खिलाफत में सामजिक व्यवस्था
इस्लाम, खिलाफत में गैर-मुस्लिमो के लिए ‘अल्पसंख्यक’ की शब्दावली इस्तिमाल नही करता।
इस्लाम में धार्मिक और गैर-मुस्लिम गिरोहों के ताल्लुक़ से तफ्सीली अहकाम और अहलुल ज़िम्मा (जिन लोगो से मुआहिदा हुआ है) का तसव्वुर मौजूद हैं। यह शब्द (अहलुल ज़िम्मा) नैतिक महत्व रखता है जो कि अल्पसंख्यक में मौजूद नही है। अहलुल ज़िम्मा का अर्थ हिफाज़त, जिसमें मुआहिद (जिनसे मुआहिदा हुआ है), ज़मानत (Guarantee), पवित्रता (तकद्दुस/Sanctity) और कर्त्तव्य ।
✔ इस्लाम मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम, इन दो समूह में लोगों को इंसान के तौर पर देखता हैं। खिलाफत में मुसलमानों के अलावा सभी को गै़र-मुस्लिम माना जाता हैं ना कि अल्पसंख्यक। गै़र-मुस्लिम के लिए इस्लाम में अहलुल ज़िम्मा (ज़िम्मी) शब्द इस्तेमाल किया जाता हैं।
✔ अहलुल जिम्मा का अर्थ हैं, वो लोग जिनके साथ मुआहिदा (कॉन्ट्रेक्ट) हैं। खुद इसके नाम से एक अख्लाकी (नैतिक) ज़िम्मेदारी का अहसास होता हैं जबकि ‘अक्लियत’ शब्द में ऐसा महसूस नही होता लेकिन अहले जिम्मा यानी जिनकी जिम्मेदारी ली गई हैं, खुद इस शब्द में एक नैतिकता छिपी हुई हैं।
✔ खिलाफत की ज़िम्मेदारी होती हैं कि वो ज़िम्मी को वो सारी सुविधाऐ उपलब्ध कराये जो एक आम शहरी को मिलनी चाहिए। इस्लाम अहले जिम्मा के ताल्लुक से कई तफ्सीली क़वानीन (Laws) रखता हैं। इस्लाम गै़र-मुस्लिमों के अक़ीदे (आस्था), इबादात, पूजा-पाठ, रस्म व रिवाज के मामलें में कोई दखलअंदाजी नही करता।
✔गै़र-मुस्लिम को अपने खान-पीन, वेश-भूषा, अलग अक़ीदा इत्यादि को मानने की ईजाज़त होती हैं, जितनी शरीअत ने ईजाज़त दी हैं। मिसाल के तौर पर अगर किसी धर्म में औरतों को आधे नंगे कपडे़ पहनने का रिवाज हैं तो उस सूरत में उनको सार्वजनिक स्थानों पर रोका जायेगा लेकिन उनके निजी जीवन में मुसलमान दखलअंदाजी नही करेगें।
✔ शादी और तलाक के मामलात भी उनको उनके अक़ीदे और क़ानून के मुताबिक चलने की ईजाज़त होगी। शरीअत के वो क़वानीन जो लेन-देन, खरीद-फरोख्त, गवाही, हुक्मरानी (शासन), सज़ाए, मुआहिदे (संधिया) से संबधित हैं वोह मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम दोनों के लिए बराबर होगें और समान तौर पर लागू किये जायेंगे, इसमें कोई फर्क़ नही किया जायेगा।
✳सभी गै़र-मुस्लिमो पर जिज़्या नही लगता✳
✔सिवाय उन पर पर जो कि, बालिग़ हो और जिसके पास जिज़्या देने की इस्तिताअत (क्षमता) हो इस तरह औरते, बूड़े, बच्चो पर जिज़्या नही हैं। जैसे मौजूदा व्यवस्था में आयकर उसी शख्स पर लगता हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम हो लेकिन आयकर में बहुत ज़्यादा रकम वसूली जाती हैं जबकि जिज़्या में बहुत कम रकम वसूली जाती हैं। जिज़्या एक ‘कर’ हैं जो सुविधाओं और सुरक्षा के बदले इस्लामी रियासत वसूल करती हैं।
✔अगर इस्लाम के क़ानून को ठीक से लागू नही किया जा रहा हैं तो अहले जिम्मा को यह अधिकार होगा कि वो मजलिसे उम्मा में उम्मत की तरफ से नुमाइंदे (प्रतिनिधि) के तौर पर खडे़ हो सकते हैं, उसमें वो मश्वरा दे सकते हैं, अपनी समस्याएं रख सकते हैं।
✳ मुस्लिम दुनिया में आज जो संप्रदायिकता और नस्लवाद पाया जाता हैं, उसकी वजह वह गै़र-इस्लामी राजनीतिक पार्टीयाँ हैं जो फायदे पाने और अपनी नाकाम राजनीति को छुपाने के लिए मुसलमानो में इन बोसीदा विचारो के बीज बोते हैं।
⛔ खिलाफत के बाद की मुस्लिम दुनिया मे शिया-सुन्नी मसले को ऊठाने के पीछे गैर-इस्लामी तर्ज़ पर हुक्मरानी करने वाले मुस्लिम हुक्मरानों की पूरी साजिश रही हैं, सीरिया में सऊदी अरब ने कई बार अपने फायदे के लिए शिया-सुन्नी मसला ऊठाया हैं।
⛔ इंडिया में होने वाले सभी फसादात (दंगे) सत्त मे बैठे हुक्मरानो साजिश के तहत होते हैं और खास तौर पर वह अपनी सत्ता बनाए रखने और राजनीतिक मफाद हासिल करने के लिए ऐसा करते हैं क्योंकि लोग बिल्कुल शांति में रहेगें तो ज़्यादा मांग करेगें और उन्हें राजनैतिक हालात और भ्र्ष्टाचार को समझने का ज़्यादा मौका मिलेगा। आज की राजनीति का यह एक अहम हिस्सा हैं कि लोगों को कभी इतनी शांति में न रहने दो कि वह कुछ सोचने लगें, हुकूमत से ज़्यादा मांग करने लगे और हुकूमत की जनता के साथ धोकाधडियाँ पहचानने लगे। इस तरह उन्हें नए-नए फित्नों में उलझाए रखा जाता हैं, जिसमें फिरकापरस्ती, साम्प्रदायिकता, जातिवाद मुख्य फित्ने हैं।
राजनेताओं द्वारा फित्नों को फैलाने का मामला मुस्लिम दुनिया में भी मौजूद हैं।
✅ फिरकावारियत कि एक वजह यह भी हैं कि, जब लोगो के साथ ईलाकावाद, भाषावाद, नस्लवाद, जातिवाद के आधार पर सुलूक किया जाता हैं और इन चीज़ो का इस्तेमाल कर उन्हें लोकतंत्र मे राजनैतिक फायदा उठ्ने के लिये एक दूसरे के खिलाफ भड़काया जाता हैं। यह तमाम तसव्वुरात अस्बियत की बुनियाद होती हैं, जिससे फूट, झगड़े, दंगें-फसाद और साम्प्रदायिकता फैलती हैं।
✔ खिलाफत इस्लाम की बुनियाद पर बनेगी ना कि किसी अस्बियत (पक्ष्पात), नस्लवाद, संप्रदायवाद (Sectarianism), की बुनियाद पर। खिलाफत अपने नागरिको को मुस्लिम उम्मत और अहले ज़िम्मा की नुक्ताऐनज़र के सिवाय किसी और निगाह से नही देखेगी। खिलाफत बिना किसी भेदभाव के, लोगों की सेवा और उनके विकास के लिए काम करेगी, जब इख्लास के साथ लोगों के मसाईल हल किए जायेगें और जब लोग इन कोशिशो को देखेगें तो लोगों में आपसी तनाव खुद ब खुद कम हो जायेगा इसी तरह जब लोग तरक्की और शांति में ज़िन्दगी गुजारेगें तो फिरकावारियत जैसी कोई चीज़ नही होगी। और न ही ऐसे कोई मिलिशिया मूमेंट (हिंसात्मक आन्दोलन) कि ज़रूरत होगी जिन्हे बाहर से धन प्राप्त होता हैं।
✔ इस्लाम क़ानूनी पहलूओ को समझने और तश्रीह करने पर होने वाले फर्क़ को तस्लीम करता हैं जिसे फिक़ही इख्तिलाफ कहते है. और यह बात इस्लाम के साथ ही खास और महदूद नहीं, बल्कि दूसरी व्यवस्थाओं में भी इस तरह का फर्क़ पाया जाता हैं। इतिहास में, यह क़ानूनी फर्क़ (फिक़ही इख्तिलाफ) मुसलमानों के इस्लामी अफ्कार (विचारों) में, और फिक़्ह व उसूल में तरक्की का कारण रहा हैं।
✔ मुसलमानों में फिक़्ही इख्तिलाफ कई मामलात में हो सकते हैं लेकिन क़तई मामलात (वह बात जो मुतावातिर से दलील से आए हैं) में इख्तिलाफ, मुसलमानों में नही पाए जाते जैसे अल्लाह सुबाहनहू व तआला के वजूद पर ईमान रखना, अंबियाओं पर, किताबों पर, जन्नत और जहन्नुम पर इमान वग़ैराह। जो कोई मसलक शरई राय अपनाता हैं तो वोह किसी ना किसी दलील पर आधारित होना चाहिए, इसके साथे ही वह दलील किसी क़तई चीज़ से न टकराती हो तब ही वह राय काबिले क़बूल होगी अन्यथा वह राय काबिले क़बूल नही होगी।
✔ वह राय जो क़तई दलील से नही टकराती, इस्लामी राय तस्लीम कि जाएगी । भले ही वह कमज़ोर दलीलो पर आधारित हो। यही सिद्धान्त खिलाफत ने अपनाया हैं कि क़तई चीज़ों में कोई इख्तिलाफ नही होगा और जो गै़र-क़तई (ज़न्नी) हैं, उसमें लोग शरई दलायल की बुनियाद पर अपनी-अपनी राय इख्तियार कर सकते हैं और इस बुनियाद पर उनके अलग-अलग मज़हब और मस्लक हो सकते हैं। पूरी दुनिया में मुसलमानों का एक ही अक़ीदा हैं इस बुनियाद पर खिलाफत कोई दूसरे अक़ीदे को नही अपनाऐगी।
👉 खिलाफत क़तई उसूलो (सिद्धान्तों) को उसके वास्तविक स्वरूप के साथ लागू करेगी ना कि उसके अधूरे स्वरूप के साथ। जैसे कि यह मामला कुछ शियाओं ने ईरान की रियासत के लिए अपना रखा हैं, इन्होंने ईरान के संविधान में भी कुछ बातें ईस्लामी रखी और ज़्यादातर बातें ग़ैर-इस्लामी अपना रखी हैं जो साफ तौर पर क़ुरआन व सुन्नत से टकराती हैं। खिलाफत सिर्फ और सिर्फ इस्लामी क़ानून ही लागू करेगी ।
इस्लाम में धार्मिक और गैर-मुस्लिम गिरोहों के ताल्लुक़ से तफ्सीली अहकाम और अहलुल ज़िम्मा (जिन लोगो से मुआहिदा हुआ है) का तसव्वुर मौजूद हैं। यह शब्द (अहलुल ज़िम्मा) नैतिक महत्व रखता है जो कि अल्पसंख्यक में मौजूद नही है। अहलुल ज़िम्मा का अर्थ हिफाज़त, जिसमें मुआहिद (जिनसे मुआहिदा हुआ है), ज़मानत (Guarantee), पवित्रता (तकद्दुस/Sanctity) और कर्त्तव्य ।
🔱🔱खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल🔱🔱
💠खिलाफत में सामजिक व्यवस्था💠
➡ सवाल नं. (35): खिलाफत में अल्पसंख्यको (minorities) का क्या होगा?
✳ अल्पसंख्यक (अक्लियत) के लिए आम तौर पर ऐसा माना जाता हैं कि इनका वजूद खतरे में रहता हैं और उनके साथ भेदभाव किया जाता हैं। अक्लियतों के ताल्लुक से हमेशा ही यह बहस चलती हैं कि इनके अधिकारों की कैसे सुरक्षा की जाए।
✔ इस्लाम मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम, इन दो समूह में लोगों को इंसान के तौर पर देखता हैं। खिलाफत में मुसलमानों के अलावा सभी को गै़र-मुस्लिम माना जाता हैं ना कि अल्पसंख्यक। गै़र-मुस्लिम के लिए इस्लाम में अहलुल ज़िम्मा (ज़िम्मी) शब्द इस्तेमाल किया जाता हैं।
✔ अहलुल जिम्मा का अर्थ हैं, वो लोग जिनके साथ मुआहिदा (कॉन्ट्रेक्ट) हैं। खुद इसके नाम से एक अख्लाकी (नैतिक) ज़िम्मेदारी का अहसास होता हैं जबकि ‘अक्लियत’ शब्द में ऐसा महसूस नही होता लेकिन अहले जिम्मा यानी जिनकी जिम्मेदारी ली गई हैं, खुद इस शब्द में एक नैतिकता छिपी हुई हैं।
✔ खिलाफत की ज़िम्मेदारी होती हैं कि वो ज़िम्मी को वो सारी सुविधाऐ उपलब्ध कराये जो एक आम शहरी को मिलनी चाहिए। इस्लाम अहले जिम्मा के ताल्लुक से कई तफ्सीली क़वानीन (Laws) रखता हैं। इस्लाम गै़र-मुस्लिमों के अक़ीदे (आस्था), इबादात, पूजा-पाठ, रस्म व रिवाज के मामलें में कोई दखलअंदाजी नही करता।
✔गै़र-मुस्लिम को अपने खान-पीन, वेश-भूषा, अलग अक़ीदा इत्यादि को मानने की ईजाज़त होती हैं, जितनी शरीअत ने ईजाज़त दी हैं। मिसाल के तौर पर अगर किसी धर्म में औरतों को आधे नंगे कपडे़ पहनने का रिवाज हैं तो उस सूरत में उनको सार्वजनिक स्थानों पर रोका जायेगा लेकिन उनके निजी जीवन में मुसलमान दखलअंदाजी नही करेगें।
✔ शादी और तलाक के मामलात भी उनको उनके अक़ीदे और क़ानून के मुताबिक चलने की ईजाज़त होगी। शरीअत के वो क़वानीन जो लेन-देन, खरीद-फरोख्त, गवाही, हुक्मरानी (शासन), सज़ाए, मुआहिदे (संधिया) से संबधित हैं वोह मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम दोनों के लिए बराबर होगें और समान तौर पर लागू किये जायेंगे, इसमें कोई फर्क़ नही किया जायेगा।
✳सभी गै़र-मुस्लिमो पर जिज़्या नही लगता✳
✔सिवाय उन पर पर जो कि, बालिग़ हो और जिसके पास जिज़्या देने की इस्तिताअत (क्षमता) हो इस तरह औरते, बूड़े, बच्चो पर जिज़्या नही हैं। जैसे मौजूदा व्यवस्था में आयकर उसी शख्स पर लगता हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम हो लेकिन आयकर में बहुत ज़्यादा रकम वसूली जाती हैं जबकि जिज़्या में बहुत कम रकम वसूली जाती हैं। जिज़्या एक ‘कर’ हैं जो सुविधाओं और सुरक्षा के बदले इस्लामी रियासत वसूल करती हैं।
✔अगर इस्लाम के क़ानून को ठीक से लागू नही किया जा रहा हैं तो अहले जिम्मा को यह अधिकार होगा कि वो मजलिसे उम्मा में उम्मत की तरफ से नुमाइंदे (प्रतिनिधि) के तौर पर खडे़ हो सकते हैं, उसमें वो मश्वरा दे सकते हैं, अपनी समस्याएं रख सकते हैं।
🔱🔱खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल🔱🔱
➡सवाल नं. (36): खिलाफत फिरकापरस्ती (संप्रदायिकता) से कैसे मुकाबला करेगी?
✳ मुस्लिम दुनिया में आज जो संप्रदायिकता और नस्लवाद पाया जाता हैं, उसकी वजह वह गै़र-इस्लामी राजनीतिक पार्टीयाँ हैं जो फायदे पाने और अपनी नाकाम राजनीति को छुपाने के लिए मुसलमानो में इन बोसीदा विचारो के बीज बोते हैं।
⛔ खिलाफत के बाद की मुस्लिम दुनिया मे शिया-सुन्नी मसले को ऊठाने के पीछे गैर-इस्लामी तर्ज़ पर हुक्मरानी करने वाले मुस्लिम हुक्मरानों की पूरी साजिश रही हैं, सीरिया में सऊदी अरब ने कई बार अपने फायदे के लिए शिया-सुन्नी मसला ऊठाया हैं।
⛔ इंडिया में होने वाले सभी फसादात (दंगे) सत्त मे बैठे हुक्मरानो साजिश के तहत होते हैं और खास तौर पर वह अपनी सत्ता बनाए रखने और राजनीतिक मफाद हासिल करने के लिए ऐसा करते हैं क्योंकि लोग बिल्कुल शांति में रहेगें तो ज़्यादा मांग करेगें और उन्हें राजनैतिक हालात और भ्र्ष्टाचार को समझने का ज़्यादा मौका मिलेगा। आज की राजनीति का यह एक अहम हिस्सा हैं कि लोगों को कभी इतनी शांति में न रहने दो कि वह कुछ सोचने लगें, हुकूमत से ज़्यादा मांग करने लगे और हुकूमत की जनता के साथ धोकाधडियाँ पहचानने लगे। इस तरह उन्हें नए-नए फित्नों में उलझाए रखा जाता हैं, जिसमें फिरकापरस्ती, साम्प्रदायिकता, जातिवाद मुख्य फित्ने हैं।
राजनेताओं द्वारा फित्नों को फैलाने का मामला मुस्लिम दुनिया में भी मौजूद हैं।
✅ फिरकावारियत कि एक वजह यह भी हैं कि, जब लोगो के साथ ईलाकावाद, भाषावाद, नस्लवाद, जातिवाद के आधार पर सुलूक किया जाता हैं और इन चीज़ो का इस्तेमाल कर उन्हें लोकतंत्र मे राजनैतिक फायदा उठ्ने के लिये एक दूसरे के खिलाफ भड़काया जाता हैं। यह तमाम तसव्वुरात अस्बियत की बुनियाद होती हैं, जिससे फूट, झगड़े, दंगें-फसाद और साम्प्रदायिकता फैलती हैं।
✔ खिलाफत इस्लाम की बुनियाद पर बनेगी ना कि किसी अस्बियत (पक्ष्पात), नस्लवाद, संप्रदायवाद (Sectarianism), की बुनियाद पर। खिलाफत अपने नागरिको को मुस्लिम उम्मत और अहले ज़िम्मा की नुक्ताऐनज़र के सिवाय किसी और निगाह से नही देखेगी। खिलाफत बिना किसी भेदभाव के, लोगों की सेवा और उनके विकास के लिए काम करेगी, जब इख्लास के साथ लोगों के मसाईल हल किए जायेगें और जब लोग इन कोशिशो को देखेगें तो लोगों में आपसी तनाव खुद ब खुद कम हो जायेगा इसी तरह जब लोग तरक्की और शांति में ज़िन्दगी गुजारेगें तो फिरकावारियत जैसी कोई चीज़ नही होगी। और न ही ऐसे कोई मिलिशिया मूमेंट (हिंसात्मक आन्दोलन) कि ज़रूरत होगी जिन्हे बाहर से धन प्राप्त होता हैं।
✔ इस्लाम क़ानूनी पहलूओ को समझने और तश्रीह करने पर होने वाले फर्क़ को तस्लीम करता हैं जिसे फिक़ही इख्तिलाफ कहते है. और यह बात इस्लाम के साथ ही खास और महदूद नहीं, बल्कि दूसरी व्यवस्थाओं में भी इस तरह का फर्क़ पाया जाता हैं। इतिहास में, यह क़ानूनी फर्क़ (फिक़ही इख्तिलाफ) मुसलमानों के इस्लामी अफ्कार (विचारों) में, और फिक़्ह व उसूल में तरक्की का कारण रहा हैं।
✔ मुसलमानों में फिक़्ही इख्तिलाफ कई मामलात में हो सकते हैं लेकिन क़तई मामलात (वह बात जो मुतावातिर से दलील से आए हैं) में इख्तिलाफ, मुसलमानों में नही पाए जाते जैसे अल्लाह सुबाहनहू व तआला के वजूद पर ईमान रखना, अंबियाओं पर, किताबों पर, जन्नत और जहन्नुम पर इमान वग़ैराह। जो कोई मसलक शरई राय अपनाता हैं तो वोह किसी ना किसी दलील पर आधारित होना चाहिए, इसके साथे ही वह दलील किसी क़तई चीज़ से न टकराती हो तब ही वह राय काबिले क़बूल होगी अन्यथा वह राय काबिले क़बूल नही होगी।
✔ वह राय जो क़तई दलील से नही टकराती, इस्लामी राय तस्लीम कि जाएगी । भले ही वह कमज़ोर दलीलो पर आधारित हो। यही सिद्धान्त खिलाफत ने अपनाया हैं कि क़तई चीज़ों में कोई इख्तिलाफ नही होगा और जो गै़र-क़तई (ज़न्नी) हैं, उसमें लोग शरई दलायल की बुनियाद पर अपनी-अपनी राय इख्तियार कर सकते हैं और इस बुनियाद पर उनके अलग-अलग मज़हब और मस्लक हो सकते हैं। पूरी दुनिया में मुसलमानों का एक ही अक़ीदा हैं इस बुनियाद पर खिलाफत कोई दूसरे अक़ीदे को नही अपनाऐगी।
👉 खिलाफत क़तई उसूलो (सिद्धान्तों) को उसके वास्तविक स्वरूप के साथ लागू करेगी ना कि उसके अधूरे स्वरूप के साथ। जैसे कि यह मामला कुछ शियाओं ने ईरान की रियासत के लिए अपना रखा हैं, इन्होंने ईरान के संविधान में भी कुछ बातें ईस्लामी रखी और ज़्यादातर बातें ग़ैर-इस्लामी अपना रखी हैं जो साफ तौर पर क़ुरआन व सुन्नत से टकराती हैं। खिलाफत सिर्फ और सिर्फ इस्लामी क़ानून ही लागू करेगी ।
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