मोमिन पर राफ़्तगी और रहम करना वाजिब है और इसी तरह काफ़िरों पर सख़्ती और शिद्दत
भी वाजिब है क्योंकि फ़रमान इलाही हैः
يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ
اٰمَنُوْا مَنْ يَّرْتَدَّ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ فَسَوْفَ يَاْتِي اللّٰهُ بِقَوْمٍ
يُّحِبُّهُمْ وَ يُحِبُّوْنَهٗۤ١ۙ اَذِلَّةٍ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ اَعِزَّةٍ
عَلَى الْكٰفِرِيْنَ١ٞيُجَاهِدُوْنَ
فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَ لَا يَخَافُوْنَ لَوْمَةَ لَآىِٕمٍ١ؕ ذٰلِكَ فَضْلُ
اللّٰهِ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَآءُ١ؕ وَ اللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो,
जो कोई तुम में
से अपने दीन से फिरेगा, तो अल्लाह जल्द ही ऐसे लोगों को लाएगा जिन से उसे मुहब्बत होगी,
और जो उस से मुहब्बत
करेंगे, वो मोमिनों के लिए नर्म और कुफ़्फ़ार के लिए सख़्त होंगे,
अल्लाह के रास्ते
में जान तोड़ कोशिशें करेंगे,
और किसी मलामत
करने वाले की मलामत का उन्हें डर ना होगा। ये अल्लाह का फ़ज़्ल है,
जिसे चाहता है
अ़ता फ़रमाता है। अल्लाह है बड़ा कुशादा दामन,
सब कुछ जानने वाला। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल माइदा -54)
यहाँ اَذِلَّةٍ से मुराद राफ़्तगी, रहम, हमदर्दी और नरमी है। ये अज़्ज़ुल से मुश्तक़ (निकला) है जिस के
मानी ज़िल्लत और ख़्वारी है और اَعِزَّةٍ से मुराद शिद्दत,
सख़्ती, दुश्मनी और ग़लबा है। कहा जाता है अ़ज़्ज़ा (عزہ) यानी उसको मग़्लूब कर दिया। या कहा जाता
है अल अरदुल उज़्ज़ाज़ (الارض العزاز) यानी सख़्त ज़मीन।
मोमिन के साथ नरमी और कुफ़्फ़ार के साथ सख़्ती का मुआमला करना ज़रूरी है। चुनांचे दूसरी
जगह अल्लाह سبحانه وتعالیٰ इरशाद फ़रमाता हैः
مُحَمَّدٌ رَّسُوْلُ اللّٰهِ١ؕ
وَ الَّذِيْنَ مَعَهٗۤ اَشِدَّآءُ عَلَى الْكُفَّارِ رُحَمَآءُ بَيْنَهُمْ
अल्लाह के रसूल मुहम्मद ((صلى
الله عليه وسلم)) और जो लोग उनके साथ हैं वो काफ़िरों के मुक़ाबले में भारी,
आपस में नर्म दिल
हैं। (तर्जुमा मआनिये
क़ुरआने अ़ज़ीम- अल फ़तह 29)
इसी तरह अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ ने रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) को हुक्म दिया के मोमिन के साथ नरमी का बरताओ करें चुनांचे फ़रमायाः
وَ اخْفِضْ جَنَاحَكَ
لِلْمُؤْمِنِيْنَ۠
तुम तो अपने बाज़ू मोमिनों के लिए झुकाए रखो। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : हिज्र
-88)
एक दूसरी आयत में हुक्म दियाः
وَ اخْفِضْ جَنَاحَكَ لِمَنِ
اتَّبَعَكَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَۚ
और जिन एहले ईमान ने तुम्हारी पैरवी इख़्तियार की है उनके लिए
अपने बाज़ू झुकाए रखो। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : शुअ़रा -215)
और मोमिन के साथ सख़्ती करने से मना करते हुए अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ ने फ़रमायाः
فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ
لِنْتَ لَهُمْ١ۚ وَ لَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيْظَ الْقَلْبِ لَا نْفَضُّوْا مِنْ
حَوْلِكَ١۪ فَاعْفُ عَنْهُمْ وَ اسْتَغْفِرْ لَهُمْ وَ شَاوِرْهُمْ فِي
الْاَمْرِ١ۚ فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ١ؕ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ
الْمُتَوَكِّلِيْنَ
तो ये अल्लाह की रहमत है जो तुम उनके लिए नर्म हो। अगर कहीं
तुम तुर्श मिज़ाज और सख़्त दिल होते,
तो ये सब तुम्हारे
पास से मुन्तशिर हो जाते। पस उन्हें माफ़ कर दो,
और उनके लिए मग़फ़िरत
की दुआ मांगो, और मुआमलात में उन से मश्वरा लेते रहो फिर जब तुम्हारा अ़ज़्म
किसी राय पर मुस्तहकम हो जाये,
तो अल्लाह पर भरोसा
करो बेशक अल्लाह तवक्कुल करने वालों को पसंद फ़रमाता है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : आले इमरान-159)
जिस वक़्त आप को ये हुक्म दिया जा रहा है के मोमिन से शफ़क़्क़त और नरमी का मुआमला
करें और उन पर सख़्ती ना करें वहीं कुफ़्फ़ार ओ मुनाफ़क़ीन के साथ शिद्दत ओ सख़्ती का रवैय्या
इख़्तियार करने का हुक्म दिया जा रहा है।
يٰۤاَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ
الْكُفَّارَ وَ الْمُنٰفِقِيْنَ وَ اغْلُظْ عَلَيْهِمْ١ؕ وَ مَاْوٰىهُمْ
جَهَنَّمُ١ؕ
وَ بِئْسَ الْمَصِيْرُ
ऐ नबी,
कुफ़्फ़ार और मुनाफिक़ीन
से जिहाद करो, और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ आख़िरे कार उनका ठिकाना जहन्नुम
है। और वो जा पहुंचने की बदतरीन जगह है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अत्तौबा -73)
अगर मुख़ातिब रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) हैं तो इस
से मुराद ये है के पूरी उम्मत इस हुक्म की मुख़ातिब है जब तक के इस ख़िताब की तख़सीस की
दलील मौजूद ना हो। चुनांचे मोमिन पर वाजिब है के जहाँ दूसरे मोमिनों के साथ रहमत ओ
हमदर्दी, नरमी-ओ-राफ़्तगी का सुलूक करे,
वहीं कुफ़्फ़ार के सिलसिले में सख़्ती-ओ-तुंदी,
शिद्दत-ओ-दुश्मनी और क़हर ओ ग़ल्बे का इज़हार करे।
अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का इरशाद हैः
يٰۤاَيُّهَا
الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَاتِلُوا الَّذِيْنَ يَلُوْنَكُمْ مِّنَ الْكُفَّارِ وَ
لْيَجِدُوْا فِيْكُمْ غِلْظَةً١ؕ وَ اعْلَمُوْۤا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ
الْمُتَّقِيْنَ
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो,
उन काफ़िरों से
लड़ो जो तुम्हारे क़रीब हैं, और चाहिए के वो तुम में सख़्ती पाऐं और जान रखो के अल्लाह डर
रखने वालों के साथ है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अत्तौबा-123)
सुन्नते नबवी में भी इस की तस्दीक़ वारिद है चुनांचे नोमान बिन बशीर (رضي
الله عنه) की मुत्तफिक़ अ़लैह रिवायत है वो कहते हैं के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((مثل المؤمنین في توادھم
وتراحمھم وتعاطفھم مثل الجسد، إذا اشتکی منہ عضو تداعی لہ سائر الجسد بالسھر
والحمی))
आपसी मुहब्बत ओ उलफ़त,
मवद्दत-ओ-उख़वत
में मोमिन की मिसाल एक जिस्म की है। अगर जिस्म के एक हिस्सा या उ़ज़ू को तकलीफ़ होती
है तो पूरा जिस्म बुख़ार और दर्द को महसूस करता है और इस में मुब्तिला हो जाता है।
इसी तरह मुस्लिम ने अ़य्याज़ बिन अ़म्मार (رضي
الله عنه) से रिवायत
की है के वो कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) को फ़रमाते
सुनाः
((أھل الجنۃ ثلاثۃ: ذو سلطان
مقسط متصدق موفق، ورجل رحیم رقیق القلب لکل ذي قربي ومسلم، وعفیف متعفف ذو عیال))
तीन लोग जन्नती हैं,
साहिबे इक़्तिदार
शख़्स जो के इंसाफ़ परवर हो, सद्क़ा करने वाला और मुफ़ाहिमत करने वाला हो। वोह शख़्स जो नरम
दिल, अपने अ़ज़ीज़ों और मुसलमानों के लिए करीम तबअ़ हो और वोह शख़्स
जो पाक दामन, नेक हो और उसकी कसरत से औलाद हो (लेकिन माल-ओ-ज़र में कम हो)
यानी आदमी जो हर रिश्तेदार और मुस्लिम के लिए रहम करने वाला,
नर्म दिल हो।
इसी तरह हज़रत जरीर बिन अ़ब्दुल्लाह (رضي
الله عنه) से रिवायत
ये मुत्तफिक़ अ़लैह हदीस है वो कहते हैं के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((من لایَرحم لا یُرحم))
जो रहम नहीं करता उस पर रहम नहीं किया जाता।
रहमत यानी रहमते इलाही से महरूमी इस बात का क़रीना है के मुमिनीन के साथ रहम ओ करम
का मुआमला करना वाजिब है। मोमिनों के दरमियान आपसी तराहुम ओ तआतुफ के वजूब के दलाइल
में से ये हदीस भी है जिसकी रिवायत इब्ने हिब्बान ने अपनी सही में अबू हुरैराह (رضي
الله عنه) से की है वो कहते हैं के मैं रसूले अकरम को फ़रमाते सुना वो सादिक़
ओ मसदूक़ भी हैः
((إن الرحمۃ لاتنزع إلا من شقي))
रहमत सिर्फ़ शक्की और बदबख़्त ही से खींच ली जाती है।
इसी तरह मुस्लिम ने भी हज़रत आईशा रज़ी अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ अ़नहा से रिवायत की है वो कहती हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) को अपने घर
में फ़रमाते सुनाः
((اللھم من ولي من أمر أمتي
شیءًا فشق علیھم فاشقق علیہ ومن ولي من أمر امتي شیءًا فرفق بہ فارفق بہ))
ऐ अल्लाह! किसी को मेरी उम्मत के किसी मंसब (मुआमले) का ज़िम्मेदार
बनाया जाये और वह लोगों को परेशान करे तो उसको परेशान रख और किसी को मेरी उम्मत के
किसी मंसब का ज़िम्मेदार बनाया जाये और वह लोगों से शफ़क़्क़त ओ रहमत का बरताओ करे तो
उसके साथ शफ़क़्क़त-ओ-रहमत का बरताओ कर।
इस हदीस की रू से ये कहा जा सकता है के रहमत का मुतालिबा आम है लिहाज़ा इस हुक्म
में तमाम लोग शामिल हैं ख़्वाह वो मुस्लिम हों या काफ़िर या मुनाफ़िक़ या मुतीअ़ या नाफ़रमान,
जैसा के एक और हदीस है जिसकी रिवायत मुस्लिम ने हज़रत जरीर बिन
अ़ब्दुल्लाह (رضي
الله عنه) से की है
वो कहते हैं रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((لا یرحم اللہ من لا یرحم
الناس))
अल्लाह उन पर रहम नहीं करता जो लोगों पर रहम नहीं करते।
तो इसका जवाब ये दिया जाऐगा के ये सही है के अन्नास (الناس) का लफ़्ज़ आम है मगर ये वो आम है जिस से ख़ुसूस मुराद लिया जाता
है। (अ़रबी का एक क़ायदा है العام الذی یرید بہ الخاص) जैसे अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ का ये फ़रमानः
اَلَّذِيْنَ قَالَ لَهُمُ
النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ
ये वो लोग हैं जिन से लोगों ने कहा के तुम्हारे ख़िलाफ़ लोग जमा
हो गए हैं,
(तर्जुमा मआनिये क़ुरआने
करीम: आले इमरानः -173)
नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) का मोमिनों
के साथ नरमी-ओ-रहम के मुआमले में जो हदीस हैं इन में से एक रिवायत बुख़ारी और
मुस्लिम हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन उ़मर से रिवायत करते हैं उन्होंने कहाः हज़रत साद बिन
उ़बादा (رضي
الله عنه) बीमार हुए
तो रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) ,
हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन औफ,
साद बिन अबी वक्कास और अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द رضی اللہ عنھم के हमराह हज़रत
साद (رضي
الله عنه) की इयादत के लिए आए। आप (صلى
الله عليه وسلم) ने हज़रत साद (رضي
الله عنه) को ग़शी की हालत में देखा आपने पूछाः क्या इनका इंतिकाल हो गया?
लोगों ने कहाः नहीं या रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) (ये हालत देख
कर) आप रो पड़े, और जब लोगों ने आपको रोते देखा तो वो भी रोने लगे। आप ने फ़रमायाः
((الا تسمعون ؟ ان اللہ لا یعذب
بدمع العین ، ولا بحزن القلب ، ولکن یعذب بھذا۔واشار الی لسانہ۔ اور یرحم))
क्या तुम लोगों ने नहीं सुना के अल्लाह आँख के आँसुओं और दिल
के ग़म की वजह से अ़ज़ाब नहीं देगा बल्कि इसके ज़रीये। यानी ज़बान की तरफ़ इशारा किया,
अ़ज़ाब देगा या
रहम करेगा।
इसी तरह तिरमिज़ी ने हज़रत आईशा (رضي الله عنه)ا से रिवायत की है और हदीस को हसन सही क़रार दिया है के नबी अकरम
(صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत उस्मान
बिन मज़ऊन (رضي
الله عنه) को बोसा लिया जब हज़रत उस्मान (رضي
الله عنه) वफ़ात पा चुके थे और आप रो रहे थे या (बाक़ौल रावी) आप की आँखों
से आँसूं बेह रहे थे।
एक दूसरी रिवायत मुस्लिम ने हज़रत अनस (رضي
الله عنه) से रिवायत की है के नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) औरतों के
पास नहीं जाते थे सिवाए अज़वाजे मुताहिरात या फिर उम्मे सलीम (رضي الله عنه)ا के पास। कहा गया के ऐसा क्यों करते हैं। तो आप ने जवाब दियाः
मुझे उन पर रहम आता है उनके भाई को मेरी माईयत (साथ) में (ग़ज़वे में) क़त्ल किया गया था।
मोमिनों के साथ आप (صلى
الله عليه وسلم) की नरमी, मुहब्बत-ओ-उलफ़त की मिसालें अहादीस में मिलती हैं चुनांचे बुख़ारी
ने हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन उ़मर (رضي
الله عنه) से रिवायत
की है वो कहते हैं के नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने ताइफ़ का मुहासिरा किया लेकिन इस पर फ़तह हासिल ना हो सकी
तो आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया इंशा अल्लाह हम कल लौट चलेंगे। तो मुसलमानों ने कहाः
क्या वापस हो जाऐेंगे जबकि अभी ताइफ़ फ़तह भी नहीं हुआ?
आपने फ़रमायाः ठीक है कल उन पर चढ़ाई करो। चुनांचे मुसलमानों ने
दूसरे दिन हमला किया और नुक़्सान उठाना पड़ा। नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः अब कल हम वापस लौट जाऐेंगे इंशा अल्लाह। लोगों ने
ये बात पसंद की। (इस पर) रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) मुस्कुरा
दिऐ।
रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) मोमिनों के साथ रुफ़्क़त और राफ़्तगी का भी सुलूक करते थे। चुनांचे
मुस्लिम ने मुआविया बिन हकम अलसलमा (رضي
الله عنه) से रिवायत
की है वो कहते हैं: मैं रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) के साथ नमाज़ पढ़ रहा था के एक आदमी को छींक आ गई
तो मैंने कहाः या रहमुकल्लाह । इस पर लोग (तिरछी) आँखों से मेरी तरफ़ देख रहे थे। मैंने
कहाः मेरी जानिब क्यों देख रहे हो? इस पर लोग अपनी रानों को हाथ से पीटने लगे। जब मैंने देखा के
लोग मुझ को ख़ामोश करा रहे हैं तो मैं ख़ामोश हो गया। जब रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) नमाज़ से फ़ारिग़ हुऐ,
मेरे माँ बाप आप पर कुर्बान,
मैंने इस से पहले और बाद में आप से अच्छा मुअ़ल्लिम ना देखा,
ना तो उन्होंने नापसंदीदगी का इज़हार किया,
ना मारा और ना ही बुरा भला कहा,
बल्कि आप ने फ़रमायाः
((ان ھذہ الصلاۃ لا یصلح فیھا
شیء من کلام الناس ، انما ھو التسبیح والتکبیر وقراءۃ القرآن))
ये नमाज़ है इस में किसी क़िस्म की गुफ़्तगु,
बातचीत दुरुस्त
नहीं बल्कि ये तो तस्बीह, तकबीर और क़िरअते क़ुरआन का नाम है।
इसी तरह बुख़ारी ने भी हज़रत अनस (رضي
الله عنه) की रिवायत नक़ल की है वो कहते हैं: मैं रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के साथ चल रहा था। आप पर मोटे किनारे वाली नजरानी चादर थी,
तो एक ए़राबी (देहाती) आया और ज़ोर से चादर खींची। मैंने रसूले
अकरम (صلى
الله عليه وسلم) की गर्दन पर चादर के किनारे की रगड़ के निशान को देखा जो ज़ोर
से खींचे जाने की वजह से पड़ गया था। उस देहाती ने कहाः ऐ रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) अल्लाह ने आप को जो माल दिया है मुझे इस में से
कुछ दीजिए। रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने उसकी तरफ़ देखा और हंस दिए। फिर उसको कुछ देने का हुक्म दिया।
इसी तरह सहाबा رضی اللہ عنھم की आपसी मुहब्बत-ओ-मवद्दत
की मिसालें भी मिलती हैं। चुनांचे मुस्लिम ने हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي
الله عنه) से रिवायत
की है वो कहते हैं के जब हज़रत उ़मर (رضي
الله عنه) ज़ख़्मी हुए
तो हज़रत सुहैब (رضي
الله عنه) उनके पास
रोते हुए आए और कहने लगेः ऐ मेरे भाई, ऐ मेरे दोस्त! वाक़िद बिन अ़म्र बिन साद बिन मआज़ की रिवायत इमाम
तिरमिज़ी ने नक़ल की है और इसको हसन सही कहा है। वो कहते हैं: जब हज़रत अनस बिन मालिक
(رضي
الله عنه) आऐ तो मैं उनके पास पहुंचा तो उन्होंने पूछाः आप कौन?
मैंने कहाः वाक़िद बिन साद बिन मआज़। हज़रत अनस (رضي
الله عنه) रोने लगे और कहाः तुम साद से मिलते जुलते हो (तुम साद से मुशाबहत
रखते हो)।
मुस्लिम ने हज़रत अनस (رضي
الله عنه) से रिवायत की है वो कहते हैं के रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) की वफ़ात के बाद हज़रत अबूबक्र (رضي
الله عنه) ने हज़रत उ़मर (رضي
الله عنه) से कहाः चलो!
उम्मे ऐमन (رضي الله عنه)ا से मुलाक़ात करते हैं जैसे रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) किया करते थे। चुनांचे दोनों उम्मे ऐमन के पास गए
तो उम्मे ऐमन रोने लगीं। उन्होंने कहाः आप क्यों रो रही हैं?
अल्लाह के पास रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) ख़ैर ओ आफ़ियत से हैं। तो उम्मे ऐमन ने कहाः मुझे
मालूम है के अल्लाह के नज़दीक रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم) ख़ैरियत और आराम से हैं मगर मुझे रोना इस बात पर
आ रहा है के आसमान से वही का सिलसिला मुनक़ते हो गया। उम्मे ऐमन (رضي الله عنه)ا ने उनको भी रोने पर उभारा और ये दोनों भी रोने लगे।
इसी ताल्लुक़ से मुस्लिम ने हज़रत उ़मर बिन ख़त्ताब (رضي
الله عنه) की एक तवील हदीस बदर के क़ैदियों के ताल्लुक़ से रिवायत की है
जिस में है कि: फिर दूसरे दिन मैं (यानी उ़मर (رضي الله
عنه)) आया तो रसूलुल्लाह
(صلى
الله عليه وسلم) और अबूबक्र (رضي
الله عنه) को रोता पाया। मैंने उनसे दरयाफ़्त कियाः ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे
भी बताईए के किस चीज़ ने आपको और आपके साथी को ग़मगीन और रंजीदा कर दिया। अगर मुझे रोने
का सबब पता चले तो मैं भी रोऊं और अगर (कोई सबब) ना हो तो आप दोनों की गिरिया ओ ज़ारी
की वजह से मैं भी रोने की कोशिश करूं।
हाफ़िज़ इब्ने अ़ब्दुल बर ने अल इस्तियाब में जुनादा इब्ने अबी उमय्या से रिवायत
नक़ल की है के उ़बादा बिन सामित (رضي
الله عنه) इस्कंद्रिया के माअ़रिके (जंग) पर थे और उन्होंने लोगों को
क़िताल करने से रोक रखा था लेकिन लोगों ने क़िताल किया। हज़रत उ़बादा बिन सामित (رضي
الله عنه) ने जुनादा
इब्ने अबी उमय्या को बुलाया और कहा के लोगों में जाकर देखो के कोई क़त्ल तो नहीं हुआ
है? जुनादा लोगों के दरमियान गए और वापस आकर बताया के कोई क़त्ल नहीं हुआ है,
तो हज़रत उ़बादा इब्ने सामित (رضي
الله عنه) ने कहाः अलहम्दु
लिल्लाह, हुक्म की नाफ़रमानी हुई लेकिन इस में कोई क़त्ल नहीं हुआ।
यहाँ मुनासिब मालूम होता है के मुसलमानों के साथ तराहम-ओ-तआतुफ,
नरमी ओ राफ़्तगी और उनके साथ ही सख़्ती और शिद्दत के दरमियान हद्द
ए फ़ासिल को वाज़ेह कर दिया जाये और ये भी बयान कर दिया जाये के हुक्म शरई़ की अंजाम
देही और बजा आवरी में किसी क़िस्म की नरमी को कोई दख़ल नहीं और ना ही ये चीज़ें मुनासिब
हैं जो के मुसलमानों के नुक़्सान और ज़रर का बाइस बनें,
बल्कि अहकामात की बजा आवरी में और मुसलमानों को नुक़्सान और
कोताही से बचाने के लिए शिद्दत और सख़्ती का होना भी ज़रूरी है।
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