क़ौमियत के नारे और ख़ुदमुख्तारी के जज्बे को भड़काना

इस्लामी ख़िलाफ़त (खिलाफते उस्मानिया) के वजूद ख़त्म को ख़त्म करने की यूरोपी मुमालिक बिलख़ुसूस बर्तानिया, फ़्रांस और रूस की कोशिशें जारी रहीं। अलबत्ता ये तमाम कोशिशें बुनियादी तौर पर इस्लामी रियासत पर पसेपर्दा ज़र्ब लगाने पर मुश्तमिल थीं। उन्होंने जंगें भड़काईं और इस्लामी रियासत के ख़िलाफ़ फ़ौजों की मुआविनत की, और ये सब काविशें नाकाम रहीं। इस नाकामी का सबब सिर्फ़ ये ना था के ख़लीफ़ा की दिफ़ाई ताक़त मज़बूत थी बल्के उस वक़्त क़ी आलमी सूरते हाल और ग़नाइम (माले ग़नीमत) की तक्सीम पर इन मुमालिक का आपस में इख्तिलाफ़ भी इस में कारफ़रमा रहा।


जहाँ तक इन कोशिशों का सवाल है जो यूरोपी मुमालिक में हुईं जैसे सर्बिया, हंगेरी, बलग़ारिया और यूनान वग़ैरा में की गईं वो कामयाब हुईं क्योंके इन में तेहरीकें क़ौमियतों और वतन परस्ती के नारे, अलैहदगी के रुजहान की बुनियाद पर थीं जिस को वो आज़ादी का नाम देते थे। इस लिऐ यूरोपी मुमालिक ने ये तरीक़ा इख्तियार किया, यानी इन तमाम मुमालिक में जो इस्लामी पर्चम के साये में थे और जहाँ ख़लीफ़ा की हुकूमत थी, उन्होंने क़ौमियतों के नारों के ज़रीए इश्तिआल दिलाया और आज़ादी के तरीक़ों को बुनियाद बनाया था। इनकी सारी तवज्जो अरब और तुर्क पर ख़ासतौर पर मर्कूज़ रही। इस्तंबोल और इस्लामी शहरों में अंग्रेज़ी और फ़्रांसी सिफ़ारत ख़ाने एैसे वतनियत के जज्बात भड़काने के ख़ास मर्कज़ होते थे, और उनकी ख़ुसूसी तवज्जो बग़दाद, दमिशक़, बेरूत, क़ाहिरा और जिद्दा थी। इस कार्रवाई के क़ियाम के लिऐ उन्होंने अपने दौर मर्कज़ी दफ्तर क़ायम किए, एक इस्तंबोल में ताके रियासत इस्लामी के मर्कज़ में ज़र्ब लगाई जा सके और बेरूत में जहाँ से इस्लामी रियासत के सूबों ख़ासकर अरब सूबों पर ज़र्ब कारी लगाई जा सके।
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