सवाल : एक सवाल बार-बार
पूछा जाता है कि ताक़त व कुव्वत किसके हाथों में होती है और हम उसे कैसे हासिल कर सकते
हैं?
जवाब : जहां तक सवाल
के पहले हिस्से का ताल्लुक़ है तो इसका एक फिक्स जवाब नहीं दिया जा सकता। इसका जवाब
मुख़्तलिफ़ रियासतों के लिए मुख़्तलिफ़ है। मसलन अमरीका में ताक़त अवाम और सरमायादारों
के हाथों में होती है,
जो रियासत को कंट्रोल करते हैं। इराक़ में ये सिर्फ़ वज़ीरे आज़म
के पास ही नहीं बल्कि फ़ौज के हाथों में भी है। सऊदी अरब में ताक़त व क़ुव्वत सऊद ख़ानदान
और शाह फ़ैसल के ख़ानदान के हाथों में है। तुर्की में ये हुक्मरान जमात, सदर और वज़ीरे आज़म के हाथ में है। कुवैत में ये सरदारों और हुक्मरानों
के हाथों में है। चुनांचे हर केस दूसरे से मुख़्तलिफ़ है। ताहम, ताक़त अपने वजूद के लिए किसी ना किसी हक़ीक़ी सहारे (support) पर निर्भर कर रही होती है। अगर उस सहारे का ख़ात्मा हो जाए
तो जिनके पास ताक़त है उन्हें इक्तिदार (सत्ता) से हाथ धोना पड़ेगा।
दरहक़ीक़त, किसी भी क़ौम में ताक़त का दारोमदार अवाम पर होना चाहिए या उन
लोगों पर जो अवाम में असर व रसूख़ रखते हैं। लिहाज़ा ताक़त की प्राप्ति अवाम की हिमायत
को जीत कर या अवाम के सबसे मज़बूत हिस्से या गिरोह की हिमायत हासिल करके होना चाहिए।
यूं ये ताक़त को हासिल कर लेने का फ़ित्री तरीक़ा होगा। ताहम बहुत से ऐसे मुमालिक, जो विदेशी ताक़तों के अधीन हैं, इनमें ताक़त का दारोमदार लोगों पर नहीं होता, यानी इन मुमालिक में ताक़त अवाम के हाथों में नहीं होती है। इस
तरह के केस में क़ुव्वत व इक्तिदार अवाम के उस गिरोह को जीत कर हासिल किया जा सकता
है,
जो ताक़त के हामिल हों। ये किसी दूसरी क़ुव्वत के ज़रीये से भी
हासिल किया जा सकता है जो पहली क़ुव्वत से ज़्यादा मज़बूत हो, या ये इक्तिदार किसी बाहरी ताक़त के असर व रसूख़ के ज़रीये भी
हासिल किया जा सकता है। ताहम अगर ताक़त अवाम या इसके बाअसर गिरोह को जीते बगै़र हासिल
की जाये यानी उसे किसी बाहरी ताक़त के बलबूते पर हासिल किया जाये तो इस तरह से हासिल
किया जाने वाला इक्तिदार (सत्ता) एक आज़ाद और स्वयत्तशाषी सत्ता सत्ता नहीं होगी
और उसकी हक़ीक़त बिल्कुल ऐसे ही होगी जैसा कि एक नौकरी या ओहदा सँभालना। जबकि अगर ताक़त
अवाम या इसके ताक़तवर हिस्से (strongest segment) को जीत कर हासिल की जाये तब हासिल होने वाला ये इक्तिदार (सत्ता) एक ख़ुदमुख्तार
इक्तिदार (सत्ता) होगा। इसलिए हमें चाहिए कि हम इस बाहरी असरोरसूख़ (प्रभाव) को ख़त्म
करने की फ़ौरी कोशिश करें,
ताकि क़ुव्वत व इक्तिदार (ताक़त और सत्ता) ख़ुदमुख्तार हो
जाए। चुनांचे आज़ाद व ख़ुदमुख्तार ताक़त अवाम या इसके ताक़तवर गिरोह के बगै़र हासिल
नहीं की जाती और उसे सत्ता नहीं गिना जाता जब तक कि वो आज़ाद ना हो। वर्ना वो महिज़
एक नौकरी या ओहदा बनकर रह जाती है।
जहां तक
सवाल के दूसरे हिस्से का ताल्लुक़ है तो अगर हम पहले हिस्से को समझ चुके हैं, तो हमें दूसरे हिस्से का जवाब भी मिल जाएगा। पस अगर हम पर ये
वाज़ेह हो गया कि ताक़त क्या है और इसका दारोमदार किस पर है और कौन उसे सहारा दिए हुए
है चाहे ये सहारा फ़ित्री हो या ग़ैर फ़ित्री; यानी अगर ये इस मुआशरे की हक़ीक़त की बिना पर वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाये, ना कि महिज़ फ़र्ज़ी तौर पर, और उसकी वज़ाहत हक़ीक़ी फ़िक्र के ज़रीये हो ना कि ख़्याली तौर पर या मफ़रुज़े की बिना
पर तो फिर कोशिश ये होनी चाहिए कि अवाम की हिमायत जीतने के लिए उन पर हुक्मरानी करने
वाली ताक़त को अक़्लमंदी के साथ निशाना बनाया जाये। निशाना बनाने के इस अमल में अवाम
को ज़रीए के तौर पर इस्तिमाल किया जाये ताकि अवाम ताक़त के हुसूल का ज़रीया बनें।
हमें अवाम
को निशाने का हदफ़ नहीं बनाना चाहिए बल्कि उन माख़ज़ (स्त्रोत) को निशाना बनाना चाहिए
जहां ताक़त मौजूद होती है। इस तरह से ताक़त का हुसूल (प्राप्ति) फ़ित्री तरीक़े के मुताबिक़
होगा चाहे वो ताक़त फ़ित्री सहारे पर खड़ी हो या ये ग़ैर फ़ित्री सहारे पर क़ायम हो। ताहम
अगर इसकी निर्भरता ग़ैर फ़ित्री मदद व हिमायत पर हो यानी इसका दारोमदार बैरूनी असरोरसूख़
पर हो तो तब इस बाहरी असरोरसूख़ को निशाना बनाना चाहिए। यूं जद्दोजहद लोगों और मुक़तदिर
क़ुव्वत (ताक़तवर समूहों) के दरमियान होती है या लोगों और उनके दरमियान जो ताक़त के
हामिल हों। अगर इस तरह की जद्दोजहद जारी रखी जाये तो लोगों को इस काबिल होना चाहिए
कि वो ताक़त को हासिल कर लें और उन्हें उसे उन लोगों के सपुर्द कर दें जिन पर उन्हें
एतिमाद हो,
इस बात से क़ता नज़र कि फ़िलवक़्त मुक़तदिर गिरोह की क़ुव्वत क्या
है।
एक शख़्स
को इस हक़ीक़त से आगाह होना चाहिए कि समाज को नऐ सिरे से कायम करने के लिए ताक़त का हुसूल
नामुमकिन है,
जब तक कि ये कोशिश एक गिरोह की शक्ल में ना हो और इस कोशिश का
मक़सद उम्मत के तर्ज़-ए-फ़िक्र और एहसासात को बदलना हो। ये लोगों से उस चीज़ का मुतालिबा
करती है कि मुआशरे (समाज) की अज़सर-ए-नौ तामीर (नवनिर्माण) के लिए वो इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत)
जज़बात और तमन्नाओं से बरी होकर काम करें। उनके जज़बात और ख्वाहिशात का रुख़ इज्तिमाई
(सामूहिक) कोशिश की तरफ़ होना चाहिए। इन्फ़िरादी कोशिश ताक़त को हासिल कर सकती है लेकिन
कभी भी मुआशरे की अज़सर-ए-नौ तामीर नहीं कर सकती। इसके लिए एक गिरोह की कोशिश दरकार
होती है ना कि इन्फ़िरादी कोशिश। इस काम का मक़सद लोगों की फ़िक्र और जज़बात को पस्ती से
बुलंदी की तरफ़ ले जाकर उनके दरमियान ताल्लुक़ात को बदलना है। इसलिए मुआशरे को अज़सर-ए-नौ
तामीर करने के लिए ताक़त के हुसूल का तरीक़ा ताक़त की इस्लाह करने या सिर्फ हुक्मरानी
करने से कहीं ज़्यादा मुश्किल है। लिहाज़ा इसके लिए ज़्यादा जद्दोजहद और ज़्यादा वक़्त
की ज़रूरत होती है।
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