सवाल नं. (2) क्या दुनिया में इस्लामी रियासत मौजूद है जैसे कि सऊदी अरब, ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान वगैराह?
🔹 नहीं, इस वक़्त दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहॉ पूरे के पूरे इस्लामी क़वानीन लागू किये जाते हों। कुछ ऐसे देश है जो कि कुछ इस्लामी अहकाम को लागू करते है या उनको अपने संविधान का हिस्सा बना रखा है, जिसमें सिर्फ घर के क़ानून शामिल हैं, लेकिन वहॉ पर बहुत से ऐसे क़वानीन और पॉलिसीज़ लागू हैं जो पूरी तरीके से इस्लामी बुनियाद पर नहीं बने है।
🔹 पाकिस्तान में, समाजिक ज़िंदगी के कुछ क़वानीन इस्लाम से लेकर दुनियाभर में यह दिखावा किया गया कि उन्होंने अपने देश में इस्लामी क़ानून लागू कर रखा है। इसी तरह हुदूद के कुछ क़ानून को लागू करने की कोशिश की। मगर उसका बुरा नतीजा रहा क्योंकि उन्होंने ये क़ानून सही बुनियाद और तरीके से लागू नहीं किये थे। यह सब भ्रष्ट नाजायज़ हुकुमतों और उनके पश्चिमी आक़ाओं का खेल है जिसके ज़रिए वोह लोगों को धोका देते है और इस्लामी क़वानीन को आधा अधूरा लागू करके दुनिया को एक संदेश दे सके कि इस्लाम समाज को चालने में क़ाबिले अमल (सक्षम) नहीं है। जब इस्लाम के क़वानीन आधे अधूरे लागू किये जाते है तो उससे एक तरह से बिगाड़ पैदा होता है। आप एक तरफ ज़िना के लिए संगसार की सजा लागू कर दो और दूसरी तरफ ज़िना के सारे स्त्रोत चालू रखो जिससे ज़िना को बढा़वा मिलता है तो इससे और फित्ना फैल जायेगा। एक तरफ लोग खुलकर ज़िना करेगें, दूसरी तरफ आप उनको मौत की सज़ा दोगे। इससे लोगों की सोच बनेगी कि इस्लाम आज के ज़माने में नहीं चल सकता, ऐसा जान बूझकर किया जाता है।
🔹 सऊदी अरब वोह देश है जो क़ुरआन शरीफ की, इस्लामी किताबो की, लाखों नकलें दुनियाभर में बंटवाता है, पूरी दुनिया में मस्जिदो की तामीर के लिए चंदा देता है हालॉकि सऊदी हुकूमत कई तरह के क़ानूनो का मिश्रण है, जिसमें कुछ इस्लामी और कुछ गै़र-इस्लामी क़ानून (इंसान के बनाए हुए) चलते है (यह लोगो को बाहर से इस्लामी देश नजर आता है जबकि बहुत से इंसान के बनाए क़ानून वहॉ लागू हैं)। अपनी इस्लामी छवि बरक़ार रखने के लिए वोह शब्द क़ानून से गुरेज़ करते हैं। इस्लामी क़वानीन और ग़ैर-इस्लामी क़वानीन में फर्क़ पैदा करने के लिए उन्होनें खास तरह कि शब्दावलीयाँ (इस्तिलाहात) ईजाद की है। सऊदी अरब के क़वानीन से मुताल्लिक एक किताब अरबी में लिखी गई है, जिसमें उसका लेखक कहता है कि “सऊदी अरब में इस्लामी क़ानून के लिए ''क़ानून'' और ''तर्शी'' जैसे शब्द इस्तेमाल किये जाते है ............जहॉ तक इंसान के बनाए हुए क़वानीन की बात है तो उसके लिए दूसरे शब्द इस्तेमाल किये जाते है, जैसे अवामिर, तालिमात और अंथिमा.....” असल इंसान के बनाए हुए क़ानून के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल करते है ताकि ऐसा लगे कि यह भी इस्लाम से सम्बन्धित क़ानून की कोई श्रेणी है।
हक़ीक़त में सऊदी अरब एक विरासती बादशाहत है (जहॉ बाप के बाद उसका बेटा बादशाह बनता है) जो धर्म को पश्चिमी हथकंडे को लागू करने के लिए इस्तिमाल करते हैं।
🔹इसी तरह तालिबान ने भी इस्लाम के कुछ पहलूओं को लागू किया। जब अफगानिस्तान में तालिबान ने रियासत बनाई तो उनकी मंशा इसे खिलाफत बनाने या कहने की नहीं थी। जबकि हक़ीक़त में खिलाफत ही वाहिद इस्लामी निज़ाम है। तालिबान इसे खिलाफत के बजाय ईमारत कहते थे, यानी एक ऐसा राजनैतिक अस्तितव (सियासी वजूद) जो बिना किसी इस्लामी विदेश नीति के सिर्फ अपने इलाक़ो पर क़वानीन लागू करता है । यानी वोह यह मानते थे कि एक वक़्त में कई सारी इस्लामी रियासत हो सकती है और इसलिए वोह सिर्फ उनके ईलाक़े, अफगानिस्तान, में इस्लामी क़ानून लागू करने की नियत रखते थे । ये एक गै़र-इस्लामी सोच थी क्योंकि इस्लामी रियासत की कोई सरहद नहीं होती और किसी इस्लामी देश का अमीर तमाम मुसलमानों का अमीर और तमाम मुसलमानों के मसाईल उसके मसाईल होगें और वोह खुद को सीमाओं में कै़द नहीं करेगा। उन्होंने शरीअत के क़तई दलायल को नजरअन्दाज़ करके खुद को सीमित दायरे में महदूद क़ैद कर लिया था ।
इसके अलावा उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ को स्वीकार किया (जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ अपने क़वानीन को दुनिया के तमाम क़ानूनों से बड़कर और बालातर मानता है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ को स्वीकार करना अल्लाह के क़ानून से बड़कर संयुक्त राष्ट्र संघ के क़ानून को बालातर मानने के समान है।)
ऐसी कई तफ्सीलात है जिनसे मालूम होता है कि तालिबान ने कोई इस्लामी हुकूमत क़ायम नहीं की थी, बल्कि उन्होंने इस्लामी अहकाम के चन्द पहलूओं को लागू किया था।
🔹 ईरान का संविधान ऐसे कई क़ानून रखता है जो इस्लाम के अनुसार है मगर दूसरे ऐसे क़ानून भी हैं जो सीधे तौर पर इस्लाम से टकराते है। ईरान के संविधान का अनुच्छेद नं. 6 बताता है:
“इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान, (यानी ईरान खुद को लोकतांत्रिक देश मानता है) देश के मामलात आवाम की राय के मुताबिक़ चलाए जाएंगे जोकि चुनाव के ज़रिए मुमकिन होता हैं, जिसमें राष्ट्रपति का, इस्लामी सलाहकार असेंबली का और काउंसिल के मेम्बरान का चुनाव शामिल हैं या दूसरे मुद्दो में रेफरेंडम के ज़रिए” यानी लोगो के मामलात और क़ानून व्यवस्था लोगो की मर्ज़ी और पसन्द-ना पसन्द के मुताबिक़ चलाए जायेंगे।
🔹 इस्लाम की शासन व्यवस्था यानी खिलाफत शुद्ध रूप से इस्लामी नस (क़ुरआन व हदीस) पर आधारित पर होती है, इसके विपरित ईरान का संविधान कहता है कि
“देश के मामलात आवाम की राय के मुताबिक़ चलाए जाएंगे और यह राय चुनाव के ज़रिए हासिल होगी” । इस्लामी व्यवस्था में सरकार इस्लामी नस (क़ुरआन व हदीस) के आधार पर चलती है न कि लोगो कि राय के मुताबिक़ ।
🔵 इस्लाम में कई ऐसे मामलात है जिनके लिए क़ानून तय है। फर्ज़ और सुन्नत में कोई बदलाव नहीं होगा और इनमें जनता से कोई राय नहीं ली जाती है। सिर्फ मुबाह में जनता की राय चलती है। वो मामलात जिसमें शरीअत ने इंसान को आजादी दी है उन्हीं मामलात में जनता से राय ली जायेगी, लेकिन फर्ज़ और हराम में जनता की कोई राय नहीं ली जाती है।
🔹 ईरान ने अपने संविधान का आधार क़ुरआन व हदीस को ना बनाकर जनता की राय को आधार बनाया। ।
🔵 इस्लामी रियासत की कोई सीमा नहीं होती। राष्ट्र नाम की कोई अवधारणा इस्लाम में नहीं है। खलीफा सारी उम्मत का नुमाइंदा (प्रतिनिधी) होता है ना कि सिर्फ किसी राष्ट्र का।
🌙🌙 खिलाफत व्यवस्था पर 100 सवाल 🌙🌙
➡ सवाल नं. (3) क्या आज की तुर्की खिलाफत है या नहीं? ⬅
👉🏻 तुर्की को बहुत से लोग खिलाफत मान लेते है क्योंकि इस वक़्त वहॉ पर एक इस्लामी पार्टी हुकूमत करती है जिसको ''वेलफेयर पार्टी'' या रिफाह पार्टी के नाम से जाना जाता है। ये ''मुस्लिम बद्ररहुड'' की एक शाखा है। इस्लामी हुकूमत क़ायम करने के वादे के साथ ''वेलफेयर पार्टी'' हुकूमत में आई थी लेकिन काफी वक्त गुज़रने के बाद भी ऐसा नहीं हो पाया है। ज़ाहिरन इसके राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री इन इस्लामिस्ट पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। तुर्की की शासन व्यवस्था का पश्चिमी राजनैता और सेक्यूलरिस्ट प्रचार करते हैं क्योंकि यह सरकार पूंजीवाद का बहतरीन नमूना है इसके कई क़वानीन, अर्थव्यवस्था, विदेशनीति पूंजीवाद (सरमायादाराना निज़ाम) पर आधारित है। पूंजीवाद का यह स्वरूप पश्चिमी देशों को बहुत पसंद है। पश्चिम इसको पूंजीवाद का इस्लामी स्वरूप कहते है और चाहते है कि दूसरे मुस्लिम देश भी इसको अपनाऐ। इसमें मौजूद चन्द इस्लामी क़वानीन 1924 से पहले के हैं जो तुर्की में लागू हुआ करते थे और बहुत से क़ानून लोकतांत्रिक आधार पर बने है।
👉🏻 यहाँ कि तथा कथित इस्लामी पार्टी ए.के.पी यह दावा करती है उसकी शासन व्यवस्था इस्लामी शासन व्यवस्था का बेहतरी नमूना है. उन दावों का विश्लेषण करने पर हम पाते है कि उसकी नीतीयों में इस्लाम कही नहीं मिलता बल्कि यह सब आवाम की तसल्ली के लिए है। ए.के.पी ने तुर्की के लिए अर्थ व्यवस्था और विदेशनीति के क़ायदे क़ानून इस्लाम के अलावा कहीं ओर से लिए है।
👉🏻 ए.के.पी को मज़बूत करने के लिए, तुर्की में पैसा लाने के नाम पर अर्दगान ने कई आर्थिक नीतियां तैयार जबकि इससे सिर्फ मख्सूस ताजिर तबक़ा (विशेष व्यापारी वर्ग/Business Elite) फल फूल रहा है । तुर्की की पूरी अर्थव्यवस्था सूद पर चलती है, सूद पर कर्जे़ लिए और दिए जाते है । दुनिया को धोखा देने के लिए छोटे पैमाने पर कर्जे़ हसना नाम की योजना चलती है लेकिन राष्ट्रीय पैमाने पर ऐसी कोई गै़र-सूदी व्यवस्था नहीं है। इस्लाम सूद पर अधारित अर्थव्यवस्था को मुकम्मल तौर पर हराम क़रार देता है इसके साथ ही इस्लाम दौलत के बंटवारे को फरोग़ देने वाली अपनी खुद की अर्थव्यवस्था रखता है न कि पश्चिमी तर्ज़ की आर्थिक व्यवस्था जहाँ सिर्फ उच्च वर्ग के पक्ष में सारी आर्थिक नीतियां बनाई जाती हैं।
👉🏻 इसी तरह तुर्की की विदेश नीति में इस्लाम कहीं नहीं दिखता । इस्लाम की विदेश नीति इस्लाम को फैलाने की होती है, लेकिन उसकी ऐसी कोई विदेश नीति नहीं है बल्कि वोह अपने आपको राष्ट्रवाद में बांधे हुए है।
👉🏻 इसके अलावा तुर्की के इज़राईल के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं, जबकि शरीअत इस बात को क़तई तौर पर हराम करार देती है कि ऐसे मुल्क से दोस्ताना सम्बन्ध बनाऐ जाऐं जो मुसलमानों कि सरज़मीन पर क़ाबिज़ हो और उन पर ज़ुल्म करता हो। तुर्की के न सिर्फ इज़राईल के साथ सम्बन्ध बल्कि वोह उसके पीने के पानी की सबसे बडी़ ज़रूरत पूरी करता है और पानी जहाज़ो में भरकर इज़राईल पहुंचाता है । सलाउद्दीन अय्यूबी के दौर में जब बैतुल मुकद्दस पर यहूदियों ने क़ब्ज़ा कर लिया था तो उन्होंने अपनी फौज को भेजकर उसे आजाद कराया था। अगर तुर्की एक इस्लामी रियासत होती तो फिलिस्तीन के मुसलमानों को इज़राइल से आजाद कराती।
इन सबसे मालूम हुआ कि तुर्की दारुल इस्लाम नहीं है बल्कि पश्चिम के मुताबिक़ अपने सरहदी (राष्ट्रीय) मफाद को हांसिल करने वाल एक सेक्यूलर मुल्क है ।
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