खिलाफत मे कमज़ोर करने वाली अरब राष्ट्रवादी तंज़ीमों के क़ियाम में यूरोपी सिफ़ारत ख़ानों (embassies) का किरदार

अरब राष्ट्रवाद फैलाने के लिये यूरोपी मुमालिक के सिफ़ारत खाने अरबों के साथ ताल्लुक़ इस्तिवार करने में सरगर्म हो गऐ। उन्होंने (हिज्ब लामर्कज़िया) (Decentralization Party) की बुनियाद रखी और क़ाहिरा में उसका मर्कज़ बनाया जिस का सदर रफ़ीक़ अज्म था। इसी तरह बेरूत में (जमीअत उल इस्लाह) या (Reformation Committee) और (अदबी अंजुमन) या (Literary Forum) वग़ैरा भी बनाईं, इन के अलावा और भी बहुत सी तंज़ीमें बनाई गईं। फ़्रांसी और अंग्रेज़ क़ौमियत का नारा बुलंद करने वाले अरबों की सफ़ों में घुस गऐ और उन्होंने इन वतन परस्तों के लिऐ अपने मुल्कों के ख़ज़ाने खोल दिए। 18 जून1913 को अरब के नौजवानों ने फ़्रांस के ज़ेरे निगरानी पैरिस में एक कॉन्फ़्रेंस मुनअक़िद की जो अरब वतन परस्तों की जानिब से बर्तानिया और फ़्रांस के साथ झुकाओ और रियासते उस्मानिया के ख़िलाफ़ होने का पहला ऐलान था।

जब जमीअते इत्तिाहादो तरक्क़ी वालों ने ये मेहसूस किया तो उन्होंने (जमीअत तुर्क औजाग़ी) यानी तुर्की फैमिली के नाम से एक दूसरी तंज़ीम बनाई, इस का मक्सद इस्लाम को बेदख़ल और तबाह कर के उस्मानी रियासत को मेहेज़ एक तुर्की रियासत में तबदील कर देना था। अब उन्होंने मुल्हिदाना किताबों और अख़बारात निकालने की हौसला अफ्ज़ाई की, इन किताबों में से तुर्की अदीब जलाल नूरी बे की मशहूर किताब जिस का नाम (तारीखे मुस्तक्बिल) था जिस में उस ने ये कहा: (आस्ताना की हुकूमत के लिऐ ये मुनासिब होगा के वो सीरियाई बाशिंदों को अल्बानिया छोड़ने पर मजबूर करे। अरब इलाक़े ख़ासतौर पर इराक़ और यमन को तुर्की की नौ आबादियात में तबदील कर देना चाहिऐ जिस से वहाँ पर तुर्की ज़बान को फ़रोग़ दिया जा सके और जो दीन की ज़बान हो। हमें अपने वजूद के तहफ्फ़ुज़ के लिऐ लाज़िमी है के हम तमाम अरब इलाक़ों को अपनी नौ आबादियात (Colony) बना लें क्योंकी अरब की नस्ल को इस नस्ली तास्सुब का एहसास और इदराक हो चुका है और हमारे लिऐ ये एक बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है जिसकी लाज़िमी तौर पर पेशबंदी की जाना चाहिऐे)। इस तरह वतन परस्ती के रुजहान दिलों पर असर अंदाज़ हो गऐ और वफ़ादारियों का झुकाओ इस्लाम से हट कर वतन परस्ती और क़ौमियत की जानिब मुड़ गया नीज़ इस्लाम की हर उस फ़िक्र की मुज़ाहिमत होने लगी जो वतन परस्ती और क़ौमियत के लिऐ ख़तरा हो। रियासत में हुकूमत पर क़ाबिज़ लोगों के लिऐ इस्लाम पैमाना ना हो कर वतन परस्ती और क़ौमियत पैमाना बन गए, और ये असबीयत इस क़दर रच बस गई के जब वो रियासत की अरब और तुर्क रिआया के दरमियान इत्तिहाद की बात करते तो वो भी इसी वतन परस्ती की बुनियाद पर होती थी।

जब जमाल पाशा सीरिया में था तो उस ने अरब नौजवानों को फ़्रांस और बर्तानिया की हिदायत पर रियासते उस्मानिया के ख़िलाफ़ बग़ावत का मुर्तकिब होते हुए मुशाहिदा किया। जब उस ने दमिशक़ में फ़्रांस के क़ोंसल ख़ाने (Consulate) से दस्तावेज़ ज़ब्त किऐ तो इस बात का सबूत भी मुहय्या हो गया। जमाल पाशा रियासत के अवाम के दरमियान इत्तिहाद चाहता था और इसके लिऐ वो अरबों को राज़ी करने के हक़ में था, चुनांचे उस ने अरब के क़ाइदों को दमिशक़ में इज्लास में शिरकत की दावत दी और उन से ख़िताब में इत्तिहाद पर ज़ोर दिया, इस ने मिनजुमला और बातों के कहा: आप को इस बात पर ऐतेमाद होना चाहिऐे के आस्ताना वग़ैरा में जो तुर्क तंज़ीमें हैं जिन में तुर्क शामिल हैं, वो अरब जज्बात के ख़िलाफ़ नहीं हैं। यक़ीनन आप को मालूम है के कि रियासते उस्मानी ने बलग़ारिया, यूनान और आरमिनयाई तेहरीकों को सर उठाते देखा है और अब एक अरब तेहरीक वजूद में आ रही है। तुर्क अपने अलैहदा वजूद को इस क़दर फ़रामोश कर चुके थे के वो ख़ुद को तुर्क कहने से भी घबराते थे और उन में वतनियतो क़ौमियत का जज्बा इस हद तक ख़त्म हो चुका था के ख़ौफ़ हुआ के वो कहीं बिखर ही ना जाएं। यंग टर्क का जनम इसी जज्बे और मक्सद से हुआ था के इस फ़ौरी ख़तरे का सामना किया जाये, लिहाज़ा यंग टर्क के जज्बात क़ाबिले क़द्र हैं। इसी ग़रज़ से उन्होंने हथियार उठाऐ और तुर्कों में वतनियत की रूह फूंकना शुरू किया। आज में केह सकता हूँ की तुर्की जज्बात किसी भी तरह अरब जज्बात के ख़िलाफ़ नहीं क्योंकी तुर्क और अरब अपने वतनी जज्बे में भाई भाई हैं। मुख्तसर तौर पर यंग टर्क तेहरीक और जमीअते इत्तिाहादो तरक्क़ी के जज्बातो एहसासात ये हैं के तमाम आलम में तुर्कों की क़दर आवरी हो और बीसवीं सदी वो तमाम अक्वाम के हमराह आबाद रहें।

इन अलफ़ाज़ के साथ जमाल पाशा ने मुसलमानों की वहदत को ख़िलाफ़त इस्लामिया के पर्चम तले जमा करने की कोशिश की ताकी अरबों को उन सरगर्मीयों से बाज़ रखे जो के वो तुर्कों से अलैहदा होने के लिऐ बर्तानवी और फ्रांसी कुफ्फ़ार के साथ गठजोड़ और उनकी मददो मुआविनत से अंजाम दे रहे थे।

जमाल पाशा का ग़द्दारों को फांसी दिलाए जाने को दुरुस्त कहना सही है जो के ख़िलाफ़त की मुख़ालिफ़त में फ़्रांस और बर्तानिया के लिऐ काम करते थे, इस लिऐ के ऐसे लोग जो बर्तानवी और फ्रांसीयों का साथ दे कर ख़िलाफ़त को मिटा देना चाहते थे, वो या तो ख़ुद कुफ्फ़ार थे या मौजूदा दौर में इस्लाम को मौज़ूं ना मानने से मुर्तद हो चुके थे। गो के जमाल पाशा ख़ुद भी भी वतनियत के जज्बे से सरशार था और इसी के लिऐ काम कर रहा था, ताहम वो इस में भी हक़ बजानिब था के उस ने हर उस शख्स पर वार किया जो रियासते ख़िलाफ़त की मुख़ालिफ़त पर उतर आया था, इस पर मज़ीद ये के एैसे ग़द्दार कुफ्फ़ार के साथ मिले हुए थे और उन ही की क़ियादत में सरगर्मे अमल थे। अलबत्ता जमाल पाशा और जमीअते  इत्तिाहादो तरक्क़ी वतन परस्त थे और क़ौमी जज्बे के तहत काम कर रहे थे, लिहाज़ा वो ख़ुद भी सज़ा के मुस्तहिक़ हुऐ। ये निहायत दिल आवेज़ तक़रीर बहरहाल ग़लत थी और वतन परस्ती की बुनियाद पर इलाक़ों की रियासत से अलैहदगी से निमटने ये तरीक़ा नहीं हो सकता। उस के इस ख़िताब में वतन परस्ती का फ़ासिद नज़रिया हावी था जो इस्लाम को फ़रामोश करता है और दुनिया के अफ्राद को इस वतन परस्ती की बुनियाद पर इकट्ठा करता है, जब्के इस्लाम अपने अक़ीदे और मब्दा की बुनियाद पर ख़िलाफ़त क़ायम करता है।


जमाल पाशा के लिऐ मुनासिब ये था के वो एक हतमी और क़तई बात करता जो क़ौले फ़ैसल होती और जिस के सिवा और कुछ केहना बहरहाल हराम था, और वो ये के हम सब की मुकम्मल वफ़ादारी और वफ़ा शुआरी इस्लाम ही के लिऐ होना चाहिऐे, और यही अक़ीदा हमारे हर अमल के लिऐ मैयारो पैमाना होना चाहिऐ। लेकिन उस ने ये कहने के बजाय अरब मुसलमानों से कहा के अरब और तुर्क जज्बात एक दूसरे की ज़िद या इसके मुख़ालिफ़ नहीं हैं, नीज़ उस ने कहा के अरब और तुर्क अपने वतनी जज्बे में भाई हैं। फिर उस ने जमीअते  इत्तिाहादो तरक्क़ी के हवाले से कहा के इस का मक्सद तुर्कों का तमाम आलम में वक़ार बहाल करना है ताके तुर्क तमाम अक्वाम के शाना ब शाना बीसवीं सदी में आबाद रह सकें, यानी बर्तानिया, फ़्रांस, इटली, यूनान, ब अलफ़ाज़े दीगर कुफ्फ़ार अंग्रेज़, फ़्रांसीयों, तालवियों और यूनान के साथ यानी काफ़िरों के साथ।
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