औरतों पर निगाह डालने की शरई हैसियत

जो शख़्स किसी औरत से शादी करने की ख़ाहिश करे उसका हक़ है कि वो उस औरत को देख ले, अलबत्ता ये देखना ख़िलवत (एकांत/Privacy) में नहीं हो सकता। हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से मुस्तदरक अल हाकिम में हदीस रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((إذا خطب أحدکم المرأۃ فإن استطاع أن ینظر إلی ما یدعوہ إلی نکاحھا فلیفعل۔ قال:فخطب امرأۃ فکنت أتخبأ لھا حتی رأیت منھا ما دعاني إلی نکاحھا فتزوجھا))
तुम में जब कोई शख़्स किसी औरत से निकाह करने के लिए पैग़ाम दे, तो वो उसे देख ले जिस से उस में रग़बत पैदा हो तो वो ऐसा कर ले। रावी ने अर्ज़ किया कि मैंने उस औरत को पैग़ाम भेजा है जिसे मैं छुपी जगह से देखा करता था और देखता रहा फिर जब मुझे रग़बत हुई तो मैंने शादी कर ली।

इस हदीस को हाकिम (رحمت اللہ علیہ) ने मुस्तदरक में नक़ल किया है और इमाम मुस्लिम (رحمت اللہ علیہ) की शर्त पर सही बताया है। औरत को उस की मर्ज़ी से या बगै़र उस की मर्ज़ी के देखना जायज़ है क्योंकि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) की तरफ से हुक्म ग़ैर मशरूत (without condition/शर्त रहित) है और जाबिर (رضي الله عنه) की ऊपर लिखी हदीस में आता है कि मैं छिप कर देखता था, अलबत्ता तन्हाई में उस की इजाज़त नहीं है क्योंकि नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया है:

((لا یخلون رجل بامرأۃ إلا و معہا ذو محرم منھا فإن ثالثھما الشیطان))
कोई शख़्स किसी औरत के साथ तन्हाई में ना रहे सिवाए इसके कि औरत के साथ  उसका कोई महरम मौजूद हो, वरना इन दोनों के बीच तीसरा शैतान होता है

इस हदीस का हुक्म आम है और शादी का पैग़ाम देने वाला इस से बरी नहीं। पैग़ाम देने वाले के लिए इजाज़त है कि वो औरत के चेहरे और हाथ के सिवा भी देख सकता है क्योंकि चेहरे और हाथ के दिखने की इजाज़त तो आम है, और अगर पैग़ाम देने वाले शख़्स के लिए भी सिर्फ़ उतनी ही इजाज़त हो तो ये बेमानी हो जाती है । आगे ये कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: यानी जिस को पैग़ाम दिया जाना हो उसे देखो। ये हुक्म आम है और इस में हाथ और चेहरा इस के सिवा भी शामिल हैं, ताकि वो उस को पहचान सके और निकाह का पैग़ाम दे।

इस के अलावा अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों को नज़रें झुकाए रखने का हुक्म दिया है जिस के मानी ये होते हैं कि ना औरत मर्दों को सीधे तौर देखें और ना मर्द औरतों को। इस तनाज़ुर (परीद्रश्य) में हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) की हदीस की रोशनी से शादी का इरादा करने वाले शख़्स के लिए औरत को देखने की इजाज़त दी गई, इस के मानी ये हुए कि ये शख़्स नज़र झुकाने वाले हुक्म से बरी हुआ। इज्तिमाई तौर पर शक्ल ये हुई कि मुसलमान अपनी निगाह झुकाए रखें लेकिन जो शख़्स शादी का इरादा रखता हो उसे इजाज़त है कि वो जिस से निकाह करना चाहता है उस को देख ले।

शादीशुदा जोड़ों के लिए अपने साथी के कामिल जिस्म को देखना जायज़ है जैसा कि बहज़ा बिन हकीम (رحمت اللہ علیہ) अपने वालिद और वो अपने वालिद से नक़ल करते हैं कि उन्होंने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) से पूंछा कि अपने बदन का क्या हिस्सा छुपाएं और क्या दिखा सकते हैं। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि तुम अपनी सतर छुपाओ सिवाए अपनी बीवी और बांदियों से।

इस के अलावा उसको अपनी महरम औरत के हाथ और चेहरे के अलावा देखने की इजाज़त है और इस में जिस्म के आज़ा की क़ैद नहीं है, चाहे वो महरम मुस्लिम हों या ग़ैर मुस्लिम। इस का सबब ये है कि इस ताल्लुक़ से नस मौजूद है जिसका यहाँ इतलाक़ होता है, अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:

وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِہِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآٮِٕهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآٮِٕهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٲنِهِنَّ أَوۡ بَنِىٓ إِخۡوَٲنِهِنَّ أَوۡ بَنِىٓ أَخَوَٲتِهِنَّ أَوۡ نِسَآٮِٕهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَـٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّـٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِى ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٲتِ ٱلنِّسَآءِۖ
और ज़ाहिर ना करें अपना बनाव सिंगार सिवाए अपने शोहरों के, अपने बापों के, या शौहरों के बापों के, या बेटों के या शौहरों के बेटों के या अपने भाईयों के या अपने भतीजों या अपने भाँजों के या अपनी औरतों के या उन के सामने जो अपनी मिल-ए-यमीन में हों या खादिमों के सामने जिन्हें औरतों की ख़्वाहिश ना हो चाहे मर्द ही क्यों ना हों या उन बच्चों के सामने जो अभी वाक़िफ़ ना हुए हों औरतों की पोशीदा बातों से। (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)

ये तमाम वो लोग हैं जिन के लिए औरत के बाल, गर्दन, हार या पायजे़ब पहनने की जगह या वो अज़ा जो इस दायरे में आते हों, उन्हें देखने की इजाज़त है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ज़ीनत की जगहों को इन मज़कूरा (वर्णित) लोगों के अलावा दूसरों के सामने ज़ाहिर करने से मना फ़रमाया है। यही वो लोग हैं जिन्हें औरत को इस के आम घरेलू लिबास में देखने की इजाज़त है । इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) अपनी मसनद में हज़रत ज़ैनब बिंते अबु सलमा (رضي الله عنه) से उन का क़ौल रिवायत करते हैं, वो कहती हैं कि उन्होंने हज़रत ज़ुबैर (رضي الله عنه) की बीवी हज़रत असमा (رضي الله عنها) से शीर ख्वारी की (यानी दूध पिया) और हज़रत ज़ुबैर (رضي الله عنه) को वालिद की हैसियत से देखती थी, जब में कंघी कर रही होती थी वो उस वक़्त मेरे पास आ जाते थे और मेरी चोटी पकड़ कर मुझे बुलाते। रिवायत में आता है कि सुलह हुदैबिया की तजदीद के लिए जब अबूसुफ़ियान मदीना पहुंचे तो अपनी बेटी हज़रत उम्मे हबीबा (رضي الله عنه) के घर गए जो अज़वाजे मुताहिरात में से थीं। हज़रत उम्मे हबीबा (رضي الله عنها) ने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) का बिस्तर समेट कर रख दिया ताकि वो उस बिस्तर पर ना बैठें और ख़ुद उन से पर्दा नहीं किया, फिर ये बात हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) को बताई और आप (صلى الله عليه وسلم) ने इसे क़बूल किया और इस पर एतराज़ नहीं किया क्योंकि वो उन के वालिद थे हांलाकि उस वक़्त तक मुशरिक थे लेकिन बहरहाल महरम थे।

मज़कूरा क़िस्म के लोगों के अलावा ग़ैर महरम शख़्स जो ना तो शौहर हो और ना उसका निकाह का इरादा हो, यू ऐसे लोगों के लिए मर्द या औरत को एक दूसरे को देखने के लिए तफ़सीली अहकाम हैं और उन की निगाह की पहुँच जिस्म के सिर्फ़ उस हिस्से तक ही हो सकती है जिस की हाजत है ना कि इस के सिवा। इस के अलावा औरत के सिर्फ़ हाथ और उसका चेहरा ही देखा जा सकता है। वो लोग जिन्हें औरत के बदन के हाथ या चेहरे के सिवा दूसरे हिस्सा देखने की ज़रूरत हो, और शारे ने उसकी इजाज़त रखी हो, तो इन में तबीब (Doctor) और आया या मुमिरज़ा (Nurse), तहक़ीक़ करने वाले (investigator) वग़ैरा शामिल हैं जिन्हें जांच की ज़रूरत हो। बिन हब्बान और मुस्तदरक अल हाकिम में अतीया बिन क़रज़ई (رضي الله عنه) की रिवायत है कि नबी (صلى الله عليه وسلم) ने यहूद के क़बीला बनी क़ुरैज़ा के बारे में फ़ैसला करने के लिए हज़रत साद बिन मआज़ (رضي الله عنه) को मुक़र्रर फ़रमाया तो वो बच्चों की इज़ार (नाडा) खोल कर जांच करते थे। इसी तरह हज़रत उस्मान (رضي الله عنه) के बारे में सुनन बैहक़ी में रिवायत है कि उन के पास एक बच्चे को लाया गया जिस ने चोरी की थी, उन्होंने हुक्म दिया कि उस की इज़ार खोल कर देखी जाये। इस जांच में मालूम हुआ कि इस के जे़रे नाफ़ बाल नहीं थे लिहाज़ा उस के हाथ नहीं काटे गए। इस वाक़िया को सहाबाऐ किराम (رضی اللہ عنھم) ने सुना और देखा और किसी ने इस पर एतराज़ नहीं किया।

अलबत्ता जहां ऐसी जांच की ज़रूरत ना हो और देखने वाला शख़्स ऐसा ग़ैर महरम ना हो जिस में ख़्वाहिश ना हो तो फिर सिर्फ़ औरत के हाथ और इस का चेहरा ही देखने की इजाज़त है और इस के लिए इस के सिवा किसी और जगह निगाह डालना हराम है। सुनन अबु दाऊद में रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((إن الجاریۃ إذا حاضت لم یصلح أن یُری منھا إلا وجھھا ویداھا إلی المفصل))
जब कोई दोशीज़ह (नाबालिग़) को हैज़ आने की उम्र हो जाये, तो उस के जिस्म चेहरे और हाथों के सिवा दिखना सही नहीं है

क़ुरआन हकीम में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरत के हाथ और उसका चेहरा ही दिखाने से मुस्तसना (प्रथक) रखा है, फ़रमाया:

وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَا
और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर ना करें सिवाए उसके के जो ज़ाहिर है (तर्जुमा माअनी क़ुरआन: अल नूर:31)

इस आयते मुबारका के बारे में हज़रत बिन अब्बास (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं कि इस से मुराद हाथ और चेहरा है। औरत के जाए ज़ीनत को ज़ाहिर करने से मना करने का अर्थ ये हैं कि वो सतर को ढाँके रहे और उसे ज़ाहिर ना होने दे। फिर इस के ज़ाहिर करने के लाज़िमन हराम होने के मानी ये भी हैं कि उन को देखना भी लाज़िमन हराम हुआ। इसी बुनियाद पर ये कि जो आज़ा छुपाए जाने से बरी हैं, तो वही आज़ा देखे जाने से भी बरी होंगे यानी उन्हें देखा जाना जायज़ होगा। चुनांचे किसी ग़ैर महरम शख़्स के लिए जायज़ हुआ कि वो किसी ग़ैर महरम औरत के चेहरे और हाथों को देखे। यहाँ देखने से मुराद वो है कि उस की पहचान कर ले और उसे दूसरी औरतों से अलग पहचान ले जिस से वो उस औरत के बारे में गवाही दे सके, उससे खरीद ओ फरोख्त और किराएदारी और क़र्ज़ वग़ैरा के लेन देन का मुआमला कर सके और उसे किसी और औरत से उस की ग़लतफ़हमी ना हो,वग़ैरा। इसी तर्ज़ पर औरत के लिए मर्द की सतर के अलावा देखना जायज़ है, सहीहीन में हज़रत आयशा (رضي الله عنها) से मरवी है, वो फरमाती हैं कि मैं जब मस्जिद में हब्शियों के खेल करतब देख रही थी तो हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी चादर से मेरी आड़ की। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) ईद के ख़ुत्बे से फ़ारिग़ हुए तो हज़रत बिलाल (رضي الله عنه) के साथ औरतों की तरफ तशरीफ़ लाए और उन्हें सदक़ा करने की नसीहत फ़रमाई। इनसे तफसील से मालूम हो जाता है कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने औरतों के मर्दों की तरफ देखने को क़बूल फ़रमाया। इस वाक़िये में हज़रत आयशा (رضي الله عنها) की नज़र उन हब्शियों की सतर के हिस्से पर नहीं बल्कि आम थी। सुनन अबु दाऊद में अमरो बिन शुऐब (رضي الله عنه) अपने वालिद और वो अपने वालिद से रिवायत करते हैं कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((إذا زوج أحدکم خادمہ عبدہ أو أجیرہ فلا ینظر إلی ما دون السرۃ و فوق الرکبۃ فإنَّہ عورۃ))
जब तुम में से कोई अपने ग़ुलाम या मुलाज़िम की शादी कराए तो उसे चाहीए कि वो उस की नाफ़ के नीचे और घुटनों के ऊपर ना देखे क्योंकि वो हिस्सा सतर का है

इस हदीस से मफ़हूम यही हुआ कि सतर के अलावा हिस्से पर निगाह जायज़ है और ये इजाज़त औरत और मर्द दोनों के लिए एक जैसी आम है। हज़रत जरीर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत नक़ल है वो कहते हैं कि मैंने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) से बे इरादा निगाह पड़ने के बारे में पूछा तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि मैं अपनी निगाहें झुका लूं। हज़रत अली (رضي الله عنه) से मसनद अहमद में मरवी है कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने उन से फ़रमाया:

((لا تتبع النظرۃ النظرۃ فاِنما لک الاولی و لیست لک الآخرۃ))
अपनी पहली नज़र पड़ जाने पर दुबारा नज़र ना डालो, पहली नज़र (अचानक पड जाने पर) जायज़ है लेकिन दूसरी नहीं

ये अहादीस मर्दों के औरतों की तरफ देखने से मुताल्लिक़ हैं ना कि औरतों के मर्दों की तरफ देखने के। पहली ज़िक्र की गई हदीस में हाथ और चेहरे के अलावा नज़र पड़ने की बात है क्योंकि हाथ और चेहरा देखने की इजाज़त है। दूसरी हदीस में दुबारा निगाह डालने को मना किया गया है क्योंकि दूसरी नज़र शहवत की नज़र होती है, इस हदीस में  सिर्फ देखने की मनाही नहीं है।

जहां तक अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस फ़रमान का ताल्लुक़ है जहां फ़रमाया:

قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ
और मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी निगाहें नीची रखें  (तर्जुमा माअनी क़ुरआन: अल नूर:30)

इस आयत से तात्पर्य मुराद उस चीज़ से निगाह नीची करना है जिसके हराम होने के बारे में वही आई है और नज़र के दायरे को उसी हद में महदूद रखा जाये जो हलाल किया गया है, मानी ये नहीं हैं कि बिल्कुल निगाहें नीची रखी जाएं। शारे (legislator/विधि विधायक) ने साफ कर दिया है कि महरमों के लिए जिस्म के वो हिस्से जो जिस्म की ज़ीनत हैं जैसे बाल, गर्दन, गला, कलाईयाँ और क़दम, जबकि ग़ैर महरम का सिर्फ़ हाथ और चेहरा ही देखना जायज़ रखा है। غَضَّ النَظَر से मुराद निगाहों का झुकाना है ।

इन तमाम बातों से वाज़ेह हुआ कि मर्द और औरत के लिए लज़्ज़त और शहवत के जज़बे के बिना ही एक दूसरे की सतर के अलावा तक देखने की इजाज़त है। मर्द की सतर उस की नाफ़ से घुटनों तक है जबकि औरत की सतर इस के हाथ और चेहरे के अलावा पूरा बदन है। इस तरह उसकी गर्दन सतर है, उसके बाल सतर हैं चाहे एक ही बाल क्यों ना हो, और सर का कोई भी हिस्सा उसकी सतर है, सिर्फ़ उसके हाथ और चेहरा सतर से अलग हैं। इसकी दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:

وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَا
और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर ना करें सिवाए उसके जो ज़ाहिर है (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)

औरत के जिस्म का जो हिस्सा आम तौर पर ज़ाहिर रहता है वो उसका चेहरा और बाल हैं क्योंकि मुस्लिम औरतों के यही वो दो अज़ा हैं जो ख़ुद नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) के सामने ज़ाहिर रहते थे और आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस पर खामोशी बरती। यही अज़ा हज और नमाज़ जैसी इबादात में ज़ाहिर रहते हैं और नुज़ूले आयात के वक़्त भी यही आज़ा खुले रहे हैं। इस के अलावा और भी दलायल हैं कि औरत के हाथ और चेहरे के सिवा उसका पूरा जिस्म उसका सतर होता है। सुनन अबु दाऊद में क़तादह (رحمت اللہ علیہ) से रिवायत नक़ल है कि हुज़ूर नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((إن الجاریۃ إذا حاضت لم یصلح أن یُری منھا إلا وجھھا ویداھا إلی المفصل))
जब कोई दोशीज़ा (नाबालिग़) को हैज़ आने की उम्र हो जाये , तो उसका जिस्म चेहरे और हाथों के सिवा दिखना सही नहीं है

इन दलायल से पूरी तरह से साफ हो जाता है कि औरत के हाथ और उसके चेहरे के सिवा इस का पूरा जिस्म उस की सतर होता है और इस पर लाज़िम है कि वो अपनी सतर, यानी चेहरे और हाथों के सिवा पूरे जिस्म को ढाँके रहे।

अब इस सतर को किस लिबास से छुपाया जाये, ये शरीयत ने तय नहीं किया है बल्कि सिर्फ इतना कह देने पर संतोष किया गया: यानी अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर ना करें, और हदीस शरीफ़ में अल्फाज़ आते हैं कि उन के लिए सही नहीं कि सतर नज़र आए या सतर ज़ाहिर की जाये। चुनांचे जिस लिबास से भी चेहरे और हाथों के अलावा कामिल जिस्म ढक जाये, फिर इस लिबास की जो भी शक्ल हो, चाहे वो एक लंबा सूब (पोशाक) या जामा हो, पाजामा , शलवार वग़ैरा हो, मौज़े हों, ये तमाम जायज़ होंगे क्योंकि शारे (legislator/ विधि विधायक) ने लिबास की क़िस्म तय नहीं फ़रमाई है। ऐसा कोई भी लिबास जिस से सतर इस तरह ढक जाये कि नज़र ना आती हो, वो जायज़ हुआ चाहे वो किसी शक्ल, किसी ढंग और कितनी ही तादाद पर आधारित हो।
अलबत्ता शारे ने ये तय फ़रमा दिया है कि इस लिबास से जिल्द (skin/चर्म) छुप जाती हो, इस से मुराद ये है कि जिल्द लिबास से छुप जाये, फिर लिबास का जो भी रंग हो सफ़ैद, काला, लाल या ख़ाकी वग़ैरा जिस से औरत के बदन की जिल्द का रंग नज़र ना आता हो। अगर ये चीज़ अदा ना हो, तो सतर ढकी हुई नहीं मानी जाती। जैसे की अगर लिबास महीन या बारीक कपड़े का है और जिल्द की रंगत ज़ाहिर हो रही है कि वो गेहूँआ है या सफ़ैद है तो उस की सतर ढकी हुई नहीं मानी जाएगी क्योंकि अगर लिबास से सतर और उस की रंगत छुपी ना रही हो तो ये मस्तूर नहीं हुआ जबकि कि जिल्द छुप ना जाये। सुनन अबु दाऊद और बैहक़ी में हज़रत आयशा (رضي الله عنها) से मरवी है कि जब हज़रत असमा (رضي الله عنها) हज़रत आयशा (رضي الله عنها) के घर में दाख़िल हुईं तो बारीक लिबास पहने थीं, नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने उन की तरफ से मुँह फेर लिया और फ़रमाया :

((یا أسماء إن المرأۃ إذا بلغت المحیض لم یصلح أن یری منھا إلا ھذا، و أشار إلی وجھہ و کفیہ))
कि ऐ अस्मा जब औरत सन-ए-बलूग़ को पहुंचे तो उसके लिये ये जायज़ नहीं कि उसका जिस्म दिखे सिवाये इसके और इसके, और आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपने हाथों और चेहरे की तरफ़ इशारा फ़रमाया

इस हदीस से वाज़िह दलील हुई कि शारे (legislator/ विधि विधायक) यानी अल्लाह (سبحانه وتعال) ने शर्त ये रखी है कि औरत का पूरा सतर छूपे और उसके पीछे से नज़र ना आए और औरत के लिए लाज़िम है कि वो ऐसा कपड़ा इस्तिमाल करे जिस से अंदरूनी हिस्सा ना दिखे।

ये बेहस सतर को छिपाने के हवाले से हुई, ताहम ये सही नहीं कि इस मौज़ू को औरत के आम ज़िंदगी (public life) में लिबास से या तबर्रुज (वो ज़ीनत जो अपने आप ज़ाहिर हो) के लिबास से मिला दिया जाये । चुनांचे अगर किसी लिबास से सतर ढक रही हो तो इस के ये मानी नहीं हुए कि वो औरत सिर्फ इतने ही कपडो पर आम सड़कों पर निकले। ऐसे मुक़ाम के लिए शरीयत ने मख़सूस लिबास तय किया है और सिर्फ सतर का छिपा लेना भर काफ़ी नहीं। जैसे की पाजामा, शलवार वग़ैरा से सतर छुप जाती है लेकिन आम ज़िंदगी के लिए ये काफ़ी नहीं, यहाँ के लिए शरीयत ने खास लिबास तै कर दिया है। अगर कोई औरत शारे के इस हुक्म की ख़िलाफ़ वरज़ी करती है और ऐसे लिबास पहनती है जो शारे के तय किए लिबास से मुख्तलिफ हो तो वो गुनहगार होगी क्योंकि उसने शरीयत के फ़राइज़ में से एक फ़र्ज़ छोड दिया। औरत की सतर का मुआमला उमूमी ज़िन्दगी से जुदा चीज़ है। अगर ऐसा पाजामा या शलवार पहन रखा है जो बारीक नहीं है और इस से सतर छुप भी रही है, तो इस के ये मानी ये नहीं हुए कि इसे पहन कर औरत ग़ैर महरम मर्दों के सामने आ सकती है और अपनी ज़ीनत और हुस्न का मुज़ाहिरा (प्रदर्शन) कर सकती है, क्योंकि उसकी सतर ढकी हुई है लेकिन हुस्न ज़ाहिर हो रहा है , इस तबर्रूज की मनाही है। लिहाज़ा ये हक़ीक़त कि औरत की सतर ढकी हुई है, इस का मतलब ये नहीं होगा कि अब वो अपनी ज़ीनत का मुज़ाहिरा नहीं कर रही, यही वजह है कि सतर ढाँकने के मुआमले को तबर्रूज के साथ ख़लत-मलत नहीं किया जा सकता, ये दोनों अलग अलग मोज़ू हैं।

जहां तक आम ज़िन्दगी में औरत के लिबास का ताल्लुक़ है, तो शारे ने इस पर ये फ़र्ज़ कर दिया है कि वो बाज़ार या आम सडकों पर जाते वक़्त अपने लिबास के ऊपर एक चादर या जिलबाब पहने जिस से उसका घरेलू लिबास ढँक जाये और ये जिलबाब इस के पैरों तक पहुंचता हो जिस से क़दम भी ढँक जाएं, और अगर औरत को ऐसा जिलबाब मयस्सर ना हो तो वो अपनी पड़ोसन, सहेली या किसी रिश्तेदार से उधार ले ले। आगे ये कि अगर उसे ऐसा जिलबाब उधार भी ना मिला हो तो उसके लिए उसके बगै़र घर से बाहर निकलना सही नहीं और अगर वो इस जिलबाब के बगै़र घर से बाहर जाये तो वो गुनहगार होगी क्योंकि उसने अल्लाह (سبحانه وتعال) के फ़राइज़ में से एक फ़र्ज़ को तर्क किया। ये बात औरत के जिस्म के नीचे के लिबास के हवाले से हुई, इसी तरह ऊपरी हिस्से के लिबास का मुआमला है कि उसके सर पर ख़िमार या ओढ़नी का होना लाज़िमी है जिससे पूरा सर, गला या गर्दन और सीना छुप जाते हों। घर से बाहर निकलते वक़्त लाज़िम है कि औरत इनका इंतेज़ाम् करे जो उसके बदन के बालाई हिस्से के लिए ज़रूरी हैं। इन दोनों लिबास के हिस्सों के साथ औरत का घर से बाहर निकलना सही हो जाता है और उन के बगै़र किसी भी हालत में औरत के लिए घर से बाहर निकलना सही नहीं रहता क्योंकि इनका हुक्म आम है और इस हुक्म के खास होने में कोई आयत नहीं उतरी है।

इन दोनों , यानी ऊपरी और निचले हिस्से के लिबासों के फ़र्ज़ होने की दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस क़ौल से है:

وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِہِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ
और ओढ़े रखें अपनी ओढ़नयां अपने सीनों पर, और अपना बनाव सिंगार ज़ाहिर ना करें सिवाए अपने शौहरों के (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)

और जिस्म के ऊपरी हिस्से को ढंकने के हवाले से फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ قُل لِّأَزۡوَٲجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ
ऐ नबी (صلى الله عليه وسلم), कहो अपनी बीवीयों से और अपनी बेटीयों से और मोमिनों की औरतों से कि वो अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल अहज़ाब:59)

इन आयात के अलावा हज़रत उम्मे अतिया (رضي الله عنها) से मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है , वो कहती हैं कि अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने हमें हुक्म दिया कि दोनों ईद के मौक़ों पर कुंवारी जवान लड़कीयों, हाइज़ा (पीरियड वाली) औरतों और बापर्दा औरतों को घर के बाहर लाया जाये; हाइज़ा औरतें नमाज़ ना पढ़ें लेकिन अच्छे कामों और मुसलमानों की दावत में शिरकत करें। मैंने अर्ज़ किया किया रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم), हम में से कुछ के पास जिलबाब नहीं होता। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि वो अपनी बहन से उधार ले ले। इन दलायल से वाज़िह हो जाता है कि घरेलू ज़िंदगी से बाहर सार्वजनिक जीवन में औरत का लिबास क्या हो। ऊपर आई दोनों आयात में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने निहायत बारीकी, वज़ाहत और जामियत से वाज़ेह फ़रमा दिया कि सार्वजनिक जीवन में किस क़िस्म का लिबास पहने और वो ये कि जिस्म के ऊपरी हिस्से के लिए क्या पहनें, फ़रमाया:

وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِہِنَّ
और ओढ़े रखें अपनी ओढ़नयां अपने सीनों पर  (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)
इस से मुराद ये है कि वो अपने जिस्म के ऊपरी हिस्से पर ओढ़नयां डालें जिस से सर, गर्दन और सीना ढँक जाये, और जिस्म के निचले हिस्से के बारे में हुक्म दिया :

وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَا
और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर ना करें सिवाए उसके जो ज़ाहिर है (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)
      
इस से मुराद ये है कि जिस्म की ज़ीनत जो मसलन कानों, हाथों और पैर की पिंडुलीयों वग़ैरा से ज़ाहिर होती है, वो छुप जाये सिवाए इस के जो इस आयत के नुज़ूल के वक़्त आम तौर पर ज़ाहिर रहती थी यानी हाथ और चेहरा। इस निहायत बारीकी से बयान कर देने से बिल्कुल वाज़िह हो जाता है निजी ज़िंदगी के बाहर औरत का लिबास क्या होना चाहीए। हज़रत उम्मे अतिया (رضي الله عنها) से मरवी हदीस निहायत वज़ाहत से बयान करती है कि औरत के लिए घर से बाहर जाते वक़्त ऐसे जिलबाब का पहनना लाज़िमी है जिससे उसका घरेलू लिबास ढँक जाता हो। जब उन्होंने ने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) से पूंछा कि वो औरत क्या करे जिसे ऐसा जिलबाब मयस्सर ना हो, तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने हुक्म दिया कि वो अपनी बहन से उधार लेकर पहन ले। यानी ऐसा लिबास ना होने की शक्ल में हुक्म ये है कि किसी से उधार लेकर पहना जाये, इस के मानी ये हुए कि अगर उधार भी ना मिल सकता हो तो फिर औरत के लिए बाहर निकलना ही सही नहीं रहा। ये इस बात पर क़रीना (इशारा) हुआ कि इस हदीस का हुक्म फ़र्ज़ की हैसियत रखता है, लिहाज़ा घर से बाहर जाते वक़्त औरत के लिए ये फ़र्ज़ हुआ कि वो अपने आम लिबास के ऊपर जिलबाब पहन ले।
जिलबाब के लिए लाज़िमी है कि ये जिस्म के निचले हिस्से तक पहुंचे और क़दमों को छुपा ले क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

يُدۡنِينَ عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ
कि औरतें अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें (तर्जुमा माअनी क़ुरआन: अल अहज़ाब:59)

यानी वो अपने जिलबाब अपने ऊपर ओढ़ लें, यहाँ याद रहे कि आयत में लफ़्ज़ मिन॒ से तात्पर्य जुज़ु की तख़सीस नहीं बल्कि ये इशारा बयानी है जिस के मानी ये होंगे कि वो अपने जिलबाब को ओढ़ कर उसे नीचे तक लाएं क्योंकि जैसा हज़रत बिन उमर (رضي الله عنه) से तिरमिज़ी में मरवी है कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: जो कोई अपना लिबास अपने पीछे ज़मीन पर घिसटता हुआ रखे, अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) रोज़े क़यामत उस की तरफ अपनी नज़रे करम ना फ़रमाएगा। इस पर हज़रत उम्मे सलमा (رضي الله عنها) ने अर्ज़ किया कि वो औतें अपने लिबास के पौंचो का क्या करें? आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि वो एक बालिशत से ज़्यादा ना रखें। इस पर हज़रत उम्मे सलमा (رضي الله عنها) ने फिर अर्ज़ किया कि इस तरह तो उन के क़दम ज़ाहिर होंगे, फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि वो एक हाथ बढ़ा लें लेकिन इस से ज़्यादा नहीं। इस से ये वाज़ेह हो जाता है कि वो कपड़ा जो अपने आम लिबास के ऊपर पहना जाये, वो नीचे तक पहुंचे और क़दमों को ढँक ले और अगर क़दम मौज़ो या जूतों से छिपे हुए हों तो ये फेअल इस हुक्म का सही विकल्प नहीं होगा और इस ऊपरी लिबास का नीचे तक लटकना लाज़िमी बाक़ी रहेगा, अलबत्ता अगर जोड़ी या मौज़ो से क़दम छुपे हों फिर उस ऊपरी लिबास से उन का मज़ीद ढकना ज़रूरी नहीं ताहम लाज़िमी है कि ऊपरी लिबास के नीचे तक पहुंचना नज़र आता हो ताकि ये पहचान हो सके कि ये लिबास घर से बाहर निकलते वक़्त पहनने का लिबास है और इससे अल्लाह (سبحانه وتعال) के उस हुक्म की तामील होती हो जो सूरह एहज़ाब में दिया, यानी कि औरतें अपने ऊपर चादर के पल्लू लटका लिया करें।

इन तमाम से वाज़ेह हुआ कि घर से बाहर निकलते वक़्त औरत के लिए अपने आम घरेलू लिबास के ऊपर एक ढीला लिबास या जिलबाब पहनना ज़रूरी है, और अगर उसके पास ऐसा लिबास मौजूद ना हो और उसे घर के बाहर जाना हो, तो ये ज़रूरी है कि वो ऐसा लिबास किसी से उधार भी लेकर पहने। फिर अगर ऐसा लिबास उसे उधार ना भी मिले तो वो घर के बाहर उस वक़्त तक ना जाये जब तक ऐसा जिलबाब उसे ना मिल जाये। और अगर वो अपनी पूरी सतर छुपा कर लेकिन इसके ऊपर जिलबाब पहने बगै़र घर के बाहर निकले ,तो वो गुनहगार होगी क्योंकि घर के बाहर जाने के लिए ऐसा ढीला जिलबाब का पहनना फ़र्ज़ है और इसका ना पहनना इस फ़र्ज़ की खिलाफ वरजी होगी जो अल्लाह के नज़दीक गुनाह है और रियासते इस्लामी की तरफ से इस पर ताअज़ीरी सज़ा होगी।

अब मर्द के औरत पर निगाह डालने और औरत के मर्द पर निगाह डालने के हवाले से दो मसले बाक़ी रहे पहला मसला अजनबी मर्दों का घर के मालिक की इजाज़त से घरों में दाख़िला और उन मर्दों का उस घर की औरतों को उन के आम घरेलू लिबास में देखना जिसमें उन औरतों के हाथ और चेहरों के अलावा बदन के दूसरे अंग खुले रहते हैं। और दूसरा मसला उन ग़ैरमुस्लिम और मुस्लिम औरतों का है जिन के हाथ और चेहरे के अलावा भी जिस्म के दूसरे अंग खुले रहते हैं। ये दोनों मुआमलात मौजूदा हालात में हैं और उन का मुसलमानों के लिए बिला शुबाह एक मुसीबत होना भी हक़ीक़त है, लिहाज़ा ज़रूरी है कि उन के ताल्लुक़ से शरई हुक्म बयान कर दिया जाये।

पहला मसला तो उन क़रीबी रिश्तेदारों और भाईयों का है जो औरतों के साथ एक ही घर में आबाद हों जहां एक दूसरे की बीवीयां उन लोगों के सामने अपने घरेलू लिबास में सामने आती हों जिन में उन के बाल, गला, हाथ और पैरों के निचले हिस्से और वो कुछ जो आम घरेलू लिबास नहीं छुपाता, वो ज़ाहिर होते हैं। इस सूरत में औरत के निसबती भाईयों यानी देवर वग़ैराह से लेकर दूसरे ग़ैर महरम औरतों को इसी तरह देखते हैं जिस तरह उसके भाई, वालिद और दूसरे महरम देखते हैं, जबकि हक़ीक़त में देवर जेठ वग़ैरह किसी भी ग़ैर की तरह ग़ैर महरम ही होते हैं। फिर उसी तरह और रिश्तेदार जैसे चचेरे या ममरे भाईयों का उस घर में आना जाना होता है और दूसरे ग़ैर महरम रिश्तेदार और ग़ैर रिश्तेदार भी घर आते जाते हैं। ये लोग उन औरतों को सलाम करते हैं और फिर उनके साथ बैठते हैं जबकि वो औरतें उस वक़्त अपने आम घरेलू लिबास में होती हैं जिन में उन के हाथ और चेहरे के अलावा दूसरे अंग भी ज़ाहिर होते हैं जैसे उन के बाल, गला, हाथ और पैर के निचले हिस्से। उस वक़्त इन ग़ैर महरम मर्दों का उन रिश्तेदार औरतों के साथ सुलूक इस तरह होता है जैसे वो उन के महरम हों। अफ़सोस की बात है कि ये सूरते हाल निहायत आम है और ज़्यादा तर मुसलमान इस में ना सिर्फ़ जकड़े हुए हैं बल्कि उसे जायज़ ख़्याल करते हैं। जबकि हक़ीक़त ये है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरत पर सिर्फ़ वही नज़र जायज़ रखी है जो उन के शौहरों की हो या उन नौकरों की जो शहवत वाले ना हों, इस के अलावा औरत पर हराम है कि वो अपने हाथ और चेहरे के अलावा जो अंग हैं दूसरे मर्दों के सामने खुले रखे। उस की तफ़सील ये है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरत पर निगाहे शहवत और उस की ज़ीनत के इज़हार को हराम क़रार दिया और फिर उस तहरीम (हराम होने में) में शहवत की नज़र से सिर्फ़ शौहर को बरी रखा और उसकी ज़ीनत पर निगाह सिर्फ उन बारह असनाफ के रिश्तों के लिए और उन जैसों के लिए हलाल रखी जैसे सगे चचा या मामूं और बाक़ी मर्दों के लिए औरत के हाथ और चेहरे के सिवा और ज़ीनत पर निगाह को हराम रखा। लिहाज़ा लज़्ज़त और शहवत की नज़र सिर्फ़ शौहर के लिए हलाल है और बाक़ी तमाम मर्दों के लिए बिल्कुल हराम फिर हाथ और चेहरे पर बेशहवत निगाह बिल्कुल हलाल रखी और हाथ और चेहरे के सिवा निगाह को सिवाए अल्लाह (سبحانه وتعال) के तय करदा महरमों और उन जैसों के बिल्कुल हराम रखा ।

अब तक नुसूसे शरीयत (क़ुरआन व सुन्नत) में उन अहकाम का बयान हुआ जो निजी ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ हैं, जहां तक निजी ज़िंदगी का मुआमला है तो शारे (अल्लाह) ने औरत के लिए मुबाह रखा कि उसके हाथ और चेहरे के अलावा आम तौर पर काम के दौरान खुले रहने वाले और अंग भी ज़ाहिर हो सकते हैं, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ مَلَكَتۡ أَيۡمَـٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَـٰثَ مَرَّٲتٍ۬ۚ مِّن قَبۡلِ صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, लाज़िम है कि तुम से वो इजाज़त तलब करें जो तुम्हारे मिल्के यमीन में हैं और तुम में से वो बच्चे भी जो अक़्ल और शऊर को ना पहुंचे हों तीन औक़ात में, नमाज़े फज्र से पहले और जब तुम दोपहर के वक़्त अपने कपड़े उतार देते हो, और नमाज़े इशा के बाद  (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:58)

इस तरह अल्लाह (سبحانه وتعال) ने नाबालिग़ लड़कों और गुलामों के लिए ये हुक्म रखा है कि वो तीन वक़्तों में औरतों के पास ना जाएँ और फिर इन तीन वक़्तों के अलावा उन के पास जाने की इजाज़त फ़रमाई जो पिछली आयत के बाद वारिद (नाज़िल) हुई फ़रमाया:

ثَلَـٰثُ عَوۡرَٲتٍ۬ لَّكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٲفُونَ عَلَيۡكُم
ये तीन औक़ात तुम्हारी बेपर्दगी के हैं इन औक़ात के बाद तुम पर और उन पर कोई गुनाह नहीं है कि तुम एक दूसरे के पास आते जाते रहते हो  (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:58)

इस से ये वाज़ेह हुआ कि इन तीन औक़ात के अलावा नाबालिग़ लड़के और ग़ुलाम घर की औरतों के पास बगै़र इजाज़त तलब किए जा सकते हैं जबकि ये औरतें अपने घरेलू लिबास में होती हैं। इस से ये मालूम हुआ कि औरतें अपने घर में अपने काम के लिबास में रह सकती हैं और नाबालिग़ लड़कों और गुलामों के सामने आ सकती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस तर्ज़ पर वो गुनहगार नहीं होतीं। नाबालिग़ लड़कों और गुलामों के लिए जायज़ है कि वो घरों में बिला इजाज़त लिये दाख़िल हों जबकि औरतों इस लिबास में होती हैं। वो नौकर जो घरों में काम करते हों, वो भी गुलामों की तरह हैं चाहे वो ग़ैर महरम ही हों। अलबत्ता इन तीन तरह के तय समय  में इजाज़त तलब करने की शर्त रखी है। ये नहीं कहा जा सकता कि वो नौकर जो आज़ाद हों उन को घरों में आते जाते रहने और औरतों के आस पास रहने के कारण गुलामों पर क़ियास किया जाएगा क्योंकि यहाँ इल्लत (कारण) इस शर्त पर मुक़य्यद है कि नाबालिग़ लड़के जब बालिग़ हो जाएँ जो कि घरों में औरतों के आस पास रहते हों, उन के लिए औरतों के पास जाने से पहले इजाज़त लेना ज़रूरी है।

जहां तक नाबालिग़ लड़कों, गुलामों और नौकरों के अलावा दूसरों का ताल्लुक़ है तो अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अपना साफ हुक्म फ़रमा दिया है कि वो निजी ज़िंदगी में औरतों के पास जाने से पहले इजाज़त तलब कर लें, फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ بُيُوتِڪُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَا
ऐ ईमान वालो, सिवाए अपने घरों के दूसरे घरों में दाख़िल ना हो जब तक कि इजाज़त ना ले लो और घर वालों को सलाम ना कर लो (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:27)

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने जहां घरों में दाख़िल होने के लिए इजाज़त तलब करने का हुक्म दिया है तो लफ़्ज़ इस्तेनास (استئناس)  इस्तिमाल फ़रमाया है जो मानूस (परीचित) होने के मआनी में है, जिस के मफ़हूम ये होंगे कि जब वो अपने ही घर में दाख़िल हो तो उसे इस इजाज़त की ज़रूरत नहीं। इस आयत के नुज़ूल का सबब ये हुआ कि एक अंसारी औरत ने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) से अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم), मैं अपने घर में इस हालत में रहती हूँ कि मैं नहीं चाहती कि कोई भी मुझे इस हालत में देखे, ना मेरे वालिद ना बेटे। लेकिन मेरे वालिद बगै़र इजाज़त लिए घर में दाख़िल हो जाते हैं और मेरे रिश्तेदार मर्द भी आते रहते हैं जबकि में उसी हालत में होती हूँ, सौ मैं क्या करूं? उस वक़्त इजाज़त हासिल करने का ये हुक्म नाज़िल हुआ। अगर आयत के मंतूक़ अल्फाज़ पर इस आयत के सबब ए नुज़ूल का इतलाक़ किया जाये तो इसका मफहूम ये होगा कि निजी ज़िंदगी में मसला औरत की सतर के ढंकने या ना ढंकने का नहीं है बल्कि मोज़ू औरत के घरेलू लिबास का है। यहाँ अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हुक्म ये नहीं दिया कि औरत अपनी निजी ज़िंदगी के लिबास में रहे या ना रहे, या ख़ुद को पर्दे में रखे बल्कि हुक्म ये दिया कि मर्द इस घर में दाख़िल होने के लिए इजाज़त तलब करें, ताकि औरत अपने चेहरे और हाथों के सिवा अपनी सतर को ग़ैर महरम से छिपा सके क्योंकि सबब ए नुज़ूल के पसमंज़र में इजाज़त तलब करना इस तरफ़ इशारा है कि औरत अपनी सतर ढांक सके। ऐसी सूरत में इस से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये मर्द महरम हैं या ग़ैर महरम, इजाज़त बहरहाल ज़रूरी है।

जहां तक मर्द का औरत को इस के घरेलू लिबास में देखने का मुआमला है, तो ये दूसरा मसला हुआ क्योंकि ये निगाह से मुताल्लिक़ है, फिर ये निजी ज़िंदगी में हो या आम ज़िंदगी में और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ग़ैर महरम मर्दों पर औरत के हाथ और चेहरे के सिवा दूसरे अंगो पर निगाह को हराम क़रार दिया है और महरम के लिए इस की इजाज़त है, और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मर्दों को हुक्म दिया है कि वो चेहरे और हाथ के सिवा निगाह ना पड़ने दें और अपनी नज़रें झुका लें, ताहम अल्लाह (سبحانه وتعال) ने नज़र पड़ जाने को जायज़ रखा है जबकि ये नज़र भर भर के देखना ना हो। हाथों और चेहरे पर निगाह डालने की हुर्मत तो निहायत वाज़ेह (स्पष्ट) है, इस के सिवा किसी हिस्से पर निगाह पड़ने से नज़र को झुका लेना, अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस क़ौल से स्पष्ट होता है , फ़रमाया:

قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ
और मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें नीची रखें  (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:30)

यहाँ अपनी निगाह झुकाने से मुराद हाथों और चेहरे के अलावा से है जैसा कि उन पर नज़र पड़ने के जायज़ होने के दलायल से मालूम है। बुख़ारी में नक़ल है , हज़रत सईद  बिन अबुल हसन (رضي الله عنه) हज़रत हसन (رضي الله عنه) से कहते हैं कि अजम की औरतें अपने सीने और सर खुले रखती हैं, हज़रत हसन (رضي الله عنه) उन्हें जवाब देते हैं कि तुम अपनी निगाह को झुका लो। इस से मुराद ये है कि इस बात के इमकान हैं कि औरतें सड़कों पर अपने हाथों और चेहरे के अलावा और अंग भी खुले रखती हों, लिहाज़ा तुम्हारा काम ये हुआ कि तुम अपनी निगाह झुका लो और उन पर नज़र ना डालो क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हाथों और चेहरे के सिवा निगाह डालने को हराम क़रार दिया है और ये भी साफ कर दिया है कि हराम वो निगाह है जो जानबूझ कर या इरादतन डाली जाये, ना कि वो निगाह जो इत्तिफ़ाक़न पड़ जाये इत्तिफ़ाक़ी निगाह हराम नहीं होती और ना इस से परहेज़ बताया है बल्कि निगाहें झुका लेने का हुक्म दिया है, फ़रमाया:

يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ
कि अपनी नज़रें नीची रखें (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:30)

इस आयते मुबारका में लफ्ज़े “मिन” बयानी कलिमा है जो इस बात की तरफ़ इशारा है कि मर्द अपनी निगाहें नीची झुका लें और इस से ग़ैर इरादी तौर पर निगाह के पड़ जाने का जवाज़ मुबाह होता है।

अब रहा वो दूसरा मसला कि जब से मुस्लिम मुमालिक को मग़रिबी तहज़ीब से जंग पेश आई और मुस्लिम मुमालिक पर कुफ्र के निज़ाम हावी हो गए, तो ग़ैर मुस्लिम औरतें नीम बराहना लिबास में घरों से बाहर निकलने लगीं जहां उन के सीने, पीठ, बाल, कलाईयाँ और कुहनीयाँ और पिंडुलियां खुली रहती हैं। कुछ मुस्लिम औरतों ने भी उन की इस तरीक़े की तक़लीद इख्तियार की और एक मर्द के लिए सड़क और बाज़ारों में मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम औरत में तमीज़ करना नामुमकिन हो गया। मुस्लिम मर्द ना तो ख़ुद इस बुराई को ख़त्म करने की ताक़त रखते थे और ना ऐसे शहरों में रहते हुए वो औरत की खुली सतर पर नज़र पड़ने से महफ़ूज़ रह सकते थे क्योंकि जिस जीवन व्यवस्था में वो रहते थे या जिन इमारतों में वो बसते थे , वहां औरत की खुली सतर पर निगाह का पड़ना लाज़मी था।  ऐसी सूरते हाल में मर्दों के लिए औरतों की कलाईयाँ, उन के सीने, पीठ, बाल और पिंडुलीयों पर नज़र पड़ने से महफ़ूज़ रहना मुशकिल हो गया था सिर्फ इस स्थिति में कि वो अपने घर ही बैठा रहे, जो कि ज़ाहिर है मुमकिन नहीं है क्योंकि उसे लोगों से मिलना होता है, ख़रीद और फरोख़्त और दूसरे मुआमलात निपटाने होते हैं और उनके लिए जब भी वो बाहर आए इसके लिए औरत की सतर पर निगाह पड़ने से महफ़ूज़ रहना दुशवार था जबकि ऐसी नज़र उस पर किताब व सुन्नत की रोशनी में हराम है, ऐसे में वो क्या करे? इस के दो ही रास्ते हो सकते हैं:

पहला तो ये कि सड़कों और बाज़ारों में अचानक निगाह का पड़ जाना। ऐसी पहली नज़र माफ़ होती है और उस शख़्स पर अब लाज़िम होता है कि वो इस नज़र को नहीं दुहराए क्योंकि जैसा कि मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जरीर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से मरवी हदीस में आता है, वो कहते हैं कि उन्होंने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से अचानक निगाह के पड़ जाने के बारे में पूछा तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुझे निगाह झुका लेने का हुक्म दिया। और मसनद अहमद में बुरीदा के हवाले से हज़रत अली (رضي الله عنه) से मरवी है कि अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

((لا تتبع النظرۃ فإنما لک الأولی ولیست لک الآخرۃ))
अपनी पहली निगाह पड़ जाने के बाद दुबारा नज़र ना डालो, पहली नज़र तुम्हारे लिए जायज़ है जबकि दूसरी नज़र जायज़ नहीं

दूसरी वो हालत कि जहां मर्द किसी ऐसी ग़ैर महरम औरत से बातचीत कर रहा हो जिस का सर और बाल खुले हुए हों और दूसरे कुछ अंग भी खुले हों और उसे उन्हें खुला रखने की आदत ही हो, तो ऐसे में उस मर्द को चाहीए कि वो अपनी निगाहें हटाए और झुकाए रखे जैसा कि बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي الله عنه) से मरवी है कि हज़रत फ़ज़ल बिन अब्बास (رضي الله عنه) हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के हमरकाब (सहयात्री) थे कि बनी ख़िसअम की एक औरत हुज़ूर अकरम के पास आईं। फ़ज़ल (رضي الله عنه) उन की तरफ़ देखने लगे और वो फ़ज़ल (رضي الله عنه) की तरफ देखने लगीं तो हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ज़ल (رضي الله عنه) की गर्दन का रुख़ दूसरी तरफ फेर दिया, और अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ
और मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें नीची रखें और हिफ़ाज़त करें अपनी शर्मगाहों की  (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:30)

इस मसला का हल यही है कि मर्द को जब ऐसी औरत से बातचीत करना ज़रूरी हो या सफ़र में साथ हो जाये या गर्मी के वक़्त खुली जगह में बैठना हो जाए वग़ैरा, तो वो अपनी निगाह को झुकाए रखे। ये ऐसी ज़रूरीयात हैं जिन का मर्द को अपनी आम ज़िंदगी में सामना करना पड़ सकता है जहां वो ना ऐसी सूरत से बच सकता है और ना ही खुली सतर की इस मुसीबत से बच सकता है, इसके लिए अब यही रास्ता है कि वो इस आयते मुबारका के हुक्म के मुताबिक अपनी निगाह झुकाए रखे, इसके अलावा मर्द के लिए कुछ और जायज़ नहीं।

यहाँ ये नहीं कहा जा सकता कि मर्द के लिए ये ज़रूरी नहीं है और इससे बच पाना मुहाल है। ऐसा तसव्वुर ही खिलाफे शरीयत है मुसीबत और बुराई के आम हो जाने की सूरत में ना तो हराम को हलाल किया जा सकता है और ना हलाल को हराम। ना ही यहाँ ये कहा जा सकता है कि ऐसी औरतें ईमान से बाहर हैं चुनांचे उन के साथ कनीज़ों (दासियों) वाला मुआमला किया जाना चाहीए और उन की सतर कनीज़ लड़कीयों की सतर की तरह होगी। ऐसा ख़्याल इसलिए सही नहीं है क्योंकि हदीस का मतन औरत के लिए आम है ना कि मुस्लिम औरत के लिए खास। हुज़ूर नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

((إن الجاریۃ إذا حاضت لم یصلح أن یُری منھا إلا وجھھا ویداھا إلی المفصل))
जब कोई दोशीज़ा (नाबालिग़ लडकी) को हैज़ आने की उम्र हो जाये , तो उसका जिस्म चेहरे और हाथों के सिवा दिखना सही नहीं है

ये हदीस औरत पर नज़र डालने की हुर्मत (हराम होने के बारे में) में आम है फिर वो औरत चाहे मुस्लिमा हो या ग़ैर मुस्लिमा, हर हाल में निगाह डालना हराम ही रहेगा। काफ़िर औरत को कनीज़ की सतर के हुक्म पर क़ियास नहीं किया जाएगा क्योंकि ऐसे क़ियास की कोई दलील नहीं।

ऐसी सूरत में कि जब मर्दों को ऐसे घरों में जाना हो जहां नामहरम औरतें हों तो उन पर लाज़िम है कि वो अपनी निगाहों को झुकाए रखें और उन औरतों के चेहरे और हाथों के सिवा उन की निगाह ना पड़े और शहरों में रहने वाले मर्द जिन्हें समाज में अपने ख़रीद फ़रोख़त वग़ैरा के कामों से निपटने के लिए ऐसी ग़ैर मुस्लिम औरतों से गुफ़्तगु करना पडता है जिन की सतरें खुली होती हैं, उन्हें चाहीए कि वो अपनी निगाहों को उस वक़्त झुकाए रखें और अपनी मुलाक़ातों को ज़रूरत तक ही सीमित रखें।

ये मोज़ू तो हुआ निगाह के हवाले से, फिर जहां तक मुसाफे (हाथ मिलाने) का ताल्लुक़ है तो उस की इजाज़त है जैसा कि सही बुख़ारी में हज़रत उम्मे अतिया (رضي الله عنها) से मरवी है, वो कहती हैं कि हम ने नबी (صلى الله عليه وسلم) से ये बैअत की कि हम अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे। हमें नोहा और ज़ारी करने (मय्यत पर रोने धोने से) से मना फ़रमाया। चुनांचे हममें से एक औरत ने अपना हाथ पीछे खींच लिया। ज़ाहिर है कि बैअत मुसाफे के ज़रीये होती थी, और इस औरत ने बैअत के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया और फिर पीछे खींच लिया। इस का मफ़हूम ये भी हुआ कि बाक़ी औरतों ने अपने हाथ नहीं खींचे और मुसाफ़े के ज़रीये बैअत की। इसी तरह अल्लाह (سبحانه وتعال) का क़ौल है:

أَوۡ لَـٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ
या तुम ने औरतों को छुआ हो (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अन्निसा:43)

इस आयत में औरतों का लफ़्ज़ आम है जिस में तमाम औरतें शामिल हैं जिन्हें छू लेने से वुज़ू टूट जाता है और ये हुक्म कि औरतों को बगै़र शहवत के छू लेने से वुज़ू टूट जाता है, इस बात की दलील है कि छू लेना हराम नहीं है लिहाज़ा मुसाफ़ा भी हराम नहीं हुआ। फिर मज़ीद ये कि औरत का हाथ उस की सतर का हिस्सा नहीं है और इस पर बगै़र शहवत की निगाह हराम नहीं है, लिहाज़ा उसका मुसाफ़ा भी हराम नहीं।

मालूम हुआ कि मुसाफे की इजाज़त है , ताहम मुसाफ़ा और मुअनिक़ा (गले मिलने) की हक़ीक़त अलग अलग होती है। एक औरत का ग़ैर महरम मर्द से या मर्द का ग़ैर महरम औरत से मुअनिक़ा हराम है क्योंकि ये ज़िना का पेशे ख़ेमा होता है। मुअनिक़ा की हक़ीक़त यही है कि ये आम तौर पर ज़िना का पेशे ख़ेमा और वजह बन जाता है चाहे ये बे शहवत (वासना रहित) हो और बिल्कुल ज़िना तक ना भी ले जाता हो। हज़रत माअज़ (رضي الله عنه) जब हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के पास हाज़िर हुए और दरख़ास्त की उन्हें पाक कर दें, तो नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने उन से फ़रमाया: शायद तुम ने मुअनिक़ा किया होगा। इस रिवायत को बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) ने हज़रत बिन अब्बास (رضي الله عنه) से नक़ल की है। इससे मालूम हुआ कि मुअनिक़ा दरहक़ीक़त ज़िना का पेशे ख़ेमा होता है। वो आयात और अहादीस जिन में ज़िना की हुर्मत वारिद हुई है, इन में हर उस चीज़ की भी हुर्मत शामिल है जो ज़िना का बाइस होती हो चाहे वो लम्स (touch) ही हो अगर ऐसी चीज़ ज़िना पर मुंतिज होती हो, जैसा कि नौजवान लड़का या लड़की के बीच होता है, ऐसा हर पेशख़ैमा हराम होता है, यहाँ तक कि अगर सफ़र से आने वाले का ख़ैर मुक़द्दम (स्वागत) करने के लिए इस से मुअनिक़ा किया जाये जैसाकि लड़का लड़की के बीच होता है , ये भी ज़िना ही का पेशख़ैमा है।


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