इस्लाम और कुफ़्र
की फ़िक्र ओ मफ़ाहीम,
नीज़ मुसलमानों और कुफ्फ़ार के माबैन इस्लाम के आग़ाज़ ही से शदीद
मार्का आराई रही है। हुज़ूर अक्दस की बेअसत के वक़्त ये कश्मकश फ़िक्री सतह पर थी ना के
माद्दी सतह पर और यही हालत मदीना मुनव्वरा में एक इस्लामी रियासत के क़ायम हो जाने तक
बरक़रार रही जब इस रियासत को इक्तिदार हासिल हो गया था और इसके पास अपनी एक फ़ौज थी और
यहीं से हुज़ूर अक्दसصلى
الله عليه وسلمने कुफ्फ़ार के साथ होने वाली फ़िक्री कश्मकश और ख़ूनी माद्दी कशाकश
को यकजा फ़रमाया। जिहाद से मुताल्लिक़ आयात का नुज़ूल हुआ और ये कशाकश जारी रही, और ये क़ियामत के वाक़ेय होने तक इसी तरह जारी रहेगी के फ़िक्री
तसादुम के साथ साथ ख़ूनी मार्का आराई होती रहे, और तब ये ज़मीन और इस पर बसने वाले दोनों अल्लाह سبحانه وتعالیٰ की मीरास होंगे। यही वजह है के कुफ़्र इस्लाम का दुश्मन है और इसी वजह से जब तक
कुर्रऐ अर्ज पर इस्लाम और कुफ़्र मौजूद हैं, कुफ्फ़ार भी मुसलमानों के दुश्मन ही रहेंगे, यहाँ तक के दोनों क़ियामत के रोज़ उठा लिऐ जाएं। ये एक क़तई, अटल और दाइमी हक़ीक़त है लिहाज़ा मुसलमानों को ज़िंदगी भर इस हक़ीक़त
से बाख़बर और आगाह रहना चाहिऐ और यही हक़ीक़त मुसलमानों और कुफ्फ़ार के दरमियान ताल्लुक़
तै करने के लिऐ पैमाना होना चाहिऐ।
ये फ़िक्री तसादुम
तेरह साल के अर्सा तक मुसलसल जारी रहा, नीज़ ये निहायत शदीद और दुरूश्त रहा और बिलआख़िर कुफ़्र पर इस्लामी अफ्क़ार का ग़ल्बा
हो गया और अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ ने इस्लाम को कामयाब फ़रमाया। मदीना मुनव्वरा में एैसी रियासत
क़ायम हो गई जो मुसलमानों की आबरू और वक़ार की मुहाफ़िज़ नीज़ इस्लाम की ढाल होती है और
जिहाद के ज़रीए इस्लाम की हिदायत को लोगों में आम करती है।
इस्लाम और कुफ़्र, नीज़ मुसलमानों और कुफ्फ़ार के दरमियान निहायत ख़ूँरेज़ जंगें यके
बाद दीगरे हुईं जिन में मुसलमान फ़तहयाब हुए। हालाँके बाअज़ जंगों में मुसलमानों को शिकस्त
का मरहला भी दरपेश रहा,
ताहम जंग में बहरहाल फ़तह हुई और छ: सदी के तवील अर्से में शिकस्त
एक जंग में भी ना हुई। इस मुद्दत के दौरान इस्लामी रियासत ही पूरे आलम में सफ़ेअव्वल
की रियासत रही और ऐसा इंसानी तारीख़ में किसी भी ग़ैर मुस्लिम के साथ नहीं हुआ और रियासते
इस्लाम के अलावा किसी के साथ पेश नहीं आया। लेकिन कुफ्फ़ार और बिलख़ुसूस यूरोपी मुमालिक
इस्लाम पर यलग़ार करने से ग़ाफ़िल ना रहे, और ना ही मुसलमानों से के उनके वजूद ही को ख़त्म कर दें। लिहाज़ा जब कभी उनको मौक़ा
मिलता तो वो मुसलमानों पर हमलावर हो जाते या उनके ख़िलाफ़ साज़िशें करते और छटी सदी के
अवाख़िर (ग्यारहवीं मीलादी सदी) और सातवीं सदी के अवाइल (बारहवीं मीलादी सदी) में यूरोपी
मुमालिक ने मेहसूस किया के इस्लामी रियासत इंतिज़ामी ढांचे के ऐतेबार से बहुत से सूबों
में बंटी है,
वाली खुदमुख्तार हैं और बहुत से अहम अंदरूनी मुआमलात जैसे लश्कर, बैतुलमाल वग़ैरा के लिहाज़ से तमाम सूबे एक वाहिद खुदमुख्तार रियासत
के बजाय एक विफ़ाक़ी निज़ाम की तरह नज़र आने लगे हैं और बाअज़ सूबों में तो ख़लीफ़ा की वकअत
सिवाए इसके कुछ ना रही के मिंबर पर इसके लिऐ दुआ की जाये, इसके नाम के सिक्के ढाले जाऐ और ख़राज में से एक मोतद बा हिस्सा
दारूल ख़िलाफ़ा भेज दिया जाये। यूरोपी मुमालिक ने इसको मेहसूस किया और मुसलमानों पर सलीबी
हमले शुरू कर दिए और यही सलीबी जंगें (Crusade Wars) थीं जो के तक़रीबन एक सदी तक चलती रहें और इस जंग में मुसलमानों को शिकस्त हुई
और कुफ्फ़ार ने शाम के तमाम इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया यानी फिलस्तीन, सीरिया वग़ैरा और इस में वो कई दहाईयों तक क़ाबिज़ रहे यहाँ तक
के उन्होंने बाअज़ शहरों जैसे तराब्लस (Tripoli) वग़ैरा पर तक़रीबन सौ साल तक क़बज़ा बरक़रार रखा।
अगरचे सलीबियों
और मुसलमानों के दरमियान झगड़े पूरे सौ साल तक जारी रहीं, और मुसलमानों की अपने मक्बूज़ा इलाक़ों को वापिस लेने की कोशिशें
भी सुस्त नहीं पड़ीं और इस जंग में मुसलमानों ने नुक्सान उठाया और काफ़िरों के सामने
नाकाम हो गए,
ताहम इस से उम्मते मुस्लिमा मुंतशिर नहीं हो गई। अगरचे कुफ़्र
को इस्लाम पर फ़िक्री और रुहानी कामयाबी तो हासिल ना हुई लेकिन इस में मुसलमानों ने
वो ज़िल्लत,
आजिज़ी और वो रुसवाई उठाई जिस का तसव्वूर मुहाल है। इस लिऐ सलीबी
जंगों के इस दौर को मुसलमानों की शिकस्त का ज़माना शुमार किया जाता है क्योंके मुसलमान
बावजूद इसके के उन्होंने आख़िरकार सलीबियों पर कामयाबी हासिल की और उनको बिलाद से भगाने
में भी कामयाब हो गए,
लेकिन वो अपनी फ़ुतूहात का सिलसिला मज़ीद आगे ना बढ़ा सके, यानी नए सिरे से काफ़िरों के साथ जंग शुरू ना कर सके। फिर ये
सलीबी जंगें ख़त्म भी ना हुईं थीं के मंगोल क़ौम ने बग़दाद में क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी मचा दी।
इसके फ़ौरन बाद यानी 656
हिज्री बमुताबिक़1258 ईसवी,
बग़दाद के बाद दमिशक़ का सुक़ूत भी मंगोलों के हाथ इस्लाम को शदीद
झटका लगा। इसके बाद 3
सितंबर1260 को एैन
जालूत का मार्का पेश आया जहाँ मंगोलों का ख़ातमा हुआ और उनके ख़ातमे के साथ ही मुसलमानों
के दिलों में जिहाद का जज्बा दुबारा उभरा और उन्होंने इस्लामी दावत को तमाम आलम में
नए सिरे से उठाने की ज़रूरत को मेहसूस किया। अब मुसलमानों की काफ़िरों के ख़िलाफ़ जंगें
शुरू हो गईं और बाइज़नतीनियों (रुमीयों) के ख़िलाफ़ जिहाद शुरू हो गया। जंगें शुरू हुईं
तो कामयाबीयों का सिलसिला भी शुरू हो गया। ये दौर सातवीं हिजरी सदी (यानी तेरहवीं मीलादी
सदी) के आख़िर का था। उम्मते इस्लामीया ने नए सिरे से फ़ुतूहात शुरू कीं और इसके साथ
ही पै दर पै जंगें भी शुरू हुईं जिन में हमेशा कामयाबी मुसलमानों ही को हुई। अगरचे
बाअज़ झड़पों में मुसलमानों ने शिकस्त भी खाई लेकिन जंगों में वो बिलआख़िर हमेशा कामयाब
ही होते रहे और शहरों के शहर फ़तह करते रहे और इस्लामी रियासत ही पूरे आलम में सफ़े अव्वल
की रियासत रही। ये सिलसिला चार सदियों की मुद्दत यानी बारहवीं हरी सदी के निस्फ़ (अठारहवीं
मीलादी सदी) तक रहा। फिर यूरोप में सनअती इनिकलाब (Industrial Revolution) एक वाज़ेह शक्ल के साथ ज़ाहिर हुआ जिस का असर तमाम मुमालिक की
कुव्वत पर पड़ा। मुसलमान इस इनिकलाब के सामने हैरत ज़दा और जुमूद की हालत में खड़े रह
गऐजिस से पूरे आलम में कुव्वत का तवाज़ुन बदल गया, यहाँ तक के इस्लामी रियासत भी आहिस्ता आहिस्ता पूरे आलम में अपने साबिका मुक़ाम
से गिरने लगी और लालचियों का मत्मा ए नज़र बन गई। इस्लामी रियासत अपने मफ्तूहा इलाक़ों
से भी दस्तबरदार होने लगी और उन इलाक़ों से भी जो उस के इख्तियार में थे जब्के काफ़िर
मुमालिक इस्लामी रियासत के टुकड़े टुकड़े कर के ग़सब करते रहे। इस्लामी रियासत ज़वाल की
जानिब रवाँ थी और उसी वक़्त यूरोपी मुमालिक इस्लामी रियासत को आलमी वजूद ही से ख़त्म
करने के बारे में तदबीरें कर रहे थे ताके पूरे इस्लाम ही को ज़िंदगी के मैदान से ख़त्म
कर डालें और लोगों के ताल्लुक़ात से इस्लाम को ख़ारिज करदें। ब अलफ़ाज़े दीगर वो दुबारा
सलीबी जंगों का आग़ाज़ करना चाहते थे, लेकिन पहली सलीबी जंगों की तरह नहीं के फ़ौज के साथ लश्कर कशी कर के मुसलमानों और
इस्लामी रियासत को शिकस्त दें, बल्के ऐसी सलीबी
जंगें जो उन से ज्यादा गेहरी और भयानक हों और जिन के नताइज ज्यादा दूर रस हों। ऐसी
सलीबी जंगें जिन में वो इस्लामी रियासत को बुनियाद से ही उखेड़ दें ताके इस का कोई असर
ही ना रहे और ना ही कोई ऐसी जड़ बाक़ी रहे जो दुबारा उग सके और इस्लाम को मुसलमानों के
दिलों से उखाड़ फैंकें ताके वो रूहानियत के एक बेमानी मजमा और मेलों सिवा कोई फ़आल क़ुव्वत
ना रहे।
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