खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल (27-28)

➡ सवाल नं. (27): क्या खिलाफत में मौत की सज़ा होगी? क्या होगा अगर मौत की  सज़ा गलत हुई तो ?

 

 









✅ इस्लाम का न्याय, समाज की सुरक्षा और समाज को नुक्सानदायक चीज़ो से रोकने जैसे मामलात के मामले मे पश्चिमी नज़रिए से (दृष्टिकोण) से अलग है।

✅ इस्लाम क़ानून उल्लंघन के मसले को सामाजिक दबाव के ज़रिए हल करता है यानी जब कोई क़ानून तोड़े तो सामाजिक दबाव बनाकर उस शख्स को क़ानून तोड़ने ना दिया जाए, और यह दबाव इस दर्जे तक सामाज में पाया जाए कि अगर कोई इंसान गलती करे, तो समाज उसे फौरन टोक दे। यही नही इस मसले में, दोषी पाए जाने पर, खिलाफत बिना किसी देरी के उसे तुरंत सज़ा देगी।

✅ इस्लाम में अगर अपराधो कि सज़ाए सख्त है, तो इसके साथ ही इस्लाम ने अपराध को साबित करने के लिए बहुत मुश्किल और कठिन शर्ते भी रखी हैं। इस तरह इस्लाम में सिर्फ दोषी को ही सज़ा मिलती हैं।
✅ इस्लाम का क़ानूनी उसूल, अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) की इस हदीस पर आधारित है जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم)  ने फरमाया कि ''चाहे कोई मुजरीम छूट जाए लेकिन किसी बेगुनाह को सज़ा ना हो''

⛔ जबकि पूंजीवाद में इसके विपरीत होता है,

❌ पूंजीवाद के व्यक्तित्ववाद के तसव्वुर अनुसार यदि कोई इंसान कुछ ग़लत करता है, तो यह उसका निजी मामला है, किसी को उस मसले में दखल अन्दाज़ी कि इजाज़त नही हैं, इस तरह यह सोच बन जाती है कि कोई कुछ भी करता रहे है यह उसका निजी मसला है,

❌ इसी तसव्वुर के कारण आज अगर कही सड़क पर कोई किसी कि हत्या कर दे या कोई दुर्घटना कि चपेट में आ जाए तो उसकी मदद के लिए कोई आगे नही आता।

❌ इसके अलावा पूंजीवाद कि क़ानून व्यवस्था मे शक के आधार पर लोगो को अपराधीयों की तरह सज़ा भुगतने के लिए जेल में डाल दिया जाता हैं और यह मशकूक पर है की वोह अपने आप को निर्दोष साबित करे।

➡ सवाल नं. (28): क्या हुदूद ज़ालिमाना तो नही है?


✅ लोगों को जुर्म और बुराई से रोकने के कई इस्लामी कानून मे से हुदूद कि सज़ाए सबसे बेहतरीन मिसाल है, जबकि इन्हे वहाँ लागू किया जाए जहाँ इस्लाम का पूरा-पूरा निफाज़ होता हो।

❌ गैर इस्लामी निज़ाम मे अगर हूदुद लागू किया जाए तो यह हानिकारक साबित हो सकता है जैसे कि कुछ मुस्लिम देश ने किया और इस्लाम दुश्मनो को ऐतराज़ात का मौका मिला। 

✅ यक़ीनन हुदूद की सज़ाए बेहद सख्त है, लेकिन इस्लाम ने अपराध को साबित करने कि शर्ते बहुत मुश्किल रखी है। ऐसी शर्ते जिन्हें आम तौर पर साबित करना मुश्किल है।

✅ जैसे कि यह मामला ज़िना के साथ है जिसमे, अगर किसी पर ज़िना का इल्जाम लगा दिया जाए तो चार गवाह चाहिए जिन्होंने अपनी आंखों से मौकाए वारदात पर वोह चीज़ देखी है, इसके बाद वोह चारों गवाह, गवाही देगें तब ही उसे सज़ा का मुस्तहिक़ माना जायेगा।

✅ इसी तरह जुर्म साबित होने पर बिना किसी हिचकिचाहट के सज़ा लागू की जाएगी और सज़ा देने में देरी करना जाईज़ नही, क्योंकि सज़ा देने का मक़सद ना सिर्फ यह हैं कि समाज में गुनाह और नाफरमानी कम हो बल्कि वह शख्स जिसने गुनाह किया हैं वह गुनाहो से पाक हो जाएगा और आखिरत के लिए बरी-उ-ज़िम्मा हो जायेगा।

✔ इस तरह खिलाफत में मुजरिमों के लिए एक स्पष्ट सन्देश होगा कि वह कोई भी जुर्म बहुत सोच समझकर करे और अपने अंजाम को पूरे ध्यान में रखें।
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