औरत और मर्द के आपसी ताल्लुक़ का नज़्म (प्रबन्ध)

इस हक़ीक़त के बावजूद कि मर्द और औरत एक दूसरे में जिबल्लियते नौ (sexual instint) यानी जन्म देने की फ़ित्रत को उभारते या भड़काते हैं, इसका सीधे तौर पर ये अर्थ नहीं कि जब कभी मर्द एक औरत से या औरत एक मर्द से मिले तो लाज़िमी तौर ये जिबल्लियत भड़क उठेगी। इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि औरत और मर्द जब एक दूसरे के साथ हों तो एक दूसरे में इस जिबल्लियत को उभारते हैं और ये उभार उन्हें जिन्सी ताल्लुक़ (physical relashion) तक पहुंचा देता है। ऐसा भी होता है कि औरत और मर्द मिलें लेकिन इनमें ये जिबल्लियत ना भड़के, जैसा कि तिजारत, मरीज़ की जराहत (Surgery) या तालीम के हलक़ों वग़ैरा में होता है, जहाँ इस जिबल्लियत के भड़कने की संभावना बहरहाल है। इस संभावना के मौजूद होने के मानी जिबल्लियत के भड़कने के नहीं। ये जिबल्लियत उस वक़्त भड़कती है जब वो दोनों एक दूसरे को मर्द और औरत होने की हैसियत से देखें ना कि नस्ले इंसानी की बक़ा के ज़ावीये (angle) से। लिहाज़ा इस हक़ीक़त को सामने रखते हुए कि मर्द और औरत एक दूसरे में जिबल्लियते नौ (sexual instint) को भड़काते हैं, ये सही नहीं होगा कि मर्द और औरत को मुकम्मल और क़तई तौर पर एक दूसरे से अलग कर दिया जाये। दूसरे लफ्ज़ों में, सिर्फ इन में एक दूसरे से इस जिबल्लियत की भड़कने संभावना और ख़तरे के सबब उनके सार्वजनिक जीवन में मुकम्मल पर्दा डाल दिया जाये और दोनों में कोई मेल जोल ही बाक़ी ना रहे। बल्कि चाहीए कि आम ज़िंदगी में उनके बीच मेल जोल और सहयोग हो क्योंकि ऐसा तआवुन समाज और आम ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है। अलबत्ता ये हक़ीक़त है कि इस तआवुन को एक ऐसे व्यवस्था के तहत ही संघठित  किया जा सकता है जो मर्द और औरत के शारीरिक रिश्तों और ताल्लुक़ को क़ाबू में रखे। ये भी ज़रूरी है कि ऐसा निज़ाम उस नज़रिये से जन्म लेता हो जो कि मर्द और औरत के आपसी ताल्लुक़ इंसानी नस्ल को आगे बढाने की ग़रज़ से है। इस निज़ाम के तहत मर्द और औरत का आम ज़िन्दगी में मेलजोल , ताल्लुक़ और तआवुन सही और महफूज़ रह सकता है।

एक ऐसा व्यवस्था जो एक सुकून भरी ज़िन्दगी की ज़मानत देता हो और मर्द और औरत के ताल्लुक़ को जिबल्लियत (मूलप्रवर्ति) के मुआफिक़ संघठित करती हो। ज़रूरी है कि उस की बुनियाद रुहानियत पर आधारित हो और शरीयत के अहकाम जिन में अख़लाक़ी इक़दार (नैतिक मुल्य) भी शामिल हैं, वो उस निज़ाम की कसौटी हों । यही इस्लाम के इज्तिमाई या सामाजिक व्यवस्था की खासियत है। ये निज़ाम चाहे वो मर्द हो या औरत उसे एक इंसान की हैसियत से देखता है जिस में जिबल्लियतें हैं, एहसास है, उसके अपने रुजहानात हैं और इस में अक़्ल ओ शऊर है। ये निज़ाम इंसान को ज़िंदगी की लज़्ज़तों से मसरूर होने को जारी रखता है और उन्हें ज़िंदगी में अपना बड़े से बड़ा हिस्सा हांसिल करने की राह में रुकावट नहीं बनता। अलबत्ता ऐसा निज़ाम इस बात को यक़ीनी बनाता है कि इंसान के अफ़आल (actions/कार्यों) से उसका समाज सुरक्षित रहे और इंसानियत ख़ुशगवार ज़िंदगी बसर कर सके। इस मफ़रूज़ा के साथ कि दुनिया में इस्लाम के सिवा और भी इज्तिमाई और सामाजिक व्यवस्था मौजूद हैं, इस्लाम की ही अकेली और सही सामाजिक व्यवस्था है, क्योंकि यही वो सामाजिक व्यवस्था है जो जिबल्लियते नौ (sexual instint) को इंसानी नसल की बक़ा की हैसियत से देखता है और मर्द और औरत के आपसी ताल्लुक़ को मर्द और औरत की हैसियत से बेहद बारीकी और तफ़सील से संघठित करता है जिस के नतीजे में इंसान के अंदर मौजूद जिबल्लियते नौ अपनी असल फितरत पर जारी रहती है और उसी मक़सद की तरफ बढती रहती है जिस के लिए अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इस जिबल्लियत को इंसान के अंदर पैदा फ़रमाया। इस खासियत के साथ साथ इस्लाम का सामाजिक व्यवस्था मर्द और औरत के ताल्लुक़ को इस तरह संघठित करता है जिस से उन के बीच आपसी तआवुन पनपे और ये समाज और व्यक्ति दोनों के लिए भलाई का सबब हो। इस के साथ साथ ये निज़ाम मर्द और औरत के तआवुन को एक अख़लाक़ी क़दर (नैतिक मुल्य) की हैसियत से होना यक़ीनी बनाता है। इस निज़ाम की ये भी ख़ासियत है कि ये अल्लाह (سبحانه وتعال) की रज़ा के हुसूल, जो कि फ़ी नफ़सही एक आला क़दर (high value) है, ये निज़ाम इस रज़ा ए इलाही को उस आपसी तआवुन का मुंज़ब्त या Controller बनाता है जिसका ज़रिया खुदा का डर और पाकीज़गी होती है । ये वो सिफत हैं जो मर्द और औरत के आपसी ताल्लुक़ को सही रास्ते पर रखती है। इस मुनफरद निज़ाम (unique system) की ये भी खासियत है कि ज़िंदगी के वसाइल-ओ-तोरास के रास्ते से बेजोड़ या परस्पर विरोधी नहीं होते।

इस्लाम ने मर्द और औरत के शारीरिक सम्बन्धों को निकाह या मिल्के यमीनमें दायराबन्द कर रखा है और इस के बाहर किसी भी ताल्लुक़ को जुर्म माना है जो सख़्त सज़ा का बाइस कारण बनता है। इस के अलावा इस्लाम ने दूसरे रिश्तों को जो जिबल्लियते नौ के सूचक हैं जैसे माता पिता का रिश्ता, बहन भाई, मामूं चचा के रिश्तों को जायज़ रखा और उन्हें महरम बनाया जिन से निकाह नहीं हो सकता। इस्लाम ने औरत के लिए वो काम जायज़ रखे जो मर्द के लिए जायज़ हैं जैसे तिजारत, खेती बाडी, उद्योग वग़ैरह। इसके अलावा शिक्षा क्षेत्र में शामिल होना, नमाज़ और दावत का पहुंचाना वग़ैरह।

इस्लाम ने ज़िंदगी के मुआमलात और लोगों के आपसी सम्बन्धों में मर्द और औरत के आपसी तआवुन को हर मुआमले में एक तयशुदा चीज़ बताया है । मर्द और औरत दोनों अल्लाह के बंदे हैं और अल्लाह की इबादत और भलाई के काम में भलाई के ज़मानत देने वाले हैं। क़ुरआन हकीम में आयात नाज़िल हुईं जिन में मर्द और औरत दोनों को इंसान होने की हैसियत से संभोधित मुखातिब किया गया, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

قُلۡ يَـٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّى رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡڪُمۡ جَمِيعًا
(ऐ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم)) कह दो: ऐ इनसानो! बेशक में रसूल हूँ अल्लाह का,भेजा गया हूँ तुम सब की तरफ़। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल आराफ:158)

और फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ
ऐ इनसानो! डरो अपने रब से (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा: 01)

अहकाम-ए-इस्लाम के हवाले से आयात में तमाम मोमिनों को मुख़ातब फ़रमाया:

 َيَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيڪُمۡ
ऐ ईमान वालो! लब्बैक कहो अल्लाह के बुलाने पर और उसके रसूल के बुलाने पर जब वो तुम को उस चीज़ की तरफ़ बुलाऐं जो तुम्हें ज़िंदगी बख्शने वाली है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अनफाल:24)

इन आयात में सैग़ा-ए-आम (आम शब्द) इस्तिमाल हुआ है जिस में औरत और मर्द दोनों शामिल हैं फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡڪُمُ ٱلصِّيَامُ
ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए हैं। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल बकरह: 183)

और फ़रमाया:
أَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ
नमाज़ क़ायम करो (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अनआम:72)

خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٲلِهِمۡ
(ऐ नबी (صلى الله عليه وسلم)) तुम उन के मालों में से सदक़ा लो (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल तौबा:103)

إِنَّمَا ٱلصَّدَقَـٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَـٰكِينِ
हक़ीक़त ये है कि सदक़ात तो दरअसल फुक़रा और मसाकीन के लिए हैं (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल तौबा:60)
وَٱلَّذِينَ يَكۡنِزُونَ ٱلذَّهَبَ وَٱلۡفِضَّةَ
और जो लोग सोने और चांदी को जमा करके रखते हैं (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल तौबा:34)
قَـٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأَخِرِ
जंग करो उन लोगों से जो अल्लाह पर और यौम आख़िरत पर ईमान नहीं रखते (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल तौबा:29)

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَابَآءَكُمۡ وَإِخۡوَٲنَكُمۡ أَوۡلِيَآءَ إِنِ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡڪُفۡرَ عَلَى ٱلۡإِيمَـٰنِۚ
ऐ ईमान वालो! तुम अपने आबा और अज्दाद (पूर्वजों को) और अपने भाईयों को अपना रफ़ीक़ मत बनाओ ,अगर वो कुफ्र को ईमान के मुक़ाबला में अज़ीज़ रखें (तर्जुमा मआनी क़ुरआन: अल तौबा:23)

ये आयात और ऐसी कईं आयात मर्द और औरत दोनों के लिए समान रूप से आईं हैं और उन पर अमल करने में मर्द और औरत का मेल मुलाक़ात की के इमकान हैं, यहाँ तक कि ऐसे अमल में भी जो इंफिरादी नौईय्यत (व्यक्तिगत श्रेणी) के हैं। ये भी दलील है इस बात की कि इस्लाम ने जिन कामों  हुक्म दिया है उन के लिए मर्द और औरत के मेल की इजाज़त रखी है।
अलबत्ता इस के साथ इस्लाम ने एहतियात भी शामिल रखा है लिहाज़ा हर ऐसी चीज़ पर पाबंदी लगाई गई है जो ग़ैर शरई जिन्सी ताल्लुक़ का ज़रीया बने और मर्द और औरत दोनों को अल्लाह (سبحانه وتعال) के तय किये गए व्यवस्था से भटकाए। दीने इस्लाम ने इस पाबंदी को सख्त रखा है और पाकीज़गी को फ़र्ज़ क़रार दिया है। हर उस वसीले (साधन) या तरीक़े को भी फ़र्ज़ रखा है जो इस पाकीज़गी और अख़लाक़ी क़दर की हिफ़ाज़त करता हो, क्योंकि क़ायदा ये है कि जिस चीज़ के बगै़र किसी फ़र्ज़ को पूरा नहीं किया जा सकता हो, वो चीज़ भी फ़र्ज़ हो जाती है। इस मक़सद को हांसिल करने के लिए शरई अहकाम तय किए गए जिन में से कुछ यूं हैं:

[1] अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मर्द और औरत दोनों को अपनी निगाहें झुकाने का हुक्म दिया, फ़रमाया:

قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٲلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَـٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ
मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें नीचीं रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, ये तरीक़ा उन के लिए ज़्यादा पाकीज़ा है, बेशक अल्लाह (سبحانه وتعال) उन बातों से पूरी तरह बाख़बर है जो वो करते हैं। और मोमिन औरतों से कहो कि अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर: 30, 31)

[2] इस्लाम ने औरतों को हुक्म दिया कि वो मुतवाज़े (Modest /शालीन) लिबास पहनें जिन में उन के जिस्म की ज़ीनत ढक जाये सिवाए उन अंगो के जो बग़ैरे हाजत ज़ाहिर होते हैं, फिर इस के ऊपर वो चादर डाल लें ताकि ढक जाएं, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِہِنَّۖ
और ज़ाहिर ना करें अपना बनाव सिंगार मगर जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाये, और ओढ़े रखें अपनी ओढ़नियों को अपने सीनों पर (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नूर:31)

और फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ قُل لِّأَزۡوَٲجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ
ऐ नबी صلى الله عليه وسلم, कहो अपनी बीवीयों से और अपनी बेटीयों से और मोमिनों की औरतों से कि वो अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अहज़ाब: 59)

तात्पर्य ये है कि औरतें अपने जिस्म के बनाव सिंगार को ज़ाहिर ना करें सिवाए उसके जो ज़ाहिर रहता ही है , यानी चेहरा और हाथ। ख़िमार वो कपड़ा होता है जो सर पर डाला जाता है और जुयूब बहुवचन है जेब की जिस से मुराद क़मीज़ का गिरेंबां जो गले से सीने तक होता है मानी ये हुए कि वो अपनी ओढ़नियों से अपने गले और सीना ढांक लें और जिलबाब को जिस्म के निचले हिस्से तक पहनें।

[3] औरत को बगै़र अपने महरम के तन्हा एक दिन और एक रात की दूरी का सफ़र करने से मना फ़रमा दिया, हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया

((لا یحل لامرأۃ تؤمن باللّٰہ والیوم الآخر أن تسافر مسیرۃ یوم و لیلۃ إلا ومعھا ذو محرم لھا))
वो औरत जो अल्लाह और रोज़े आख़िरत पर ईमान रखती हो, उसके लिए जायज़ नहीं कि वो एक दिन और एक रात का सफ़र बगै़र किसी महरम के हमराह करे (मुस्लिम)

[4] औरत और मर्द के बीच खिलवत (एकांतवास) को मना फ़रमाया सिवाए इस हालत में कि औरत का महरम उसके साथ हो। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((لا یخلونَّرجل بامرأۃ إلا مع ذي محرم))
मर्द और औरत ख़िलवत (तन्हाई) में ना रहें सिवाए इसके कि (औरत का) महरम साथ हो (बुख़ारी)

और मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي الله عنه) से नक़ल है वो कहते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को ख़ुतबा देते सुना: कोई मर्द किसी औरत के साथ तन्हाई में ना रहे सिवाए इसके कि औरत का महरम साथ हो, और कोई औरत बगै़र अपने महरम के सफ़र ना करे, तो एक शख़्स ने उठ कर अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم), मेरी बीवी हज के लिए रवाना हुई है और मैं फ़लां जंग में शामिल किया गया हूँ। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: तुम जाओ और अपनी बीवी के साथ हज करो (मुस्लिम)

[5] इस्लाम ने औरत को उस के शौहर की इजाज़त के बगै़र घर से निकलने से मना किया है क्योंकि शौहर को बीवी पर हक़ हैं, लिहाज़ा उसके लिए शौहर की इजाज़त के बगै़र घर से बाहर जाना सही नहीं और अगर वो ऐसा करे तो नाफ़रमान होती है और सरकश समझी जाती है जिसे नफ़क़ा (गुज़ारा भत्ते) का हक़ नहीं रहता। इब्ने बताह अपनी हदीस की किताब अहकामुन्निसा में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से नक़ल करते हैं कि एक शख़्स सफ़र पर गया और अपनी बीवी को घर से निकलने से मना कर गया। फिर औरत के वालिद बीमार हुए तो औरत ने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से इजाज़त चाही। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि अल्लाह से डरो और अपने शौहर की नाफ़रमानी ना करो। उसके वालिद की मौत हो गई तो औरत ने फिर हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से उन के पास जाने की इजाज़त चाही। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फिर फ़रमाया कि अल्लाह से डरो और अपने शौहर की नाफ़रमानी ना करो। इस पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने वही के ज़रीये हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से फ़रमाया कि मैंनें उस औरत की अपने शौहर की फ़रमा बरदारी के सिले में मग़फ़िरत कर दी।

[6] इस्लाम ने निजी ज़िंदगी में मस्जिद और मदरसे वग़ैरा में औरतों की मजलिस और जमात को मर्दों की मजलिस से अलग रखा है । औरत को औरतों के बीच और मर्द को मर्दों के बीच रखा है और नमाज़ में औरतों की सफ़ों (line/पंक्ति) को मर्दों की सफ़ों के पीछे रखा है और औरतों को ये सीख दी कि वो रास्तों और बाज़ारों में मर्दों के बीचो बीच ना चलें। औरत की ज़िंदगी को औरतों या इस के महरमों के बीच रखा है। लिहाज़ा औरत सार्वजनिक जीवन में अपने काम काज जैसे ख़रीद और फरोख़्त को अंजाम देने के बाद घर में औरतों और अपने महरमों के साथ रहे।

[7] इस्लाम ने ख़ास ख़्याल रखा है कि मर्द और औरत के बीच मुआमलात में तआवुन आम नौईय्यत (श्रेणी) का हो ना कि इस तरह कि औरतें ग़ैर महरम अजनबियों के साथ आने जाने का सिलसिला रखें या साथ घूमें फिरें । उस की वजह ये है कि इस तआवुन का मक़सद ये है कि औरत अपने फराइज़ की अदायगी और हुक़ूक़ का हुसूल कर पाए।

इन अहकाम के माध्यम से इस्लाम ने मर्द और औरत के मेल मिलाप में एहतियात को ध्यान में रखा है ताकि एक तरफ़ ये मेल मिलाप जिंसी ताल्लुक़ का रूप ना ले ले और दूसरी तरफ मर्द और औरत का आपसी तआवुन भी जारी रहे जो समाज के लिए फायदेमन्द हो। इस तरह इस्लाम ने मर्द और औरत के मेल मिलाप से पैदा होने वाले मुआमलात जैसे गुज़ारा भत्ता, आल और औलाद और शादी के मुआमलात को हल किया और मर्द और औरत के ताल्लुक़ को उस हद में क़ैद किया जिस मक़सद के लिए उन्हें बनाया गया था और साथ ही इन सम्बन्ध को जिस्मानी रिश्ते में भटकने से रोक दिया।



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