इस्लामी अदालती और ऊकूबाती
निज़ाम (दण्ड व्यवस्था) के बारे में इस्लाम के दुश्मनो ने काफी हमले किये और
उसको ज़ालिमाना और अत्याचारी और पिछडा़ हुआ बताया। इस मज़मून में इस बात की बहस की
जायेगी के किस तरीक़े से इस्लाम के अदालती निज़ाम के बारे में पश्चिमी सभ्यता के
लोगों ने गलत फहमियां फैलाई है और उसके साथ-साथ पश्चिमी सभ्यता का भ्रष्टाचार
है भी ज़ाहिर किया जायेगा।
इस्लामी अदालती निज़ाम की बुनियाद
कुछ ऊसूलो पर है। यह खास तौर से तीन चीज़ो की ज़िम्मेदारी लेते है :
(1) लोगों के आपसी झगडो़ को
सुलझाना
(2) समाज के अधिकारों के
हनन से रोकना
(3) रियासत या खिलाफत या
वालियों और आम लोगों के दरमियान में होने वाले झगडो़ को सुलझाना और आवाम की
हुक्मरानो के खिलाफ शिकायते सुनना और उन्हे दूर करना।
इस्लाम में अदालती निज़ाम
इस्लाम की शुरूआत से ही मौजूद है और इस्लामी क़ानून की मुख्य बुनियाद यानी
क़ुरआन, सुन्नत और इज़्माए सहाबा मे दलीले तफ्सीर
से पाई जाती है। इस्लाम में अदालती निज़ाम या अदालती ढांचे की बुनियाद की स्थापना
काज़ीउल क़ुज़ा के इनेक़ाद से होता है जो कि दूसरे क़ाजियों को पद पर रखने और उनकी
निगरानी करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।
इस्लाम में तीन तरह के
काज़ी होते है वोह इस तरह से है
(1) वोह काज़ी जो लोगों के
बीच मामलात और ऊकूबात से सम्बन्धित झगडो़ को सुलझाता है।
(2) वोह काज़ी जिसको मोहतसिब
कहते है जो समुदाय के अधिकारों के हनन के मामले में फैसला करता है।
(3) महकमतुल मज़ालिम यानी
वोह काज़ी जो कि नाईन्साफी के मामलात सुलझाता है जिसमें जनता के और हुक्मरान और
सरकारी अफसरो के दरमियान झगडो का समाधान किया जाता है।
काज़ी के लिए शर्त यह है
कि वोह मुस्लिम हो, बालिग हो, आजाद हो, आकिल (दिमाग सही हालत में हो) हो, और आदिल
हो और फक़ीह हो ताके उसको यह पता हो के किस तरह से किसी हुक्म को किस हालात में
लागू किया जाता है।
महकमतुल मज़ालिम के काज़ी
के लिए यह ज़रूरी है के वोह मर्द और एक मुज्तहिद हो यानी कि इज्तिहाद करने का गुण
रखता हो। काज़ी मज़ालिम को इस बात का अधिकार है के वोह किसी भी हुक्मरॉं को,
गर्वनर को या प्रशासनिक पद हासिल करने वालो को जिसमें खलीफा भी मौजूद है उसको अपने
पद से हटा सकता है और इसका सबूत अल्लाह के नबी (صلى الله
عليه وسلم) के ज़माने में मौजूद है और खुल्फाए राशीदीन के ज़माने में भी
पाए जाते है।
अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने अब्दुल्ला इब्ने नोफेल को मदीने के न्यायधीश के तौर पर
मुकर्रर किया और राशीद इब्ने अब्दुल्लाह को इस अदालती निज़ाम का प्रमुख बनाया और
एक शिकायती महकमा भी क़ायम किया। ये बात इब्ने इस्हाक जिल्द नं. 4 मे मौजूद है।
जहॉं तक अदालतो का ताल्लुक
है तो अदालत में सिर्फ एक जज होता है और सिर्फ एक ही जज को फैसला देने का अधिकार
होता है दूसरे जजों उसे सिर्फ मश्वरा देने या उसके मददगार की हैसियत से होते हैं।
इस्लाम में जूरी (Jury) का तसव्वुर नही है ऐसा इसलिए है क्योंकि जो फैलसा दिया
जाता है वोह इस्लामी स्त्रोत और इस्लामी बुनियादों के आधार पर होता है ना कि
इन्सानी अक़्ल के आधार पर जैसा कि पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष समाज के अन्दर पाया
जाता है।
ना ही इस्लामी अदालतो में
फैसले के खिलाफ अपील करने की कोई गुन्जाइश होती है क्योंकि इस्लामी अदालतों में
फैसला तभी दिया जाता है जब उसके खिलाफ गवाह हो और दलील पूरी तरह से साबित हो जाती
है। दलील के ताल्लुक से किसी भी तरह का शक व शुबा होता है तो ऐसे मामले को आगे
नही बढा़या जाता।
जब दलील और गवाह और सबूत
पूरी तरीक़े से साबित हो जाता है तो उसके बाद दिये गये फैसले को अल्लाह का फैसला
समझा जाता है और उसको दुबारा से तब्दील नही किया जा सकता।
इस्लाम का अदालती निज़ाम या
निज़ामें ऊकूबात अल्लाह तआला की रहमत है और इस्लाम की सबसे बडी़ खूबसूरती है।
इस्लामी निज़ामे ऊकूबात के ऊसूल निम्नलिखत है :
(1) एक मुस्लिम अपने हर
आमाल के लिए ज़वाबदेह है। शरीयत में ऐसे बहुत सारे जुर्म है, जिसके लिए सज़ाए है जो
राज्य के ज़रिए लागू की जाती है। यह ऊसूल ज़रूरी है क्योंकि इससे ना सिर्फ समाज
की सुरक्षा होती है बल्के दुनिया मे इन जराईम की सज़ा पाने के बाद मरने के बाद की
ज़िन्दगी में भी इस जराईम का गुनाह खत्म हो जाता है। यह एक कफ्फारा है जो इन्सान
अपने जुर्म के लिए देता है और अल्लाह तआला से माफी तलब करता है। एक मुसलमान के
लिए ज़रूरी है के वोह इस बात को हमेशा याद रखें कि जो कुछ वो कर रहा है उसे अल्लाह
जानता है ।
इसलिए बहतर है के उसको अपने गुनाहो की सज़ा इस
दुनिया में ही मिल जाए और उसको यहॉं इख्लास के साथ तौबा करने का मौका मिल जाए
ताकि वोह आखिरत के अज़ाब से बच सके। क्योंकि आखिरत में मिलने वाला अज़ाब ज़्यादा
शदीद है यानी ज़हन्नुम की आग।
अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) के ज़माने में बहुत से मुस्लिम अपने जुर्म का इकरार कर लिया करते
थे ऐसे जुर्म जिनमें बहुत सख्त सज़ा मिलती थी और उन्होंने वोह सज़ा खुद अपनी
मर्जी से पाई क्योंकि वोह नही चाहते थे कि क़यामत के दिन उनका शुमार उन बडे़
गुनाहगारों में से हो.
अबू दाऊद मे रिवायत आई है
के एक आदमी ने इस बात का ऐतराफ किया के उससे ज़िना हो गया है और उसको पत्थर मारकर
संगसार करने का हुक्म दिया गया और अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने फरमाया के अल्लाह के नज़दीक वोह मुश्क की खुशबू से भी ज़्यादा
पंसदीदा है।
अबू दाऊद की एक और रिवायत मे
है
''एक औरत ग़ामिद की रहने
वाली अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) के पास आती है और कहती है मैने ज़िना
का इर्तिकाब किया है जो काबिले सज़ा है। आप (صلى الله
عليه وسلم) ने ज़वाब दिया तुम चली जाओ।'' वोह चली गई अगले दिन वोह दुबारा
अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) के पास आई और कहा ''शायद आप मुझे
वापस भेजना चाहते है जैसा कि आपने माईस बिन मलिक के साथ किया लेकिन मैं अल्लाह की
क़सम खाती हूँ के मैं हामला हूँ।
अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने उससे कहा कि तुम चली जाओ। ''वोह फिर अगले दिन अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) के सामने लौट आई तो आप (صلى الله
عليه وسلم) ने कहा ''तुम वापस चली जाओ जब तक कि तुम बच्चे को जन्म ना दे
दो।'' वोह फिर वापस आई जब उसने बच्चे को जन्म दे दिया तो वोह अपने साथ वोह बच्चे
को लेकर आई और कहा यह रहा वोह बच्चा जिसको मैने जन्म दे दिया है तो आप (صلى
الله عليه وسلم) ने कहा "वापस चली जाओ और उस वक़्त तक के लिये जब तक कि तुम
इसको दूध पिलाओ और यह दूध ना छोड़ दे"।
जब उसने उसका दूध छुडा
दिया तो वोह अपने साथ उस लड़को को आप (صلى الله
عليه وسلم) के सामने लेकर आई। उस बच्चे के हाथ में कुछ था जिसे वोह खा रहा
था। उसके बाद उस लड़के को कुछ मुसलमानों के ज़िम्मे दे दिया गया और आप (صلى
الله عليه وسلم) ने उसके मुताल्लिक हुक्म दिया तो गढा़ खोदा गया और आप (صلى
الله عليه وسلم) ने हुक्म दिया उसको संगसार कर दिया जाए।''
हज़रत खालीद बिन वलीद भी
उनमें से एक थे जो उस पर पत्थर फैक रहे थे उन्होंने उसकी तरफ पत्थर फैंका जब
उसके गालों पर खून टपकने लगा तो उन्होंने उसको भला-बुरा कहा। आप (صلى
الله عليه وسلم) ने कहा, "खालीद नर्मी से काम लो, क़सम है उस
खुदा की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है उसने तौबा की है इस हद तक के अगर किसी ने
हक़ से ज़्यादा लिया होता और वोह उस ज़्यादा के मुताबिक़ तौबा करता तो उसे भी माफ कर
दिया गया होता।''
फिर अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने उसके मुताल्लिक हुक्म दिया और आप (صلى
الله عليه وسلم) ने उसके जनाज़े की नमाज़ पढी़ और उसे दफनाया गया।''
(2) इस्लाम की दण्ड व्यवस्था
(निज़ामें ऊकूबात) का ऊसूल यह है ''के सज़ाओ को जितना ज़्यादा मुम्किन हो उतना
ज़्यादा रोका जाए।
''क्योंकि सज़ाओं की सख्ती
लोगों को मुमकिन हद तक जुर्म से रोकने के लिए है"
अगर किसी भी तरह से गवाह और दलील में शक़ व शुबा
पाया जाता हो तो उससे किसी भी तरह की सज़ा रोकी जा सकती है।
अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) की सीरत की किताब में यह बात आई है के जब कोई फर्द आप (صلى
الله عليه وسلم) के पास सज़ा को अपने ऊपर लागू करने के लिए आता था तो आप (صلى
الله عليه وسلم) सज़ा को बहुत रोकने की कोशिश करते थे.
यह रिवायत है कि अल्लाह
के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया :
''किसी मुज़रीम को आज़ाद
छोड़ देना बेहतर है, इस बात से के कोई मासूम को किसी ऐसे गुनाह की सज़ा मिले जो
उसने नही किया।''
हज़रत आईशा से रिवायत है
के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया:
''जितना ज़्यादा हो सकें तुम
सज़ाओं को टालों। अगर तुमसे ऐसा कोई रास्ता निकल सके के किसी मुसलमान को आज़ाद
किया जा तो निकलों। अगर एक ईमाम किसी को माफ करने के मामले में गलती कर दे तो यह
उसके लिए बेहतर है, इस बात से के वोह उसको सज़ा देने के मामले
में गलती करें।''
इससे पता चलता है कि इस्लामी
दण्डव्यवस्था किस क़दर इन्सान पर सज़ाओं को टालने और इन्सान को जुर्म से दूर
रखने के लिए है।
आज के सेक्यूलरवादी व्यवस्था
की सूरतेहाल यह है कि किसी को सज़ा देने के लिए अगर थोडी़ बहुत भी दलील मिल जाती
है या मुज़रिम बनाया जा सकता है तो उस दलील की खोज़ की जाये और उसको साबित कर के लोगों
को सज़ा दे दी जाती है।
सेक्यूलरवादी व्यवस्था मे ऐसी
बहुत सारी मिसाले हैं जहॉं बहुत सारे मासूम लोगों को बिना जुर्म साबिर हुए लम्बी
लम्बी सज़ाऐ दी गई और बाद में वोह मासूम साबित हुए।
पश्चिमी सभ्यता इस्लाम
के एक जीवन व्यवस्था के तौर पर फिर से उभरने पर खौफज़दा है यहॉ तक कि इस वक़्त
दाडी़ रखने वाले और खिमार व जिल्बाब पहनने वाले लोगों से भी। वोह यह साबित करना
चाहते है के यह एक आतंकवादी मेंटलिटी (फिक्र) है और इसको कै़द व बंद में रखना
चाहिए और इस पर रूकावट लानी चाहिए।
(
3) इस्लाम इसलिए आया है
ताके पाँच चीज़ों की हिफाज़त और सुरक्षा कर सकें और इनका ताल्लुक गै़र-मुस्लिम
यानी अहले ज़िम्मा से भी है क्योंकि अल्लाह के नबी (صلى
الله عليه وسلم) ने फरमाया
''जिस किसी ने
अहले जिम्मा को नुक्सान पहुँचाया तो उसने मुझे भी नुक्सान पहुँचाया।''
चूँकि इस्लामी रियासत में
सारे शहरी बराबर हैसियत रखते है इसलिए इस बात की ईज़ाजत नही है के दूसरे के साथ
भेदभाव दिया जाए।
यह पाँच मसले इस तरह से है
:
पहला मसला (अक़ीदे की
हिफाज़त): पश्चिमी समाज की सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष) व्यवस्था में मज़हब यानी
धर्म को लगातार हमलों का निशाना बनाया है. पश्चिमी मीडिया और उसके तथाकथित
बुद्धिजीवी लोगों ने अपना बहुत वक़्त ना सिर्फ इस्लाम बल्के इसाईयत पर भी हमले
करने में लगाया है। क़ुरआन में अल्लाह का फरमान है :
لَآ اِكْرَاهَ فِي الدِّيْنِ
''दीन
के मामलें में कोई जबरदस्ती नही है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलबक़रा आयत : 256)
इस आयत का मतलब यह है कि
गै़र-मुस्लिमों के पर कोई जबरदस्ती नही है कि वोह मुसलमान बनें और उन्हे अपने
धर्म की पालना करने का और उस पर अमल करने का अधिकार है और उनको उसके लिए सुरक्षा
दी जाती है। इस्लामी अक़ीदा दीन की बुनियाद है, एक कीमती जोहर है, जिसकी हिफाज़त होनी चाहिए इसलिए
जो कोई भी इस्लाम लाने के बाद इस्लाम को छोडता है तो उसको पहले समझाया जाता है, मश्वरा दिया जाता है और बाद में अपनी इस्लाह नही करने की सूरत में उसको
मौत की सज़ा दी जाती है।
दूसरा मसला (इज्ज़त की हिफाज़त): इस्लाम में औरत एक ईज्ज़त है और उसको हर तरह
के खतरात, बोहतान (लाछन), असुरक्षा से सुरक्षित रखा जाए। यह पश्चिम से बिल्कुल
मुख्तलिफ है, जहॉं पर औरत को सिर्फ अपनी जिस्मानी ख्वाहिशों का एक साधन माना
जाता है और औरत के जिस्म को एक सामान की तरह समझा जाता है।
इसलिए इस्लाम औरत की
हिफाज़त करता है उन लोगों को सज़ा देता है जो कोई भी किसी औरत पर तौहमत बांधते और
बोहतान तराशी करते है। और इसके साथ इस्लाम औरत की ईज़्ज़त की हिफाज़त और उसकी
शान की हिफाज़त करता है.
तीसरा मसला (अक़्ल की हिफाज़त): इस्लाम अक़्ल की सुरक्षा की गारण्टी
लेता है । वोह सारे मश्रूबात (drinks) जैसे
शराब और दूसरे नशीले पेय जो इंसान के दिमाग को खराब कर देते है, इस्लाम में हराम क़रार दिए है और इस्लाम इन तत्वों पर रोक लगाता है.
इसके मद्देमुकाबिल पश्चिम, जिस कि पूरी सभ्यता शराब और एल्कोहल
पर बनी है, वोह अब ड्रग्स को भी क़ानूनी हैसियत देने के लिए
कोशिशें कर रहा है।
सामाजिक समस्याए जो कि
इनके नतीजें में आई है वोह दिन पे दिन अब बहुत ज़्यादा खतरनाक शकल इख्तियार करती
जा रही है और बढ़ती जा रही है। कोई हैरत नही कि अब लोग लज़्जते पाने के लिए
नये-नये विकल्प तलाश कर रहे है जिसने उनके पूरे सामाजिक और नैतिक ढांचे को खराब
कर दिया है।
चोथा मसला (मिल्कियत
की हिफाज़त)
पश्चिमी सभ्यता और उसकी
हुकूमत में कई सारी बैंके और वाणिजिक सोसायटी होती है जो लोगों के माल को बडे़ ही
सभ्य तरीक़े से चुराती है और डाका डालती है.
इसके मुक़ाबले में इस्लाम
शहरियों की दौलत की हिफाज़त करता है। इसके लिए इस्लाम सख्त क़ानून लागू करता है
यानी कि चोर के हाथ काटकर। इस सज़ा के ऊपर पश्चिमी लोग काफी हमला करते है और उसको
ज़ालिमाना और अत्याचारी मानते है, लेकिन यह हमला बेबुनियाद है बल्के इस्लाम के
दुश्मनों की दुश्मनी को ज़ाहिर करता है।
हक़ीक़त यह है के चोर के
हाथ काटने के ताल्लुक से बहुत सारी पाबंदिया है मिसाल के तौर पर :
1. इसके दो गवाह चाहिए,
2. और जिस आदमी ने चोरी की
है वोह चोरी उसने बहुत महफूज़ जगह से की हो
3. और अगर किसी ने चोरी की
और वोह बहुत ज़्यादा ज़रूरत की बुनियाद पर की गई है तो उस पर कोई सज़ा नही है।
5. अगर किसी ने एक तय
तादाद (निसाब) से कम की चोरी की है तो उस पर हाथ काटने की सज़ा नही है।
ऐसी बहुत सारी शर्ते है
जिससे इस सज़ा के लागू होने की संभावनाऐं बहुत कम हो जाती है।
पॉंचवा मसला
(जान की हिफाज़त):
हज़रत मोहम्मद (صلى
الله عليه وسلم) ने फरमाया के
''एक मुसलमान
की जान काबा और उसके आस-पास की चीज़ो से भी ज़्यादा कीमती है।''
इसलिए एक खून की सज़ा मौत
है और यह उस मरने वाले के परिवार का हक़ है के या तो वोह उसे माफ कर दे या वोह
उसके बदले में खून बहा (blood money) हासिल करें।
यह वोह पॉंच तरह की सुरक्षा है जो कि इस्लाम मुहय्या कराता
है जो हर इंसान को दरक़ार है. यह वही चीज़ है जो हर इंसान चाहता है। कोई भी मर्द
या औरत अपनी ज़िन्दगी, अपनी दौलत और अपनी ईज़्ज़त वगैराह की सुरक्षा चाहता है और
ऐसी कोई सोसायटी इस वक़्त दुनिया में नही है जो इन सब चीज़ों की गारंटी उसे प्रदान
करती हो।
बल्के इसके मुकाबले में
पश्चिम में इन सुरक्षाओं का हनन और शोषण किया जाता है और उनका गलत फायदा उठाया
जाता है। यह नामुम्किन है के किसी को दिमागी सुकून हासिल हो जबकि वोह लोग मोर्गेज़
(ब्याज पर लिये गये लोन) में मुलव्विस हो और उनके सर पर हर वक़्त कर्ज़ और
मोर्गेज छाया हुआ हो या जुर्म के वारदात बहुत ज़्यादा बढ़ रहे हो खास तौर से रेप
और चोरी के और जबकि व्यवस्था के पास इस समस्या का कोई जामेअ और विस्तृत हल
मौजूद ना हो।
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