हर मुल्क
अपनी कुछ वस्तुओं को दूसरे देशों को निर्यात (Export) करता है और इसी तरह कुछ वस्तुए अपने मुल्क में आयात भी करता
है। अब अगर निर्यात (Export) करने पर होने
वाली आमदनी,
आयात (import) करने पर होने वाले ख़र्च से कम हो तो उसे अदायगीयों की तवाज़ुन
(Balance
of payments) में नुक्सान कहते हैं। अगर ये नुक्सान लगातार हो तो ये संकट
की शक्ल इख्तियार कर लेता है यु ऐनिया मुदुन इस क़ाबिल नहीं होती कि वो अदायगियों को
पूरा कर सके। चुनांचे इस करंसी के भण्डार में नुक्सान पर क़ाबू पाने के लिए ख़सारे
वाले देश कुछ आरिज़ी हल अपनाते हैं और चंद पॉलिसीयां और कार्यवाहियां की जाती हैं ताकि
वो अपनी आर्थिक सूरते हाल बेहतर कर सके और अदायगियों की तवाज़ुन (Balance of
payments) में बेहतरी ला सकें। आजकल इस्तिमाल होने वाली कार्यवाहियां
ये हैं :
(1) फ़ाईनेंशियल मार्केट में शरह
सूद को बढ़ाना ताकि विदेशी पूंजी की मुल्क के अंदर आने की हौसलाअफ़्ज़ाई हो।
(2) निर्यात (Export) को कम करने के लिए उन पर कस्टम डयूटीयाँ और दीगर टैक्स या
हर्बों का निफ़ाज़।
(3) अपनी करंसी की क़ीमत को गिराना ताकि देश की वस्तुओ की क़ीमतें
विदेशी मार्केटों में गिरें और इस वजह से विदेशी इन वस्तुओं को ख़रीदने में इज़ाफ़ा
करें (क्योंकि इस तरीक़े से मुल्की चीज़ें ग़ैर मुल्कीयों के लिए सस्ती हो जाती हैं)
दूसरे शब्दों में इस तरीक़े से निर्यात (Export) में इज़ाफ़ा होता है। लेकिन ये हर्बा सिर्फ़ उस वक़्त कामयाब
है जब जिन वस्तुओं को निर्यात करना है वो भारी संख्या में पैदा की जा चुकी हो ताकि
उनको फ़ौरन निर्यात करके आमदनी हासिल हो सके। और दूसरे देश जो यही वस्तुए बेच रहे हैं
अपनी करंसी की क़ीमत ना गिराएं। इसी तरह अगर रियासत ने इतनी बड़ी संख्या में निर्यात
करने के लिए चीज़ें तैय्यार ना की हो तो ये कार्यवाही उल्टा नुक़्सानदेह बन जाती है
क्योंकि करंसी की क़ीमत गिरने से देश में वस्तुओं की क़ीमतों में इज़ाफ़ा हो जाता है।
23 दिसंबर 2010
को पाकिस्तान की क़ौमी असैंबली में एक सवाल के जवाब में पाकिस्तान
की वज़ीरे ममलकत बराए ख़ज़ाना हिना रब्बानी खुर ने बताया कि पाकिस्तान पर बैरूनी (विदेशी)
क़र्जे की संख्या (Foreign
debt) 53.7 अरब डॉलर हो चुके हैं। उन्होने ने ये भी बताया कि पिछले तीन
सालों में यानी 2007 से लेकर 2010 तक पाकिस्तान
6 अरब डॉलर की क़र्ज़ की अदायगी और तक़रीबन 2.6 अरब डॉलर ब्याज की मद में भी वापिस कर चुका है यानी साढे़
आठ अरब डॉलर वापिस करने के बावजूद भी पाकिस्तान के कर्जे़ 53.7 अरब डॉलर ही हैं। याद रहे कि 19 मई 2007 में पाकिस्तान
स्टेट बैंक की तरफ़ से एक प्रैस रीलीज़ (विज्ञप्ति) में ये बताया गया था कि उस वक़्त पाकिस्तान
के कुल बैरूनी (विदेशी) कर्जे़ 38.8 अरब डॉलर
थे।
विदेशी
कर्ज़ों में तेज़ी से इज़ाफ़ा सबसे पहले पाकिस्तान की पहली मिल्ट्री गर्वनमैंट अय्यूब
ख़ान के दौर में हुआ जब पाकिस्तान का क़र्ज़ा 373 मिलियन डॉलर से बढ़ कर 2701 मिलियन
डॉलर तक पहुंच गया। भुट्टो के दौर में भी विदेशी कर्जे़ लिए गए और 1978 तक पाकिस्तान के विदेशी कर्जे़ 8.7 अरब डॉलर तक पहुंच चुके थे। ज़िया उल-हक़ के दौरे हकूमत में
ये कर्जे़ एक बार फिर निहायत तेज़ी से बढ़े और सिर्फ़ दो सालों के अंदर-अंदर 1980 तक ये कर्जे़ 22 अरब डॉलर तक पहुंच गए। यही मामला बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ के दौरे हुकूमतों
में जारी रहा,
यहां तक कि आख़िरी मिल्ट्री डिक्टेटर परवेज़ मुशर्रफ़ के हुकूमत
सँभालने तक ये कर्जे़ 38 अरब डॉलर तक पहुंच चुके थे।
यहां सवाल
ये पैदा होता है कि एक मुल्क विदेशी कर्ज़ों की तरफ़ क्यों जाता है? और दूसरा ये कि जो देश या इदारे क़र्ज़ देते हैं वो क़र्ज़ देने
के साथ क्या मक़सद (लक्ष्य) हासिल करना चाहते हैं?
निम्न
में इन दोनों सवालों के जवाब तलाश करने की कोशिश की गई है :
पहले
सवाल के ताल्लुक़ से जैसा की शुरू मे बताया की अदायगियों मे तवाज़ुन लाने के लिये
कुछ कार्यवाहियाँ की जाती है. और यह कार्यवाहियाँ ही कर्ज़ों की सूरतेहाल को पेचीदा
बनाती जाती है. यहां पर इस बात की तरफ़ तवज्जो दिलाना ज़रूरी है कि कुछ देश या फिर तक़रीबन
सारे बड़े देश अपने नुक्सान को पूरा करने के लिए अपनी करंसीयाँ छापना शुरू कर देते
हैं और एन कंरसीयों की पुश्त पर कुछ नहीं होता। वो इसलिए करते हैं ताकि उनको अपनी करंसी
की क़दर ना गिरानी पड़े,
ना ही क़र्ज़ लेने पड़ें और ना ही ऐसे सख़्त क़दम उठाने पड़ें जिनकी
वजह से अंदरूनी तनाव और हंगामा आराई का ख़तरा हो। लेकिन बहरहाल ये नोट छापने से इफराते
ज़र में इज़ाफ़ा होगा यानी वस्तुओं की क़ीमतों में इज़ाफ़ा जो कि वस्तुओं और करंसी की मिक़दार
में अदम तवाज़ुन से पैदा होता है। इफराते ज़र पर आम तौर पर नियत्रित करंसी की संख्या
और वस्तुओं और ख़िदमात (सेवा/services) में तवाज़ुन क़ायम करके ही हासिल होता है। यानी ये इस तरह होता है कि या तो पैदावार
बढ़ाकर वस्तुओ व ख़िदमात (सेवा/services) बढ़ाई जाएं यानी आर्थिक सूरते हाल बेहतर बनाकर खास तौर से पैदावारी पहलू से और या
फिर मार्केट में ज़्यादा करंसी को ख़रीद कर उसकी मिक़दार को मार्केट में कम किया जाये।
करंसी को
मार्केट में कम करने का तरीक़ा करंसी पर शरह ब्याज बढ़ाना है जिसके कारण लोग इस करंसी
को बैंकों में महफ़ूज़ करना शुरू कर देते हैं। या फिर यह इस तरह भी हो सकता है कि तमाम
व्यापारिक बैंकों से मांग की जाये कि वो केन्द्रिय बैंक में मौजूद अपनी करंसी के हिस्सों
को बढ़ा दें और इसके बाद उन्हें मुंजमिद (Freeze) कर दिया जाये। इसी तरह इन कार्यवाहियों से बुरे निष्कर्ष
निकलते हैं क्योंकि उनसे सरमायाकारी कम हो जाती है। और आर्थिक सूरते हाल में ठहराव
(stagnation)
आ जाता है। चुनांचे जब नवाज़ शरीफ़ ने ऐटमी धमाकों के बाद यही
अमल किया था तो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को यही ठहराव देखने को मिला था।
इसीलिए
आजकल नुक्सान को पूरा करने का सबसे आसान तरीक़ा कर्जे़ लेना है जिससे अदायगियों में
तवाज़ुन क़ायम किया जाता है। लेकिन जब कर्जे़ लिए जाते हैं तो एक नया संकट पैदा हो जाता
है जहां ये देश कर्ज़ों की दलदल में फंस सकता है खासतौर पर जब ये क़र्ज़ा इन कामों में
ना इस्तिमाल हो जो मुल्की आमदनी में इज़ाफ़े का कारण बनें। और यही तीसरी दुनिया के ज़्यादा
तर देशों के साथ हो चुका है। इन देशों ने कर्ज़ों के नुक्सान को पूरा करने का सबसे
आसान तरीक़ा समझा क्योंकि इन देशों में कुछ तो अपनी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें तक नहीं
पैदा करते। और वैसे भी उनके पास बरामद करने के लिहाज़ से चंद वस्तुओं के सिवा कोई ऐसी
ख़ास वस्तु नहीं होती। इसलिए उनके लिए कर्ज़ों के ज़रीये नुक्सान को पूरा करना ही मुम्किन
ज़रीया होता है। क्योंकि अगर वो आयात (Import) में कमी करते हैं तो देश में वस्तुओं की क़िल्लत पैदा होती
है जिससे उनकी क़ीमतों में इज़ाफ़ा होता है और नतीजतन उत्पादन अमल में ख़लल पैदा होता
है जिससे बेरोज़गारी बढ़ती है और तरक़्क़ी असरअंदाज़ होती है। और अगर रियासत चाहे कि
ये नुक्सान अपने मौजूदा सोने और ख़ारिजा करंसी के भण्डार (Reserves) से पूरा करे तो ये भी मुम्किन नहीं क्योंकि आम तौर पर तीसरी
दुनिया के देशों के पास ये भण्डार (Reserves) बहुत कम होते हैं। मज़ीद बरआं अगर ये भण्डार नुक्सान पूरा करने में लग गए तो इससे
भण्डार (Reserves)
ख़तरनाक सतह तक आ जाऐंगे, जिसके नतीजे में मुल्की करंसी की क़ीमत गिरने लगेगी। और अगर इसके साथ-साथ इनमें
कई देशों में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधन के इस्तिहसाल को भी शामिल कर ले तो नतीजतन
कर्ज़ों पर ही निर्भरता रहेगी। जो चीज़ कर्ज़ों के संकट को शदीद करती है वो इन कर्ज़ों
को तीन मोहलिक चीज़ों के साथ मुंसलिक करना है जो कि निम्नलिखित हैं :
(1) इन कर्ज़ों को ऐसे मंसूबों
में इस्तिमाल करना जिनका उत्पादन के लिहाज़ से कोई फ़ायदा ना हो, जैसा कि इन कर्ज़ों को तफ़रीह और अय्याशियों में खर्च करना या
फिर सिर्फ प्रोपेगंडा और झूठ में उड़ा देना। ये सब आर्थिक लिहाज़ से फायदेमंद नहीं बल्कि
उल्टा नुक्सान में इज़ाफ़ा करते हैं।
(2) आला
सरकारी ओहदेदारों का कमीशन (Commission) और रिश्वतो के ज़रीये कर्ज़ों से हासिल किए हुए माल का एक बड़ा हिस्सा ग़बन कर लेना।
ये सरकारी ओहदेदार फ़ौजी बग़ावतों या हुकूमत की तब्दीली के ख़तरे को मद्दे नज़र रखते
हुए इस ग़बन किए हुए माल को महफ़ूज़ करने की ख़ातिर विदेशी देशों में स्मगल कर देते हैं
और इस तरह वो देश को दुहरा नुक़्सान पहुंचाते हैं यानी पहले जनता के पैसे में से एक
बड़े हिस्से का ग़बन करना,
जिसे तरक़्क़ी की कोशिशों में खर्च किया जाना चाहिए था ताकि
देश की आर्थिक सूरते हाल में बेहतरी आती और दूसरा कि उसको ग़बन करने के बाद मुल्क से
बाहर स्मगल कर देना जिससे मुल्क पर ख़र्च होने वाला सरमाया मुल्क में रहने की बजाय
बाहर चला जाता है। इसी मसले पर अमरीका में मौजूद मोरगीन ट्रस्टी बैंक (Morgan
Trustee Bank) ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें अंदाज़ा लगाया गया
था कि तीसरी दुनिया को दिए हुए 40 से 60 फ़ीसद कर्जे़ आला आफ़िसरान के नाम पर या उनके रिश्तेदारों के
नाम से खुले हुए खु़फ़ीया एकाऊंटस के ज़रीये वापिस पहली दुनिया के बैंकों में आ जाते
हैं। चुनांचे रिपोर्ट के मुताबिक़ 80 के दशक से तीसरी दुनिया को जारी किए गए तक़रीबन 1500 अरब डॉलर में से तक़रीबन 1000 अरब डॉलर पहली दुनिया के बैंक एकाऊंटस में वापिस आ चुके हैं जो कि तीसरी दुनिया
के आला ओहदेदारों और आफ़िसरान के नाम से खुले ख़ुसूसी एकाऊंटस में जमा हैं।
(3) सुपर पावरज़ या फिर बड़े बाअसर देश आम तौर पर उन कर्ज़ों को तीसरी
दुनिया पर अपनी आर्थिक और राजनैतिक असर व रसूख़ बढ़ाने के लिए इस्तिमाल करते हैं। वो
खासतौर पर ऐसी पॉलिसीयां उत्पन्न करते हैं जिससे तीसरी दुनिया के देशों को क़र्ज़
लेने का विचार आए और फिर इन कर्जे़ देने वाले देशों के मक़सद (लक्ष्यों) को पूरा करने
पर आमादा हो चाहे वो लक्ष्य आर्थिक हो या राजनैतिक। और इसके ज़रीये इस सवाल का जवाब
मिल जाता है कि आख़िर ये देश तरक़्क़ी पज़ीर देश को क़र्ज़ क्यों देते हैं? इस बात के सबूत में जनरल किले कमेटी की रिपोर्ट काफ़ी एहमियत
रखती है। मार्च 1963 के आख़िरी हफ़्ते में अमरीकी मदद के बारे में जारी करदा जनरल
किले कमेटी (Commitee
of General Clay) की रिपोर्ट में कहा गया था कि अमरीका का तीसरी दुनिया के देशों
को क़र्ज़ देने की वजह और वो शर्त जिन पर ये कर्जे़ दिए जाते हैं हक़ीक़त में अमरीका और
लिबरल देशों की रक्षा करना है। यानी उन कर्ज़ों का मक़सद तीसरी दुनिया की मदद करना नहीं
बल्कि उनको अपने जे़रे असर लाना है। जभी 60 के दशक की शुरूआत में इंडोनेशिया में अमरीका ने तनाव पैदा करके उस पर दबाव डला
कि वो क़र्ज़ ले। ग्रान्ट्स और कर्जे़ आज भी सुपरपावरज़ छोटे देशों पर राजनैतिक प्रभाव/ग़लबे
के लिए हथियार के तौर पर इस्तिमाल करते हैं। यही वजह है कि अमरीका की अदायगियों/निवेश
की तवाज़ुन हमेशा नुक्सान में रहता है लेकिन वो फिर भी हर साल क़र्ज़ और ग्रान्ट्स जारी
करता रहता है।
दूसरा सबूत
क़र्ज़ देने वाले इदारों खास तौर पर IMF की कई शर्ते हैं और ये बात भी अहम है कि IMF को बनाने के वक़्त इस इदारे में फ़ैसला साज़ी को इस तरह से तर्तीब दिया गया कि जिसमें
अमरीका की इसके फ़ैसलों पर बालादस्ती निश्चित बन गई, क्योंकि IMF में हर मुल्क
को फ़ैसलों में उतने ही वोट हासिल थे जितने इसका फ़ंड में माली तआवुन था। और चूँकि अमरीका
का इस फ़ंड में सबसे बड़ा हिस्सा था यानी कल मालीयाती फ़ंड के 27.2 फ़ीसद हिस्से के बराबर, लिहाज़ा IMF
के तमाम फ़ैसलों में अमरीका की बाला-ए-दस्ती क़ायम हो गई।
इन कारणों
की वजह से ये बात स्पष्ट है कि अगर एक मर्तबा कोई देश इन कर्ज़ों की राह अपना लेता
है तो फिर वो इसके जाल में फंस जाता है जिससे निकलना निहायत मुश्किल होता है। कर्ज़ों
के संकट में शिद्दत से जब भी कोई रियासत अपना क़र्ज़ (इसमें ब्याज और दूसरे मुनाफे
शामिल है) वापिस करने में नाकाम होती है तो उसकी पहली कोशिश होती है कि वो इन कर्ज़ों
की तारीख़ को आगे बढ़वाने में कामयाब हो जाएं और साथ ही साथ और क़र्ज़ ले लेती है ताकि
उनका आर्थिक पहिया चलता रहे। इस मक़सद को हासिल करने के लिए क़र्ज़ देने वाले देशों का
ग्रुप यानी पैरिस क्लब और क़र्ज़ देने वाला कमर्शीयल बैंकों का ग्रुप यानी लंदन क्लब
दोनों के दोनों क्लब मक़रूज़ ममालिक से कहते हैं कि वो पहले IMF से एतिमाद और भरोसे का सर्टीफ़िकेट हासिल करें, जैसा कि अच्छी चाल चलन का सर्टीफ़िकेट होता है। इस सर्टीफ़िकेट
का मतलब होता है कि मक़रूज़ मुल्क आर्थिक तरक़्क़ी का रवैय्या अपनाएगा। लेकिन इस सर्टीफ़िकेट
को हासिल करने के लिए ये ज़रूरी है कि मक़रूज़ मुल्क एक आर्थिक इस्लाहात के प्रोग्राम
पर अमल दरआमद शुरू करे। इन इस्लाहात में उमूमन मुल्की करंसी की क़ीमत गिराने के साथ-साथ
तमाम बुनियादी ज़रूरीयात की वस्तुओं पर से सबसिडी का ख़ात्मा करना, लोगों की तनख़्वाहों में इज़ाफ़ा रोकना या उनकी अदायगी में देरी
करना,
सरकारी नौकरो की संख्या में कमी करना, अवामी सहूलयात बिलख़सूस तवानाई के शोबा की क़ीमतों में इज़ाफ़ा करना, मुल्की करंसी पर शिरा-ए-सूद बढ़ाना ताकि बचत बढ़े और विदेशी सरमाया
मुल्क में आए और इसी के साथ आज़ाद तिजारती यानी विदेशी व्यापार के रास्ते में मौजूद
रुकावटों को दूर करना शामिल होता है। उसकी बेहतरीन मिसाल मौजूदा हुकूमत में IMF के साथ मुआहिदे की शर्ते हैं जिसके तहत पाकिस्तान में RGST का निफ़ाज़, बिजली की क़ीमतों
में बेतहाशा इज़ाफ़ा,
तमाम सबसिडीज़ का ख़ात्मा और इसी तरह की दूसरी शर्तो का लगाया
जाना है।
IMF के ज़रीये कर्ज़ों के मसले को हल करना हक़ीक़त में मसले को ज़्यादा गंभीर बना देता
है,
क्योंकि IMF का प्रोग्राम
जिसमें मसले का हल भी होता है उसकी बुनियाद इल्मे हिसाब (arithmetic
basis) पर होती है। IMF इस मसले को सिर्फ़ एक इल्मे रियाज़ी का एक सवाल समझता है जिसके हल के लिए वो सिर्फ़
अख़राजात (खर्च) और आमदन में तवाज़ुन क़ायम करने के लिए या तो आमदन में इज़ाफे़ की सोचता
है और या तो अख़राजात में कमी लाने की और इस बात की क़तअन फ़िक्र नहीं करता कि इस मुजव्वज़ा
हल का इंसानों की ज़िंदगीयों और उनके मामलात पर क्या असर पड़ेगा। मिसाल के तौर पर IMF आमदन को बढ़ाने के लिए टैक्स की शरह में इज़ाफ़ा करने को कहेगा
हालाँकि वो बख़ूबी वाक़िफ़ है कि मक़रूज़ देश में शिरा-ए-टैक्स वैसे ही लोगों की इस्तिताअत
से ज़्यादा नहीं तो कम अज़ कम इस्तिताअत की हद तक होती है। या IMF ये जानते हुए भी कि इन देशों में रोटी, दूध,
चावल, चीनी, गंदुम और ईंधन जैसी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों की क़ीमतें वैसे
ही लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं, फिर भी वो इन चीज़ों पर दी जाने वाली सबसिडी के ख़ात्मे की हिदायात देता है। या
वो ये जानने के बावजूद कि मक़रूज़ देश की पैदावारी और बरआमदी क़ाबिलीयत बहुत कमज़ोर है, लेकिन फिर भी मुल्की करंसी की क़दर गिराने को कहता है, जिसका लाज़िमी नतीजा वस्तुओं की क़ीमतों और बेरोज़गारी में इज़ाफ़ा
होगा। IMF की हिदायात की वजह से जहां एक तरफ़ बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ें
महंगी होती हैं वहीं दूसरी तरफ़ IMF ये हिदायात भी
जारी करता है कि मुलाज़मीन की तनख़्वाहों के बढ़ाने पर पाबंदी आइद की जाये। बल्कि कभी-कभी
IMF
इस हद तक प्रस्ताव देता है कि उनकी तनख़्वाहें कम कर दी जाएं
ताकि सरकारी अख़राजात (खर्च) कम हो जाएं। मिसाल के तौर पर IMF ने ब्राज़ीलियन हुकूमत से मांग की कि अगर वो और क़र्ज़ लेना चाहता
है तो सरकारी मुलाज़मीन की तनख़्वाहों को 20 फ़ीसद तक कम कर दे। दिसंबर 1985 मैंने
नाईजीरिया से अपनी करंसी को 60 फ़ीसद तक गिराने
को कहा था और साथ ही साथ तेल की मसनूआत से तमाम सबसिडी ख़त्म करने का भी मुतालिबा किया
था। 1986 की शुरूआत मैंने सूडान से भी करंसी की क़ीमत गिराने और सबसिडी
ख़त्म करने के साथ-साथ क़ीमतों को आज़ाद छोड़ने (Liberalinsing prices) की मांग की थी। इसी तरह मिस्र से 70 के दशक में, मराक़श और तीवनस से 1984 की शुरूआत में, डू मैक्केन रिपब्लिकन से अप्रैल 1984 और फरवरी 1985 में, अरदन से अप्रैल
1989 में सबसिडी कम करने और क़ीमतों में इज़ाफे़ की मांग की गई
थी। जिसकी वजह से इन देशों की जनता ने IMF की वजह से पड़ने वाले बोझ के ख़िलाफ़ बतौरे एहतिजाज हंगामा आराई शुरू कर दी थी।
इस तरह
IMF के ये तमाम ज़ालिमाना मांगे कर्ज़ों से निजात के लिए नहीं बल्कि
सिर्फ़ उनकी वापसी की तारीख़ में देरी के लिए हैं। दूसरे शब्दों में ये सारी जाबिराना
मांगे सिर्फ़ वापसी की तारीख़ को बढ़ाने के लिए हैं जहां नई तारीखे वापसी तक कर्ज़ों
और ब्याज का बोझ और ज़्यादा हो चुका होगा।
आम तौर
पर वर्ल्ड बैंक का क़र्ज़ देने के हवाले से किरदार IMF की तरह ही है। IMF इन देशों को क़र्ज़ नहीं दे सकता जो इसके क़वानीन (नियम) के मुताबिक़
कर्ज़ों की हद को पार कर चुके हैं। आम तौर पर ये क़र्ज़ उन मंसूबों के लिए लिए जाते
हैं जो इस तरह से तर्तीब दिए गए होते हैं जो इन मक़रूज़ देशों की तरक़्क़ी में रुकावट
बन जाएं और उन देशों की अर्थव्यवस्था ज़्यादा तर विदेशी मदद (Foreign Aid) इमदाद की मुहताज बन जाये।
हक़ीक़त में
IMF और वर्ल्ड बैंक की पॉलिसीयां वो हासिल नहीं कर सकें जिनका वो
दावा करते हैं। बल्कि उन मक़रूज़ देशों में कहीं अर्थव्यवस्था की बहाली (Recovery) नज़र नहीं आती, उलटा कर्ज़ों में डूबे हुए देश के क़र्ज़ ख़त्म होने की बजाय, मज़ीद बढ़ जाते हैं, और इस हद तक बढ़ जाते हैं कि वो IMF की हिदायात पर चल कर उनको ख़त्म करने के काबिल ही नहीं रहते।
IMF और वर्ल्ड बैंक के ज़रीये नाफ़िज़ मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था जो ना सिर्फ़ इंसानी
फ़ित्रत और अक़्ल के ख़िलाफ़ है, की तरफ़ से दिए
गए हल के नतीजे में इन देशों में होने वाली आर्थिक बदहाली का अंदाज़ा इस बात से लगाईए
कि 1972 में तरक़्क़ी पज़ीर देशों के कुल कर्जे़ 91 अरब डॉलर थे जबकि 1986 के आख़िर तक ये कर्जे़ 1000 अरब डॉलर
की हद तक पहुंच गए थे। इन कर्ज़ों में इस्लामी देशों का हिस्सा 22.4 फ़ीसद था, जबकि अरब देशों
का हिस्सा 15 फ़ीसद के क़रीब था जो लगभग 200 अरब डॉलर के बराबर है। अकेले मिस्र का 1986 तक कर्ज़ों का हुजम 40 अरब डॉलर था। ये रक़म उस कर्जे़ की है जो 1970-85 के अर्से के दौरान लिए गए। सालाना क़िस्त, ब्याज की रक़म और बक़ाया जो उसको जनवरी 1987 से जून 1988 के दरमियान
वापिस करना था सिर्फ़ वही 10 अरब डॉलर से भी आगे गुज़र गया था। जबकि पाकिस्तान के कर्ज़ों
की तफ़सील मैं शुरू में बयान कर चुका हूँ।
ये सिर्फ़
कुछ आदाद व शुमार की मिसालें हैं जो इस बात की क़तई दलील हैं कि कर्ज़ों के हुजम में
1982 के बाद से बहुत तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है और मुसलमान देशों के
ये क़र्ज़ इस हद तक बढ़ चुके हैं कि उनसे छुटकारा नामुमकिन नज़र आ रहा है। और ये वाक़ई
नामुमकिन रहेगा अगर इसके हल के लिए हम मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था के ग़लत तदारुक
(Treatment)
और IMF और वर्ल्ड बैंक की मोहलिक पॉलिसीयों के साथ नत्थी रहेंगे।
इस मसले
का सही तरीन हल सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम ने दिया है और इस्लाम का निज़ामे ख़िलाफ़त ही
है जिसके ज़रीये आज मुस्लिम देशों में मौजूदा कर्ज़ों की वजह से आने वाले संकट से निपटा
जा सकता है। इसके लिए इस्लाम ने निम्नलिखित अहकामात दिए हैं :
(1) तमाम कर्ज़ों पर लगा ब्याज की अदायगी ना करना क्योंकि ये रिबा
है,
इरशादे बारी तआला है :
فَاِنْ
لَّمْ تَفْعَلُوْا فَاْذَنُوْا بِحَرْبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ۚ وَاِنْ
تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوْسُ اَمْوَالِكُمْ ۚ لَا تَظْلِمُوْنَ وَلَا
تُظْلَمُوْنَ ٢٧٩
''और अगर तुम तौबा कर लो (और सूद छोड़ दो) तो अपना असल सरमाया लेने के तुम हक़दार
हो,
ना तुम ज़ुल्म करो और ना ही तुम पर ज़ुल्म किया जाये और ये
सूद ही है जो असल में कर्ज़ों को कई गुना बढ़ा देता है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलबक़रा आयत 279) पीछे दी गई मिसालों
से ये साफ़ ज़ाहिर है।
(2) कर्ज़ों को बगै़र ब्याज के अदा कर देना। कर्ज़ों के मसले को
हल करने का सही तरीक़ा ये है कि इन तमाम लोगों को इसका ज़िम्मेदार ठहराया जाये जिन्होंने
कर्जे़ लेने के दौर में सरकार में भागीदारी ली हो या फिर कोई सरकारी ओहदा सँभाला हो।
ये इसलिए कि वो उसी दौर में मालदार हुए हैं। लिहाज़ा कर्जे़ उन्ही लोगों की आम ज़रूरीयात
से ज़्यादा मौजूद माल और इसी तनासुब से जिस तनासुब में इनका ज़्यादा माल है, वापिस दिए जाना चाहिए। यानी अगर पहले शख़्स का ज़्यादा माल
10 लाख, दूसरे का 5 लाख और तीसरे का ढाई लाख हो तो फिर कर्ज़ों की वापसी की ज़िम्मेदारी
में भी इनका तनासुब इसी हिसाब से 4:2:1 होना चाहिए।
जहां तक
इस बात का ताल्लुक़ है कि हुक्मरानों पर ही ये ज़िम्मेदारी डालनी ज़रूरी है तो इसके
शरई दलायल निम्नलिखित हैं :
(अ) इस्लाम
में हुक्मरान (शासक) की ज़िम्मेदारी असल में जनता के मामलात की देखभाल करना है, और इन मामलात में आर्थिक मामलात भी शामिल हैं, जैसा कि हदीस में है :
''इमाम (हुक्मरान) ज़िम्मेदार है, और वो अपनी ज़िम्मेदारी के हवाले से जवाबदेह है और हुक्मरान
ही होते हैं जो क़र्ज़ लेने का फ़ैसला करते हैं।''
एक और हदीस
में है कि नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया : ''नुक़्सान (ना अपने
आपको पहुंचाना जायज़ है) और ना दूसरों को यानी तमाम नुक़्सान को दूर करना ज़रूरी है
और ये ज़िम्मेदारी उन पर है जो उस नुक़्सान का कारण बने हैं। क्योंकि कर्जे़ लेना और
लोगों को मक़रूज़ कर देना उम्मत के लिए नुक़्सान का कारण बनता है।''
(ब) दूसरा
ये कि इस्लाम के हुक्म के मुताबिक़ वो शख़्स जो कोई सरकारी ओहदा रखता है इसके लिए जायज़
नहीं कि वो किसी व्यापारिक काम में शामिल हो। वो सिर्फ़ अपने माहाना मुआवज़े का हक़दार
है। तो अगर वो अपने दौर में मालदार हो जाता है, तो इसका एहतिसाब होना चाहिए, और ये बात आजकल
के तमाम हुक्मरानों में समान है कि उन्होंने हुकूमत के लिए हुए कर्ज़ों से माल खाकर
अपनी दौलत बढ़ाई है। उसकी दलील ये है कि जब हज़रत उमर (رضي
الله عنه) को अपने किसी वाली (गवर्नर) पर बदउनवानी का शुबा होता तो वो हिसाब
शुदा माल से ज़्यादा माल को ज़ब्त कर लेते। हज़रत उमर (رضي
الله عنه) अपने तमाम वालियों को ओहदा दिए जाने से पहले भी और वापिस लिए जाने
के बाद भी उनकी दौलत का हिसाब लगाते और अगर उनका माल उसूली हिसाब से ज़्यादा पाया जाता
तो वो उसको ज़ब्त करके रियासती बैत-उल-माल में जमा कर देते और उस वक़्त तमाम अकाबिर
सहाबाह मौजू़द थे और किसी ने भी इस ज़ब्तगी को उनकी व्यक्तिगत संपत्ति पर दस्त दराज़ी
नहीं समझा था क्योंकि ये आमदनी नाजायज़ थी। क्योंकि अगर कोई शख़्स किसी सरकारी ओहदे
पर फ़ाइज़ हो और वो अपने दौरे हुकूमत के दौरान बहुत मालदार हो जाए तो ये इस माल को ज़ब्त
करने के लिए सबूत के तौर पर काफ़ी है, क्योंकि इसका जायज़ हक़ सिर्फ़ उसकी तनख़्वाह है और ये तमाम माल इससे ज़्यादा है।
लेकिन जहां
तक इन सरकारी नौकरो का ताल्लुक़ है जो किसी सरकारी ओहदे पर फ़ाइज़ नहीं तो उनका माल उस
वक़्त तक ज़ब्त नहीं किया जा सकता जब तक कि क़ानूनी तौर पर कोई स्पष्ट सबूत ना मिले
कि ये माल चोरी का है या नाजायज़ है। जो कुछ भी वालियों या सरकारी नौकरो से ज़ब्त किया
जाएगा वो सरकारी खज़ाने का हिस्सा बनेगा, और तमाम कर्जे़ इससे अदा किए जाऐंगे।
यहां पर
ज़रूरी है कि इन तथ्यों को बयान किया जाये कि किस तरह पाकिस्तान की हुक्मरानी पर फ़ाइज़
होने के बाद राजनेता तेज़ी से तरक़्क़ी करते हैं। आगे बयान किए गए आदाद व शुमार ख़ालिस्तन
सरकारी हैं जो ये सियासतदा इलैक्शन कमीशन को हर साल जमा कराते हैं और इनमें वो आदाद
व शुमार बयान नहीं किए गए जो ग़ैर-सरकारी तौर पर जनता की ज़बान पर होते हैं। चुनांचे
पाकिस्तान पीपल्ज़ पार्टी के वज़ीर एजाज़ जाखरानी ने 2008 में जो असासों की सूची जमा कराई उनकी मालियत 15.6 मिलियन रुपय थी जबकि 2009 में जो सूची जमा कराई गई इनमें ये असासे 61 मिलियन तक जा पहुंचे थे। इसी तरह पीपल्ज़ पार्टी के ही ख़ुरशीद
शाह के असासे 2008 में 24.6
मिलियन रुपय मालियत के थे जबकि 2009 में बढ़कर
51.6 मिलियन रुपय मालियत के हो चुके थे जबकि मंज़ूर विटू के असासे
2008 में 74 मिलियन रुपय से
बढ़कर 2009 में 156 मिलियन डॉलर हो
चुके थे।
पाकिस्तान
मुस्लिम लीग नून की सरबराह फ़ैमिली का बिज़निस ग्रुप इत्तिफ़ाक़ ग्रुप ने उस वक़्त तरक़्क़ी
शुरू की जब नवाज़ शरीफ़ राजनीति में आए थे। शरीफ़ फ़ैमिली कोई जागीरदार घराने से ताल्लुक़
नहीं रखती। ये फ़ैमिली इंडिया से आई थी और 1960 में एक आयरन फ़ो निडरी,
एक बर्फ़ बनाने वाली फ़ैक्ट्री और एक वाटरपम्प बनाने वाली फ़ैक्ट्री
की मालिक थी। नवाज़ शरीफ़ पिछले फ़ौजी डिक्टेटर ज़िया उल-हक़ के दौरे हुकूमत में राजनीति
में आए थे। और इसी दौर में ज़िया उल-हक़ ने उसे पंजाब का वज़ीरे ख़ज़ाना बनाया था।
चुनांचे
इसके बाद इत्तिफ़ाक़ ग्रुप तेज़ी से तरक़्क़ी करने लगा। 1982 में इत्तिफ़ाक़ शूगर मिल लगाई गई, 1983 में बिरादर्ज़ स्टील मिल लगाई गई, 1986 में बिरादर्ज़ टेक्सटाइल मिल लगाई गई, 1986 ही में बिरादर्ज़ शूगर मिल्ज़ लगाई गई, 1987 में इत्तिफ़ाक़ टेक्सटाइल मिल लगाई गई, 1987 ही में रमज़ान बख़श टेक्सटाइल मिल लगाई गई, 1988 में ख़ालिद सिराज टेक्सटाइल मिल लगाई गई और यूं सिर्फ़ चंद सालों
के अंदर-अंदर इत्तिफ़ाक़ ग्रुप पाकिस्तान का सबसे बड़ा उद्योगिक ग्रुप बन गया। और वो
इत्तिफ़ाक़ ग्रुप जिसका 1981 में कल बिज़निस टर्न ओवर 337 मिलियन रुपय था, इस इत्तिफ़ाक़ ग्रुप का 1987 में टर्न ओवर 2500 मिलियन रुपय तक जा पहुंचा था और ये आदाद व शुमार इत्तिफ़ाक़
ग्रुप ही के जारी करदा हैं। याद रहे ये वही दौर था जब ज़िया उल-हक़ की हुकूमत ने पाकिस्तान
के विदेशी कर्ज़ों में बेतहाशा इज़ाफ़ा किया था।
यही नहीं
बल्कि एम क्यू एम जो अपने आप को पाकिस्तान की वाहिद ऐसी सियासी जमात ज़ाहिर करती है
और जो मिडल क्लास लोगों पर मुश्तमिल होने पर फ़ख़र करती है, इसके मेम्बर भी अब मिडल क्लास नहीं रहे। इस जमात के रुकन असैंबली
डाक्टर ए. क़्यू. ख़ानज़ादा ने 2008 में जो
असासे ज़ाहिर किए उनकी मालियत 6.2 मिलियन रुपय थी
जबकि 2009 में ज़ाहिर किए गए असासे 17.7 मिलियन रुपय के हो चुके थे। ईसी तरह सब जानते हैं ऐम कियु ऐम के रुकन असैंबली
बाबर ग़ौरी एक मुतवस्सित घराने से ताल्लुक़ रखते थे। इसी तरह अब अपने ही ज़ाहिर किए गए
असासों के मुताबिक़ वो 200 मिलियन रुपये की मालियत के असासों के मालिक हैं।
ये सिर्फ़
चंद आदाद व शुमार हैं जबकि ये तक़रीबन हर उस शख़्स के मामले में ऐसा ही है जो किसी
भी दौर में हुकूमत में शामिल रहा है। चुनांचे पाकिस्तान के कर्ज़ों का हल यही है कि
इऩ्ही हुक्मरानों के असासों से उनको अदा किया जाये, क्योंकि ये कर्जे़ उन्ही के दौरे हकूमत में लिए गए हैं।
(3) इस्लाम के अहकामात के मुताबिक़ नए कर्जे़ नहीं लिए जाऐंगे क्योंकि
सरमायाकारी के लिए विदेशी कर्जे़ हक़ीक़त में मुल्क के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक हैसियत
रखते हैं। पिछले दौर में यही कर्जे़ किसी मुल्क को उपनिवेश (colonise) बनाने का एक ज़रीया था जब कि आजकल यही कर्जे़ दूसरे देशों पर
अपना असरोरसूख़ बढ़ाने और साज़िशें करवाने का सबसे अहम तरीक़ा बन चुके हैं। क़र्ज़ देने
वाले देश उन चुने हुए मंसूबों और तयशुदा शर्तो के ज़रीये मक़रूज़ मुल्कों को इस राह पर
लगा देते हैं जिससे हक़ीक़त में मक़रूज़ मुल्क और ग़रीब और उनके हालात और ख़राब हो, और उनका मक़रूज़ मुल्कों पर असरोरसूख़ बढ़ जाये, और इससे मक़रूज़ मुल्कों में कोई दौलत नहीं आती।
कर्जे़
हर सूरत में ख़तरनाक हैं चाहे वो पैदावारी मंसूबों पर ही क्यों ना लगाए जाएं। उसकी
वजह ये है कि अगर कर्जे़ कम मुद्दत के लिए दिए गए हो तो वो क़र्ज़दार मुल्क की करंसी
को बुरी तरह प्रभावित करते हैं, क्योंकि क़र्ज़
वापिस करने के लिए मुल्की करंसी नहीं तस्लीम की जाती और सिर्फ़ ग़ैर मुल्की करंसी में
अदायगियों को तस्लीम किया जाता है। मुम्किन है कि ग़ैर मुल्की करंसी की क़िल्लत की वजह
से क़र्ज़दार मुल्क ग़ैर मुल्की करंसी में अदायगियाँ करने में असक्षम हो, जिसकी वजह से वो ग़ैर मुल्की करंसी को महंगे दाम में ख़रीदने पर
मजबूर हो जाता है,
जिसका बराहे रस्त असर मुल्क की अपनी करंसी की क़दर में कमी की
शक्ल में पड़ता है। तो इससे बचने के लिए वो IMF का रुख़ करता है,
जो हक़ीक़तन अमरीकी असरोरसूख़ बढ़ाने के लिए मुल्क की आर्थिक सूरते
हाल को अमरीकी पॉलिसीयों के मुताबिक़ चलाने लगेगा। इसके अलावा कई बार क़र्ज़दार देश
विदेशी करंसी के हुसूल के लिए अपनी वस्तुए सस्ते दामों में निर्यात करने पर मजबूर
होते हैं जिससे आर्थिक तौर पर वो घाटे में रहते हैं।
इसके विपरीत
अगर कर्जे़ तवील मुद्दत के लिए दिए गए हो तो इसका मक़सद ये होता है कि इतने अर्से में
कर्ज़ों का हुजम इस क़दर बढ़ जाये कि वो भविष्य में व्यापारिक तवाज़ुन को बिगाड़ने के
साथ-साथ क़र्ज़दार देश की नक़द, सोना या मनक़ूला
वस्तुओं (movable
properties) के ज़रीये क़र्ज़ वापिस करने के क़ाबिलीयत ही ना रहे। जिसका नतीजा
ये होगा कि क़र्ज़दार देश पर ये दबाव डाला जाएगा कि वो ये अदायगियाँ ग़ैर मनक़ूला वस्तुओं
(immovable
properties) जैसा कि जागीरें,
ज़मीनें हत्ता कि अपने उद्योग तक बेच कर अदायगीयाँ करे। जिसकी
मिसाल उन्ही इदारों की शर्तो के मुताबिक़ पाकिस्तान बनने वाला निजकारी कमीशन की है जिसके
तहत पाकिस्तान के तमाम अहम प्रोपर्टीज बेचे जा रहे हैं जबकि उनसे हासिल होने वाली आमदनी
का तक़रीबन 90 फ़ीसद कर्ज़ों की अदायगी के लिए मुख़तस होता है।
चुनांचे
क़र्ज़ा लेने के तबाहकुन नुक़्सानात स्पष्ट हैं। वैसे भी इनमें सूद शामिल होता है, इसलिए ये हर हालत में नाजायज़ ही हैं। इसी तरह ये भी स्पष्ट
है कि मौजूदा व्यवस्था के तहत कभी भी इन कर्ज़ों से छुटकारा मुम्किन नहीं। ये सिर्फ़
ख़िलाफ़त ही होगी जो ऊपर लिखे इस्लामी अहकामात को नाफ़िज़ करेगी जिसके नतीजे में इन कर्ज़ों
से छुटकारा हासिल होगा। मज़ीद बरआं ये रियासते ख़िलाफ़त इस्लाम के इन आर्थिक अहकामात को
भी नाफ़िज़ करेगी जिसके नतीजे में देश आर्थिक लिहाज़ से ख़ुद कफ़ील होगा और उसे और कर्ज़ों
की ज़रूरत नहीं रहेगी। इंशा अल्लाह
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