जब इंसान की जिबल्लियत (मूल प्रवर्ति/instinct) भड़कती है तो पूर्ति चाहती है और जब तक ये उभरे नहीं तो पूर्ति या अपने
इत्मिनान का मुतालिबा (demand) नहीं करती। जब
ये जिबल्लियत उभर कर अपनी पूर्ति चाहती है तो इंसान को मुहर्रिक (प्रेरित) करती है
कि वो इस जिबल्लियत की पूर्ति के लिए कोशिश करे। फिर जब इस भड़की हुई जिबल्लियत को सेराब
ना किया जाये, इंसान फ़िक्रमंद रहता है और जैसे ही इस जिबल्लियत को सेराब कर
दिया जाये, इंसान मुतमईन हो जाता है। जबकि उसका इत्मिनान या पूर्ति के ना
हो पाने से मौत घटित नहीं हो जाती और ना ही कोई जिस्मानी, अक़्ली या
नफ्सियाती नुक़सान पहुंचता है। पूर्ति ना होने की सूरत में बस फ़िक्रमंदी और मायूसी पैदा
होती है। लिहाज़ा जिबल्लियत की पूर्ति जिस्मानी हाजत की तरह कोई स्थाई या ज़रूरी चीज़
नहीं बल्कि उसकी पूर्ति इत्मिनान और राहत के लिए की जाती है।
दो मुआमले ऐसे हैं जिनसे जिबल्लियत में उभार आता है या जिबल्लियत
भड़कती है: एक तो किसी माद्दी हक़ीक़त का सामने होना
और दूसरा कोई फ़िक्र और इस फ़िक्र से मुताल्लिक़ सोच।
इन दोनों में से अगर एक भी ग़ैर मौजूद हो तो जिबल्लियत नहीं भड़कती,
इस के माअनी ये हुए कि जिबल्लियत जिस्मानी हाजत से अलग होती
हैं। जिबल्लियत किसी अंदरूनी तहर्रिक (Internal
Motivation) से नहीं भड़कती
बल्कि जिबल्लियत के भड़कने के लिए बाहर से तहर्रिक ज़रूरी है
यानी माद्दी हक़ीक़त का होना और फिर इस से मुताल्लिक़ सोच का होना।
ये उसूल तमाम जिबल्लियत पर सादिक़ आता है जैसे जिबल्लियते नौ (sexual instinct), जिबल्लियते तदय्युन (religious instinct) वग़ैरा।
चूँकि जिबल्लियते नौ इस माअनी में दूसरी जिबल्लियत की तरह है
कि जब ये उभरे तो पूर्ति चाहती है और ये तब तक नहीं भड़कती जब तक कोई माद्दी हक़ीक़त या इस से मुताल्लिक़
फ़िक्र ना हो लिहाज़ा इंसान के लिए इस जिबल्लियत पर क़ाबू रखना उसके बस में होता है।
हक़ीक़त में इंसान इस जिबल्लियत की पूर्ति के लिए क़दम बढ़ा भी सकता है और इस पूर्ति को
इंसान उस हद में भी रख सकता है जो नस्ले इंसानी के बक़ा की तरफ हो। लिहाज़ा दूसरी जिन्स
को देखना या किसी और माद्दी हक़ीक़त का सामने होना, जिन्सी क़िस्से
कहानियाँ पढ़ना या जिन्सी सोच की बातें सुनना,
ये तमाम चीज़ें जिबल्लियते नौ को उभारती हैं। इसी तरह उन तमाम
चीज़ों से दूर रहना इस जिबल्लियत को उभरने से रोकता है क्योंकि जिबल्लियत के उभार के
लिए या तो किसी माद्दी हक़ीक़त का होना या उससे मुताल्लिक़ फ़िक्र का होना लाज़िमी है।
लिहाज़ा जब समाज का मर्द और औरत के मुताल्लिक़ नुक़्ताए नज़र नर
और मादा के होने पर मर्कूज़ होगा यानी जिन्सी ताल्लुक़ पर मर्द और औरत का रिश्ता मर्कूज़
होगा और मर्द और औरत का कुल हासिल उन का नर और मादा होना होगा जैसा कि पश्चिमी
समाज का हाल है तो ये समाज ऐसी माद्दी हक़ीक़त के साधन पैदा करने और ऐसे अफ़्क़ार (विचार)
और सोच उभारने में लगा रहेगा जो मर्द और औरत में इस जिबल्लियत को भड़काते हों ताकि फिर
इंसान इस जिबल्लियत के इत्मिनान और उसकी पूर्ति के लिए खड़ा हो और इस जिबल्लियत को सेराब
करे। इसके दूसरी तरफ जब समाज का मर्द और औरत के बारे में तसव्वुर (अवधारणा) ये हो कि
इस जिबल्लियत को इंसान के अंदर नसल की बक़ा के लिए रखा गया है तो ऐसे समाज में ये कोशश
होगी कि इस जिबल्लियत को भड़काने वाली माद्दी हक़ीक़त और इससे मुताल्लिक़ अफ़्क़ार को
आम ज़िंदगी से दूर रखा जाये ताकि ये जिबल्लियत ना भड़के और अपनी पूर्ति की माँग ना करे
जो उपलब्ध नहीं है और इस तरह इस जिबल्लियत से पैदा होने वाली मायूसी और फ़िक्रमंदी से
महफ़ूज़ रहे। और ये कि इस जिबल्लियत को उभारने वाली माद्दी हक़ीक़तों को निकाह के रिश्ते
तक सीमित करना इंसानी नसल के बक़ा के लिए ज़रूरी है जिसके दायरे में इस जिबल्लियत
की पूर्ति और तश्फ़ी इत्मिनान हो। इस से मालूम हुआ कि किसी समाज का मर्द और औरत के मुताल्लिक़
नुक़्ताए नज़र किस हद तक मर्द और औरत के बीच ताल्लुक़ को प्रभावित करता है और समाज को
किस राह पर चलाऐ रखता है। पश्चिमी समाज जिसने सरमाया दाराना मब्दा (capatilist ideology) को अपनाया है और मशरिक़ी पूर्वी समाज,
दोनों का मर्द और औरत के बारे में नुक़्ताऐ नज़र जिन्सी नज़रिया
है ना कि इंसानी नसल की बक़ा का नज़रिया। लिहाज़ा इनकी कोशिश यही होती है कि समाज में
इंसान के सामने इस जिबल्लियत को भड़काने और उभारने वाले साधन और जिन्सी अफ़्क़ार
(कामुक विचारों) को जारी रखा जाये ताकि मर्द और औरत इस भड़की हुई जिबल्लियत को सेराब
करने की जुस्तजू करे। उनके हिसाब से इस जिबल्लियत की सेराबी ना करना,
जिस्मानी, अक़्ली और नफ्सियाती नुक़्सान का सबब बनता है। नतीजतन मग़रिबी और
मशरिक़ी मुआशरों में और उन के क़िस्से कहानीयों और शायरी वग़ैरा में जिन्सी अफ़्क़ार की
कसरत होती है और घरों में , बाज़ारों, रास्तों बागीचों
या तैरने की जगहों वग़ैरा पर मर्द और औरत का ग़ैर ज़रूरी मेल जोल होता है क्योंकि वो इस
इख़्तिलात को बेहद ज़रूरी ख़्याल करते हैं और ऐसे हालात पैदा करते हैं जहाँ ये इख़्तिलात
मुम्किन हो जो उनके ज़िंदगी जीने का तरीक़ा और उसके नज़म का ज़रूरी हिस्सा हो।
पश्चिमी और पूर्वी समाज के बरअक्स मुसलमान जो इस्लाम को मानते
हैं और इस्लाम के अक़ीदे और अहकामात पर ईमान रखते हैं, दूसरे लफ्ज़ों में मुसलमान जो मर्द और औरत के ताल्लुक़ के बारे
में इस्लाम के नुक़्ताऐ नज़र को मानते हैं कि ये नुक़्ताऐ नज़र इंसानी नसल के बक़ा के लिए
है ना कि सिर्फ जिन्सी ताल्लुक़ पर केन्द्रित है। लिहाज़ा इस्लाम का इस ताल्लुक़ से नुक़्ताऐ
नज़र ये है कि समाज में जिन्सी फ़िक्र और सोच का होना नुक़्सान का सबब है और माद्दी (भौतिक)
हक़ीक़त का सामने होना ऐसा अम्र है जो समाज को बिगाड़ या फ़साद (Corruption)
की तरफ़ ले जाता है। चुनांचे इस्लाम ने मर्द और औरत के बीच
ख़िलवत (तन्हाई) से मना किया, औरत को अपना बनाओ सिंगार ग़ैर महरमों पर ज़ाहिर करने से रोका, मर्द और औरत
दोनों को एक दूसरे की तरफ जिन्सी शहवत की निगाह से देखने से रोका,
सार्वजनिक जीवन (Public
Life) में मर्द और औरत के बीच मेल जोल को तय अहकाम का पाबंद किया और
मर्द और औरत के बीच जिन्सी ताल्लुक़ को सिर्फ़ दो हालतों तक सीमित किया यानी रिश्ताऐ
निकाह और मिल्के यमीन तक सीमित किया।
लिहाज़ा इस्लाम इस जिबल्लियत को आम ज़िंदगी में किसी भी चीज़ से
भड़क जाने से रोकता है और जिन्सी ताल्लुक़ को ऊपर वर्णित दो हालतों तक सीमित रखता है।
जबकि पूँजीवादी और कम्युनिस्ट निज़ाम इसके बरअक्स इस जिबल्लियत को उभारने और भड़काने
के वसाइल पैदा करते हैं और इस जिबल्लियत को बेलगाम खुला छोड़ देते हैं जबकि इस्लाम
का मर्द और औरत के मेल जोल के बारे में नुक़्ताऐ नज़र इंसानी नसल के बक़ा के हवाले से
है ना कि सिर्फ जिन्सी ताल्लुक़ पर मर्कूज़ है। सरमाया दाराना और कम्युनिस्ट निज़ाम मर्द
और औरत और उनके बीच ताल्लुक़ को बस एक जिन्सी नज़रिया और चश्मे से देखते हैं। इस हवाले
से इन दोनों नज़रियात के मौक़िफ़ (मत) और इस्लाम के नुक़्ताऐ नज़र में ज़मीन आसमान का फ़र्क़
है और ये आपस में एक दूसरे से विपरीत हैं। इन मबादी (idiologies) के मौक़िफ़ और इस्लाम के नुक़्ताऐ नज़र के फर्क़ को समझ लेने से साफ हो जाता है कि इस्लाम
का मौक़िफ़ तहारत, पाकीज़गी का नज़रिया है जो इंसानी ख़ुशहाली और इंसानी नसल के बक़ा
का नज़रिया है।
पूंजीवादी और कम्युनिस्ट निज़ामों के मानने वाले लोगों का ये
दावा है कि इस जिबल्लियत का सेराब ना किया जाना फ़िक्रमंदी और मायूसी का सबब है और इस
के नतीजे में इंसान के जिस्म, उस की अक़्ल और नफ्स को नुक़्सान पहुँचता है। ये सही तसव्वुर नहीं
है बल्कि हक़ीक़त के बिल्कुल ख़िलाफ सिर्फ उन का वहम है। इसके ग़लत होने की दलील ये है
कि दरअसल जिबल्लियत और जिस्मानी हाजत अपनी पूर्ति के लाज़िम होने के हवाले से दो अलग
अलग चीज़ें हैं । जिस्मानी हाजात जैसे खाना, पानी, कज़ाऐ हाजत वो हैं जिन का पूरा किया जाना बिल्कुल ज़रूरी है,
अगर उन्हें पूरा ना किया जाये तो जिस्म को नुक़्सान पहुँचता है
और मौत घटित हो सकती है जबकि जिबल्लियते, जैसे जिबल्लियते
नौ (sexual
instinct), जिबल्लियते तदय्युन (religious instinct) तो उनका पूरा ना किया जाना उस तरह लाज़िमी नहीं होता कि इसके पूरा ना होने से
जिस्म को, अक़्ल या नफ्स को नुक़्सान पहुँचे,
अलबत्ता इस से सिर्फ मायूसी और फ़िक्रमंदी पैदा हो सकती है। उसकी
दलील ये भी है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन जिबल्लियतों को सेराब किए बगै़र सारी
उम्र गुज़ार देते हैं और इसके बावजूद उन्हें किसी क़िस्म का नुक़्सान नहीं पहुँचता। फिर
इन मबादी (idiologies) के मानने वालों का ये वहम कि जिबल्लियतों का पूरा ना किया
जाना जिस्मानी नुक़्सानात की वजह बनता है, यूं भी बेबुनियाद है कि ऐसा नुक़्सान हर एक इंसान को नहीं बल्कि
सिर्फ़ कुछ लोगों को इस से नुक़्सान पहुँचता है जिस के माअने ये हुए कि जिबल्लियत को
सेराब ना करने से ऐसा नुक़्सान पहुँचना इस जिबल्लियत को सेराब ना करने की वजह से लाज़िमी
और क़ुदरती नहीं बल्कि ये कुछ दूसरी वजहों की बिना पर होता है। क्योंकि अगर ये नुक़्सान
जिबल्लियत को दबाने और उसे सेराब ना करने के नतीजे में लाज़िमन होता तो हर एक शख़्स
जो अपनी जिबल्लियत को सेराब ना करता हो उसे ये नुक़्सान लाज़िमन पहुँचता जबकि हक़ीक़त
में ऐसा नहीं है। इन निज़ामों के मानने वाले इस हक़ीक़त को भी मानते हैं कि ये जिस्मानी
और नफ्सियाती नुक़्सान इन जिबल्लियतों को दबाने का नतीजा नहीं हैं
लिहाज़ा ये नुक़्सानात कुछ दूसरे मुहर्रिकात (motives) के नतीजे में ही हो सकते हैं।
इसके अलावा ये भी हक़ीक़त है कि जिस्मानी हाजात अंदरूनी तौर ही
अपनी पूर्ति की माँग करती हैं,
उन्हें किसी बाहरी मुहर्रिक (external Motivation) के असरअंदाज़
होने की ज़रूरत नहीं, गो कि कोई
बाहरी मुहर्रिक भूक की हालत में इस अंदरूनी हाजत को मुतास्सिर कर सकता है,
इसके दूसरी तरफ, जिबल्लियतों का आलम ये होता है कि बगै़र किसी अंदरूनी माँग के
ही बाहरी मुहर्रिक इन जिबल्लियतों पर असरअंदाज़ हो जाते हैं,
बल्कि किसी अंदरूनी मुहर्रिक (internal motivation) के बगै़र ही बाहर की माद्दी मौजूदात या उन से मुताल्लिक़ जिन्सी
अफ़्क़ार जिबल्लियतों को प्रभावित कर देते हैं। जिबल्लियतों के मुआमले में अगर कोई बाहरी
मुहर्रिक ना हो तो जिबल्लियते उभरती नहीं हैं। ये उसूल तमाम जिबल्लियतों पर सादिक़
आता है, चाहे वो जिबल्लियते
बक़ा (survival
instinct) हो या जिबल्लियते
तदय्युन (religious
instinct) वग़ैरा। जब किसी
शख़्स के सामने कोई ऐसी माद्दी हक़ीक़त मौजूद हो जिससे कोई भी जिबल्लियत भड़के, तो वो शख़्स
हैजान का शिकार हो जाता है और फिर उस जिबल्लियत की पूर्ति का तक़ाज़ा मौजें मारता है।
फिर जब वो बाहरी मुहर्रिक जिसकी माद्दी हक़ीक़त सामने थी
अगर उसे हटा दिया जाये
या वो शख़्स किसी अहम काम में मशग़ूल (busy) हो जाए, तो फिर उस
जिबल्लियत की पूर्ति की माँग भी खत्म हो जाती है और उस शख़्स का हैजान रफ़ा हो जाता
है और वो शख़्स मुतमईन हो जाता है। जिस्मानी हाजत का मुआमला बिलकुल अलग है कि अगर एक
बार कोई जिस्मानी हाजत उभरे, तो उस की पूर्ति का तक़ाज़ा उस वक़्त तक ख़त्म नहीं होता जब तक
उस हाजत को सेराब ना कर दिया जाये।
इस बेहस से साफ हो जाता है कि जिबल्लियते नौ (sexual instinct) को पूरा ना किये जाने की शक्ल में किसी क़िस्म के जिस्मानी, अक़्ली या
नफ्सियाती नुक़्सान का बिल्कुल अंदेशा नहीं होता क्योंकि ये सिर्फ एक जिबल्लियत है ना
कि जिस्मानी हाजत। जो कुछ होता है वो सिर्फ इतना कि जब किसी शख़्स के सामने इस जिबल्लियत
को भड़काने वाली कोई माद्दी हक़ीक़त हो या इससे मुताल्लिक़ कोई सोच हो तो वो शख़्स हैजानी
कैफ़ीयत में आ जाता है और इस जिबल्लियत की पूर्ति चाहता है
और अगर इस जिबल्लियत की संतुष्टी या पूर्ति ना की जाये तो वो
शख़्स सिर्फ फ़िक्रमंद या मायूस हो जाता है। फिर अगर बार बार यही हो कि जिबल्लियत भड़के
और उसकी पूर्ति की माँग को पूरा ना किया जाये तो ये मायूसी दर्द में तबदील हो जाती
है। लिहाज़ा जब इन मुहर्रिकात (उत्प्रेरक/motives) को हटा दिया जाये जो जिबल्लियत को हवा देते और उसे भड़काते हों या वो शख़्स किसी
ऐसे काम में लग जाये जो बेहद ज़रूरी हो, तो फिर मायूसी भी ग़ायब हो जाती है। लिहाज़ा जिबल्लियते नौ जब
एक बार उभरे और उस को दबा दिया जाये तो इससे तशवीश-ओ-दर्द होता है लेकिन अगर इस जिबल्लियत
को ना उभारा जाये तो ना तशवीश होती है और ना दर्द। पस इस का ईलाज ये है कि इस जिबल्लियत
को उभारा ना जाये और ये इस तरह मुम्किन है कि इस जिबल्लियत को उभारने और हवा देने वाले
बाहरी मुहर्रिकात को उन हालतों में रोका जाये जहाँ इस जिबल्लियत की पूर्ति ना हो सकती
हो।
इस तरह सरमायादाराना निज़ाम (पूँजीवादी) और कम्युनिस्ट निज़ाम
के नुक़्ताए नज़र की ग़लती ज़ाहिर हो जाती है जो किसी समाज के मर्द और औरत के बारे में
नज़रिये को उनके सिर्फ नर और मादा होने पर केन्द्रित करता है। जब उनके नज़रिये की ग़लती
ज़ाहिर हो गई तो नतीजतन इन का पेश करदा ईलाज और हल का भी ग़लतियों से भरा होना ज़ाहिर
हो गया जो समाज में इस जिबल्लियत को उभारने का रास्ता बनाता है और इसके लिए उन मुहर्रिकात
को मंज़रे आम पर लाता है जो इस जिबल्लियत को भड़काती हों जैसे मर्द और औरत का मेलजोल,
रक़्स व सरूर (dance), खेल कूद और तमाशे और क़िस्से कहानियाँ वग़ैरा। ऊपर की गई बेहस
से इस्लाम के नुक़्ताऐ नज़र की सेहत और सच्चाई भी ज़ाहिर हो जाती है जो मर्द और औरत के
हवाले से समाज का नुक़्ताऐ नज़र उस मक़सद पर मर्कूज़ रखता है जिस ग़रज़ से ये जिबल्लियत इंसान
में रखी गई यानी इंसानी नसल के बक़ा के मक़सद से। जब इस्लाम के नुक़्ताऐ नज़र की सेहत
साबित हो गई , तो इसका पेश करदा ईलाज भी सही साबित हुआ जो इस जिबल्लियत के
मुहर्रिकात (motives) और उनकी भौतिक शक्लें उनसे संबधित फ़िक्र को हर ऐसी हालत में
रोकता है जहाँ इस जिबल्लियत की पूर्ति शरीयत के दायरे में मुम्किन ना हो। शरीयत ने
इस जिबल्लियत की पूर्ति को सिर्फ़ निकाह और मिल्के यमीन में सीमित कर दिया है। लिहाज़ा
इस्लाम ही वो इकलोता सही और जामेअ (विस्तृत) हल पेश करता है जो इस जिबल्लियत से समाज
और लोगों में पैदा होने वाले फ़साद का पूरा ईलाज है जिसके नतीजे में समाज के लोगों में
अच्छाई और बुलंदी पैदा होती है।
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