ख़िलाफ़त के ख़िलाफ़ मरकज़े बेरूत का किरदार

इस्लाम और रियासते इस्लामिया (उस्मानी खिलाफत) पर ज़र्ब लगाने के लिऐ कुफ़्र का एक मर्कज़ बेरूत था। इस मर्कज़ के सपुर्द एक तवील उल-मीआद मंसूबा किया गया था जिस से बड़े दूर रस नताइज मक्सूद थे। रहा इस्तंबोल वाला मर्कज़ तो इसके लिऐ छोटी मुद्दत जल्द अज़ जल्द नताइज का हुसूल और दूररस असरात की मंसूबा बंदी की गई। इसलिये बेरूत का मर्कज़ तो सिम्मे क़ातिल था क्योंके इसने हज़ारों नौजवान मुसलमानों को काफ़िर बनाया और इजमालन इस ने इस्लामी इलाक़ों को इस तरह बना दिया के वहाँ अवाम अपने मुआमिलातो ताल्लुक़ात इस्लाम के बजाय कुफ़्र के अहकाम के मुताबिक़ इस्तिवार करें, नीज़ पहली आलमी जंग में रियासते इस्लामी को कारी ज़र्ब लगाने में भी इसका किरदार निहायत संगीन था।

शामी इलाक़ों से इबराहीम पाशा के इन्ख़िला के फ़ौरन बाद ही बेरूत में मग़रिबी काफ़िरों ने सियासी खेल शुरू कर दिया था। 1842 में एक कमेटी तशकील दी गई जिस का मक्सद ये था के वो अमरीकी मिशनरियों की क़ियादत में उनके प्रोग्राम के मुताबिक़ एक साईंसी तंज़ीम क़ायम करे। ये कमेटी क़रीब पाँच साल तक चलती रही और 1847 में इसने एक तंज़ीम की बुनियाद रखी जिसका नाम जमीअत अल फ़ुनून वल उलूम (The Science & Arts Association) रखा गया। इस तंज़ीम को चलाने और इसकी निगरानी करने का ज़िम्मेदारी अंग्रेज़ों के दो ख़तरनाक ईसाई एजैंट यानी बुतरूस अलबुस्तानी, नासिफ़ अल बाज़िजी (जिस की पुश्त पर कर्नल चर्चिल था) और उनके साथ अंग्रेज़ों में से ऐली स्मिथ और कॉरनीलियस वॉन डाइक ने लिया। शुरू शुरू में इस तंज़ीम के एहदाफ़ पोशीदा थे, इस तंज़ीम ने ये ज़ाहिर किया के ये बालिग़ों में उलूम फैलाते हैं जिस तरह के मदरसों में बच्चों को उलूम सिखाये जाते हैं। ये तंज़ीम बालिग़ों को इसी तरह मग़रिबी तर्ज़ ए फ़िक्र और तेहज़ीब की जानिब मरऊब कर रही थी जिस तरह मग़रिबी सिक़ाफ़त में बच्चों को रंगने के लिऐ मदारिस का इस्तिमाल हो रहा था। लेकिन बहरहाल इस तंज़ीम के अहलकारों की सरगर्मीयों और सख्त कोशिशों के बावजूद दो साल के दौरान पूरे बिलादे शाम में इस तंज़ीम के साथ सिर्फ़ पचास मैंबर आ सके जो के तमाम के तमाम ईसाई थे और ज्यादा तर बेरूत के बाशिंदे थे। इस जमीअत में मुसलमानों और दरूज़ में से कोई एक भी मैंबर शामिल ना हुआ था।

1850  में एक और तंज़ीम अलजमीअत अल शरक़िया के नाम से बनाई गई। इसकी बुनियाद यसुई ईसाईयों ने फ़्रांसी ईसाई पादरी हैनरी डी बरोनीर के ज़ेरे निगरानी रखी। इसके भी तमाम मैंबर ईसाई थे। फिर 1857 में एक और नई तंज़ीम को नए तरीक़े से तशकील दिया गया और इसमें ये ख्याल रखा गया के इसमें कोई भी यूरोपी ना हो, इसके बानी भी अरब ही थे, लिहाज़ा ये तंज़ीम चंद मुसलमानों और दरूज़ों को शामिल करने में कामयाब रही। चूँके ये नई तंज़ीम अरबों के लिऐ मख्सूस थी लिहाज़ा इसमें एक बड़ी तादाद तक़रीबन डेढ़ सौ मैंबर शामिल हुए। इस तंज़ीम के इंतिज़ामिया में बाअज़ मारूफ़ अरब शख्सियात थीं जैसे मुहम्मद अरसलान दरूज़ में से, और हुसैन बैहम मुसलमानों में से, इबराहीम अल बाज़िजी और बुतरूस अल बुस्तानी के बेटे ईसाईयों में से। यही दो मोअख्ख़र अलज़िक्र ईसाई इस फ़िक्र के शामिल थे। इस तंज़ीम की कामयाबी से कुफ्फ़ार की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने ढके छुपे रास्तों के बजाये खुले तरीक़ों से क़ौम परस्ती के जज्बात और रुजहानात को हवा देना शुरू किया।

1875 में बेरूत मैं अल जमीअत अस्सिरिया एक ख़ुफीया तंज़ीम क़ायम हुई जिस के बानी वो पाँच नौजवान थे जो बेरूत के प्रोटैस्टैंट कॉलेज से इल्म हासिल करके फ़ारिग़ हुए थे, ये सब के सब ईसाई थे और उनके साथ कुछ और अफ्राद भी शामिल हो गए। इस जमीअत ने अपने आपको एक फ़िक्री सियासत पर मर्कूज़ किया और ये अरब वतनियत की बुनियाद पर एक सियासी जमाअत बन गई। ये जमाअत अरब क़ौमियत की बुनियाद पर क़ायम पहली अरब सियासी जमाअत थी जो बिलादे इस्लामिया में वजूद में आई। ये जमाअत अरब, अरबिय्यत और अरबी क़ौमियत की तरफ़ दावत देती थी और उस्मानी रियासत के ख़िलाफ़ दुश्मनी को उभारती थी और इसको वो तुर्क रियासत कहती थी। इस तंज़ीम का मक्सद दीन को रियासत से बेदख़ल करना, अरब वतनियत की बुनियाद पर मुसलमानों को यकजा करके उनकी वफ़ादारी को इस्लामी अक़ीदे से हटा कर अरब वतनियत की तरफ़ मोड़ देना था। ये तंज़ीम ख़ुफ़िया तरीक़े से पर्चे तक्सीम किया करती थी जिस में वो तुर्की पर उनके बक़ौल अरबों से ख़िलाफ़त छीन लेने का इल्ज़ाम लगाती थी। तुर्की पर इस्लामी शरीअत से इन्हिराफ़ और दीन के बेजा इस्तिमाल का इल्ज़ाम लगाती थी, जब्के दरहक़ीक़त इस जमीअत को क़ायम करने वाले और इसके ज़िम्मा दारान ईसाई थे जो इस्लाम के ख़िलाफ़ बुग्ज़ ओ इनाद से भरे हुए थे। इसी तरह क़ौम परस्ती और क़ौमी तास्सुब की तेहरीकें फैलने लगीं और इसके साथ क़ौमियत का नारा भी फैलने लगा। यूरोपी मुमालिक जो बेरूत के इस मर्कज़ की पुश्तपनाही कर रहे थे, वो वहाँ से जासूसों को रखते और एैसे अफ्क़ार की तब्लीग़ पर ज़ोर देते जिन से फ़िक्रोरूह की तबाहकारी होती हो। लिहाज़ा गो के ये तंज़ीम सियासी ऐतेबार से पस्त थी, ताहम फ़िक्री ऐतेबार से इसके असरात निहायत मोहलिक थे। 
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