अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّاسُ إِنَّا خَلَقۡنَـٰكُم مِّن ذَكَرٍ۬ وَأُنثَىٰ
وَجَعَلۡنَـٰكُمۡ شُعُوبً۬ا وَقَبَآٮِٕلَ لِتَعَارَفُوٓاْۚ
ऐ इन्सानों! हक़ीक़त ये है कि हमने तुम को एक मर्द और एक औरत से
पैदा किया है फिर हमने कौमें और क़बीले बनाए ताकि तुम एक दूसरे से पहचाने जाओ। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल हुजरात 13)
और फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلۡإِنسَـٰنُ مَا غَرَّكَ بِرَبِّكَ ٱلۡڪَرِيمِ
ऐ इंसान! आख़िर किस चीज़ ने तुझ को तेरे रब के बारे में धोका
दिया है, जो बहुत रहम करने वाला है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल इंफितार 06)
और फ़रमाया:
قُتِلَ ٱلۡإِنسَـٰنُ مَآ أَكۡفَرَهُ ۥ ( ١٧ *) مِنۡ
أَىِّ شَىۡءٍ خَلَقَهُ ۥ ( ١٨* ) مِن
نُّطۡفَةٍ خَلَقَهُ ۥ فَقَدَّرَهُ ۥ
हलाक हो इंसान,
किस क़दर नाशुकरा
है वो। अल्लाह ने उसे किस चीज़ से पैदा किया? अल्लाह ने उसे मनी के एक क़तरे से पैदा किया फिर उस की तक़दीर
मुक़र्रर की। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अबासा 17-19)
इस तरह अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इंसान को ख़िताब फ़रमाया और इस पर ज़िम्मेदारियाँ डाली
और इंसान को इस ख़िताब और ज़िम्मेदारीयों का मौज़ू बनाया। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने शरीयतें नाज़िल कीं फिर वो इंसानों को दुबारा जिलाएगा
और उनका हिसाब किताब करेगा और जन्नत और दोज़ख़ में डालेगा। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इंसान को, ना कि औरत या मर्द को इन ज़िम्मेदारीयों का
मौज़ू मुक़र्रर फ़रमाया है।
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इंसान को यानी मर्द और औरत को एक तय फ़ितरत पर पैदा फ़रमाया जो
उन्हें जानवरों से जुदा और मुमताज़ (unique) हैसियत देती है लिहाज़ा औरत इंसान है और
मर्द भी इंसान है और इंसान होने के हवाले से दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है और इस हवाले
से वो एक दूसरे पर कोई इम्तियाज़ भी नहीं रखते। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने दोनों को इंसान होने की हैसियत से तैय्यार किया कि वो
मैदाने हयात में दाख़िल हों और एक ही समाज में रहें। फिर नसले इंसानी की ज़िन्दगी का
दार ओ मदार इन दोनों के मेल और हर समाज में उनके वजूद में रखा। लिहाज़ा ये जायज़ नहीं
कि इनमें से एक के बारे में कोई नुक़्ताए नज़र रखा जाये सिवाए इसके कि दूसरे के बारे
में भी वही नुक़्ताए नज़र हो और वो ये कि वो इंसान है जिस में इंसान होने की तमाम ख़ुसूसीयात
और ज़िंदगी के तमाम लवाज़मात हैं। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने दोनों में वही ज़िन्दगी देने वाली क़ुव्वत रखी जो ज़िंदगी
का सरचश्मा है और दोनों में वही जिस्मानी हाजात वदीअत फ़रमाईं जैसे भूख प्यास का लगना
और क़ज़ा-ए-हाजत होना। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने दोनों में जिबल्लियते बक़ा (Survival
Instinct) वदीअत फ़रमाई। दोनों
में जिबल्लियते नौ (sexual Instinct) और दोनों में जिबल्लियते तदय्युन (Religious
Instinct) रखी। ये वही जिस्मानी
हाजात और जिबल्लियत हैं जो दूसरे में भी रखीं हैं। फिर दोनों में सोच व फिक्र का माद्दा
रखा जैसे दूसरे में वदीअत फ़रमाया । चुनांचे जो अक़्ल मर्द में है,
वही औरत में भी है क्योंकि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इंसान की अक़्ल तख़लीक़ की है ना कि मर्द की अक़्ल या औरत
की अक़्ल ।
मुम्किन है कि एक मर्द,
किसी मर्द से या जानवर से या किसी और तरह अपनी जिबल्लियते
नौ को पूरा कर ले और इसी तरह मुम्किन है कि एक औरत,
किसी औरत से या जानवर से या किसी और तरह अपनी जिबल्लियते नौ
की पूर्ति कर ले लेकिन इस तरह उस मक़सद को पूरा नहीं किया जा सकता हो जिसके लिए
इस जिबल्लियत को इंसान में रखा गया है यानी नस्ले इंसानी की बक़ा का मक़सद। इस उद्देश्य की पूर्ति बस
एक ही राह से हो सकती है और वो ये कि इस जिबल्लियत की संतुष्टी औरत मर्द से और मर्द
औरत से करे। लिहाज़ा जिबल्लियत जिन्सियत (Sexuality instinct) के हवाले
से एक मर्द का औरत से ताल्लुक़ और एक औरत का मर्द से ताल्लुक़ ऐन क़ुदरती और फ़ितरी रिश्ता
है जो किसी दृष्टीकोण से ना तो विचित्र है और ना इसमें कोई इन्हिराफ़ (हुक्म उदूली)
है। बल्कि ये तो वो असल वसीला है जिसके ज़रीये ही इसका असल मक़सद पूरा होता है जिसके
लिए इस जिबल्लियत को इंसान में रखा गया है यानी नस्ले इंसानी की बक़ा (ज़िन्दगी)। जब
इन दोनों में जिन्सी मेल होता है तो ये फ़ितरी चीज़ है।
इसमें कोई अजीब बात नहीं
बल्कि ये तो इंसानी नसल के बक़ा के लिए ज़रूरी है। अलबत्ता इस
जिबल्लियत को बेलगाम छोड़ देना इंसानियत और इंसान की सामाजिक ज़िंदगी के लिए नुक़्सानदेह
होगा। इसके वजूद का मक़सद नस्ले इंसानी की बक़ा के लिए औलाद का पैदा करना है। लिहाज़ा
ये ज़रूरी है कि इंसान का यानी मर्द और औरत दोनों का इसके बारे नुक़्ताऐ नज़र उसी मक़सद
की बुनियाद पर हो जिस ग़रज़ के लिए ये जिबल्लियत इंसान में रखी गई है यानी नस्ले
इंसानी की बक़ा के मक़सद से। इस जिबल्लियत की पूर्ति में फ़ितरी और ज़रूरी आनन्द है चाहे
इंसान उसकी तरफ मुतवज्जा हो या ना हो। लिहाज़ा ये कहना सही नहीं कि लज़्ज़त और शहवत
(कामवासना) के तसव्वुर को इस जिबल्लियत के पूरा करने से जुदा रखना चाहीए। ये इसलिए
ग़लत है क्योंकि ये लज़्ज़त तसव्वुराती (वैचारिक) नहीं बल्कि ये तो क़ुदरती और फ़ितरी
चीज़ है और उसे जुदा किया जाना नामुमकिन है। फ़ितरी लज़्ज़त को इस जिबल्लियत की पूर्ति
से जुदा करने का ये तसव्वुर असल इंसान के इस पूर्ति के बारे में नुक़्ताए नज़र और इंसान
में इसके वजूद के बारे में इसके नज़रिये से पैदा होता है। लिहाज़ा इस जिबल्लियत और इसके
वजूद से मुताल्लिक़ इंसान का तय नुक़्ताऐ नज़र होना चाहीए ताकि नस्ल के बढाने के मुताल्लिक़
इसका नज़रिया मर्द और औरत के आपसी मेल तक ही सीमित रहे और मर्द और औरत के मेल के बारे
में भी मर्द व औरत के जिन्सी रिश्ते के हवाले से इसका नज़रिया तय हो और ये नज़रिया उस
मक़सद से जुडा हो जिस मक़सद के तहत ये जिबल्लियत इंसान में रखी है। इस मुतय्यन नुक़्ताए
नज़र के ज़रीये इस जिबल्लियत की सही तरीक़े से पूर्ति और इस मक़सद की तकमील होती है जिसके
लिए ये जिबल्लियत मौजूद है। जिस समाज का ऐसा खास नुक़्ताऐ नज़र होता है वो संतोष हासिल
करता है। किसी भी इंसानी समाज का मर्द और औरत के नर और मादा होने की हैसियत से मेल
के बारे में नुक़्ताए नज़र सिर्फ लज़्ज़तों पर केन्द्रित रहने के बजाय, जिबल्लियत के मक़सद
पर मर्कूज़ करना चाहीए जहाँ ये लज़्ज़तें मक़सद नहीं बल्कि मक़सद की राह में होने वाली एक
फितरी और क़तई चीज़ है। ऐसा नुक़्ताए नज़र उस जिबल्लियत को बाक़ी भी रखता है और उसे उसके
सही तरीक़े पर, उसके मक़सद पर जारी रखता है। ऐसा नुक़्ताए नज़र इंसान के लिए उसके
तमाम कार्यों को अंजाम देने और अपनी ख़ुशीयों के लिए कोशिश करने को मुम्किन बनाता है।
लिहाज़ा इंसान के लिए ज़रूरी है कि उसके पास जिबल्लियते नौ की
पूर्ति और उसके मक़सद की सही समझ हो। इंसानी समाज के पास ऐसा निज़ाम होना चाहीए जो इंसान
के ज़हनों और दिलों से शारीरिक सम्बन्ध और ताल्लुक़ की सोच को खत्म कर दे जो उन पर हर
तरफ से हावी रहती है और जिस निज़ाम के ज़रीये मर्द और औरत का आपसी सहयोग मुम्किन बने
क्योंकि ऐसे समाज में जिस में मर्द और औरत के बीच एक दूसरे के शरीक,
ग़मख्वार और एक दूसरे के लिऐ क़ुरबानी देने वालों की हैसियत से
तआवुन ना हो, उसमें कोई भलाई नहीं। लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि समाज के नुक़्ताए
नज़र को मुकम्मल और जामेअ (विस्तृत) तौर पर तबदील किया जाने पर ज़ोर दिया जाये जिससे
जिन्सी रिश्तों का दिल और दिमाग़ पर जो प्रभाव है, वो ज़ाइल हो
सके और लज़्ज़त पर केन्द्रित ना रहे बल्कि लज़्ज़त को नागुज़ीर और क़तई समझा जाये
और उसे समाज के फायदे की प्राप्ति में,
ना कि मर्द या औरत के फायदे को हाँसिल करने में मददगार समझा
जाये। ये नुक़्ताए नज़र अल्लाह (سبحانه وتعال) के तक़्वे का महकूम हो ना कि लज़्ज़त व शहवतों का ग़ुलाम, ऐसा नुक़्ताए
नज़र जो इंसान को जिन्सी लज़्ज़तों से आनन्दित होने से ना बाज़ रखे और ना रोक टोक करे बल्कि
उन से लुत्फ उठाने को जायज़ रखे जिस से इंसानी नसल की बक़ा (life) यक़ीनी बने और ये इंसान के आला नसब उल ऐन यानी अल्लाह (سبحانه
وتعال) की रज़ा की प्राप्ति से भी ना टकराए।
क़ुरआन मजीद में शादी और अज़्दवाज (husband and wife) के ताल्लुक़ से, जो कि दरअसल
इंसान में जिबल्लियते नौ के वदीअत करने का मक़सद है,
कईं आयात वारिद हुईं हैं। इन आयात से साफ हो जाता है कि इंसान
में जिबल्लियते नौ हक़ीक़तन शादी और वैवाहिक जीवन ही के मक़सद से है यानी इसमें इंसानी
नसल की बक़ा (life) छुपी हुई है। दूसरे अल्फाज़ में,
ये जिबल्लियत अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इंसान में शादी ही की ग़रज़ से रखी है। इन आयात में मुख़्तलिफ़
तरीक़े अपनाऐ हैं जिनसे मक़सूद ये है कि मर्द और औरत के ताल्लुक़ के बारे में समाज का
नुक़्ताऐ नज़र शादी पर केन्द्रित रहे ना कि सिर्फ जिन्सी ताल्लुक़ पर।
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِى خَلَقَكُم مِّن
نَّفۡسٍ۬ وَٲحِدَةٍ۬ وَخَلَقَ مِنۡہَا زَوۡجَهَا وَبَثَّ مِنۡہُمَا رِجَالاً۬
كَثِيرً۬ا وَنِسَآءً۬ۚ
ऐ इन्सानों! अपने रब से डरो जिसने तुम को एक जान से पैदा किया
और उसी में से उस का जोड़ा पैदा किया और इन दोनों से फैलाए बहुत से मर्द और औरतें। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 01)
هُوَ ٱلَّذِى خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٍ۬ وَٲحِدَةٍ۬ وَجَعَلَ مِنۡہَا
زَوۡجَهَا لِيَسۡكُنَ إِلَيۡہَاۖ
فَلَمَّا تَغَشَّٮٰهَا حَمَلَتۡ حَمۡلاً خَفِيفً۬ا فَمَرَّتۡ بِهِۦۖ فَلَمَّآ أَثۡقَلَت دَّعَوَا ٱللَّهَ
رَبَّهُمَا لَٮِٕنۡ ءَاتَيۡتَنَا صَـٰلِحً۬ا لَّنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّـٰكِرِينَ
वही तो है जिसने तुम को एक जान से पैदा किया और इसी में से इस
का जोड़ा बनाया ताकि वो इसके पास सुकून हासिल करे। फिर जब मर्द ने औरत को ढांक लिया
तो उसने उठा लिया हल्का सा बोझ, फिर वो उसे लिए फिरी। फिर जब वो बोझल हो गई तो दोनों ने अल्लाह
से दुआ की जो इनका रब है कि अगर तू हमें अच्छा और सालिम बच्चा अता फ़रमाए तो हम ज़रूर
तेरे शुक्र गुज़ार होंगे। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल आराफ 189)
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلاً۬ مِّن قَبۡلِكَ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ
أَزۡوَٲجً۬ا وَذُرِّيَّةً۬ۚ
और बेशक हम ने तुम से पहले बहुत से रसूल भेजे हैं और उन्हें
बीवी बच्चों वाला बनाया है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल रअद 38)
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ
أَزۡوَٲجً۬ا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٲجِڪُم بَنِينَ وَحَفَدَةً۬
और अल्लाह ही ने बनाई हैं तुम्हारे लिए तुम्हारी जिन्स से बीवीयाँ, फिर तुम्हें तुम्हारी बीवीयों में से अता किए नाते और पोते।
(तर्जुमा
मआनीऐ क़ुरआन: अन्नह्ल 72)
وَمِنۡ ءَايَـٰتِهِۦۤ أَنۡ خَلَقَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ
أَزۡوَٲجً۬ا لِّتَسۡكُنُوٓاْ إِلَيۡهَا وَجَعَلَ بَيۡنَڪُم مَّوَدَّةً۬ وَرَحۡمَةًۚ
और उस की निशानीयों में से ये भी है कि उसने पैदा कीं तुम्हारे
लिए तुम्हारी ही जिन्स से बीवीयाँ ताकि तुम सुकून हासिल करो उनके पास। और उसने पैदा
कर दी तुम्हारे बीच मुहब्बत और रहमत। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल रोम 21)
فَاطِرُ ٱلسَّمَـٰوَٲتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٲجً۬ا
وَ
आसमानों और ज़मीन का पैदा करने वाला, उसी ने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिन्स से जोड़े बनाए। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अश्शूरा 11)
وَأَنَّهُ ۥ خَلَقَ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰ
( ٤٥* ) مِن
نُّطۡفَةٍ إِذَا تُمۡنَىٰ
और ये कि वही एक बूँद से जब वो टपकाई जाती है,
नर और मादा
जोड़े पैदा फ़रमाता है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्नजम 45-46)
وَخَلَقۡنَـٰكُمۡ أَزۡوَٲجً۬ا
और हम ने तुम को जोड़ा जोड़ा पैदा किया। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्नबा 08)
इस तरह अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने मर्द और औरत की तख़लीक़ को शादी में महसूर और
मुक़य्यद (सीमाबद्ध) फ़रमाया और इस बात को कई बार दोहराया ताकि मर्द और औरत के ताल्लुक़
के सिलसिले में नुक़्ताऐ नज़र अज़्दवाज और शादी पर यानी बक़ा नस्ले इंसानी पर मर्कूज़ रहे।
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