➡ सवाल नं. (13) क्या खिलाफत एक धार्मिक हुकूमत हैं, जिसे मौलवी या धर्म अधिकारी चलाते हैं?
✳ इसाई दुनिया में एक लम्बे अर्से तक चर्च नें हुकूमत की, जिसे धार्मिक हुकूमत (Theological State) कहा जाता हैं। पश्चिम में खिलाफत को धार्मिक हुकूमत कि तरह देखा जाता हैं। ।
✅ दर हक़ीक़त खिलाफत मौलवियों की हुकूमत नहीं होती जिस तरह क्रिस्टनडम (Christondom) में इसाई पादरीयों हुकूमत थी। धार्मिक राज्य के हुक्मरानों (क़ानूनसाज) को अपराधो सें मासूम और खुदा का नुमाइंदा समझा जाता हैं। इस तरह उनका हुक्म खुदा के हुक्म तरह समझ जाता था।
✅ इस्लाम में सिर्फ नबियों को ही मासूम माना जाता हैं, खलीफा एक आम इंसान होता हैं जिससे गलतियाँ हो सकती हैं।
✅ खलीफा, इस्लाम के एक भी क़ानून को बदलनें का अधिकार नहीं रखता यदि खलीफा क़ानून बदल दें तो मुसलमानों पर उसे तुरन्त हटा देना फर्ज़ हैं.
✅ इस तरह खलीफा जनता का नुमाइंदा होता हैं जिसका काम सिर्फ शरीअत के क़ानून को लागू करना हैं। अत: खिलाफत इसाई हुकूमत कि तरह धार्मिक हुकूमत नहीं होती जिसमें खलीफा को मासूम और खुदा का नुमाइंदा माना जाता हैं।
✔ इस्लामी सियासी निज़ाम (राजनैतिक व्यवस्था) धार्मिक प्रवत्ति का नहीं होता, जिसमें किसी ज्ञानी या हुक्मरॉ को क़ानून बदलनें का अधिकार हों जैसा कि अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) नें इस हदीस में फरमाया :
🌜 ''बनी इस्राइल पर अंबिया हुकूमत करते थे जब किसी नबी का इंतकाल हो जाता, तो उसके बाद दूसरा नबी आ जाता था, लेकिन मेंरे बाद कोई नबी नहीं हैं, बल्कि खुल्फा होगें और वोह कई होगें। साहबी नें पूछा हमारे लिए क्या हुक्म हैं, आप (صلى الله عليه وسلم)नें फरमाया : तुम उनमें एक के बाद दूसरे को बैअत देते रहो और उनको उनका हक़ देते रहो और अल्लाह तआला उनसे उनकी रियाया (प्रजा) के बारे में पूछेगा जो उसनें उन्हें दी हैं।'' 🌛
✔ यहाँ पर ''उनका हक़'' का अर्थ बैअत (मत या समर्थन) देना और उनकी इताअत करना हैं।
✅ धार्मिक हुकूमत का नमूना कुछ मुस्लिम देशो में देखनें को मिलता हैं जैसे सऊदी अरब. वहाँ बादशाह और मौलवी मिलकर हुकूमत करते हैं।
✅ यह इसाई हुकुमत से मिलती जुलती हुकुमत हैं जहाँ राजा और उसके पादरी मिलकर धर्म के नियमों के मुताबिक हुकूमत करते थें। धर्म के नियम पादरी अपनी मर्जी़ के मुताबिक बना और बदल सकते थे, इसी तरह राजा अपनें निजी फायदे और मफाद के मुताबिक़ पादरीयों से क़ानून बनवा सकता था।
✔ लोकतत्र और तानाशाही के ज़रिये मुस्लिम देशों में, कुछ भ्रष्ट मौलवी इस्लाम को अपने सियासी मक़ासिद हासिल करने के लिए इस्तिमाल करते हैं।
✔ राजनैतिक अस्तितव पाने के लिए मुसलमानों के इस्लामी जज़्बातों के साथ खेलते है और अपनी छवि इस्लाम के एक मात्र निगेहबां कि पेश करते हैं, दर अस्ल इनमें और भ्रष्ट राजनैताओं में कोई फर्क़ नही हैं जो इस विफल लोकतांत्रिक व्यवस्था में बनें रहना चाहते हैं।
✅ खिलाफत में किसी आलिम या ज्ञानी के लिए इस्लाम को इस्तिमाल करके सत्ता हासिल करना हरगिज़ भी मुमकिन नही हो सकेगा।
🌙🌙खिलाफत राशिदा सानी (IInd) पर सवाल 100🌙🌙
➡ सवाल नं. (14) कौन खलीफा होने योग्य है?
✅बदक़िसमती से, इस वक़्त मुस्लिम दुनिया की सियासत में “शख्सियत” के आधार पर लोग चुनें जाते हैं इसके अलावा कहीं तानाशाही, कहीं परिवार राज तो कहीं विरासती/मोरसी हुकूमत हैं। जहाँ राजा और उसके चमचे राज करते हैं। इन व्यवस्थाओं में कोई हुक्मरानी के ओहदे पर तब ही आता हैं जब पुराना हुक्मरॉ मर जाता हैं, उसें हटा दिया या मार दिया जाता हैं। ज़्यादातर मामलात में हुक्मरानी विरसे के तौर पर अपनी औलादों को आगे मुन्तकिल कर दी जाती हैं।
👉इस्लाम प्रतिभा और गुणो पर आधारित राजनैतिक कल्चर (सियासी संस्कृति) को बढ़ावा देता हैं, इस तरह इस्लाम में वरीयता के आधार पर यानी गुणों के आधार पर ही हुक्मरानी दी जाती हैं क़तए नज़र इस बात के, कि वोह अमीर हैं या गरीब, छोटा है या बड़ा, किसी बडे़ राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखता हैं या नहीं।
✅इस्लाम में खलीफा चुननें की आसान कसौटी हैं। जिसमें खलीफा मुस्लिम, मर्द, बालिग़, आक़िल (जिसकी सामान्य अक़्ल हो) आदिल (अदल यानी न्याय करनें वाला, इमानदार जिस पर बेईमानी का कोई दाग ना हो और गै़र-शरई कामों को कभी करते हुए नहीं पाया गया हो) आज़ाद (यानी ग़ुलाम ना हो) और सक्षम होना चाहिए। यह एक साधारण सी योग्यता हैं, जिसके आधार पर कोई भी शख्स खलीफा के पद के लिये खुद को पेश कर सकता हैं।
➡ सवाल नं. (15) क्या खलीफा की कार्यअवधि (term of office) सीमित होगी, जैसे लोकतंत्र में पांच साल के लिए होती हैं? इस मामलें में क्या हुक्म हैं?
✅इस्लाम नें खलीफा की कार्यअवधि निर्धारित नहीं की हैं। खिलाफत में ''मेंहकमतुल मज़ालिम'' नाम की अदालत बिना किसी दबाव के उस वक़्त खलीफा और हुक्मरानों को बर्खास्त करनें का अधिकार रखती हैं जब
✅ खलीफा और दीग़र हुक्मरान किसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाये
✅या वोह इस्लामी संविधान और क़ानून के अलावा कोई दूसरा क़ानून लागू करें या खलीफा, खलीफा बनें रहनें कि सात शर्तो पर न बनें रहें (जो ऊपर ज़िक्र कि गई) मसलन पाग़ल या मुर्तद हो जाए।
✳जहाँ तक बैअत की बात हैं, बैअत हुक्मरान और जनता के बीच एक मुआहिदा (Contract/सन्धी) हैं, जिसमें हुक्मरान शरीअत लागू करनें और जनता सहयोग देनें और इताअत करनें का वादा करते हैं। इस वादे (Contract) कि अविध तय नहीं होती। जब तक वोह ठीक से काम करते रहे तब तक वोह हुक्मरानी में रह सकते हैं।
✅खलीफा पर समय की कोई पाबन्दी नहीं होती हैं, खलीफा के पास पूरा मौका होता हैं कि वो बहुत लम्बे समय की योजना बनाकर चले।
❌लोकतंत्र की कई बड़ी कमज़ोरियों में सें एक बड़ी कमज़ोरी यह भी हैं कि हुक्मरानों कि कार्य अवधि पांच साल कि होती है इस तरह हर पांच साल में हुक्मरॉ बदल जाता हैं। सरकार बडी़ मेंहनत से योजनाऐं बनाती हैं और अभी इन योजनाओं को ठीक से लागू भी नहीं किया जाता की अचानक नये लोग आ जाते हैं, जो या तो उन योजनाओं को बन्द कर देते हैं या उन्हे लटका हुआ छोड़ देते हैं। यदि किसी संस्था का हर दो-चार साल में लीडर या व्यवस्थापक बदलता रहे तो वह संस्था कभी कामयाब नहीं हो सकती।
❌इसीलिए आज की लोकतांत्रिक शिक्षा पद्धती पर आधारित दसवी कक्षा की सामाजिक विज्ञान की किताब ''डेमोक्रेटिक पॉलिटीक्स'' में तानाशाही (Dictator) दूसरी तरफ लोकतंत्र (Democracy) में प्रगति और उपलब्धियों के ताल्लुक़ से तुलना की गई हैं। इसमें बताया गया कि डिक्टेटरशिप (तानाशाही) की प्रगति लोकतंत्र (Democracy) से अर्थव्यवस्था, ग़रीबी और दूसरी कई समस्याओं के ताल्लुक़ से दो से तीन गुना ज़्यादा बेहतर हैं और इसके लिए उन्होंनें यह कारण लिखा हैं कि लोकतंत्र में सरकार बार-बार बदलती हैं जिसके कारण वो जनता के फायदे के लिए जो योजना बनाते हैं, उस पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। तानाशाही में एक व्यक्ति को फैसले लेनें का पूरा अधिकार होता हैं इसलिए उसके लिये कोई असमंजस्व और कनफ्यूज़न की स्थिति पैदा नहीं होती हैं।
❌लोकतंत्र में 20 लोग 20 तरह की योजना और सुझाव लाते हैं। कोई योजना या क़ानून पर तब तक फैसला नहीं होगा जब तक कि वोह सभी लोगों तक नहीं पहुचेगा और अक्सरियत की राय न ले ली जाये।
❌एक क़ानून मंजूर करनें में बहुत लम्बा समय लग जाता हैं। इसीलिए लोकतंत्र में अक्सर क़ानून बननें, मंजूर होनें और लागू होनें में अक्सर कई दशक लग जातें हैं।
✅ खिलाफत में खलीफा के सरकार में रहनें के लिये समय की कोई पाबंदी नहीं होती हैं ताकि वो लम्बी कार्य योजना बना सकें।
❌सरकार की निर्धारित समय अवधी होनें का दूसरा नुक्सान यह भी हैं कि जब सरकारे बार-बार बदलती हैं तो किसी पार्टी को हुकूमत पानें के लिए कई हथकंडे़ अपनानें पड़ते हैं। वो पार्टी प्रचार के लिए कॉरपोरेट ग्रुप (बडी पूंजीवदी कम्पनियों) से बहुत बडी़ रक़में लेती हैं ताकि पैसा खर्च करके लोगों का ध्यान किसी भी तरह से अपनें ओर आकर्षित कर सकें और सत्ता में आ जाये। कॉरपोरेट ग्रुप उन्हे इसलिए पैसा देते हैं कि जैसे ही वो पार्टी सत्ता में आयेगी उसके बाद वो उनको खूब रियायतें देगी और उनको फायदा पहुंचानें के लिये नये क़ानून बनवाऐगी और दूसरे क़ानूनों को उनके मुवाफिक़ बनायेगी। इसीलिए इस व्यवस्था को पूंजीवाद या पूंजीवादी व्यवस्था कहा जाता हैं।
❌इससे एक और बडा़ बिगाड़ पैदा होता हैं कि जब वो पार्टिया जीत जाती हैं तो वो लम्बे समय तक उन्हीं की खिदमत करती हैं।
✅ यह सब चीज़ें खिलाफत में नहीं होगी, क्योंकि खिलाफत में जल्दी–जल्दी हुकूमत नहीं बदलेगी। यदि कोई खलीफा सही तरीके से हुकूमत कर रहा हैं तो वो आजीवन खलीफा बना रह सकता हैं। यदि कोई खलीफा इस्लाम को सही तरीके से लागू करता हुआ नहीं पाया जाता तो उसे उसे बर्खास्त कर दिया जाता हैं।
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