दावते इलल्लाह का नबवी तरीक़ा

इस्लाम अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) का नाज़िल करदा जामे और मुकम्मल ज़ाब्ताऐ हयात है, क़ुरआन-ओ-सुन्नत में इन्सानी ज़िंदगी के तमाम शोबों से मुताल्लिक़ रहनुमाई और हुक्म मौजूद है, अक़ाइद, इबादात, मुआमलात, अख़लाक़ और मुआशरत के बारे में तफ़सीली और वाज़िह हिदायात दी गई हैं, निज़ामे हुकूमत व सियासत, निज़ामे अदल व इंसाफ, निज़ामे मईशत व तिजारत, मुआशरती उमूर, इस्लामी अफ़्वाज और जिहाद बैनुल अक़वामी ताल्लुक़ात और मुआहिदात के बारे में वाज़िह और साफ़ रहनुमाई क़ुरआन-ओ-सुन्नत में मौजूद है, यही जामे दीन लेकर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) तशरीफ़ लाए, जिसमें इन्सानी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ अहकाम की बुनियाद अक़ीदाऐतौहीद है।

आप (صلى الله عليه وسلم) ने सरज़मीन मक्का में सबसे पहले तौहीद की दावत दी, आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत तौहीद में दीन की जामे और मुकम्मल मफ़हूम पोशीदा था जो आहिस्ता-आहिस्ता खुलता गया, यहां तक कि जब मदीना में इस्लामी स्टेट क़ायम हो गया तो "फ़ित्ना" का क़ला क़मा कर दिया गया और ग़लबाऐ दीन का काम पूरा हो गया जिसके लिए अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने आप (صلى الله عليه وسلم) को मबऊस फ़रमाया था। अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) इरशाद है:

هُوَ ٱلَّذِىٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُ ۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُ ۥ عَلَى ٱلدِّينِ ڪُلِّهِۦ وَلَوۡ ڪَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ"(توبہ:
۳۳)

उसी ने अपने रसूल को हिदायत और दीने हक़ के साथ भेजा है ताकि इसे तमाम अदयान पर ग़ालिब कर दे (अत्तोबा-33)

चुनाँचे अल्लाह ने तकमीले दीन की बशारत सुनाई:


ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِى وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَـٰمَ دِينً۬اۚ

आज मैंने तुम्हारे लिए दीन को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपना इनाम पूरा कर दिया और तुम्हारे लिए इस्लाम के दीन होने को पसंद कर लिया (अल माईदा-3)

मक्का मुकर्रमा में आप (صلى الله عليه وسلم) ने ला इलाह इल्लल्लाह की जो सदा लगाई थी आप (صلى الله عليه وسلم) की पूरी ज़िंदगी उस की अमली तफ़सीर है। आप (صلى الله عليه وسلم) की सबसे पहले पुकार ये थी कि अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ही अकेला सारी कायनात का ख़ालिक़ है, सारी मख़लूक़ात को उसी ने अपनी क़ुदरत से पैदा किया, वो अकेला सब का मालिक है, सब उस के मुहताज हैं, ज़िंदगी और मौत उसी के इख़्तियार में है, कामयाबी और नाकामी उसी के इरादे से है, उस के बराबर कोई नहीं, सारी मख़लूक़ और इन्सान के पास जो कुछ दौलत व इख़्तियार और सलाहीयत व क़ुदरत है, वो सब अल्लाह ही की अता करदा है । लिहाज़ा इन्सानों पर भी उसी की हुक्मरानी होनी चाहिए। अल्लाह के मुक़ाबले में ज़र्रा बराबर भी किसी इन्सान की मर्ज़ी नहीं चलनी चाहीए । बल्कि इन्सान को चाहीए कि वो अपने ख़ालिक़ व मालिक की इबादत व बन्दगी में मसरूफ़ रहे, उसी के सामने रुकु और सज्दे करे, महिज़ उसी की हुक्मरानी को तस्लीम करे, अल्लाह के मुक़ाबले में अपनी ख़ाहिश और अपनी मर्ज़ी ना चलाऐ या किसी इन्सान को हुक्मरानी और क़ानूनसाज़ी के मुआमले में ख़ुद-मुख़्तार ना समझ बैठे, दूसरी बात आप (صلى الله عليه وسلم) ने ये बयान फ़रमाई कि अल्लाह ने आपको तमाम आलमे इंसानियत के लिए रसूल बना कर भेजा है, आपने साफ़ साफ़ ये ऐलान फ़रमाया कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ, मुझ पर अल्लाह की तरफ़ से वही नाज़िल होती है, अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) तमाम इन्सानों के लिए अपना हुक्म मुझ पर नाज़िल करता है और मैं अमानतदारी के साथ अल्लाह का हुक्म तमाम लोगों तक पहुंचा रहा हूँ । तुम सब मेरी इत्तिबा करो, इसी में तुम सबकी निजात है, मेरा इंकार करोगे तो ये कुफ़्र होगा, मेरे रसूलुल्लाह होने से इंकार करने पर तुम सब काफिर कहलाओगे और ग़ज़बे इलाही के मुस्तहिक़ बन जाओगे, वही इलाई की रहनुमाई में आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुफ़्फ़ारे क़ुरैश को बताया की मैं कोई अनोखा रसूल नहीं हूँ, मुझसे पहले भी मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में बहुत से पैग़ंबर आए, मैं वही दावत लेकर आया हूँ जो वो सब लेकर आए थे, यानी कि " انماالھکم الہ واحد" तुम्हारा बस एक ही इलाह है "आप (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को बताया कि एक दिन आएगा जब दुनिया का सारा निज़ाम दरहम-बरहम हो जाएगा, तमाम इन्सान मरने के बाद दुबारा ज़िंदा किए जाऐंगे , वो सब रब्बुल आलमीन की अदालत में हाज़िर होंगे, उन्हें ज़िंदगी-भर के अमल का हिसाब देना होगा, अच्छे लोग जन्नत में जाऐंगे, वो सब रब्बुल आलमीन की अदालत में हाज़िर होंगे, उन्हें ज़िंदगी-भर के अमल का हिसाब देना होगा , अच्छे लोग जन्नत में जाऐंगे वहां हमेशा का आराम होगा, और बुरे लोग जहन्नुम में जाऐंगे जहां अज़ाब ही अज़ाब होगा और वहां वो मुद्दतों पड़े रहेंगे ।

जो शख़्स भी आपकी दावत पर लब्बैक कहता वो आप (صلى الله عليه وسلم) के साथीयों में शामिल हो जाता, आप दारे अरकम में इन सबकी तर्बीयत करते, वो सब आप (صلى الله عليه وسلم) के हुक्म के मुताबिक़ नमाज़ों का एहतिमाम करते, आप (صلى الله عليه وسلم) ख़ुद भी पूरी यकसूई के साथ नमाज़ों में मशग़ूल रहते, ईमान लाने वालों में से हर शख़्स आप (صلى الله عليه وسلم) के सामने सर इताअत झुका देता और क़ुरैश के सरदारोँ की इताअत से निकल जाता, बल्कि वो सब भी तौहीद के दाई बन जाते और दावते तौहीद के अमल में मसरूफ़ हो जाते, और दावत क़बूल करने वाला फ़ौरन अक़ीदाऐ ৃ तौहीद के तक़ाज़ों पर अमल शुरू कर देता, यानी क़ुरैश के मुशरिकाना निज़ामे ज़िंदगी की मुख़ालिफ़त, मुआशरे में राइज एक एक शिर्क की मुज़म्मत, दावते तौहीद का ऐलान, बिला क़ैद व शर्त रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की इताअत और क़ुरैश के सरदारों की इताअत से इंकार, ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ कि वो दुनिया के मुआमलात में क़ुरैश के सरदारोँ और हुक्मरानों की बात सुनते हों और अख़लाक़ी द दीनी तर्बीयत के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की ख़िदमत में हाज़िर हो जाते हों, ऐसा कोई वाक़िया नहीं हुआ कि क़ुरैश के मुमताज़ लोगों में से जिन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) की दावते तौहीद क़बूल कर ली हो, ईमान, नमाज़, तक़्वा व इख़्लास की बातें सीखने के लिए आपकी ख़िदमत में हाज़िर रहते हों और दुनियावी मुआमलात और मुआशरे के मसाइल को हल करने के लिए क़ुरैश के सरदारोँ की मीटिंग में भी शरीक हो जाते हों, बल्कि वो ज़िंदगी के तमाम मुआमलात में आपके मुतीअ बन जाते , और आप (صلى الله عليه وسلم) तो दीने कामिल लाने वाले रहमतुल्लिल आलमीन हैं, अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने ये तै कर लिया था कि आलमे इंसानियत की भलाई के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़रीये दीन की तकमील हो जाये इसलिए मुम्किन था कि आप (صلى الله عليه وسلم) अपने लिए अफ़राद की इस्लाह के लिए जुज़वी तौर पर दीनी और मज़हबी क़ियादत व हक्मरानी को ख़ालिस कर लें और दुनिया के सारे मुआमलात नफ्स परस्तों और ख़ाहिशे नफ्स के ग़ुलामों के हवाले कर दें, चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुफ़्फ़ारे क़ुरैश के मुशरिकाना निज़ामे ज़िंदगी से बेज़ारी और ला ताल्लुक़ी का ऐलान किया और उन सबको तौहीद की दावत दी, आप ने बिल्कुल अलग राह इख़्तियार की यानि रब की मुकम्मल बन्दगी की राह। आप (صلى الله عليه وسلم) की ये दावते तौहीद गोया क़ुरैश के सरदारों और उनके मुशरिकाना निज़ामे ज़िंदगी के ख़िलाफ़ बग़ावत थी, और क़ुरैश की क़ियादत और उनकी हुक्मरानी से ऐलाने बराअत थी, यही वजह है कि आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत कीवजह से क़ुरैश में खलबली मच गई, मक्का के सरदार ग़ज़ब से तिलमिला उठे, आप (صلى الله عليه وسلم) की शख्त मुख़ालिफ़त की गई, आप (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) के साथीयों को ज़ुल्म व ज़्यादतीयों का निशाना बनाया गया, उन पर ज़ुल्म के पहाड़ तोड़े गए, उनका मुकम्मल बाईकॉट किया गया जिसकी वजह से उन्हें "शोअबे अबी तालिब" में महसूर हो जाना पड़ा। उनकी तिजारत ठप हो गई, ग़िज़ाई अशिया की सप्लाई रोक दी गई, बच्चे, औरतें, बूढ़े और जो इन सब मुसीबत को झेल रहे थे, भूक से निढाल हो कर सूखे चमड़े और पत्ते खाने पर मजबूर होना पड़ा। इस के बावजूद आप (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) के साथी सब्र व इस्तेक़ामत के साथ हक़ पर डटे रहे, और मसाइब -ओ- आलाम की सख़्तियों से मजबूर हो कर मक्का के सरदारों की इताअत क़बूल नहीं की, बल्कि बातिल निज़ाम के ख़िलाफ़ उनकी जद्दो जहद मुसलसल जारी रही, और दावते तौहीद की सदा मुसलसल बुलंद होती रही।

आपकी दावती ख़सुसिआत:तब्लीग़े दीन मन्सबे नबुव्वत का अहम फ़रीज़ा है, पहले क़राबतदारों को और फिर खुल कर सबको दावते तौहीद का हुक्म दिया गया, अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) इरशाद फ़रमाते हैं।

وَأَنذِرۡ عَشِيرَتَكَ ٱلۡأَقۡرَبِين  

अपने क़रीबी रिश्तेदारों को डरा दीजिए (अल शोअरा-214)

 يَـٰٓأَيُّہَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ وَإِن لَّمۡ تَفۡعَلۡ فَمَا بَلَّغۡتَ رِسَالَتَهُ ۥۚ وَٱللَّهُ يَعۡصِمُكَ مِنَ ٱلنَّاسِۗ

ऐ रसूल जो कुछ भी आपकी तरफ़ आपके रब की जानिब से नाज़िल किया गया है पहुंचा दीजिए । अगर आपने ऐसा ना किया तो आपने अल्लाह की रिसालत अदा ना की, और आप को अल्लाह लोगों से बचा लेगा। (अल माईदा-67)
आप (صلى الله عليه وسلم) ने पूरा दीन लोगों तक पहुंचा दिया, आपकी बेअसत सारी आलमे इंसानियत के लिए हुई थी और क़ियामत तक के लिए आप ही की लाई हुई शरीयत को नाफ़िज़ होना था चुनांचे इरशाद बारी है।

 وَمَآ أَرۡسَلۡنَـٰكَ إِلَّا ڪَآفَّةً۬ لِّلنَّاسِ بَشِيرً۬ا وَنَذِيرً۬ا

"हमने आपको तमाम लोगो के लिए ख़ुशख़बरीयाँ सुनाने वाला और आगाह करने वाला बना कर भेजा है।" (सबा-28)

हज्ज्तुल विदा के मौक़े पर एक लाख से ज़्यादा सहाबा किराम (رضی اللہ عنھم) की मौजूदगी में आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

"الا فلیسلغ الشاھد الغائب"۔۔۔(الحدیث)
सुन लो जो मौजूद है उन लोगों तक पहुंचा दे जो मौजूद नहीं हैं"।
आप (صلى الله عليه وسلم) अपनी उम्मत की फ़लाह और हिदायत के लिए बहुत मुतफ़क्किर रहते थे, दिल में एक तड़प थी जो हर वक़्त आपको बेचैन रखती थी, आप दिन-भर लोगों को राहे हक़ की तरफ़ बुलाने में रहते।
إِنَّ لَكَ فِى ٱلنَّہَارِ سَبۡحً۬ا طَوِيلاً۬
यक़ीनन आप को दीन में बहुत मसरूफियत रहती है (मुज़म्मिल-8)
लोगों को हिदायत और फ़लाह व कामयाबी की तरफ़ बुलाने के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) को तड़प और बेचैनी की तस्वीर क़ुरआने मजीद की इस आयत में खींची गई है।
فَلَعَلَّكَ بَـٰخِعٌ۬ نَّفۡسَكَ عَلَىٰٓ ءَاثَـٰرِهِمۡ إِن لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهَـٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَسَفًا
"अगर ये लोग इस बात पर ईमान ना लाएं तो आप उनके पीछे इसी रंज में अपनी जान हलाक कर डालेंगे।" (अल कहफ: 6)
यही वजह है कि दावते दीन की राह में हर मुश्किल को आप (صلى الله عليه وسلم) ने बर्दाश्त किया और सब्रो इस्तिक़ामत का पहाड़ बन गए, दावते दीन का उस्लूब निहायत हकीमाना था, अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फ़रमान है।

ٱدۡعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلۡحِكۡمَةِ وَٱلۡمَوۡعِظَةِ ٱلۡحَسَنَةِۖ وَجَـٰدِلۡهُم بِٱلَّتِى هِىَ أَحۡسَنُۚ

"अपने रब की राह की तरफ़ लोगों को हिक्मत और बेहतरीन तरीक़े से गुफ़्तगु कीजिए।" (अल नहल: 125)


اللہ تعالیٰ  کا فرمان : ٱدۡفَعۡ بِٱلَّتِى هِىَ أَحۡسَنُ فَإِذَا ٱلَّذِى بَيۡنَكَ وَبَيۡنَهُ ۥ عَدَٲوَةٌ۬ كَأَنَّهُ ۥ وَلِىٌّ حَمِيمٌ۬

"बुराई को भलाई से दफ़ा करो फिर वही जिसके और तुम्हारे दर्मियान दुश्मनी है ऐसा हो जाएगा जैसे जिगरी दोस्त।" (हा मीम सजदा:34)

ताइफ की गलीयों में ओबाश नवजवानों ने आप पर पत्थरों की बारिश कर दी, लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) ने उनके लिए रब से हिदायत की दुआ माँगी, आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों का तज़किया और तर्बीयत भी मुहब्बत भरे अंदाज़ में किया, इरशादे बारी ताअला है ।

فَبِمَا رَحۡمَةٍ۬ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ

"अल्लाह की रहमत के बाइस आप उन पर नर्म-दिल हैं और अगर आप और सख़्त दिल होते तो ये सब आपके पास से छट जाते। (आले इमरान:159)

दावते इलल्लाह का मुरव्वजा तरीक़ा:
बुनियादी तौर पर दावती अमल के दो महाज़ हैं, एक मुसलमानों को इस्लामी अक़ाइद अहकाम की तालीम देना, उनकी तर्बीयत करना, दूसरे ग़ैर मुस्लिमीन को इस्लाम का तआरुफ़ पेश करना और उन्हें क़बूले इस्लाम की दावत देना, मुख़्तलिफ़ दीनी जमातें और इदारे मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से ये काम अंजाम दे रहे हैं, किसी ने ये समझा कि अव्वलीन फ़रीज़ा नमाज़ के बारे में मुसलमानों में बड़ी कोताही नज़र आती है इस लिए उन्हें नमाज़ों का पाबंद बनाया जाये और मसाजिद से उन्हें वाबस्ता कर दिया जाये तो दीन के तमाम तक़ाज़ों पर अमल करना आसान हो जाएगा, किसी ने ये समझा कि मुसलमानो में बिदआत और बातिल रस्मो रिवाज की कसरत है, इसलिए उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सुन्नतों की एहमीयत को उजागर किया जाये और उन्हें सुन्नतों की बरकात और फ़वाइद से आगाह कर दिया जाये, किसी ने ये ख़्याल किया कि मुस्लिम मुआशरा में बे-हयाई और बे पर्दगी बढ़ रही है इसलिए टीवी कल्चर के मनफ़ी असरात और मर्द व ज़न के आज़ादाना मेल-जोल के नुक़्सानात से बाख़बर कर दिया जाये, किसी ने समझा कि मुसलमानों में दीनी अहकाम से बे-ख़बरी बढ़ती जा रही है और इसी बिना पर किताब व सुन्नत के अहकाम की ख़िलाफ़ वरज़ीयां हो रही हैं, इस लिए जगह जगह दीनी मदारिस क़ायम किए जाएं ताकि मुसलमानों में क़ुरआन और सुन्नत के अहकाम से वाक़फ़ीयत बढ़े और उम्मत की इस्लाह के लिए दीनी उलूम के माहिरीन और दाई व मुबल्लग़ीन ज़्यादा तादाद में फ़राहम हों, किसी ने ये समझा कि दुनिया-भर में कुफ़्फ़ार सियासी-ओ-मआशी ग़लबा रखते हैं और वो मुसलमानों के ग़ालिब हो जाने के ख़ौफ़ में मुब्तिला हैं चुनांचे वो ज़राए इबलाग़ के ज़रीये इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करते हैं ताकि लोगों के दिलों में इस्लाम और मुसलमानों से नफ़रत बढ़े, इसलिए ये ज़्यादा ज़रूरी समझा गया कि इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ ग़लत प्रपोगंडाका जवाब दिया जाये और उन्हें इस्लाम की दावत दी जाये, उस की वजह से इस्लाम के बारे में उनकी ग़लत-फ़हमियाँ दूर होंगी और मुसलमानों से उनकी नफ़रत ख़त्म हो जाएगी और उनमें से जो इस्लाम क़बूल कर लेंगे वो बाअमल मुसलमान बन कर दीन के दाई बन जाऐंगे। इस्लाह उम्मत की ये सारी जद्द-ओ-जहद बिला-शुबा दीन के अहम तक़ाज़े हैं, लेकिन ये जुज़वी नौईयत की हैं, अमली तौर पर जहां दीन की तकमील होती है वो ये है कि अहदे नबवी के मदनी मुआशरे के तौर पर एक मुस्लिम मुआशरा तशकील पा जाये जिसमें पूरी उम्मत का बस एक ही इमाम और ख़लीफ़ा हो जो पूरी उम्मत की देख भाल करे, उन पर इस्लाम को नाफ़िज़ 
करे, दुनियाए कुफ़्र को इस्लाम की दावत दे, क़ुरआन का निज़ामे अदल क़ायम करे, क़ुरआनी हुक्म

 
يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱدۡخُلُواْ فِى ٱلسِّلۡمِ ڪَآفَّةً۬

"ऐ ईमान वालो! पूर तौर पर इस्लाम में आ जाओ" (अलबक़राह -208)

की अमली तस्वीर बन जाये यही वो नसबुल ऐन है जिसके लिए रसूलुल्लाह की बैअसत हुई, इसलिए मुसलमानों की इस्लाह और ग़ैर मुस्लिमीन को दावते इस्लाम का तरीक़ा ऐसा होना चाहिए जिसके ज़रीये इक़ामते दीन का नसबुल ऐन पूरा होता हो, अजीब बात है कि सूदी कारोबार से बाज़ रहने की ताकीद की जाती है लेकिन सूद पर मबनी निज़ामे मईशत (अर्थ वयवस्था) के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद नहीं की जाती, और इस के बजाय इस्लामी निज़ामे मईशत के क़ियाम के लिए संजीदा कोशिशें नहीं की जाती, नौजवानों को बे-हयाई और बुराई से बाज़ रहने की नसीहत की जाती है लेकिन इस निज़ामे ज़िंदगी की ख़राबी आशकार नहीं की जाती जिसे से बुराई और बे-हयाई का माहौल बनता है, यानी लोगों को शरीयत के अहकाम बता दिए जाते हैं लेकिन इन अहकाम पर अमल आवरी की राह में जौ रुकावटें हैं उन्हें दूर नहीं किया जाता ।
ग़ौर किया जाये कि मुस्लिम मुआशरे की इस्लाह के लिए मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में मुरव्वजा जद्दोजहद क्या रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़ाऐ दावत से मुताबिक़त रखती हैं? क्या इस्लाहे उम्मत की इन कोशिशों के बारे में कहा जा सकता है कि ये मन्हजे नबवी के मुताबिक़ हैं? आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में दावते इस्लाम का आग़ाज़ किया तो वहां कुफ़्र-ओ-शिर्क का निज़ाम राइज था। लोग लात व उज़्ज़ा जैसे देवी देवताओं के बुत नसब कर के उनकी परशतिश करते थे और उन्हीं की ख़ुद साख्ता अज़मत व तक़द्दुस के सहारे मुख़्तलिफ़ क़बाइल के सरदारोँ ने मुआशरे पर अपना असरो रसूख और अपनी हुक्मरानी क़ायम कर रखी थी, कमज़ोरों पर ज़ुल्म करना, यतीमों का हक़ मारना, औरतों के साथ ज़िल्लत आमेज़ सुलूक , शराब , जुआ, बे-हयाई व बदकारी , ये सब कुछ बिल्कुल आम था, हमारा आज का मुआशरा भी इस से कुछ मुख़्तलिफ़ नहीं है, उन इलाक़ों को छोड़िए जहां कुफ़्फ़ार की अक्सरीयत है और उन्हीं की हुक्मरानी है, हम उन इलाक़ों की बात करते हैं जहां मुसलमान अक्सरीयत में हैं और मुसलमान ही हुक्मरानी कर रहे, इन मुस्लिम मुमालिक में मुसलमानों को इन्फ़िरादी सतह पर मज़हबी आज़ादी हासिल है, लेकिन मुल्क में इस्लामी निज़ाम नाफ़िज़ नहीं है, मुस्लिम मुमालिक में जम्हूरियत या आमिरीयत का निज़ाम चल रहा है जो सरासर कुफ़्र का निज़ाम है, क्योंकि जम्हूरियत में क़ानूनसाज़ी का इख़्तियार अवाम को हासिल होता है और आमरियत में तन्हा एक शख़्स को, जब कि इस्लाम में इख़्तियार पूरे तौर पर अल्लाह ही के पास है, चुनांचे तमाम मुस्लिम मुमालिक के हुक्मराँ मग़रिब कुफ़्फ़ार पर इन्हिसार करते हैं और उन्हीं की सरपरस्ती में अपने अपने मुल्क का निज़ाम चला रहे हैं, मुस्लिम मुमालिक की अवाम इस्लाम का निफ़ाज़ चाहती हैं लेकिन हुक्मराँ तबक़ा जम्हूरियत व आमरीत का निज़ाम उन पर मुसल्लत किए हुए हैं, आज का मुस्लिम मुआशरा अहदे नबवी के मक्की दौर के मुशाबेह है, रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم) ने मक्की मुआशरे में इस्लाम को एक निज़ामे ज़िंदगी के तौर पर पेश किया, अल्लाह की मुकम्मल बंदगी की दावत दी, और शिर्क के निज़ाम के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की, इसके नुक़्सानात, इस का फ़साद और बिगाड़ खोल खोल कर बयान किया यहां तक कि शिर्क को ज़ुल्मे अज़ीम कहा गया, आपकी दावत ने दर असल कुफ़्र व शिर्क पर मबनी क़ियादत और सियासत पर ज़ब्र लगाई , आप की दावते तौहीद से कुफ़्र का निज़ाम हिल गया, आप (صلى الله عليه وسلم) ने साफ़ साफ़ कहा कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ मेरी इताअत करो।
इज्तिमाई मुआमलात में कुफ़्र व शिर्क का निज़ाम क़बूल कर लेना और इसी निज़ाम के मुताबिक़ हुक्मरानी करने वालों की इताअत करना दरअसल रब्बुल आलमीन की इताअत से निकल जाना है, चाहे इन्फ़िरादी ज़िंदगी में हम सौम व सलात ৃ के पाबंद हों, हमारे अख़लाक़ अच्छे हों और कारोबार वो लेन देन में शरई अहकाम की पैरवी करते हों, रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم)ने ऐसा नहीं किया कि इस्लाम को एक निज़ामे ज़िंदगी की हैसियत से पेश करने के बजाय लोगों के अख़लाक़ दुरुस्त करने के लिए वाज़ व नसीहत की मुहिम शुरू कर दी हो या समाजी कारकुन की हैसियत से ख़िदमते ख़ल्क़ का काम कर के लोगों के दिल जीतने की कोशिश की हो या लोगों को इन्फ़िरादी ज़िंदगी में अल्लाह की मार्फ़त हासिल करने और नमाज़ों का पाबंद बनाने की कोशिश की हो या अलग अलग मुख़्तलिफ़ मुनकिरात शराब , जुआ, बे-हयाई और बदकारी के नुक़्सानात बयान किए हूँ।
दावत देने का जामे तसव्वुर:
आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस्लाम को एक जामे शक्ल में पेश किया, एक निज़ामे हयात के तौर पर इस की दावत दी, आज़ मन्हजे नबवी के मुताबिक़ दावते इल्लल्लाह का काम करने का तरीक़ा ये है कि अल्लाह की मुकम्मल बंदगी की दावत दी जाये, इन्फ़िरादी ज़िंदगी में भी और इज्तिमाईयत में भी, इस्लाम को एक मुकम्मल और जामे निज़ामे हयात के तौर पर पेश किया जाये, और दुनिया में नाफिज़ुल अमल निज़ामे कुफ़्र का कुफ़्र वाज़िह किया जाये, जम्हूरियत, सैकूलरिज़्म, कम्यूनिज़्म और नेशनलिज़्म, ये कुफ़्फ़ारे मग़रिब की वज़ा करदह इस्तिलाहात हैं और उनके मआनी-ओ-मफ़ाहीम सरासर कुफ़्र हैं, मग़रिब ने ये बातिल निज़ाम मुस्लिम इलाक़ों में फैला दिए हैं, उनके नुक़्सानात और उनका फ़साद और बिगाड़ बिला ख़ौफ़ साफ़ साफ़ बयान किया जाये और इस के मुक़ाबले में इस्लाम की दावत दी जाये जो दर-हक़ीक़त अल्लाह की मुकम्मल बंदगी का निज़ाम है, उस निज़ामे ज़िंदगी की दावत दी जाये जो रसूलुल्लाह ( (صلى الله عليه وسلمने हिजरत के बाद मदीना में क़ायम किया था जहां मुस्लिम उम्मत का बस एक ही क़ाइद था, एक ही इमाम था और वो रसूलुल्लाह थे, और उस निज़ामे ज़िंदगी की दावत दी जाये जिसको रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के विसाल के बाद ख़ुल्फाये राशिदीन (رضی اللہ عنھم) ने नबवी तरीक़े पर क़ायम किया था, इस पूरे दौर में ज़िन्दगी के तमाम शोबों में इस्लाम ही नाफ़िज़ था, हत्ता कि बनु उमय्या व बनु अब्बासिया की ख़िलाफ़त और उस्मानी ख़ानदान की ख़िलाफ़त जिन्हें ख़िलाफ़ते राशिदा नहीं कहा जाता, इस पूरे दौर में इस्लामी निज़ाम ही रहा, बावजूद इस के कि हुक्मराँ तबक़ा ख़ुल्फाये राशिदीन (رضی اللہ عنھم) की सिफ़ात और अख़्लाक़ किरदार से आरी थे, इंतिहाई बाअसर और सरबर आवरदा शख़्सियतों को इस्लाम की दावत दी जाये ताकि इस्लामी निज़ाम क़ायम किया जाये और उनसे नुसरत तलब की जाये जिस तरह रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم) ने मदीना के क़बाइल ओस व ख़ज़रज के सरदारोँ से नुसरत तलब की थी।
दावते इलल्लाह के मुरव्वजा तरीक़ों ने दरअसल इस्लाम को दो मुख़्तलिफ़ अजज़ा में तक़सीम कर दिया है, एक है इज्तिमाई ज़िंदगी और दूसरे इन्फ़िरादी ज़िंदगी, इज्तिमाई उमूर जैसे मुस्लिम उम्मत का एक ख़लीफ़ा और इमाम मुंतख़ब कर के उनकी इताअत करना, इस्लामी निज़ामे अदल क़ायम करना, जिसके ज़रीये हदूदो क़िसास वाली आयाते क़ुरआनी का निफ़ाज़ हो और अदल का क़ियाम हो इस्लामी निज़ामे मईशत जिसके ज़रीये शराब, जुआ, सूदी कारोबार की हुर्मत वाली आयाते क़ुरआनी का निफ़ाज़ हो, ज़कात की वसूली और मुस्तहक़्क़ीन में इस की तक़सीम , इस्लामी अक़ीदा व फिक्र पर मबनी निज़ामे तालीम जिसके ज़रीये इस्लामी उलूम की नशरो इशाअत, साईंस व टेक्नोलॉजी की तालीम को आम किया जाये और कुफ़्र व इल्हाद पर मबनी नज़रियात और फ़लसफ़ा हयात की रोक-थाम हो सके, इस्लामी निज़ाम और मुमलिकत की अवाम का तहफ्फुज़, अमन व अमान क़ायम करना, दीने हक़ को ग़ालिब करना और उन मक़ासिद के लिए मुजाहिदीन की फ़ौज और क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह का सामान तैयार करना, इन सारे इज्तिमाई उमूरे दीन को बिल्कुल नजरअंदाज़ कर के इन्फ़िरादी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ अहकाम पर मुसलमानों को अमल की नसीहत करना, और ग़ैर मुस्लिमीन को इस्लाम की दावत देकर उन्हें ज़ाती ज़िंदगी में इस्लामी अहकाम पर अमल के लिए आमादा करना दरअसल इस्लाम को नाक़िस शक्ल में पेश करना है।

ये भी कहा जाता है कि इस्लाम के मुकम्मल निफ़ाज़ के लिए यही बेहतर तरीक़ा है कि अफ़राद को निजी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ अहकाम पर अमल की दावत दी जाये फिर वो ख़ुद ब ख़ुद इज्तिमाईयत पैदा कर के इज्तिमाई उमूर पर इस्लामी अहकाम के पाबंद हो जाऐंगे, लेकिन ये नबवी तरीक़े के बिल्कुल ख़िलाफ़ है, नबी (صلى الله عليه وسلم) ने जब मक्का में इस्लामी दावत का आग़॓ज़ फ़रमाया और महिज़ दस पंद्रह अफ़राद ही मुसलमान हुए थे उस वक़्त भी इज्तिमाईयत मौजूद थी और रसूलुल्लाह की मुकम्मल इताअत होती थी, अलबत्ता इज्तिमाई ज़िंदगी से मुताल्लिक़ बेशतर अहकाम अभी नाज़िल नहीं हुए थे, ये उज़्र नहीं पेश किया जा सकता कि हमारा दौर अहदे नबवी के मक्की दौर के मुमासिल है इसलिए मक्की दौर में जो क़ुरआनी अहकाम नाज़िल नहीं हुए थे उन पर अमल करना हमारे लिए ज़रूरी नहीं। क्योंकि हमारे सामने तो पूरा दीन मौजूद और महफ़ूज़ है लिहाज़ा हमारे लिए इन तमाम अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है, अलबत्ता वो इज्तिमाई उमूर जिनका निफ़ाज़ इक़्तिदार और हुकूमत के बग़ैर नहीं हो सकता, वो नाफ़िज़ुल अमल नहीं हो पाएगा, लेकिन इसके लिए मेहनत व कोशिश करना निहायत ज़रूरी है, इस्लाम को मुकम्मल निज़ामे हयात के तौर पर पेश कर के उम्मते मुस्लिमा को एक ख़लीफ़ा और इमाम मुंतख़ब करने की दावत देना ज़रूरी है।

इस उज़्र के लिए कोई गुंजाइश नहीं कि अभी इन्फ़िरादी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ इबादात और अख़लाक़ वग़ैरह की इस्लाह नहीं हो सकी है लिहाज़ा इज्तिमाई उमूर के लिए कोशिश करना बे नतीजा है , ग़लबाऐ कुफ़्र के इस दौर में क्या कोई ये कह सकता है कि मैं अभी नमाज़ों का पाबंद नहीं हो सका हूँ इसलिए मुझे ज़कात का हुक्म ना दिया जाये या ज़कात की अदायगी में कोताही का मुर्तक़िब हूँ इसलिए मुझे हज की अदायगी का हुक्म ना दिया क्या कोई ये कह सकता है कि मैं शराब पीना अभी तर्क नहीं कर सका हूँ लिहाज़ा मुझे सूदी कारोबार और रिश्वत लेने से परहैज़ करने का हुक्म ना दिया जाये ? ज़ाहिर है कि नमाज़ ना रोज़े पर मौक़िफ़ है और ना हज ज़कात पर, एक मुसलमान के लिए तमाम फ़राइज़ की अदायगी लाज़िम है, एक फ़रीज़े की अदायगी में कोताही को दूसरे फ़रीज़े से छुटकारा पाने के लिए उज़्र नहीं बनाया जा सकता, इसी तरह मुसलमानों की इन्फ़िरादी ज़िंदगी में अमली कमज़ोरीयों की वजह से इज्तिमाई निज़ाम क़ायम करने में कोताही गवारा नहीं की जा सकती, हाँ ये ज़रूर है कि ताक़त के ज़ोर पर कुफ़्र का निज़ाम ख़त्म कर के इस्लामी निज़ाम क़ायम नहीं किया जाएगा क्योंकि ये नबवी तरीक़ा नहीं है, इसके लिए लोगों को दूसरे फ़राइज़े दीन की तरह इस अहम फ़रीज़े से भी आगाह करने की ज़रूरत है ताकि मुस्लिम उम्मत अपनी ज़िम्मेदारियों को महसूस करते हुए अपने लिए एक इमाम व ख़लीफ़ा मुंतख़ब करने के लिए जद्द-ओ-जहद में मसरूफ़ हो जाएं और इसका तरीक़ा ये है कि दुनिया में नाफ़िज़ुल अमल निज़ाम कुफ़्र, सैकूलरिज़्म, जम्हूरियत या आमिरीयत वग़ैरा के कुफ़्र को आशकार किया जाये और इस्लाम को एक निज़ाम के तौर पर पेश किया जाये , उस के बरअक्स मौजूदा निज़ामे कुफ़्र के इस्तिहकाम के लिए काम करना, उस की शरई हैसियत को वाज़िह ना करना, बल्कि उसके लिए मुकम्मल तआवुन करना और साथ साथ ग़ैर मुस्लिमों को नेकी-ओ-तक़वे की तलक़ीन भी करना, ये नबवी तरीक़े की दावत नहीं है।





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