आम सवालात पाये जाते है. इन सवालो के मुख्तसर और जामेअ जवाब इंशा अल्लाह इस सीरीज़ मे पेश किये जायेंगे.
🌙🌙 खिलाफत व्यवस्था के सम्बन्धित 100 सवाल
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आज का पहला सवाल :
इस्लामी शासन व्यवस्था से मुताल्लिक़ है
सवाल नं. (1) क्या। शरीअत का निज़ाम एक पुराना निज़ाम नहीं है, जो कि आज के ज़माने के हिसाब से ताल-मेल नहीं रखता? ❓
♦ जवाब:
इस्लाम इंसान को एक इंसान के तौर पर देखता है यानी इंसान वोह है जिसकी कुछ जिस्माइनी (शारीरिक) और जिबल्लियाती (मूल प्रवृत्ति) ज़रूरीयात होती है। इंसान अपनी जिस्मानी और जिबल्लियाती (मूल प्रवृत्ति) समस्याृ का हल और इन दोनों ज़रूरियात की संतुष्टि चाहता है।
♦ क़ुरआन व हदीस मर्द और औरत को इंसान के तौर पर मुखातिब करते है न कि सिर्फ किसी खास दौर के इंसान के तौर पर। इस्लाइमी स्त्रोखत (क़ुरआन व हदीस) ने हर दौर और हर जगह के इंसानों को सम्बोधित किया है। आज भी इंसान वही इंसान है जो 1400 साल पहले रहता था और क़यामत तक जो इंसान पैदा होगें वो भी इंसान की कहलायेगें। इंसान के अंदर वही भूख और ज़रूरत रहेगी जैसी 1400 साल पहले थी और 1400 साल बाद में होगी।
♦ हालॉंकि इसमें कोई शक़ नहीं है कि आज की दुनिया के मुक़ाबले में और जब इस्लािम आया था तब के मुक़ाबले में कई तब्दीसलीयाँ और तरक्की आ चुकी है । लोगों की जीवन शैली बदल गई है। पहले लोग झोपडी़ में रहा करते थे और आज लोग बडे़-बडे मकानों व ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में रहते है, लेकिन बुनियादी बात यह है कि इंसान को घरों की पहले भी ज़रूरत थी और घरों की ज़रूरत आज भी है। अल्लािह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने हुक्मऔरानों के पास पैग़ाम पहुँचाने वालों को घोडो़ पर भेजा था यानी उन्हों ने घोडो़ के ज़रिए सफर किया और लोगों तक पैगाम दिया और आज वोह काम हम ई-मेल, एस.एम.एस, फैक्सव या आइ.एम के ज़रिए कर सकते है।
♦ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) और उनके साथियों (رضی اللہ عنھم) ने कई जंगें घोडो़ और तीर कमानों के ज़रिए लड़ी। इसी तरह आज जंगें स्मार्ट टेक्नो,लोजी, क्रूज़ मिसाईल, सेटेलाईट इंटेलिजेंस वगैराह के इस्तिमाल से लडी़ जाती है । अतीत में मुसलमानों ने एस्ट्रोनोमी सीखी (खगोल विज्ञान/ जिसमें तारो और ग्रहों का पता लगाया जाता है) ताकी वोह जब कभी सफर में हो या जहाँ कही हों तो क़िबला पता कर सके (कि किबला कहाँ है), जबकि आज हमारे पास इलेक्ट्रोननिक घडी़ है जो हमें आसानी से क़िबले का पता दे सकती है। इससे मालूम हुआ कि इंसान की ज़रूरतें और समस्यारएं वक़्त के साथ नहीं बदलती। बल्कि सिर्फ ज़रूरतों को पूरा करने के साधन और समस्याओं को हल करने के उपकरण बदले है।
♦ समय (काल) बज़ाते खुद (स्वयं) किसी फिक्र (निज़ाम/विस्तृत नज़रिए) को ग़लत कहने के लिए कोई पैमाना (मापक) नहीं होता क्योंूकि नज़रिया समय से बंधा नहीं होता इसलिए समय के गुज़रते कोई नज़रिया पुराना नहीं हो जाता । 16वीं सदीं र्इसवी में, प्राचीन यूनानी फलसफों, कला और संस्कृति के पुनर्जागरण को यूरोप का पुनर्जागरण कहा गया। आज ज़्यादातर क़वानीन जिन्हें हम पश्चिमी दुनिया में पाते हैं, वोह 3000 साल पहले लिखे गये थे, जोकि आज भी मान्य (वैध) माने जाते हैं। इससे पता चला कि नज़रियात कभी भी पुराने नहीं होते और नज़रियात का सम्बवन्धम समय से नहीं होता है।
मिसाल के तौर पर:-
✅ • अमरीका का बिल ऑफ राईट्स (Bill of Rights) नाम का क़ानून 1791 ई. में पास किया गया था इसको ब्रिटेन के 12वी सदी के क़ानून ''मेगनाकार्टा'' से लिया गया था। ये क़ानून तक़रीबन सात सौ साल से ज़्यादा पुराना था।
✅ • आज का ''मॉडर्न सिविल लॉ'' (आधुनिक दीवानी क़ानून) ''थ्योसरी ऑफ लाइबेलिटी'' से लिया गया है जिसकी बुनियादें रोमन क़वानीन से है। रोमन क़ानून हज़रत ईसा (علیہ اسلام) के ज़माने का क़ानून है।
✅ • इसी तरह आज का कॉमन लॉ, जोकि पूर्व अदालती फैसलों को देख कर मुक़दमों के फैसले देने के लिए बुनियादी सिद्धांत है, यह भी पुराने मीडिल एज (मध्य युग) के रोमन क़ानून और नोरमन सेक्सन कस्टम से लिया गया है। आज यू.के, यू.एस और कनाडा में यही क़ानूनसाज़ी का अहम स्रोत है।
✅ वक़्त को पैमाना मान कर किसी निज़ाम को अगर ग़लत कहा जाए तो इस लिहाज़ से लोकतंत्र (जम्हूरियत) निश्चित तौर पर असक्षम निज़ाम होना चाहिए क्योंकि इसके ताल्लुक़ प्राचीन युग से है। इसलिए इस दलील से यह साबित करना ग़लत है कि इस्लाम 7वीं सदी ई. में आया था इसलिए यह आधिनुक तौर पर असक्षम है या कहना कि इस्लााम पुराना नज़रिया है इस दौर में लागू नहीं हो सकता, बिल्कुसल सही नहीं है । इस्लायम की नस (Text) इंसान और इंसानी समस्याैओं के साथ मामला रखती है न कि उन उपकरणों के साथ (Device and Tool) जो इंसान को आसानी मुहैया करते हैं। इस्लाकमी शरियत इंसानी समस्या ओं का हल अपने पास रखती है और यह क़वानीन सिर्फ अरब के लोगों के लिए या खास समय के लिए नहीं था बल्कि अब्दी है।
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