वहाबियों का ज़ुहूर और सऊदी इक्तिदार

बर्तानिया ने अपने एजैंट अब्दुल अज़ीज़ बिन मुहम्मद बिन सऊद के ज़रीए इस्लामी रियासत को अंदर से ज़र्ब लगाने की कोशिश की, उस वक़्त तक वहाबी पहले मुहम्मद बिन सऊद फिर उस के बेटे अब्दुल अज़ीज़ के ज़ेरे क़ियादत इस्लामी रियासत के अंदर अपनी मौजूदगी क़ायम करने में कामयाब भी हो चुके थे। बर्तानिया ने असलेहा और माल से उनकी मदद की और वो मसलक की बुनियाद पर इस्लामी रियासत के बाअज़ हिस्सों पर क़ाबिज़ हो गऐ जो ख़िलाफ़त के ज़ेरे क़ियादत थी। उन्होंने अंग्रेज़ों के उकसाने और उनकी मदद से ख़लीफ़ा के ख़िलाफ़ तलवार उठा ली और इस्लामी लश्कर और अमीरुल मोमिनीन के लश्कर के ख़िलाफ़ जंग शुरू कर दी और ये सब कुछ इस लिऐ किया ताके वो ख़लीफ़ा से इक़्तिदार ले सकें और अपने मसलक के मुताबिक़ इस में फ़ैसले कर सकें ताके जो कुछ दीगर इस्लामी मसालिक ने उनके मसलक के अलावा अख्ज़ किया है उस को वो ताक़त और तलवार की नोक से ज़ाइल कर सकें। लिहाज़ा उन्होंने कुवैत पर1788 मैं हमला करके इस पर क़ब्ज़ा कर लिया, फिर उन्होंने शिमाल की तरफ़ से अपनी पेशक़दमी को जारी रखा यहाँ तक के बग़दाद का मुहासिरा कर लिया, वो कर्बला पर क़ब्ज़ा करने का इरादा रखते थे हत्ता के हज़रत हुसैन رضي الله عنه की क़ब्र पर भी, ताके वो इसको गिरा दें और इसकी ज़ियारत से लोगों को रोक दें। फिर अप्रैल1803 में वो मक्का मुकर्रमा पर हमलावर हुए और इस पर क़ब्ज़ा कर लिया, मौसम ए बहार1804 में मदीना मुनव्वरा भी उनके ज़ेर तसल्लुत आगया तो उन्होंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلمकी क़ब्र पर मौजूद ज़ख़ीम क़ुब्बों (Dome) को, जो साये का काम देती थी तबाह कर दिया और उनको तमाम क़ीमती पत्थरों से ख़ाली कर दिया। पूरे हिजाज़ पर क़ब्ज़ा करने के बाद वो शाम की तरफ़ चले और हुम्स के क़रीब पहुंच गऐ।1810 में उन्होंने दमिशक़ पर दुबारा हमला किया जैसा के उन्होंने नजफ़ पर हमला किया था। इस से पहले दमिशक़ ने अपना दिफ़ा अच्छे अंदाज़ में किया था। लेकिन वहाबी दमिशक़ के मुहासिरे के दौरान शिमाल की तरफ़ निकल गऐ और उन्होंने अपनी हुकूमत सीरिया के अक्सर इलाक़ों पर क़ायम कर ली हत्ता के हलब।समचचवध्द पर भी। बहरहाल ये बात तो मशहूर है के ये वहाबी मुहिम अंग्रेज़ों की कार्रवाई थी क्योंके आल सऊद अंग्रेज़ों के एजैंट थे और उन्होंने वहाबी मसलक से नाजायज़ फ़ायदा उठाया। ये मसलक इस्लामी मसालिक में से है और इसके बानी एक मुज्तहिद मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब थे। इस मसलक को उन्होंने सियासी आमाल और उस्मानी रियासत पर ज़र्ब लगाने के लिऐ इस्तिमाल किया और इस मसलक के पैरोकार भी इस साज़िश से बेख़बर रहे। लेकिन सऊदी अमीर और सऊदियों के इदराक और इल्म के साथ हुआ क्योंकी ये ताल्लुक़ अंग्रेज़ों और साहिबे मसलक मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब के दरमियान नहीं बल्के अंग्रेज़ों और अब्दुल अज़ीज़ बिन मुहम्मद सऊद और इसके बाद उसके बेटे सऊद के दरमियान था।

दरहक़ीक़त वाकेया ये है के मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब जो के हनबली उल मज़हब थे उन्होंने मुतअद्दिद मसाइल में इज्तिहाद किया, उन्होंने देखा के दूसरे मसालिक के बाअज़ लोगों की राए इन मसाइल में मुख्तलिफ़ है तो उन्होंने अपनी आरा की तरफ़ दावत देना और दूसरी इस्लामी आरा पर शिद्दत से हमला करना शुरू किया। लिहाज़ा उनको उलमा, उमरा और लोगों की तरफ़ से तरुज़ और रुकावट का सामना करना पड़ा जो मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहृाब की आरा को अपनी आरा के बरख़िलाफ़ समझते थे जो उन्होंने क़ुरआन ओ सुन्नत से समझा था। मसलन वो कहता है के जो रसूलुल्लाह की क़ब्र की ज़ियारत करने के लिऐ सफ़र करे तो इसको सफ़र में क़स्र नमाज़ पढ़ना जायेज़ नहीं क्योंके वो गुनाह का सफ़र है, इस पर उन्होंने रसूलुल्लाह के इस क़ौल से इस्तिदलाल किया:

لَا تُشَدُّ الرِّحَالُ إِلَّا إِلَى ثَلَاثَةِ مَسَاجِدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَمَسْجِدِ الرَّسُولِ صلى الله عليه وسلم وَمَسْجِدِ الْأَقْصَى
यानी वे नहीं जा सकते (सफ़र का क़स्द करना) किसी और मस्जिद की तरफ़ मगर तीन मस्जिदों की, मेरी ये मस्जिद (मस्जिद नबवी) मस्जिद हराम और मस्जिदे अक्सा।

तो इस हदीस के मुताल्लिक़ उन का मौक़िफ़ ये था के इन तीन के सिवा किसी तरफ़ कजावे कसने से रसूलुल्लाह ने मना फ़रमाया है। लिहाज़ा अगर रसूलुल्लाह की क़ब्र की जयारत का इरादा किया गया तो गोया के इन तीन मस्जिदों के अलावा का इरादा किया गया तो ये हराम और गुनाह हो गया। जब्के दूसरे मज़हब वालों की राए ये है के रसूलुल्लाह की क़ब्र की ज़ियारत करना सुन्नत और मंदूब अमल है जिस के करने वाले को सवाब मिलेगा रसूलुल्लाह के इस फ़रमान की वजह से।

كُنْتُ نَهَيْتُكُمْ عَنْ ثَلَاثٍ عَنْ زِيَارَةِ الْقُبُورِ فَزُورُوهَا

यानी मैंने तुम्हें कब्रों की ज़ियारत से मना किया था, आगाह रहो के अब तुम ज़ियारत किया करो तो रसूलुल्लाह की क़ब्र बतरीक़े ऊला इस बात की मुस्तहिक़ है के इस हदीस में दाख़िल हो। इस पर मुस्तज़ाद और अहादीस भी हैं जिन को वो रिवायत करते हैं वो इस हदीस के मुताल्लिक़ के जिस से मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब ने इस्तिदलाल किया है कहते हैं के ये हदीस मसाजिद के साथ ख़ास है तो इस का मौज़ू मस्जिदों की तरफ़ जाने का इरादा करना है लिहाज़ा इस का इतलाक़ मसाजिद के सिवा नहीं हो सकता। चुनांचे ये आम नहीं बल्के एक मुअय्यिन मौज़ू में ख़ास है और वो है के कजावे नहीं कसे जा सकते (सफ़र का क़स्द करना) किसी और मस्जिद की तरफ़ मगर तीन मस्जिदों की, लिहाज़ा किसी मुसलमान को जायेज़ नहीं के वो इस्तम्बोल में आया सोफ़िया की मस्जिद की ज़ियारत के लिऐ जाये और ना ही दमिशक़ में उमवी मस्जिद की ज़ियारत के लिऐ जाये, इस लिऐ के रसूलुल्लाह ने मस्जिदों की ज़ियारत को तीन मस्जिदों में महसूर कर दिया है तो किसी और मस्जिद के लिऐ क़स्द करने की इजाज़त नहीं, ये मस्जिदों की साथ ख़ास है वर्ना तिजारत के लिऐ ज़ियारत के लिऐ तफ्रीह के लिए, सैर के लिऐ सफ़र करना जायेज़ है। ये हदीस मुत्लक़न सफ़र के लिऐ मुमानअत नहीं करती और ना ही उनको इन तीन में मेहदूद करती है, बल्के मस्जिद की ज़ियारत के इरादे से उन तीनों के अलावा सफ़र से रोकती है। इसी तरह मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहृाब की और भी बहुत सी आरा जिन को दूसरे मज़ाहिब वाले ग़लत समझते थे क्योंके वोह उनकी नज़र में क़ुरआन और हदीस के मुख़ालिफ़ थीं। इमाम और दीगर मसालिक के माबैन ये झगड़ा शदीद हो गया और बिलआख़िर मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहृाब को शहर बदर कर दिया गया।

1740 में उन्होंने क़बीला अनअन्ज़ के शेख़ मुहम्मद बिन सऊद के हाँ पनाह ली, जो उएैना के शेख़ के ख़िलाफ़ था और अल दिरइया के शहर में मुक़ीम था जो उएैना से सिर्फ़ छ: घंटों की मुसाफ़त पर है। मुहम्मद इब्ने सऊद, मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब से बड़े एज़ाज़ो इकराम और खुश अख़लाक़ी से मिला फिर अल दिरइया और इसके इर्दगिर्द इलाक़ों के लोगों में उनकी आरा और अफ्क़ार को फैलाना शुरू किया। अभी ज्यादा मुद्दत नहीं गुज़री थी के उनकी आरा-ओ-अफ्क़ार बहुत से मदद्गार हासिल करने में कामयाब हो गईं तो अमीर मुहम्मद बिन सऊद भी उनकी तरफ़ माइल हो गया और वो शेख़ मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहृाब के क़रीब होने लगा।

1747 में अमीर मुहम्मद ने शेख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब की तमाम आरा और अफ्क़ार को क़ुबूल करने का ऐलान किया और उन आरा अफ्क़ार नीज़ शेख़ के लिऐ भी अपनी नुसरत का ऐलान किया। इस मुआहिदा की बिना पर वहाबियों की तेहरीक शुरू हुई और एक वजूद की शक्ल में और एक दावत की शक्ल में ज़ाहिर हुई जहाँ मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब उस की तरफ़ दावत देते थे और मुहम्मद बिन सऊद उस को लोगों पर नाफ़िज़ करता था। अल दिरइया और इसके अतराफ़ इलाक़े और क़बाइल में तेहरीक की दावत और अहकाम फैलने लगे और मुहम्मद बिन सऊद की इमारत भी फैलने लगी यहाँ तक के दस साल की क़लील मुद्दत में वो अपनी सलतनत और ये नया मज़हब तकरीबन तीस मील मुरब्बा के इलाक़ो में फैल गया। बहरहाल ये फैलाओ अंजा के शेख़ की इमारत के तवस्सुत से था और किसी ने इस से तआरुज़ और इसकी मुख़ालिफ़त नहीं की हत्ता के अल अहसा के अमीर जिन्होंने मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब को उएैना से शहर बदर कर दिया था, उन्होंने भी इस फैलाओ में अपने दुश्मन से तआरुज़ ना किया और अपनी फ़ौज को लड़ाई के लिऐ भी मैदान में 1757 तक ना लाया। उस वक़्त वो शिकस्त खा गया और मुहम्मद बिन सऊद ने उसकी इमारत पर क़ब्ज़ा कर लिया। अंज़ा का इक़्तिदार मुहम्मद बिन सऊद और नए मज़हब की हुकूमत अल दिरइया और इसके इर्दगिर्द इलाक़े नीज़ अल अहसा पर भी क़ायम हो गया। इन शहरों में वहाबी मज़हब को इक़्तिदार की ताक़त से नाफ़िज़ किया जाता था।

लेकिन ये तेहरीक अमीर अल अहसा के साथ तसादुम और इसके इलाक़ों पर क़ब्ज़ा के बाद इस तेहरीक में जमूद आ गया और बाद में इस तेहरीक की किसी सरगर्मी के अहवाल नहीं मिलते के आया इसमें कोई तरक्क़ी भी हुई? बहरहाल इस तेहरीक का दायरा उसी मुख्तसर इलाके तक मेहदूद रहा। मुहम्मद इब्ने सऊद भी और ये वहाबी तेहरीक इसी दायरे में सिमट कर रह गऐ। 1765 में मुहम्मद बिन सऊद फ़ौत हो गया तो अंजा में इसका जांनशीन इसका बेटा अब्दुल अज़ीज़ बना जो अपने वालिद के बाद सिर्फ़ इसी के ज़ेर नगीं इलाक़ों पर हुकूमत करता रहा, लेकिन तेहरीक के लिऐ कोई सरगर्मी ना दिखाई और ना ही इर्द गिर्द के इलाक़ों में इसकी कुछ तौसीअ की। लिहाज़ा तेहरीक जमूद का शिकार हुई और सुस्ती ने इस पर ख़ेमे गाढ़ दिए। इसके बाद ना ही इसके बारे में सुना गया और ना ही उनके अड़ोस पड़ोस के इलाक़ों को इस तेहरीक की जानिब से योरिश का डर रहा।

अलबत्ता वहाबी तेहरीक की इब्तिदा के इकतालीस बरस बाद यानी 1747 से लेकर 1788 तक और इस तेहरीक के रुक जाने के इकत्तीस बरस बाद यानी 1757 से लेकर 1787 तक अचानक ही इस तेहरीक में फिर हरकत पैदा हुई और इस ने मज़हब को फैलाने का नया तरीक़ा इख्तियार कर लिया। इस्लामी रियासत के हर इलाक़े में इसका नाम एक क़ुव्वत के नाम से सुना गया और बड़े बड़े मुल्कों ने भी इस तेहरीक को मेहसूस किया। इसने ना सिर्फ़ इर्द गिर्द पड़ोसियों को तशवीश में मुब्तिला कर दिया बल्के ख़ुद इस्लामी रियासत को भी बेचैन कर दिया।

1787 में अब्दुल अज़ीज़ ने इमारत की बुनियाद रखी और हुकूमत में विरासत का निज़ाम इख्तियार कर लिया जो वलाएते अह्द के नाम से मौसूम है, ताकी अपने बेटे सऊद को अपना जांनशीन बना सके। लोगों का एक अज़ीम मजमा शेख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब के ज़ेरे क़ियादत जमा हुआ और इस से अब्दुल अज़ीज़ ने ख़िताब करते हुए ऐलान किया के इमारत का हक़ उस के ख़ानदान तक होगा, नीज़ इमारत सिर्फ़ उसकी औलाद तक मुक़य्यद होगी और अपने बेटे सऊद को अपना जांनशीन मुक़र्रर करने का ऐलान किया। शेख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब की क़ियादत वाले इस मजमे ने इसकी हिमायत की और इस ऐलान को क़ुबूल कर लिया। इस तरह मुल्क के लिऐ इमारत एक इन्फ़िरादी ख़ानदान में, ना के किसी क़बीले या बहुत से क़बीलों के लिऐ होना तै पाया। ऐसा मालूम ऐसा होता है के इसी तरह वहाबी मसलक की क़ियादत ओ इमारत को शेख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब के अहले ख़ाना में मेहदूद कर दिया गया। इस तरह जब मुल्क की इमारत और वहाबी मसलक की क़ियादत का मुआमिला तै हो गया तो तेहरीक में फिर से जैसे जान पड़ गई और तौसीअ का सिलसिला अज़ सर ए नौ शुरू हुआ और मज़हब की इशाअत के लिऐ उन्होंने जंगें शुरू कर दीं। 1788 में अब्दुल अज़ीज़ ने फ़ौजी कार्रावाई के लिऐ एक बड़ा लश्कर तैय्यार किया और कुवैत पर हमलावर हुआ उसे फ़तह कर के इस पर क़ाबिज़ हो गया। इससे पहले अंग्रेज़ कुवैत को रियासते उस्मानिया से छीन लेने की कोशिशें कर चुके थे लेकिन क्योंकी रियासते ख़िलाफ़त ने उनकी मुज़ाहिमत की थी लिहाज़ा वो कामयाब ना हो सके थे। अब कुवैत के इस्लामी रियासत से कट जाने के बाद जब आल सऊद ख़ुद को मुस्तहकम करने के लिऐ शिमाल की जानिब रवाना होने लगे तो दूसरे मुमालिक जैसे जर्मनी रूस फ़्रांस वग़ैरा और ख़ुद ख़िलाफ़ते उस्मानी ने उनके वजूद को मेहसूस किया। इस तेहरीक की जंगों में क्योंके फ़िर्क़ा वारियत कारफ़रमा थी, लिहाज़ा ये रुहानी ऐतेबार से जज्बात को भड़काती थी।


इस तरह कई दहाइयों के जमूद के बाद वहाबियों ने अपनी सरर्गमियां दुबारा अचानक शुरू कर दीं, उन्होंने ये तेहरीक नए तरीक़े से चलाई यानी अपने मसलक को जंग और फ़तह के ज़रीये फैलाने की कोशिशें शुरू कीं ताके दूसरे तमाम मसलकों के वजूद को ही ख़त्म कर दें और अपने मसलक को उनके क़ाइम मक़ाम बना दें। अपनी सरर्गमियों का आग़ाज़ उन्होंने कुवैत पर हमला और इस पर क़ब्ज़ा करने से किया फिर बराबर ख़ुद को फैलाने की कोशिशें जारी रखीं। लिहाज़ा ये तेहरीक तमाम जज़ीरा नुमाए अरब में तशवीश का बाइस बन गई, इराक़, शाम और रियासते ख़िलाफ़त सब इस से तशवीश में मुब्तिला थे। उन्होंने अपनी आरा को मुसलमानों पर थोपने के लिऐ तलवार का सहारा लिया ताके मुसलमान अपनी आरा को तर्क करके वहाबी मसलक की आरा को इख्तियार कर लें। उन्होंने ख़लीफ़ा की साथ क़िताल किया और इस्लामी शहरों को फ़तह करने लगे। 1792 को जब मुहम्मद बिन अब्दुल वहृाब फ़ौत हुए तो उनके बेटे ने उनकी जगह ली जिस तरह सऊद अपने बाप अब्दुल अज़ीज़ का जांनशीन बना था। इस तरह सऊदी हुकमरानों ने वहाबी मज़हब को रियासते उस्मानिया यानी रियासते ख़िलाफ़त पर धावा बोलने नीज़ मुसलमानों में मज़हबी जंगें छेड़ने के लिऐ बतौर एक सियासी आले के इस्तिमाल किया।
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