औरतों के लिए हिजाब या नक़ाब से उनका चेहरा इस तरह ढाँकना कि
उन की आँखों के सिवा पूरा चेहरा छुपा रहे,
ये एक इस्लामी तसव्वुर और राय है जिसकी कुछ मसलकों के मुज्तहिद
आईम्माऐ किराम ने हिमायत की है। इसी तरह ये क़ौल कि इस्लाम में औरतों के लिए नक़ाब फ़र्ज़
नहीं है लिहाज़ा उन्हें अपने चेहरे कभी भी ढाँकना ज़रूरी नहीं क्योंकि चेहरा सतर का हिस्सा
नहीं हैं, ये भी इस्लामी तसव्वुर और राय है जिस की कुछ मसलकों के मुज्तहिद
आईम्माऐ किराम ने हिमायत की है। क्योंकि ये मसला एक अहम सामाजिक मुआमला है और उन दोनों
में से किसी भी एक राय को इख़्तियार करने का असर इस्लामी तर्ज़े ज़िन्दगी पर पडेगा, लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि इस मुआमले से मुताल्लिक़ तमाम शरई दलायल,
उन का अध्ययन और छुपे हुऐ बिन्दु को सामने रख दिया जाये ताकि
मुसलमान इन में से मज़बूत दलील को इख्तियार करें और इस्लामी रियासत तमाम मुताल्लिक़ा
दलायल की रोशनी में मज़बूत राय को अपनाए।
औरतों के मोज़ू पर पिछली आधी सदी से बेहस जारी है और ये बहसें
मग़रिबी कुफ़्फ़ार ने मग़रिब से प्रभावित मुसलमानों में भड़का रखी थीं जो उन की तहज़ीब
के गरवीदा और ज़िंदगी के बारे में मग़रिबी नुक़्ताऐ नज़र पर फिदा हैं। इस तरह मग़रिब ने
इस्लाम पर इस्लाम मुखालिफ तसव्वुरात से वार किया और मुसलमानों के नुक़्ताऐ नज़र और अक़ीदे
में फ़साद और बिगाड़ पैदा करने की कोशिश की और पर्दे और बेपर्दे की बेहस छेड़ दी ।
औलमा और मुफ़क्किरीन (विचारक) हज़रात ने मग़रिब के इस हमला का जवाब नहीं दिया और जिन लोगों
ने ये काम किया वो अदीब (साहित्यकार) और ऐसे तालीम पाऐ हुऐ लोग थे जिन के ज़हन सुन
पड़े हुऐ थे। नतीजतन इन जवाबी कार्यवाईयों से मग़रिबी तहज़ीब को मानने वालों का
मौक़िफ (मत) ही मज़बूत हुआ क्योंकि मग़रिबी फ़िक्र और तसव्वुरात जो इस्लाम पर हमले करने
और मुसलमानों में फ़साद और बिगाड़ के लिए खड़े किए गए थे, वही बहस का मोज़ू बन गए थे और
मुसलमानों के दिमाग़ों में दीन से मुताल्लिक़ शकूक को जन्म देते थे। दरहक़ीक़त इस मोज़ू
की शुरुआत इसी तरह हुई और आज भी इस के असरात बाक़ी हैं। अलबत्ता ये बहस ऐसी नहीं कि
इस मुआमले में कोई क़ानूनसाज़ी या समाजी एतबार से कोई मुतालेअ की ज़रूरत हो। इस का सबब
ये है कि असल बहस सिर्फ़ इस बात से है कि मुज्तहिदीन ने जो अहकामे शरीयत का इस्तंबात
(क़ुरआन व हदीस से परीणाम प्राप्त) किया उन के दलायल या शुबा दलील क्या है,
ना कि इस किताब की अपनी राय से या मग़रिबी एजैंटों के मफ़रूज़ात
से या धोके में पड़ जाने वालों की लफ़्फ़ाज़ी से और ना ही मग़रिब ज़दा लोगों के फ़रेब से कोई
सरोकार है। बहस का मौज़ू तो बस वही होगा जो मुज्तहिदीन ने शरई दलायल से किसी हुक्म
को हांसिल किया है और क़ानूनसाज़ी की बेहस इसी महवर (धूरी) पर होगी। इस के अलावा कुछ
फुक़हा और मशाइख़े किराम की राय और हिजाब के मसले पर उन लोगों की राय जो किसी एक मौक़िफ़
के शिद्दत से हामी हैं, उनका भी मुतालअ किया जाएगा ताकि उन के दिमाग़ों से शकूक को
दूर किया जा सके। इस उद्देश्य से मुज्तहिदीन के कथन और दलायल सामने रखे जाऐंगे ताकि
मज़बूत क़ौल साफ और वाजेह हो जाएं और जो कोई इस क़ौल को मज़बूत मानता हो,
वो इसी के मुताबिक़ अमल करे और इसी को जारी करने के लिये अमल
करे।
जिन लोगों ने चेहरे के हिजाब की हिमायत की उन की राय ये थी कि
औरत की सतर उसके हाथ और चेहरे के सिवा पूरा बदन है,
ये मुआमला हालते नमाज़ का है, हालते नमाज़ के सिवा,
उन के नज़दीक औरत का पूरा बदन चेहरे और हाथों के साथ उसका सतर
है । उन्होंने अपनी इस राय की ताईद में क़ुरआन और सुन्नत का हवाला रखा। जहां तक क़ुरआन
से सनद की बात है, तो अल्लाह (سبحانه
وتعال) का इरशाद है:
وَإِذَا
سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَـٰعً۬ا فَسۡـَٔلُوهُنَّ مِن وَرَآءِ حِجَابٍ۬ۚ
और अगर तुम्हें नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवीयों से कोई सामान मांगना हो तो उन से पर्दे के पीछे
से मांगो (तर्जुमा
मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:53)
ये आयते
मुबारका उन पर पर्दे के बारे में सरीह है,
और अल्लाह (سبحانه
وتعال) का फ़रमान है:
يَـٰٓأَيُّہَا
ٱلنَّبِىُّ قُل لِّأَزۡوَٲجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ
عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ ذَٲلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا
يُؤۡذَيۡنَۗ
ऐ नबी (صلى
الله عليه وسلم),
कहो अपनी बीवीयों
से और अपनी बेटीयों से और मोमिनों की औरतों से कि वो अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया
करें, ये तरीक़ा ज़्यादा मुनासिब है कि वो पहचान ली जाएं और सताई ना
जाएं (तर्जुमा
मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:59)
इन अस्हाब का (अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें)
के बारे में मौक़िफ़ ये है कि औरतें अपने पल्लू अपने जिस्म और चेहरे के ऊपर लटका लिया
करें। इन का कहना ये है कि इस्लाम के शुरूआती दौर में औरतों वही ज़माऐ जाहिलियत के तौर
तरीक़ों पर थीं और बे ढंगे पन से रहा करती और ख़िमारपहन लिया करती थीं जिस से एक आज़ाद
औरत और एक कनीज़ में तमीज़ नहीं होती थी। कनीज़ (दासी) लड़कीयां रात के वक़्त जब रफ़ा
हाजत की ग़रज़ से ख़जूरों के दरख़्तों की तरफ जातीं थीं तो मदीना के भटके हुए आवारा नौजवान
उन्हें छेड़ते थे। कभी ऐसा भी होता कि ये लड़के आज़ाद औरतों को छेड़ देते और बहाना करते
कि हम ने उन्हें कनीज़ समझा था। लिहाज़ा आज़ाद औरतों को हुक्म दिया गया कि वो अपने लिबास
में कनीज़ों से मुख्तलिफ रहें और अपने ऊपर एक
ढीला लिबास (अरदिया) और लहफ़ पहनें जिस से उन का सर और चेहरा ढँक जाये और वो शर्म वाली नज़र आएं
और ऐसे लालची लड़के उन से दूर रहें। ये तरीक़ा ज़्यादा मुनासिब था कि ऐसी औरतें पहचान
ली जाएं और छेड़ी ना जाएं। इस मौक़िफ़ के मानने वालों में से कुछ का कहना है कि इस आयत
में (ला यानी नफ़ी) महज़ूफ़ (अलग किया गया) है जिस से मुराद ये होगी कि ये तरीक़ा बेहतर
है ताकि ख़ूबसूरत और बद बसूरत में फर्क़ ना हो और वो छेड़ी ना जाएं।
अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:
وَقَرۡنَ
فِى بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ تَبَرُّجَ ٱلۡجَـٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ
और अपने घरों में टिक कर रहो और पिछले दौरे जाहिलियत की तरह
अपनी सजधज दिखाती ना फिरो (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:33)
इस तरह उन का कहना है कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने औरतों को घरों में रहने का जो हुक्म दिया है वो उन के
हिजाब की दलील है।
सुन्नते नबवी से उन की राय इस दलील पर आधारित है कि हुज़ूर अक़दस
(صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि ((المراۃ عورۃ ৃ)) यानी औरत
का पूरा जिस्म उस की सतर है। इस हदीस को बिन हब्बान (رحمت
اللہ علیہ) ने अपनी सही में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (رضي
الله عنه) से नक़ल किया है। फिर हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) का ये क़ौल भी दलील है जो हज़रत उम्मे सलमा (رضي
الله عنها) से तिरमिज़ी में मरवी है कि “अगर तुम्हारे पास ऐसा ख़ादिम
ग़ुलाम हो जो ख़ुद को आज़ाद कराना चाहता हो और इस के पास इस के लिए माल भी हो,
तो तुम उससे पर्दा करो” इस के अलावा हज़रत उम्मे सलमा (رضي
الله عنها) से सुनन अबी दाऊद में नक़ल है ,
वो कहती हैं कि वो हज़रत मैमूना (رضي
الله عنها) के साथ हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के पास बैठी थीं कि हज़रत बिन उम्मे मकतूम (رضي
الله عنه) ने अंदर आने की इजाज़त तलब की नबी करीम (صلى
الله عليه وسلم) ने हम से फ़रमाया कि हम उन से पर्दा करें,
तो मैंने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم), वो तो नाबीना हैं देख नहीं सकते। नबी करीम (صلى
الله عليه وسلم) ने हम से फ़रमाया:
افعمیاوان
انتما لا تبصرانہ
क्या तुम दोनों भी नाबीना हो, देख नहीं सकतीं?
इसी तरह बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي
الله عنه) से मरवी है कि हज़रत फ़ज़ल बिन अब्बास (رضي
الله عنه) हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के साथ सफर पर थे कि बनी ख़िसाम की एक औरत हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के पास आईं। फ़ज़ल (رضي
الله عنه) उन की तरफ़ देखने लगे और वो फ़ज़ल (رضي
الله عنه) की तरफ देखने लगीं तो हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़ज़ल (رضي
الله عنه) की गर्दन का रुख़ दूसरी तरफ फेर दिया। और मुस्लिम शरीफ़
में हज़रत जरीर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) रिवायत करते हैं कि उन्होंने हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से अचानक नज़र पड़ जाने के बारे में पूंछा तो हुक्म फ़रमाया
कि मैं फ़ौरन नज़र फेर लूं। हज़रत अली (رضي
الله عنه) से मसनद अहमद में मरवी है कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने उन से फ़रमाया:
لا
تتبع النظرۃ النظرۃ فاِنما لک الاولی و لیست لک الآخرۃ
अपनी पहली नज़र पड़ जाने पर दुबारा नज़र ना डालो,
पहली (अचानक
पडने वाली) नज़र जायज़ है लेकिन दूसरी नहीं
ये दलायल वो थे जो हिजाब के क़ाइल हज़रात पेश करते हैं जिन का
मौक़िफ़ ये है कि औरत का पूरा जिस्म उस की सतर है। अलबत्ता ये दलायल वो हैं जो की जा
रही बहस के मोज़ू पर लागू नहीं होते क्योंकि ये दलायल इस मोज़ू से मुताल्लिक़ नहीं हैं।
जहां तक आयते हिजाब और घरों में टिके रहने वाली आयतों की बात है तो उन का आम
मुस्लिम औरतों से कोई ताल्लुक़ नहीं है, ये आयात अज़्वाजे मुताहिरात {नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवियों} के लिए ख़ास हैं और उनकी मुकम्मल तिलावत से
ये बात वाज़िह हो जाती है। ये दोनों एक ही आयत का हिस्सा हैं जो आपस में लफ़्ज़ और मआनी
के एतबार से जुडी हुई हैं, आयत के अल्फाज़ यूं हैं:
يَـٰٓأَيُّہَا
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتَ ٱلنَّبِىِّ إِلَّآ أَن يُؤۡذَنَ
لَكُمۡ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيۡرَ نَـٰظِرِينَ إِنَٮٰهُ وَلَـٰكِنۡ إِذَا دُعِيتُمۡ
فَٱدۡخُلُواْ فَإِذَا طَعِمۡتُمۡ فَٱنتَشِرُواْ وَلَا مُسۡتَـٔۡنِسِينَ لِحَدِيثٍۚ
إِنَّ ذَٲلِكُمۡ ڪَانَ يُؤۡذِى ٱلنَّبِىَّ فَيَسۡتَحۡىِۦ مِنڪُمۡۖ وَٱللَّهُ لَا
يَسۡتَحۡىِۦ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ وَإِذَا سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَـٰعً۬ا فَسۡـَٔلُوهُنَّ
مِن وَرَآءِ حِجَابٍ۬ۚ ذَٲلِڪُمۡ أَطۡهَرُ لِقُلُوبِكُمۡ وَقُلُوبِهِنَّۚ وَمَا
كَانَ لَڪُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ وَلَآ أَن تَنكِحُوٓاْ
أَزۡوَٲجَهُ ۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦۤ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٲلِكُمۡ ڪَانَ عِندَ ٱللَّهِ
عَظِيمًا
ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, नबी के घरों में मत जाया करो अलबत्ता ये कि तुम्हें खाने पर
बुलाया जाये और ना खाने का वक़्त ताकते रहा करो। हाँ जब तुम्हें बुलाया जाये तो ज़रूर
जाओ। फिर जब खाना खा चुको तो मुंतशिर (अलग अलग) हो जाओ और बातें करने के लिए बैठे ना
रहा करो। यक़ीनन तुम्हारी ये हरकतें नबी (صلى
الله عليه وسلم) को तकलीफ़ देती हैं मगर वो तुम्हारा लिहाज़ करते हैं और
कुछ नहीं कहते, लेकिन अल्लाह हक़ बात कहने से नहीं शर्माता। और अगर तुम्हें नबी
(صلى الله عليه وسلم) की बीवीयों से कोई सामान माँगना हो तो उन से पर्दे के पीछे से
मांगो। ये तरीक़ा तुम्हारे और उन के दिलों की पाकीज़गी के लिए ज़्यादा मुनासिब है,
और तुम्हारे लिए
जायज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم) को तकलीफ़ दो और ना ये जायज़ है कि उन की बीवीयों से उन
के बाद कभी निकाह करो, बेशक ऐसा करना अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा गुनाह है।
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:53)
चुनांचे ये आयते मुबारका अज़्वाजे मुताहिरात के बारे में है और
इन ही के लिए ख़ास है, इस का आम मुस्लिम औरतों से कोई ताल्लुक़ नहीं। इस आयत के आम मुस्लिम
औरतों से कोई ताल्लुक़ ना होने की ताईद बुख़ारी शरीफ़ की इस हदीस से होती है जो हज़रत
आयशा (رضي الله عنها) से मरवी है, वो फ़रमाती हैं वो नबी (صلى
الله عليه وسلم) के साथ बर्तन से हैस खा रही थीं कि हज़रत उमर (رضي
الله عنه) का इधर गुज़र हुआ और नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने उन्हें भी खाने पर बुलाया तो वो आ गए और खाने लगे और उन की
उंगली मेरी उंगली से लगी। हज़रत उमर (رضي
الله عنه) ने फ़रमाया कि अगर मेरी राय सुनी जाये तो आप लोगों को कोई
ना देख पाए। इस के बाद हिजाब की आयत नाज़िल हुई। और बुख़ारी शरीफ़ ही में हज़रत उमर
(رضي الله عنه) से मरवी है कि उन्होंने नबी (صلى
الله عليه وسلم) से कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم), आप (صلى الله
عليه وسلم) के पास नेक और फ़ाजिर दोनों ही क़िस्म के लोग हाज़िर होते
हैं, मुनासिब है कि आप उम्हातुल मुसलिमीन को पर्दे में रखें। इस के बाद हिजाब की आयत
नाज़िल हुई। तिबरानी की रिवायत में है कि हज़रत उमर (رضي
الله عنه) का गुज़र मस्जिद-ए-नबवी में हुआ जहाँ उम्हातुल
मुसलिमीन दूसरी औरतों के साथ बैठी थीं, आप (رضي الله عنه) ने फ़रमाया:
إن
احتجتن فإن لکن علی النساء فضلاً ،کما أن لزوجکن علی الرجال فضل، فقالت زینب رضی
اللّٰہ عنھا :یا ابن خطاب،إنک لتغار علینا والوحيینزل في بیوتنا،فلم یلبثوا یسیراً
حتی نزلت
अगर आप (उम्मतुल मोमिनीन) बा पर्दा रहें तो ये दूसरे औरतों पर
आप को फ़ज़ीलत है जैसे आप के शोहर (صلى
الله عليه وسلم) बाक़ी मर्दों पर अफ़ज़ल हैं। हज़रत ज़ैनब (رضي
الله عنها) ने कहा: ऐ इब्ने ख़त्ताब (رضي
الله عنه), आप को हमारी बहुत फ़िक्र है जबकि ‘वही’ तो हमारे ही घरों में
नाज़िल होती है । इस वाक़िये के बाद ज़्यादा मुद्दत ना गुज़री थी कि हिजाब की आयत नाज़िल
हुई
लिहाज़ा वाज़ेह हो जाता है कि ज़िक्र की गई आयत और ये अहादीस
उम्हातुल मुसलिमीन के लिए ख़ास हैं और दूसरे औरतों के बारे में नाज़िल नहीं हुईं।
इसी तरह घरों में टिके रहने वाली आयते मुबारका भी अज़्वाजे
मुताहिरात के लिए ख़ास है, ये पूरी आयत यूं है:
يَـٰنِسَآءَ
ٱلنَّبِىِّ مَن يَأۡتِ مِنكُنَّ بِفَـٰحِشَةٍ۬ مُّبَيِّنَةٍ۬ يُضَـٰعَفۡ لَهَا
ٱلۡعَذَابُ ضِعۡفَيۡنِۚ وَكَانَ
ذَٲلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرً۬ا ۞ وَمَن يَقۡنُتۡ مِنكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦ
وَتَعۡمَلۡ صَـٰلِحً۬ا نُّؤۡتِهَآ أَجۡرَهَا مَرَّتَيۡنِ وَأَعۡتَدۡنَا لَهَا
رِزۡقً۬ا ڪَرِيمً۬ا ( ٣١ *) يَـٰنِسَآءَ ٱلنَّبِىِّ
لَسۡتُنَّ ڪَأَحَدٍ۬ مِّنَ ٱلنِّسَآءِۚ إِنِ ٱتَّقَيۡتُنَّ فَلَا تَخۡضَعۡنَ
بِٱلۡقَوۡلِ فَيَطۡمَعَ ٱلَّذِى فِى قَلۡبِهِۦ مَرَضٌ۬ وَقُلۡنَ قَوۡلاً۬
مَّعۡرُوفً۬ا ( ٣٢* ) وَقَرۡنَ فِى بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ
تَبَرُّجَ ٱلۡجَـٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ وَأَقِمۡنَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتِينَ
ٱلزَّڪَوٰةَ وَأَطِعۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۚ ۥۤ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ
لِيُذۡهِبَ عَنڪُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرً۬ا
ऐ नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवीयों! तुम में से जो खुली फ़हश हरकत का इर्तिकाब करेगी
तो उसे दुगुना अज़ाब दिया जाएगा और ये बात अल्लाह के लिए बहुत आसान है। और तुम में
से जो अल्लाह और इस के रसूल (صلى
الله عليه وسلم) की फ़रमाबरदार बन कर रहेगी और नेक आमाल करेगी, हम उसे उसका अज्र भी दुहरा देंगे और हमने इसके लिए रिज़्क-ए-करीम
मुहय्या कर रखा है। ऐ नबीऐ की बीवीयों! तुम आम औरतों की मानिंद नहीं हो,
लिहाज़ा अगर तुम
अल्लाह से डरने वाली हो तो दबी ज़बान से बात ना किया करो इस तरह कि कोई ऐसा शख़्स जिस
के दिल में ख़राबी हो, लालच में पड़ जाये । बल्कि साफ़ और सीधे तरीक़ा से बात किया करो।
और अपने घरों में टिक कर रहो और पिछले दौर ए जाहिलियत की तरह अपनी सजधज दिखाती ना फिरो।
और नमाज़ क़ायम करती रहो, ज़कात देती रहो और इताअत करो अल्लाह की और उसके रसूल की,
अल्लाह तो बस ये
चाहता है कि तुम से गंदगी दूर कर दे (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:30-33)
इस तरह ये बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि ये आयते मुबारका उम्हातुल
मोमिनीन के हवाले से नाज़िल हुई और इस का ख़िताब ख़ासकर इन ही से है, जैसा कि आयत में आया: ऐ नबी की बीवीयों! तुम आम औरतों की मानिंद
नहीं हो, इस फ़िक़रे से बढ़ कर वाज़िह और बलीग़ कोई नहीं हो सकती कि ये आयत
अज़्वाजे मुताहिरात के लिए ही ख़ास है, और यही बात आयत के आख़िरी हिस्से से साबित होती है जहाँ (अहलुल
बैअत) कहा गया। बहरहाल चेहरे के हिजाब के क़ाइल लोग जो (और अपने घरों में टिक
कर रहो) से इस्तिदलाल करते हैं, ये हुज़ूर (صلى
الله عليه وسلم) की अज़्वाजे मुताहिरात के लिए ख़ास है, यही बात अगली आयत से भी साफ हो जाती है जिस में गन्दगी हटा
कर पाकीज़ा करने की बात कही गई है।
लिहाज़ा ये दोनों आयतें अज़्वाजे मुताहिरात के लिए ही ख़ास हैं
और इस बात की कोई दलील नहीं है कि ये अज़्वाजे मुताहिरात के सिवा आम मुस्लिम औरतों के
लिए हैं। इस के अलावा और भी आयात हैं जो अज़्वाजे मुताहिरात ही के लिए ख़ास हैं जैसे:
وَلَآ
أَن تَنكِحُوٓاْ أَزۡوَٲجَهُ ۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦۤ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٲلِكُمۡ
ڪَانَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمًا
ना ये जायज़ है कि उन की बीवीयों से उन के बाद कभी निकाह करो,
बेशक ऐसा करना
अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा गुनाह है (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:53)
अज़्वाजे मुताहिरात के लिए जायज़ नहीं रखा कि वो हुज़ूर (صلى
الله عليه وسلم) के बाद फिर निकाह कर लें जबकि आम मुस्लिम औरतों के लिए
अपने शौहरों की मौत के बाद निकाह करना जारी रखा गया है। चुनांचे सूरह अहज़ाब की दोनों
आयात-ए-मुबारका उम्हातुल मोमनीन के लिए ख़ास हुईं बिल्कुल उसी तरह जैसे इस आयत में उन
के लिए हुज़ूर (صلى الله
عليه وسلم) के बाद फिर निकाह करना ममनू ठहरा।
ये भी नहीं कहा जा सकता कि यहाँ अल्फाज़ के आम मआनी से मतलब है
ना कि उन के ख़ास सबब से, और ये कि गो कि आयत के नुज़ूल होने का कारण अज़्वाजे
मुताहिरात के लिए ख़ास है जबकि मआनी के एतबार से ये हुक्म आम होगा। ये इस्तिदलाल इसलिए
नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ एक वाक़िया लफ्ज़े नुज़ूल है और अज़्वाजे मुताहिरात वो
वाक़िया नहीं हैं बल्कि आयत का मतन है जो मुईन अफ़राद के लिए वारिद हुआ जो कि अज़्वाजे
मुताहिरात हैं, कहा गया: ऐ नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवीयों! तुम आम औरतों की मानिंद नहीं हो, और कहा गया: अगर तुम्हें नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवीयों से कोई सामान माँगना हो तो उन से पर्दे के पीछे से
मांगो। यहाँ लफ्ज़े हुन्ना का ज़मीर (Pronoun) अज़्वाजे मुताहिरात के लिए है ना कि किसी और के लिए। फिर इस के
बाद फ़रमाया:
وَمَا
كَانَ لَڪُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ
और तुम्हारे लिए जायज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم) को तकलीफ़ दो (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:53)
इस से इस हुक्म की इल्लत (वजह) यानी अज़्वाजे मुताहिरात का हिजाब
है, इन तमाम से साफ हो जाता है कि कि इन आयतों की नस (text) अज़्वाजे मुताहिरात के लिए ही हैं और इस शरई क़ाअदे का यहाँ इंतिबाक़ नहीं होता जिस
के तहत मौज़ू उमूमे लफ़्ज़ (आम शब्द) होता है ना कि ख़ुसूसियते सबब।
इसी तरह ये भी नहीं कहा जा सकता कि जो ख़िताब अज़्वाजे
मुताहिरात के लिए है वही तमाम मुस्लिम औरतों के लिए भी है, क्योंकि खास ख़िताब खास फर्द के लिए हो और इस में तमाम मोमिन
शामिल हों, यह सिर्फ उस ख़िताब पर सादिक़ आता है जो हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के लिए हो, इस क़ाअदे में वो ख़िताब शामिल नहीं जो नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवियों के लिए है। वाक़िया ये है कि जो ख़िताब हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के लिए हो, वो तमाम मुसलमानों के लिए है,
लेकिन जो ख़िताब अज़्वाजे नबी (صلى
الله عليه وسلم) के लिए वो, वो इन ही के लिए खास है। इस का सबब ये है कि हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) हर ख़िताब, सुकूत (खामोशी) और फे़अल (action) में उस्वा (model) और मिसाल हैं अलावा ये कि वो ख़िताब,
फे़अल या सुकूत सिर्फ़ आप (صلى
الله عليه وسلم) के लिए ही खास हो, क्योंकि अल्लाह (سبحانه
وتعال) का इरशाद है:
لَّقَدۡ
كَانَ لَكُمۡ فِى رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٌ۬
यक़ीनन तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह की ज़ात में बेहतरीन नमूना है
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:21)
उस्वाऐ हसना (बेहतरीन नमूना) सिर्फ़ हुज़ूर (صلى
الله عليه وسلم) की ज़ाते गिरामी है और ये सही नहीं कि अज़्वाजे
मुताहिरात को इसलिए उस्वा बना लिया जाये कि किसी फे़अल को इसलिए अंजाम दिया जाये कि
वो उन्होंने अंजाम दिया था या कोई सिफ़त इसलिए इख्तियार की जाये कि उन की सिफ़त थी,
ऐसा सिर्फ़ हुज़ूर (صلى
الله عليه وسلم) की ज़ात-ए-गिरामी के लिए ही किया जा सकता है क्योंकि आप
(صلى الله عليه وسلم) ने सिर्फ़ वही पर अमल फ़रमाया है।
इसी तरह ये भी नहीं कहा जा सकता कि चूँकि वो नबी (صلى
الله عليه وسلم) की बीवीयाँ हैं और पाक दामन हैं और आयात का नुज़ूल उन के
घर में हुआ है, और उन से हिजाब का मुतालिबा हुआ है चुनांचे आम मुस्लिम औरतों
के लिए ये और भी ज़रूरी हुआ, ये दावा इन दो वजहों से नहीं किया जा सकता:
पहला: यहाँ मुआमला सबब-ए-ऊला का नहीं है क्योंकि अल्लाह (سبحانه
وتعال) किसी मामूली चीज़ से मना फ़रमा देता है और कोई बड़ी चीज़ इसी
हुक्म के तहत बदर्जे ऊला आ जाती है, मिसाल के तौर पर अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने फ़रमाया:
فَلَا
تَقُل لَّهُمَآ أُفٍّ۬
तुम उन्हें उफ़ भी ना कहो (तर्जुमा मआनी क़ुरआन : बनी इसराईल:23)
इस हुक्म के तहत बसबब-ए-ऊला ठहरा कि वालदैन को ना सताया जाये।
ऊला को मज़मून के सियाक़ो सबाब से समझा जाता है जैसे कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) का फ़रमान है:
وَمِنۡ
أَهۡلِ ٱلۡكِتَـٰبِ مَنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِقِنطَارٍ۬ يُؤَدِّهِۦۤ إِلَيۡكَ
وَمِنۡهُم مَّنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِدِينَارٍ۬ لَّا يُؤَدِّهِۦۤ إِلَيۡكَ
और अहले किताब में से कोई ऐसा भी है कि अगर तुम उसके पास एक
ख़ज़ाना अमानत रखो तो वो तुम को अदा कर दे,
और इन में से कोई
ऐसा भी है कि अगर तुम उसके पास एक दीनार भी अमानत रखो तो तुम को वापिस ना दे (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: आल-ए-इमरान:75)
यहाँ एक ख़ज़ाना से कम की मिक़दार का अदा करना बाबे ऊला से हुआ
और एक दीनार से बढ़ कर अदा ना करना भी बाबे ऊला से हुआ। इस के बर अक्स आयते हिजाब उस
नौईय्यत की नहीं क्योंकि आयते हिजाब में सियाक़ो सबाब अज़्वाजे मुताहिरात के सिवा किसी
और की तरफ इशारा नहीं करतीं और ना ही किसी और मफ़हूम की तरफ़ इस आयत का इशारा है।
फिर अज़्वाजे नबी का वस्फ़ (गुण) कोई ऐसा वस्फ़ भी नहीं जिस के मआनी फ़हम पर महमूल (क़ियास)
किए जा सकें और इस में अज़्वाजे नबी के सिवा किसी और को बाबे ऊला में दाख़िल किया जा
सके, ये तो एक जामिद इस्म है जिसके और मफ़हूम नहीं हो सकते और इस का इतलाक़ (apply) सिर्फ़ उसी चीज़ पर हो सकता है जिस के लिए ये वारिद हुई है ना कि किसी और चीज़
पर। ना ही यहाँ कोई ऐसा विषय है जिस पर बाबे ऊला का इतलाक़ हो,
ना अल्फाज़ के हवाले से और ना ही सियाक़ व सबाक़ के एतबार से।
दूसरा सबब: दूसरी बात ये कि ये दोनों आयतें एक हुक्म पर आधारित
हैं जो खास शख्सियतों के लिए है जिन का खास गुण बयान किया गया और अब इस का इतलाक़ उन
मुईन अश्ख़ास के सिवा किसी और पर बिल्कुल नहीं हो सकता ना किसी ऐसे पर जो उन से बुलंद
तर हो या किसी ऐसे पर जो उन से अदना हो क्योंकि वस्फ़ तय कर दिया गया है जो खास अश्ख़ास
के लिए ख़ास वस्फ़ है। ये हुक्म अज़्वाजे मुताहिरात पर उन की इस हैसियत से होता है कि
वो नबी (صلى الله عليه وسلم) की बीवीयाँ हैं जो आम औरतों की तरह नहीं हैं और इस अमल से नबी (صلى
الله عليه وسلم) को तकलीफ पहुंचती है।
यहाँ तक शरई क़ायदा (العِبْرَۃ بِعُمُوم اللَّفظ لا بِخُصُوص
السَبَبْ), अज़्वाजे मुताहिरात का इक़तदा और ये तसव्वुर कि जो हुक्म अज़्वाज
के लिए है वो दूसरी मुस्लिम औरतों के लिए मिन बाब-ए- ऊला हुआ,
जब इन तीनों पर बेहस हो चुकी और साबित हो गया कि अब क़वाइद का
यहाँ इंतिबाक़ नहीं, तो ये बात पायाऐ सबूत को पहुंची कि ज़िक्र की गई आयात अज़्वाजे
मुताहिरात के लिए ही ख़ास हैं और इस हुक्म में मुस्लिम औरतों किसी भी ज़ावीया से शामिल
नहीं। लिहाज़ा ये भी साबित हो जाता है कि हिजाब नबी (صلى
الله عليه وسلم) की अज़्वाज के लिए ख़ास है और घरों में टिके रहना भी उन के
लिए ख़ास है। इस से इस इस्तिदलाल के सही होने की भी नफ़ी हुई कि हिजाब तमाम मुस्लिम औरतों
के लिए हुक्मे आम है।
इस के बाद जहां तक दूसरी आयत का ताल्लुक़ है जहां अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने फ़रमाया:
يُدۡنِينَ
عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ
वो अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब:59)
इस आयत से किसी भी तरह चेहरे को ढाँकने की दलील नहीं है,
ना आयत के लफ्ज़ेमंतूक़ के लिहाज़ से और ना ही इस मफ़हूम के एतबार
से और ना ही इस में कोई फ़िक़रा या लफ़्ज़ है जो ये ये फ़र्ज़ भी कर लिया जाये कि यही
हुक्म लफ्ज़े नुज़ूल है तो वो लफ़्ज़ अपने आप में या किसी जुमला का हिस्सा होने के हवाले
से इस तरफ़ इशारा करता हो। आयत में कहा गया है कि वो अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया
करें, इस आयत में लफ्ज़े (मिन॒) ख़ुसूसीयत के लिए नहीं बल्कि एक बयानी
कैफ़ीयत है कि वो अपनी चादर अपने ऊपर डाल लिया करें। जिस के मानी ये हुए कि अपने जिलबाब
या चादर को ऊपर से नीचे तक ढांक लें। जिलबाब एक बाहरी लिबास होता है जो पूरा जिस्म
ढांकता है या ये कोई चादर हो सकती है जो पूरे जिस्म को ढक दे। क़ामूस अलमुहीत में कहा
गया है कि जिलबाब एक सनमार या सरदाब है जो क़िस्म की (gown)
की तरह है जिस से पूरा जिस्म ढक जाये। अलजोहरी (رحمت
اللہ علیہ) अपनी तसनीफ़ (रचना) अल सिहाह में लिखते हैं कि जिलबाब एक
मुलहफ़ा (जिस से ढक लिया जाये) या मुल्लाह (चादर) है। जिलबाब का लफ़्ज़ हदीस में भी
चादर के तौर पर आया है जिस को औरत अपने लिबास के ऊपर ओढ़ लेती है। हज़रत उम्मे अतीया
(رضي الله عنها) से मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने हमें हुक्म दिया कि ईदैन के वक़्त हम अपनी कुंवारी जवान
लड़कीयों और हैज़ वाली औरतों को और पर्दे वालियों को ले जाएं। सौ हैज़ वालियां जुदा रहें
नमाज़ की जगह से और हाज़िर हों कारे नेक में और मुसलमानों की दुआओं में। हज़रत उम्मे
अतीया (رضي الله عنها) कहती हैं कि उन्होंने हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से दरयाफ़त किया कि अगर किसी के पास जिलबाब ना हो तो?
फ़रमाया कि वो अपनी बहन का लेकर पहन ले। इसके मानी ये हुए कि
उन के पास जिलबाब नहीं था जो वो अपने लिबास के ऊपर पहन लेतीं,
लिहाज़ा उऩ्हें हुक्म हुआ कि वो अपनी किसी बहन से उधार
लेकर अपने लिबास के ऊपर पहन ले। चुनांचे मज़कूरा आयत के मआनी ये हुए कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने हुक्म दिया कि नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) अपनी बीवीयों, अपनी बेटीयों और मुस्लिम औरतों से कहें कि वो अपने लिबास के
ऊपर चादर या जिलबाब पहन लें जो जिस्म के नीचे तक पहुंचता हो। यही पुष्ठी हज़रत बिन
अब्बास (رضي الله عنه) वाली इस रिवायत से होती है जिस में कहा कि जिलबाब वो लिबास है जो
ऊपर से नीचे तक ढक लेता है। लिहाज़ा आयते मुबारका सिर्फ़ जिलबाब पहनने का इशारा करती
है जो एक ढीला लिबास है जो जो नीचे तक पहुंचता है। पर जब जिलबाब के ये मानी हैं तो
ये क्योंकर समझा जा सकता है कि जिलबाब पहनने से मुराद चेहरे को ढक लेने के होते हैं? चाहे लफ्ज़ जिलबाब और पहनने के फे़अल लुगवी (डिक्शनरी के
हिसाब से) और शरई मआनी के एतबार से किसी भी तरह समझा जाये इससे मुराद सिर्फ़ यही हो
सकता है कि चादर या जिलबाब को नीचे तक पहुंचना है ना कि ऊपर तक। चुनांचे इस आयत से
किसी भी ज़ावीया से हिजाब पर इस्तिदलाल नहीं होता। क़ुरआन हकीम के अल्फाज़-ओ-आयात की तफ़सीर
लुगवी और शरई लिहाज़ ही से की जा सकती है ना कि किसी और लिहाज़ से। लुगवी मानी साफ हैं
कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरतों को हुक्म दिया है कि वो अपने जिलबाब अपने ऊपर डालें जो उन
के लिबास ढकते हुए नीचे तक पहुंचें और उन के क़दमों को छुपा लें। जिलबाब के यही मानी
हदीस में वारिद हुए हैं , तिरमिज़ी में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي
الله عنه) से नक़ल है कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))من جرَّثوبہ خیلاء لم ینظر
اللّٰہ إلیہ یوم القیامۃ، فقالت ام سلمۃ:فکیف یصنع النساء بذیولھنَّ،قال:یرخین
شبراً قالت:إذن یبکشف أقدامھن، قال:فیرخینہ ذراعاً لا یزدب علیہ((
अल्लाह (سبحانه
وتعال) क़यामत के दिन उस शख़्स की तरफ नज़रे करम भी नहीं फ़रमाएगा
जिसने अपना लिबास तकब्बुर में पीछे तक लटकाया। हज़रत उम्मे सलमा (رضي
الله عنها) ने पूछा कि औरतें अपने हाशिये का क्या करें? फ़रमाया वो अपने लिबास के हाशिये को एक बालिशत तक बढ़ा लें।
हज़रत उम्मे सलमा (رضي الله
عنها) ने पूछा कि इस तरह तो उन के क़दम नज़र आयेंगे। फ़रमाया: कि
फिर वो उसे एक हाथ के बराबर बढ़ा लें लेकिन इस से ज़्यादा नहीं
ये बेहस उन आयात के हवाला से थी जो लोग ये मौक़िफ़ रखते हैं कि
चेहरे के लिए नक़ाब अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुक़र्रर फ़रमाया है और अपने मौक़िफ़ की दलील में पेश करते हैं।
फिर जिन अहादीस से नक़ाब पर इस्तिदलाल किया जाता है वो अहादीस इस मौक़िफ़ की हिमायत नहीं
करतीं। मसलन मज़कूरा अहादीस में वो हदीस जिस में उन गुलामों के बारे में हुक्म है जिन
के पास अपनी आज़ादी हासिल कर लेने के लिए माल मौजूद हो तो उन से हिजाब (पर्दा) किया
जाये, ये हदीस अज़्वाजे मुताहिरातके लिए ख़ास है और उस की ताईद एक दूसरी
हदीस से होती है जो सुनन बैहक़ी में अबी क़ुलाबा (رضي
الله عنه) से मरवी है, वो कहते हैं कि अज़्वाजे मुताहिरात गुलामों से उस वक़्त तक हिजाब
नहीं करती थीं जब तक उन के पास (उन की आज़ादी हासिल करने की रक़म से) एक दीनार भी कम
होता था। इस हदीस से ये बात साबित नहीं होती कि मुस्लिम औरत नक़ाब डाले। फिर हज़रत उम्मे
सलमा (رضي الله عنها) और हज़रत मैमूना (رضي
الله عنها) को हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) का हिजाब का हुक्म
देना भी अज़्वाजे मुताहिरात के लिए ख़ास है जिसे बिन शहाब ने नबहान मौला उम्मे सलमा से
तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और उस को हसन सहीह बताया है हदीस की इबारत यूं है :
))کنت عند رسول اللّٰہ و میمونۃ،فبینما نحن عندہ أقبل
ابن ام مکتوم فدخل علیہ وذلک بعد ما أُمِرنا بالحجاب،فقل رسول اللّٰہa احتجبا منہ،فقلت: یا رسول اللّٰہ
ألیس ھوأعمی لا یبصرنا ولا یعرفنا،فقال رسول اللّٰہ a:أفعمیاوان أنتما ألستما یبصرانہ((
मैं (हज़रत उम्मे सलमा (رضي
الله عنها)) और मेमूना (رضي
الله عنها) हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के हमराह थे कि हज़रत बिन उम्मे मकतूम (رضي
الله عنه) पहुंचे और इजाज़त चाही और अंदर दाख़िल हुए। ये वाक़िया उस
वक़्त का है जब हमें हिजाब का हुक्म हो चुका था। हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) ने हमें हुक्म दिया कि हम बिन उम्मे मकतूम (رضي
الله عنه) से पर्दा करलें, मैंने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم) ,
वो तो नाबीना हैं
ना वो हमें देख सकेंगे और ना ही पहचान पाएंगे। हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि क्या तुम दोनों भी नाबीना हो,
क्या तुम उन्हें
ना देख पाओगी!
इसी तरह हज़रत आयशा (رضي
الله عنها) से बुख़ारी शरीफ़ में मरवी है, वो कहती हैं हम हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के हमराह हालते
अहराम में थे और घुड़सवार हमारे सामने से गुज़र
रहे थे, जब कोई हमारे क़रीब पहुंचता तो हम अपना जिलबाब सर से खींच कर
चेहरे पर कर लिया करते थे और जब वो चला जाता तो हम चेहरा खोल लिया करते। ये हदीस बुख़ारी
शरीफ़ ही की इस हदीस से मुतनाकज़ (टकराती) है जो हज़रत बिन उमर (رضي
الله عنه) से मरवी है कि हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
لا
تنتقب المرأۃ المحرمۃ ولا تلبس القفازین
मुहरमा (वो औरत जो हालते अहराम में हो,
वो) चेहरे पर नक़ाब
डाले और ना दस्ताने पहने।
हाफ़िज़ बिन हजर असकलानी (رضي
الله عنه) अपनी तसनीफ़ (रचना) फ़तह अलबारी में लिखते हैं कि नक़ाब
वो ओढ़नी है जो सर से खींच कर कानों और आँखों के नीचे तक आती है। लिहाज़ा हदीसे
आयशा (رضي الله عنها) में कहा गया है जब घुड़सवार उन के पास से गुज़रते तो औरतें एहराम की
हालत में अपने चेहरों को छुपा लेती थीं। जबकि हज़रत बिन उमर (رضي
الله عنه) से मरवी हदीस से नक़ाब की मुमानअत का इशारा मिलता है और
नक़ाब वो होता है जो चेहरे का अस्फ़ल निस्फ़ (आधा निचला हिस्सा) ढांक ले। अब क्योंकर
ये दोनों चीज़ें हम आहंग हो सकती हैं कि पूरा चेहरे पर जिलबाब ढांक लिया जाये। अब दोनों
अहादीस से रुजू किया जाये तो मालूम होता है कि हदीसे आयशा (رضي
الله عنها) में इल्लत है क्योंकि ये हदीस मुजाहिद (رحمت
اللہ علیہ) से मरवी है। याहया बिन सईद अलक़ितान, याहया बिन मुईन और अबु हातिम अलराज़ी कहते हैं कि मुजाहिद ने
ये हदीस सीधे तौर पर हज़रत आयशा (رضي
الله عنها) से नहीं सुनी। बहरहाल अगर इस का इमकान भी है कि ऐसा हुआ
हो जैसा कि अली बिन अलमदीनी कहते हैं कि मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि मुजाहिद
कुछ सहाबा से मिले थे लिहाज़ा मुम्किन है कि उन्होंने हज़रत आयशा (رضي
الله عنها) से सुनी हो। या बुख़ारी की एक रिवायत से इशारा मिलता है
कि मुजाहिद ने सीधे तौर से सुनी हो, अलबत्ता सुनन अबी दाऊद में घुड़सवारों वाली हदीस के बाद उन्होंने
इस मौज़ू पर खामोशी इख्तियार की है और ये बात मालूम है कि अबु दाऊद अगर किसी हदीस को
नक़ल करने के बाद खामोशी इख्तियार करते हैं तो वो हदीस मोतबर है और इस पर हुज्जत है
जब तक कि कोई और सही हदीस इस से टकराती ना हो,
ऐसी सूरत में ये हदीस तर्क हो जाती है। अब यहाँ सूरते हाल ये
है कि हज़रत बिन उमर (رضي الله عنه) वाली हदीस सही है और बुख़ारी (رحمت
اللہ علیہ) ने रिवायत की है और ये हदीस हज़रत आयशा (رضي الله
عنها) वाली हदीस से हर सूरत में सही तर है,
लिहाज़ा हदीसे आयशा (رضي
الله عنها) सही हदीस से मुतआरिज़ (एक दूसरे के बरखिलाफ) होने के कारण रद्द होगी और इस से इस्तिदलाल नहीं किया जाएगा।
इस के अलावा ऊपर लिखी अहादीस में हज़रत फ़ज़ल बिन अब्बास (رضي
الله عنه) की जो हदीस गुज़री इस से भी नक़ाब के फ़र्ज़ होने की दलील
नहीं आती बल्कि नक़ाब का वाजिब नहीं होना ही साबित होता है, क्योंकि इस हदीस में जो बनी ख़सामा की औरत हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से दरयाफ़त कर
रही थीं और उन का चेहरा खुला हुआ था जिस की दलील ये है कि हज़रत फ़ज़ल बिन अब्बास (رضي
الله عنه) ने उन की तरफ देखा और दूसरी दलील ये कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने हज़रत फ़ज़ल
बिन अब्बास (رضي الله عنه) का रुख़ दूसरी तरफ फेर दिया। इस वाक़िये को हज़रत अली बिन अबी तालिब
(رضي الله عنه) ने रिवायत किया है और इस में ये इज़ाफ़ा किया है कि फिर हज़रत फ़ज़ल
बिन अब्बास (رضي الله عنه) ने हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से कहा कि ऐ अल्लाह
के रसूल! आप ने अपने चचाज़ाद भाई की गर्दन क्यों फेर दी?
हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि मैंने
एक नौजवान लड़के और नौजवान लड़की को ऐसे देखा कि डर हुआ कि शैतान उन्हें चैन से ना रहने
देगा। लिहाज़ा आप (صلى
الله عليه وسلم) ने उन की गर्दन
मोड़ दी क्योंकि वो शहवत से देख रहे थे ना कि सिर्फ देख रहे थे । और शहवत की नज़र चाहे
वो हाथों और चेहरे ही पर पड़े , हराम है। अचानक या बे इरादा नज़र ((نظر الفجاء ۃ वाली हदीस में आप (صلى
الله عليه وسلم) ने हज़रत जरीर बिन अब्दुल्लाह (رضي
الله عنه) से कहा कि वो अपनी नज़र फेर लें यानी झुका लें जैसा कि क़ुरआन
मजीद में आया है:
قُل
لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ
और मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें नीची रखें (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर:30)
यहाँ बे इरादा नज़र से मुराद हाथ और चेहरे के सतर के हिस्सों
पर निगाह पड़ना है ना कि चेहरे या हाथों पर निगाह का पड़ना। क्योंकि चेहरे और हाथों
पर बे इरादा नज़र के अलावा भी जायज़ है जैसा कि पिछली हदीस-ए-ख़सअमा से वाज़ेह हुआ है।
मज़ीद ये बैअत के वक़्त और उन्हें तालीम देते वक़्त आँहज़रत (صلى
الله عليه وسلم) ने भी औरतों को
देखा है। इन तमाम से वाज़िह हुआ कि पकड़ उस नज़र पर है जो बे इरादा चेहरे और हाथ के अलावा
पड़ी हो। मज़ीद ये कि हज़रत अली (رضي الله عنه) वाली हदीस जिस में कहा गया है कि एक नज़र पड़ जाने पर दूसरी निगाह ना
डालो, इसमें भी मनाही इस बात की है कि दुबारा या बार-बार नज़र डाली
जाये, ना की मनाही इस बात की है कि बे इरादा निगाह पड़ जाये।
अल ग़र्ज़ ऐसी कोई हदीस नहीं है जिस से नक़ाब के फ़र्ज़ होने पर
इस्तिदलाल (दलील के तौर पर पेश) किया जा सके,
और इस तरह वाज़िह हो जाता है कि मुस्लिम औरत के लिए नक़ाब के
फ़र्ज़ होने की कोई दलील नहीं या ये कि चेहरा और हाथ सतर का हिस्सा हैं चाहे हालते नमाज़
में या इस के अलावा। फिर जिन अहादीस से इस्तिदलाल किया जाता है उन से ऐसा इस्तिदलाल
साबित नहीं होता।
औरत के हाथ और
उसके चेहरे का उस की सतर ना होने औरउन्हें खुला रख कर बाज़ार या सड़क पर निकलने की दलील
का जहां तक ताल्लुक़ है , तो ये चीज़ क़ुरआन और हदीसे नबवी से साबित है,अल्लाह (سبحانه وتعال)फ़रमाता है:
وَلَا
يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ
وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِہِنَّۖ
और ज़ाहिर ना करें अपना बनाव सिंगार मगर जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाये,
और ओढ़े रखें अपनी
ओढ़नियों को अपने सीनों पर (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर:31)
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरतों को अपनी ज़ीनत के दिखावे की मुमानअत (मनाही) फ़रमाई है यानी
ऐसी जगह जहां ज़ीनत ज़ाहिर हो उसे छिपाने का हुक्म है। इस हुक्म से इस चीज़ को मुस्तसना
(प्रथक) रखा है जबकि ज़ाहिर ही होती हो। हुक्म का ये इस्तिस्ना (Exception)
सरिह है । इस के मानी ये हुए कि औरत के बदन का कुछ हिस्सा है
जिस का ज़ाहिर होना या खुला रहना इस हुक्म में दाख़िल नहीं। अब इस के बाद किसी और कलाम
की या इस में किसी क़िस्म के ताईल की गुंजाइश कहाँ रही जबकि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने औरत को अपने जिस्म की ज़ीनत के दिखावे को वर्जित क़रार
दिया और कुछ हिस्से को इस हुक्म से अलग रखा। अब रही बात उन हिस्सों की जिन को ये कह
कर अलग रखा गया कि यानी सिवाए इस के जो ज़ाहिर है। इस प्रथकता की सही समझ या उस की तफ़सीर
के लिए दो बात क़ाबिले लिहाज़ होंगी: पहली तो ये कि उस की मनक़ूल तफ़सीर क्या है?
और दूसरी बात ये कि इस इस्तिस्ना से ख़ुद हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के अहदे
मुबारक में क्या मुराद ली गई और इस आयत के नुज़ूल के वक़्त मुस्लिम औरतों के बदन का क्या
हिस्सा ज़ाहिर रहा।
जहां तक तफ़सीरे मनक़ौल का सवाल है,
तो हज़रत बिन अब्बास (رضي
الله عنه) इस आयत की तफ़सीर में हाथ और चेहरे से मुराद लेते हैं। मुफ़स्सिरीन
की अक्सरीयत ने भी इसी को इख्तियार किया है चुनांचे इमाम बिन जरीर अलतबरी (رحمت
اللہ علیہ) फ़रमाते हैं: “इन तमाम आरा (राय) में सही तर क़ौल वो है
जो कहता है कि मेरे नज़दीक इस से मुराद हाथ और चेहरा है। मुफ़स्सिर ए क़ुरआन इमाम अलकरतबी
(رحمت اللہ علیہ) फ़रमाते हैं: “क्योंकि आदतन और इबादात जैसे हज और नमाज़ में हाथ और
चेहरा खुला रहता है, लिहाज़ा सही यही है कि ये इस्तिस्ना इन ही से मंसूब हो।
“इमाम ज़मख़शरी (رحمت اللہ
علیہ) फ़रमाते हैं: “क्योंकि औरत के लिए नागुज़ीर (लाज़मी) है कि
वो अपने काम काज के लिए हाथ खुले रखे और अपना चेहरा ख़ासकर उस वक़्त खुला रखे जब वो गवाही
दे, निकाह हो या उसे रास्ते पर चलना हो और उसके क़दम खुले रहें। ये बात खासतौर से
उनके लिए ज़रूरी है जो तंगदस्त हों, और इस आयत के इस्तिस्ना से यही मुराद है।
अब रहा दूसरा पहलू कि आयते मुबारका (إِلَّا مَا ظَہَرَ مِنْہَا) से इस के नुज़ूल के वक़्त क्या मुराद ली जाती थी, तो ये बात रोशन है कि इस से मुराद हाथ और चेहरा ही था। उस वक़्त
औरतों आँहज़रत (صلى
الله عليه وسلم) के सामने अपने
हाथ और अपना चेहरा खुला रखती थीं और आप (صلى
الله عليه وسلم) ने इस फे़अल पर
कभी एतराज़ नहीं फ़रमाया। बाज़ारों और सड़कों पर औरतों के चेहरे और हाथ खुले रहते थे,
ऐसे कईं वाक़ियात हैं कुछ मिसालें यूं हैं:
1.
मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह (رضي
الله عنه) से मरवी है , वो कहते हैं कि मैं
एक बार हुज़ूर अक़दस (صلى
الله عليه وسلم) के साथ ईद के
मौक़े पर था, आप (صلى
الله عليه وسلم) ने बगै़र अज़ान
या इक़ामत के नमाज़ पढ़ाई फिर हज़रत बिलाल (رضي
الله عنه) पर टेक लगा कर खड़े हुए और ख़ुत्बे में लोगों को अल्लाह (سبحانه
وتعال) से डरने और उस की इताअत करने की ताकीद फ़रमाई, लोगों को नसीहत की फिर औरतों की तरफ पहुंचे और समझाया कि तुम
ख़ैरात करो तुम में से अक्सर जहन्नुम का ईंधन हो,
सौ एक औरत उन के बीच से खड़ी हुईं उन के रुख़सार पिचके हुए थे,
उन्होंने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم), ऐसा क्यों, फ़रमाया कि तुम लोग शिकायत बहुत करती हो और शौहर की अच्छाईयों
की नाशुक्री करती हो। रावी कहते हैं कि औरतों ने हज़रत बिलाल (रज़ि) के फैले हुए कपड़े
पर अपने जे़वरात जिन में कानों के छल्ले और हाथों की अँगूठीयां थीं।
2.
तबरानी (رحمت اللہ
علیہ) ने मोअज्जम अल कबीर में अता बिन अबी रुबाह (رحمت
اللہ علیہ) से नक़ल किया है वो कहते हैं कि हज़रत बिन अब्बास (رضي
الله عنه) ने उन से कहा कि क्या मैं तुम्हें एक खातूने जन्नत दिखाऊँ,
मैंने अर्ज़ किया कि ज़रूर। फ़रमाया कि ये स्याह फ़ाम (काली) औरत
जो हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के पास हाज़िर
हुईं और कहा मुझे मुर्गी के दौरे पड़ते हैं जिस की वजह से में अपने कपड़े हटा कर मुनकशिफ़
(निर्वस्त्र) हो जाती हूँ। आप (صلى
الله عليه وسلم) मेरे लिए अल्लाह
से दुआ करें ,आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: अगर
तू चाहे तो सब्र करे तो तेरे लिए जन्नत है और अगर चाहे तो तेरे लिए अल्लाह से दुआ करूँ
कि अल्लाह तुझे अपनी आफ़ियत में रखे , तो उस औरत ने कहा : मैं सब्र करूंगी, फिर कहा: कि मैं मुनकशिफ़ हो जाती हूँ लिहाज़ा आप (صلى
الله عليه وسلم) अल्लाह से दुआ
कीजिए कि मेरे साथ ऐसा ना हो, चुनांचे आप (صلى
الله عليه وسلم م) ने उसके लिए दुआ फ़रमाई।
3.
जिस चीज़ से ये बात वाज़िह हो जाती कि हाथ औरत की सतर नहीं, वो हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) का औरतों से मुसाफ़ा
करना है। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत उम्मे अतिया (رضي
الله عنها) से मरवी है, वो कहती हैं कि हम ने नबी (صلى
الله عليه وسلم) से ये बैअत की
कि हम अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे। हमें नोहा-ओ-ज़ारी करने से मना फ़रमाया।
चुनांचे हमें से एक औरत ने अपना हाथ पीछे खींच लिया और अर्ज़ गुज़ार हुई कि फ़लां औरत
ने मुझे नोहा करने में मदद की थी और मैं इस का बदला उतारना चाहती हूँ,
आप (صلى
الله عليه وسلم) ने कुछ ना फ़रमाया,
वो चली गई और फिर लौट आई। ये हदीस दलील है कि औरतों हाथ से बैअत
करती थीं, क्योंकि यहाँ बताया गया कि फ़लां औरत ने जब उस की बैअत की बारी
आई तो अपना हाथ रोक लिया। ये हक़ीक़त कि जब इस औरत ने बैअत की शर्तों सुनीं तो इस ने
अपना हाथ रोक लिया वाज़िह कर देती है कि बैअत हाथ पर हुई थी और हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) औरतों के हाथ पर
अपने दस्ते मुबारक से बैअत लेते थे। अब रही बात इस मुत्तफ़िक़ अलैह हदीस की जो हज़रत
आयशा (رضي الله عنه) रिवायत करती हैं कि नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) औरतों से बैअत
लेते वक़्त अपना हाथ उन के हाथ से लम्स (touch) नहीं फ़रमाते थे
सिवाए अपनी बीवीयों के हाथ के, तो ये हज़रत आयशा (رضي
الله عنه) की राय थी जो उन के अनुभव पर आधारित थी और उन की मालूमात की
हद तक थी, लिहाज़ा इन दोनों अहादीस के अध्ययन पर हज़रत उम्मे अतिया (رضي
الله عنها) की रिवायत की गई हदीस ग़ालिब होगी। इस का कारण ये है कि
इस हदीस में जो फे़अल (काम) रिवायत किया गया है वो नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) की मौजूदगी में
हुआ जो उन के फे़अल पर दलील और मज़कूरा हदीस पर ग़ालिब है।
इन तीनों वाक़ियात से साबित हो जाता है कि कि औरतों के जिस्म
के जो हिस्से खुले रहते थे वो उन के हाथ और चेहरे थे,
यानी यही मज़कूरा आयत के इस्तिस्ना थे और इस से ये भी स्पष्ट
हुआ कि हाथ और चेहरा औरत की सतर में शामिल नहीं हैं,
ना हालते नमाज़ में और ना इस के बाहर, क्योंकि ये आयत आम है:
وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ
إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَا
और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर ना करें सिवाए उसके जो ज़ाहिर है (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर:31)
इस आयत का अगला हिस्सा भी दलालत करता है कि औरत के हाथ और उसका
चेहरा औरत की सतर का हिस्सा नहीं:
وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ
جُيُوبِہِنَّۖ
और ओढ़े रखें अपनी ओढ़नयां अपने सीनों पर (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर:31)
ख़िमर बहुवचन है ख़िमार की ये वो कपड़ा है जिस से सर ढाँका जाये।
जुयूब बहुवचन है जेब की जो वो कपड़ा है जो सीने पर डाला जाये। लिहाज़ा अल्लाह (سبحانه
وتعال) का हुक्म हुआ कि ख़िमार को गर्दन और सीने पर ओढ़ा जाये और
ये हुक्म इशारा करता है कि इन दोनों को ढाँका जाये,
लेकिन यहाँ हुक्म ये नहीं है कि चेहरे को ढाँका जाये जो इस बात
पर दलील हुआ कि चेहरा सतर का हिस्सा नहीं। जैसा कुछ लोग गुमान करते हैं,
जेब दरहक़ीक़त सीना नहीं है बल्कि जेब से मुराद सीने का ऊपरी हिस्सा
है जिस में गर्दन के अतराफ़ का हिस्सा शामिल है। ख़िमार पहनने से मुराद उसे अपनी कुरते
या क़मीस के ऊपर पहनना जिस से सीना और गर्दन ढँक जाये। चुनांचे सर ढाँकने के हुक्म में
गर्दन और सीना शामिल है लेकिन चेहरा शामिल नहीं है,
वाज़िह हुआ कि चेहरा सतर का हिस्सा नहीं। लिहाज़ा नक़ाब साबित
नहीं और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उसे फ़र्ज़ नहीं फ़रमाया।
यहाँ तक इस सिलसिले में क़ुरआनी दलायल हुए,
इस के अलावा अहादीस से भी साबित होता है कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने नक़ाब को फ़र्ज़ नहीं फ़रमाया है नीज़ हाथ और चेहरा औरत
की सतर का हिस्सा नहीं हैं। सुनन अबु दाऊद में कतादह (رحمت
اللہ علیہ) से रिवायत नक़ल है कि हुज़ूर नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
إن الجاریۃ إذا حاضت لم یصلح أن
یُری منھا إلا وجھھا ویداھا إلی المفصل
जब कोई दोशीज़ा को हैज़ आने की उम्र हो जाये, तो उसका जिस्म चेहरे और हाथों के सिवा दिखना सही नहीं है
इस हदीस से हाथों और चेहरे का सतर में शामिल ना होना साफ
तौर पर साबित हो जाता है कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने हाथ और चेहरे को ढाँकने का हुक्म और नक़ाब का हुक्म नहीं
दिया।
इस तरह किताबुल्लाह और सुन्नते नबवी (صلى
الله عليه وسلم) के दलायल से वाज़िह तौर पर दलालत करते हैं कि मुस्लिम औरत
अपना चेहरा और हाथ खुले रख कर बाज़ार जा सकती हैं और ग़ैर मर्दों से बातचीत कर सकती है
और ख़रीद और फरोख़्त ,किराएदारी, नुमाइंदगी वग़ैरा जैसे अपने तमाम जायज़ मुआमलात की पैरवी कर
सकती है। इन से साबित हो जाता है कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने नक़ाब को सिर्फ़ अज़्वाजे मुताहिरात के लिए फ़र्ज़ फ़रमाया
है। गो कि नक़ाब के फ़र्ज़ होने की राय शुबह दलील होने के कारण बहरहाल इस्लामी राय है
और फ़िक़ही मसलकों के कुछ अइम्मा ने इसे अपनाया भी है, हालांकि इस के क़ाइल दलील के जिस शक और शुबाह पर निर्भरता किए
हुए इस से इस्तिदलाल का एतबार बस नाम भर है और नाक़ाबिले लिहाज़ है।
अब ये मसला बाक़ी रहा जो कुछ मुज्तहिदीन कहते हैं कि औरतों के
लिए नक़ाब की फ़र्ज़ीयत फ़ित्ने के ख़ौफ़ से है, इन का मौक़िफ़ ये है कि औरतों के लिए मर्दों के बीच नक़ाब हटाने की मनाही इस वजह से नहीं है कि चेहरा
सतर का हिस्सा है बल्कि इसलिए कि नक़ाब उठाने से फ़ित्ने का ख़ौफ़ है। ये क़ौल विभिन्न
कारणों से बातिल है।
सब से पहले तो ये कि फ़ित्ने के ख़ौफ़ से नक़ाब के ना हटाने के लिए
कोई शरई नुसूस ना किताबुल्लाह में और ना ही सुन्नते नबवी (صلى
الله عليه وسلم) में वारिद हुए,
और ना ही सहाबाऐ किराम (رضی
اللہ عنھم) के इजमा में इस का ज़िक्र है और ना ही कोई ऐसी शरई इल्लत
(वजह) वारिद हुई है जिस से ये क़ियास हक़ समझा जा सके। लिहाज़ा इस मौक़िफ़ की कोई शरई
हैसियत नहीं और यूं ये शरई हुक्म तस्लीम नहीं किया जा सकता, क्योंकि शरई हुक्म तो शारे का बंदों से ख़िताब है और फ़ित्ने
के ख़ौफ़ से चेहरे को खुला रखने की मुमानअत शारे के ख़िताब में कहीं वारिद नहीं हुई है।
ये भी मालूम हुआ कि शरई दलायल जो इस बाब में वारिद हुए हैं वो सब चेहरे के ढाँकने की
फ़र्ज़ीयत से मुतआरिज़ (एक दूसरे के विपरीत) हैं, और आयत और अहादीस में चेहरे और हाथों का खुला रखना बिल्कुल
जायज़ रखा है, इस इबाहत को नहभी हालत में खास नहीं किया गया। लिहाज़ा चेहरे
के खुला रखने को हराम कहना दरहक़ीक़त उस चीज़ को हराम करना है जिसे अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने हलाल रखा है और चेहरे के छुपाए जाने को फ़र्ज़ कहना फ़िल
हक़ीक़त उस चीज़ को फ़र्ज़ क़रार देना है जिसे अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने फ़र्ज़ नहीं फ़रमाया। बाएं सबब ये मौक़िफ़ बहैसीयत हुक्मे
शरई क़ाबिले ऐतबार नहीं हो सकता क्योंकि इस से वो शरई अहकाम बातिल हो जाते हैं जो सरिह
नुसूस से साबित शूदा हैं।
दूसरा सबब: अगर फ़ित्ने के ख़ौफ़ को चेहरा खुला रखने की तहरीम
(हराम होने की वजह) और उस को छिपाने की फ़र्ज़ीयत के लिए इल्लत (वजह) बनाया जाये तो इस
के लिए कोई शरई नस ना तो सराहतन वारिद हुई है ना दलालतन,
ना इस्तबनातन और ना ही क़ियासन वारिद हुई है, लिहाज़ा ऐसी इल्लत किसी भी एतबार से शरई इल्लत नहीं होगी बल्कि
ये सिर्फ एक अक़्ली इल्लत होगी जिस का शरई अहकाम में कोई लिहाज़ नहीं हो सकता, एतबार तो सिर्फ़ शरई इल्लत ही का हो सकता है। क्योंकि फ़ित्ने
के ख़ौफ़ को चेहरा खुला रखने की तहरीम और छुपाने की फ़र्ज़ीयत क्योंकि शरह में वारिद नहीं
हुई है इसलिए उस की कोई शरई हैसियत नहीं।
तीसरा सबब: उस क़ाअदे का जिस की रू से हर वो चीज़ जो किसी हराम
का बाइस बनती हो, ख़ुद हराम हो जाती है चेहरा खुला रखने के फ़ित्ने के ख़ौफ़ के
सबब हराम होने वाले इस मुआमले पर इतलाक़ नहीं होता। इस का सबब ये है कि इस क़ाअदे के
इतलाक़ के लिए दो शर्तों मतलूब होती हैं। पहली शर्त ये कि वसीले के हराम तक पहुंचने
का अंदेशा हो और दूसरी ये कि वसीले के नताइज हराम होने के लिए शरई नस मौजूद हो ना कि
अक़लन हराम हो। ये दोनों बातें फ़ित्ने के ख़ौफ़ से चेहरे के खुले रहने के हराम होने वाले
इस मुआमले में मफ़क़ूद हैं। लिहाज़ा इस क़ाअदे का यहाँ इंतिबाक़ नहीं हो सकता क्योंकि
जैसा कि उन लोगों का मौक़िफ़ है कि चेहरा खुला रखने से फ़ित्ने का अंदेशा है और इमकान
है ना कि यक़ीनी फ़ित्ना है, और ये सूरते हाल भी उस वक़्त है जब ये फ़र्ज़ कर लिया जाये कि
फ़ित्ना इस के लिए हराम है जो इस का शिकार हो क्योंकि यहाँ सिर्फ़ फ़ित्ने के इमकान की
बात है यक़ीनी नहीं। मज़ीद ये कि शरअन ऐसी को नस मौजूद नहीं जिस के तहत फ़ित्ने का इमकान
ही हराम क़रार दे दिया जाये। इस के बरख़िलाफ़ शरीयत ने फ़ित्ने के सबब को हराम क़रार नहीं
दिया है बल्कि देखने वाले की नज़र को हराम क़रार दिया है ना कि उस को जिसे देखा जा रहा
हो। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي
الله عنه) से मरवी है कि हज़रत फ़ज़ल बिन अब्बास (رضي
الله عنه) हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के हमरकाब
(सहयात्री) थे कि बनी ख़िसाम की एक औरत हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के पास आईं।
फ़ज़ल (رضي الله عنه) उन की तरफ़ देखने लगे और वो फ़ज़ल (رضي
الله عنه) की तरफ देखने लगीं तो हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़ज़ल (رضي
الله عنه) की गर्दन का रुख़ दूसरी तरफ फेर दिया। इस वाक़िये को हज़रत
अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) ने रिवायत किया है और इस में ये इज़ाफ़ा किया है कि फिर हज़रत फ़ज़ल
बिन अब्बास (رضي الله عنه) ने हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से कहा कि ऐ अल्लाह
के रसूल (صلى الله عليه وسلم) आप ने अपने चचाज़ाद भाई की गर्दन क्यों फेर दी?
हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि मैंने
एक नौजवान लड़के और नौजवान लड़की को ऐसे देखा कि डर हुआ कि शैतान उन्हें चैन से ना रहने
देगा। इस से मालूम हुआ कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने हज़रत फ़ज़ल
बिन अब्बास (رضي الله عنه) के चेहरे का रुख़ फेर दिया और बनी ख़िसाम की औरत को अपना चेहरा ढाँकने
के लिए हुक्म नहीं दिया जबकि उनका चेहरा नज़र आ रहा था। अगर फ़ित्ने का बाइस हराम होता
तो हुज़ूर अकरम(صلى
الله عليه وسلم) उस ख़िसामी औरत
को उसका चेहरा ढाँकने का हुक्म फ़रमाते जबकि आप (صلى
الله عليه وسلم) ने औरत को हुक्म
नहीं दिया बल्कि हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने हज़रत फ़ज़ल
बिन अब्बास (رضي الله عنه) के चेहरे का रुख़ फेर दिया । इस से मालूम हुआ कि हुर्मत देखने वाले
की है ना कि उस की जिस को देखा जा रहा है।
लिहाज़ा ऐसी औरत के बारे में जिस से लोगों में फ़ित्ने का अंदेशा
हो, उस को हराम कहे जाने की कोई नस नहीं है,
बल्कि इस के हराम ना होने की तहरीम मौजूद है पांचवें ये हराम
नहीं होगा। अलबत्ता एक ऐसी इस्लामी रियासत जो अमलन लागू हो उसके लिए जायज़ है कि वो
ऐसे लोगों को जिन से आम लोगों में फ़ित्ने फैलते हों उन्हें ऐसे लोगों के बीच से हटा
दें जो उनके फ़ित्ने में पड़ रहे हों । हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (رضي
الله عنه) ने नसर बिन हुज्जाज को शहर बदर (तडीपार) करके बसरा भेज
दिया था क्योंकि औरतें उन की शक्ल-ओ-वजाहत से फ़ित्ने में पड़ रही थीं। ये बात मर्द और
औरत दोनों पर सादिक़ आती है, लिहाज़ा ये नहीं कहा जा सकता कि औरतों के लिए चेहरा खुला रखना
हराम है क्योंकि इस से फ़ित्ने का इमकान है, इसलिए कि यहाँ हराम का वसीला हराम होने का क़ायदा लागू नहीं
होता।
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