खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल (39-40)

➡सवाल नं. (39): क्या खिलाफत ऐसे समाज की स्थापना कर पायेगी जहाँ पर बराबरी (मसावात) हो?

✳ इस्लाम अपने मुकम्मल अहकाम बिना किसी भेदभाव के मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम दोनों पर लागू करके समानता और बराबरी पैदा करता हैं।

⛔ आज समानता (मसावात) का तसव्वुर मर्द और औरत के बीच सम्बन्धों को स्थापित करने का एक पैमाना बन गया हैं। किसी समाज के अच्छे या बुरे होने के लिए यह पैमाना देखा जाता कि वहॉ पर औरतों को मर्दो के बराबर समझा जाता हैं या नही।

🔶इतिहासिक तौर पर भी समानता (मसावात) की गुफ्तगू की बहुत बडी़ अहमियत हैं, जिससे पश्चिम के लोग खास मायने लेते हैं। पश्चिम के लोग जब समानता की बात करते हैं तो उनके दिमाग में समानता से संबधित कुछ खास तसव्वुरात होते हैं, और वह उसी तसव्वुर के मुताबिक़, समानता को समानता मानते हैं।

♦ पश्चिमी तसव्वुर के मुताबिक ना तो मर्द औरत से और ना ही औरत मर्द से छोटी या कमज़ोर हैं, बल्कि यह हर मायने में एक जैसे हैं और यही समानता इतिहास में औरतों पर हुऐ ज़ुल्मों को ठीक करेगी। मगर इस  नज़रिए से ऐसे कई सवाल पैदा होते हैं जिनके जवाब नही मिलते।

❌ सबसे पहले बात करे तो इस तसव्वुर से यह पता नही लगता कि जिस समानता की बात की जाती हैं, उस समानता को बरकरार रखते हुए, मर्द और औरत किस तरह से आपस में सहयोग करे कि एक सुसंघठित और मज़बूत समाज बनाया जा सके। एक ऐसा समाज जिसकी शुरूआत एक परिवार से होती हैं, फिर बाद में चलकर वो समाज बनता हैं।

❌ अगर हम समानता के तसव्वुर को एक बडे़ परिपेक्ष (Context) में देखें कि तो यह मसाईल को हल करने में और उन प्राकृतिक संबधो और रिश्तों को सुसंघठित करने में असक्षम है, जो लोगो के दर्मियान क़ुदरती तौर पर पाए जाते हैं।

❌ इस तरह लोगों के दरमियान रिश्ते को इस पश्चिमी समानता के द्वारा बेहतर नहीं बनाया जा सकता और ना ही उनकी समस्याओं को हल किया जा सकता हैं।

❌ इसके साथ-साथ जब यह दावा किया जाता हैं कि मर्द और औरत बराबर हैं तो उन विभिन्नताओं का मार्गदर्शन नही मिलता, जो खुदा ने दोनों में रखें हैं यानी मर्द और औरत के दर्मियान पाए जाने वाले प्राकृतिक फर्क़ को वाज़ेह (स्पष्ट) नही करता, ऐसे में इस फर्क़ कि व्याख्या के लिए कुछ और भी विस्तृत नियम क़ायदे क़ानून की ज़रूरत पड़ती है।

✅ मर्द और औरत के दर्मियान पाए जाने वाला इख्तिलाफ (Differences), खास ज़रूरतो और खास पेचिदा मसाईल की तरफ ले जाता हैं, इन मसाईल को और इन ज़रूरतों को व्यवस्थित और ठीक तरीक़े से पूरा करने पर ही एक मज़बूत व सघंठित समाज बनता हैं।

❌ समानता के नाम पर इन ज़रूरतो और इख्तिलाफात को ठीक तरह से तस्लीम नही करना या उन्हें सही ढंग से व्यवस्थित नही करना उतना ही ज़ालिमाना और नुक़्सानदायक हो सकता है जितना कि एक लिंग को दूसरे लिंग से बरतर समझना।

✔ मर्द को सामने रखकर औरत के अधिकारो कि बात करने से बेहतर है कि, औरत और मर्द दोनों के अधिकारो को मुतय्यन कर दिया जाए।

🔱🔱खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल🔱🔱


➡सवाल नं. (40): खिलाफत में औरत की क्या भूमिका होगी?


🔶 इस वक़्त पूरी दुनिया में औरत की भूमिका का ध्रुवीकरण हो गया हैं। जिसमें यह भूमिका दो इंतहाओं में जा चुकी हैं। एक इंतिहा में औरतों पर उनके अधिकारो के ताल्लुक से ज़ुल्म किया जाता हैं जिसमें उसे मिल्कियत मे हक़ नही दिया जाता, तालीम और रोज़गार के मौके नही दिये जाते। दूसरी तरफ उनका आधुनिकता और आज़ादी के नाम पर शोषण किया जा रहा है एंव औरत होने का फायदा उठाकर उनसे दौलत कमाने का वसीला बनाया जाता हैं। मुस्लिम देशों में यह दोनो परिस्थितियां इस्लाम की वजह से नही बल्कि पश्चिमी विचारधारा को अपनाने और काफिराना तहज़ीब का अनुसरण करने कि वजह से हैं।

✅ खिलाफत में औरतों की मुख्य भूमिका माँ की होगी और उनका मुख्य फर्ज़ अपने घर की ज़िम्मेदारी उठाना होगा। इसके साथ ही खिलाफत औरत को एक ईज्ज़त और एक शान के रूप में देखती हैं जिसकी हिफाज़त लाज़मी हैं। खिलाफत में औरतों का ऊँचा मकाम।

✔खिलाफत की शिक्षा व्यवस्था और अदालती व्यवस्था इस बात को यक़ीनी बनाएगी कि इस्लामी खिलाफत में रहने वाली औरतें चाहे वो मुस्लिम हो या गै़र-मुस्लिम, आत्मविश्वासी हो और समाज की एक सक्रीय सदस्य हो। इसके साथ ही खिलाफत की शिक्षा और अदालती व्यवस्था यह भी सुनिश्चित करेगी कि बिना किसी शोषण के वह उन सभी अधिकारों को इस्तेमाल करे जो इस्लाम ने उन्हें दिए हैं।

✔ इसके अलावा एक औरत समाज को किसी भी तरह का योगदान दे सकती हैं, खिलाफत इस बात को बढ़ावा देगी कि वह ज़िन्दगी के हर मैदान में अपनी भूमिका अदा करे चाहे वो शिक्षा से संबधित हो, राजनीति से संबधित हो या अर्थव्यवस्था से।
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