मुक़ल्लिद की दो किस्में हैं : आमी और मुत्तबिअ ।
1) आमी: ये वो है जो बगै़र मोअतबर तशरीअई उलूम की माअर्फ़त हासिल
किए मुज्तहिद की बिला दलील तक़लीद करता है, यानी फ़क़त फतवों पर इक्तिफा-ए-और अमल करता है । ये सिर्फ़ किसी
मुज्तहिद के अदल और इल्म पर एतिमाद की बुनियाद पर उसकी तक़लीद करता है ।
2) मुबिअ: ये वो है जिसे बाअज़ मोअतबर तशरीअई उलूम की माअर्फ़त हासिल
होती है लेकिन इज्तिहाद के लिए काफ़ी नहीं और ये मुज्तहिद की तक़लीद दलील की बुनियाद
पर करता है यानी जो कुछ दलील से इस के सामने ज़ाहिर होता है । ये दलील पर अपने एतिमाद
की बुनियाद पर किसी मुज्तहिद की तक़लीद करता है।
ये बात ज़ाहिर है कि मुबिअ को आमी पर फ़ज़ीलत हासिल है क्योंकि इत्तिबाअ दर्जा-ए-इज्तिहाद
तक पहुंचाता है । इत्तिबा में दलायल से गहरी वाक़फ़ीयत होना ईमान की पुख़्तगी का बाइस
बनता है और उम्मत की निशात-ए-सानिया का वसीला भी क्योंकि आगाही-व-शऊर की बुनियाद पर ज़िंदगी
के तमाम मसाइल को मब्दाकी तरफ़ वापस भेजने और इस पर अमल करने ही का नाम निशात ৃ-ए-सानिया है ।
मा हसल
उसूले फ़िक़्ह की इस बहस के बाद, इज्तिहाद की कैफ़ीयत-व-तरीकाऐ कार (methodology) और शरियते इस्लामी की आलमियत का इदराक किया जा सकता है और उसूले फ़िक़्ह की एहमीयत
का भी । आलमीत से ये मुराद है कि किस तरह शरई नुसूस ख़ालिस तशरीअई नुसूस हैं, यानी ये मुफ़स्सल होने के बावजूद अपनी नौईयत में आम हैं जिस
की वजह से उनसे, रोज़ क़ियामत तक, बेशुमार उसूल, क़वाइद, तारीफ़ात, आम और जुज़वी अहकाम अख़ज़ किए जा सकते हैं, जो इंसान की ज़िंदगी के तमाम मौजूदा और आइन्दा मसाइल का अहाता
करें । शरई नुसूस की यही वुसअत और उन की बेशुमार मसाइल पर मुंतबिक़ होने की अहलीयत ही
शरियते इस्लामी की आलमियत की सब से बड़ी दलील है। ये नुसूस फ़िक्र के लिए अनमोल हैं और
एक ऐसी ज़रख़ेज़ ज़मीन की तरह हैं, जो मुज्तहिद की फ़िक्री काश्त के लिए बेहतरीन हैं। और फ़क़त यही
शरीयत इंसान के मसाइल का सही हल पेश करती है और इन्शाअल्लाह سبحانه وتعال अनक़रीब
ख़िलाफ़त के ज़रीये इस का निफाज़ इस अम्र पर गवाही देगा।
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