इंसानी ज़िंदगी की खासियत है कि उस की एक उमूमी ज़िंदगी (Public
life) होती है जो वो अपने समाज और
क़बीली के लोगों में, या अपने गांव
और शहर के लोगों के बीच बसर करता है और उस की एक ज़ाती या निजी ज़िन्दगी होती है जो अपने
घर में अपने घर वालों के साथ गुज़ारता है। इस्लाम ने इंसान की इस निजी ज़िंदगी में मर्द
और औरत के सामने आने वाले समस्याओं से मुताल्लिक़ अहकाम दिए,
इन अहकाम में एक ख़ास बात ये रखी कि उस की इस निजी ज़िंदगी पर
बस उसका अपना हक़ हो और किसी भी दूसरे शख़्स के लिए उसके घर में बगै़र इजाज़त दाख़िले
को ममनू (निषेध) रखा, अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ
بُيُوتِڪُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَاۚ ذَٲلِكُمۡ خَيۡرٌ۬ لَّكُمۡ لَعَلَّكُمۡ
تَذَكَّرُونَ
ऐ ईमान वालो,
सिवाए अपने घरों
के दूसरे घरों में दाख़िल ना हो जब तक कि इजाज़त ना ले लो और घर वालों को सलाम ना कर
लो। ये तरीक़ा तुम्हारे लिए बेहतर है, तवक़्क़ो है कि तुम इस नसीहत का ख़्याल रखोगे (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:27)
इस तरह अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने लोगों को दूसरों के घरों में बिना इजाज़त दाख़िल होने
से मना फ़रमा दिया और इजाज़त का मिलना ग़ैर मारूफ़ होने , नीज़ इजाज़त के मिल जाने को मारूफ़ होना तसव्वुर किया गया,
जैसा कि आयत में लफ्ज़ (यानी जब तक तुम अहले खाना से मानूस होना
तय ना कर दो) के वारिद होने से मालूम हुआ। यहाँ मानूस होने को इजाज़त से बतौर किनाया
इस्तिमाल फ़रमाया। तिबरानी में हदीस नक़ल की है कि आँहज़रत (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
((من ادخل عینیہ في بیت من غیر
إذن أھلہ فقد دمرہ))
जो कोई किसी घर में उस घर के लोगों की इजाज़त के बगै़र झांक भी
ले तो गोया उसने उस घर को मिस्मार (धवस्त) ही कर दिया
इसी तरह सुनन अबु दाऊद में आता है कि एक शख़्स ने हुज़ूर नबी
अकरम (صلى الله عليه وسلم) से पूछा कि वो अपनी माँ के घर में जाने के लिए भी इजाज़त ले? आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया, यक़ीनन, उस शख़्स
ने फिर अर्ज़ किया कि उस घर में माँ की ख़िदमत करने वाला मेरे अलावा और कोई नहीं है, फिर भी क्या
मुझे हर बार दाख़िल होने के लिए इजाज़त ल लेनी होगी ?
आप (صلى الله
عليه وسلم) ने फ़रमाया, क्या तुम पसंद करोगे कि अपनी माँ को हालते उरयानी
(निर्वस्त्र स्थिति) में देखो? उस शख़्स ने इंकार में जवाब दिया, फिर आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया, तो इजाज़त लो। इस तरह किसी भी इंसान का अपने घर के सिवा दूसरे
घर में बिना इजाज़त दाख़िल होना मना कर दिया गया,
और इस में दाख़िल होने वाले घर के लोगों का मुस्लिम होना या
ग़ैर मुस्लिम होना शर्त नहीं क्योंकि यहाँ ख़िताब (संभोदन/
डायलॉग) मुसलमानों से है लेकिन इजाज़त लेने के हवाले से है और घरों की कोई क़ैद नहीं
गई है बल्कि घर मुतलक़ हैं चाहे वो मुसलमानों के हों या ग़ैर मुस्लिमों के,
आम शब्द इस्तिमाल फ़रमाया है और उस घर की कोई अलग से ख़ूबी नहीं
बताई गई है इसलिए तमाम घर इस में शामिल होंगे। अगर इजाज़त हासिल करने वाले को घर में
कोई ना मिले तो वो उसमें दाख़िल ना हो जब तक कि उसे अंदर बुलाया ना जाये, और अगर कोई
इस से वापिस जाने के लिए कह दे तो वो वापिस चला जाये,
अब उसके लिए दाख़िल होना जायज़ नहीं। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने फ़रमाया:
فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فِيهَآ أَحَدً۬ا فَلَا تَدۡخُلُوهَا حَتَّىٰ
يُؤۡذَنَ لَكُمۡۖ
وَإِن قِيلَ لَكُمُ ٱرۡجِعُواْ فَٱرۡجِعُواْۖ هُوَ أَزۡكَىٰ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٌ۬
फिर अगर तुम घर में किसी को ना पाओ तो इस में दाख़िल ना हो जब
तक कि तुम को इजाज़त ना मिले और अगर तुम से कहा जाये कि लौट जाओ,
तो लौट जाओ, ये तरीक़ा ज़्यादा पाकीज़ा है तुम्हारे लिए और अल्लाह तुम्हारे
आमाल से पूरी तरह वाक़िफ़ है (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:28)
इस के मानी ये हुए कि इजाज़त हासिल करने और पर्दाऐ हिजाब को तोड़ने
की ज़िद पर ना अडे रहो और ना ही दरवाज़ों पर इंतिज़ार करते खड़े रहो। ये बात उन घरों के
हवाले से हुई जो आबाद हों अलबत्ता ग़ैर आबाद घरों का मुआमला अलग है अगर दाख़िल होने
वाले शख़्स का इस घर में कुछ सामान वग़ैरा है,
तो इसके लिए बिना इजाज़त हासिल किए अंदर दाख़िल होना दुरुस्त
होगा और ये घर इसके लिए उन घरों से बरी होगा जहां दाख़िल होने के लिए इजाज़त हासिल करने
का हुक्म है। अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:
لَّيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ
مَسۡكُونَةٍ۬ فِيہَا مَتَـٰعٌ۬ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا
تَكۡتُمُونَ
इस में तुम पर कोई गुनाह नहीं कि तुम ऐसे घरों में दाख़िल हो
जिस में कोई रहता ना हो और जहां तुम्हारा मताअ (सामान) हो अल्लाह उस को ख़ूब जानता है
जिस को तुम ज़ाहिर करते हो और जिस को तुम छुपाते हो (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:29)
इस आयते मुबारका का विपरीत अर्थ ये हुआ कि अगर उस घर में जहां
तुम दाख़िल होना चाहते हो, वहां तुम्हारा कोई सामान वग़ैरा नहीं हो तो तुम्हें वहां दाख़िल
नहीं होना है इसलिए बिना इजाज़त दाखिल होना सिर्फ़ उन घरों तक महदूद है जहां दाख़िल
होने वाले का कोई सामान हो और वो घर ग़ैर आबाद हो। इजाज़त हासिल करने के इस हुक्म से
निजी ज़िंदगी को घर में दाखिल होने वाले के खलल से महफूज़ कर दिया गया और घर वालो को
बाहर वालों की दख़ल अंदाज़ी से तहफ्फुज़ मिल गया।
ये अहकाम तो बालिग़ और आज़ाद फर्द के लिए हुए, अलबत्ता ग़ुलाम
और वो बच्चे जो बालिग़ नहीं हुए हों, वो इस हुक्म
से बरी हैं और वो इजाज़त हासिल किए बिना घरों में दाख़िल हो सकते हैं, हालांकि तीन समय अवधि इस से भी बरी हैं,
वो अवक़ात यूं हैं: नमाज़े फज्र से पहले का वक़्त, ज़ुहर का
वक़्त और इशा के बाद का वक़्त । इन अवक़ात में उन के लिए भी ज़रूरी है कि वो दाख़िल होने
से पहले इजाज़त ले लें। उस की वजह ये है की ये वो अवक़ात हैं जब इंसान सोते या जागते
ऐसे लिबास में होता है जो सतर (जिसे छुपाने का हुक्म दिया गया है) से कम हो। फ़ज्र से
पहले जागने का समय होता है जब लोग अपने लिबास बदलते हैं ज़ुहर का वक़्त आराम का होता
है जब लोग आराम करने के लिए लिबास बदलते हैं और इशा के बाद सोने का वक़्त होता है जब
लोग सोने के लिए कपडे बदलते हैं। इन तीनों अवक़ात के अलावा गुलामों और नाबालिग़ बच्चों
को अंदर दाख़िल होने के लिए इजाज़त की ज़रूरत नहीं रहती और वो किसी भी वक़्त बिना इजाज़त
हासिल किए दाख़िल हो सकते हैं। बालिग़ होते ही इन का ये हक़ ख़त्म हो जाता है और अब उन्हें
भी दूसरों की तरह इजाज़त हासिल करना ज़रूरी होता है,
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ
مَلَكَتۡ أَيۡمَـٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَـٰثَ
مَرَّٲتٍ۬ۚ مِّن قَبۡلِ
صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ
بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ
ثَلَـٰثُ عَوۡرَٲتٍ۬ لَّكُمۡۚ
لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٲفُونَ عَلَيۡكُم بَعۡضُڪُمۡ عَلَىٰ
بَعۡضٍ۬ۚ كَذَٲلِكَ
يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأَيَـٰتِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ۬
( ٥٨ ) وَإِذَا بَلَغَ ٱلۡأَطۡفَـٰلُ مِنكُمُ ٱلۡحُلُمَ
فَلۡيَسۡتَـٔۡذِنُواْ ڪَمَا ٱسۡتَـٔۡذَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَٲلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَڪُمۡ
ءَايَـٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ
حَڪِيمٌ۬
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, लाज़िम है कि इजाज़त तलब करें तुम से वो जो तुम्हारे मिल्के
यमीन में हैं और तुम में से वो बच्चे भी जो अक़्ल-ओ-शऊर को ना पहुंचे हों तीन औक़ात
में, नमाज़े फज्र से पहले और दोपहर के वक़्त जब तुम अपने कपड़े उतार देते हो और नमाज़े इशा
के बाद। ये तीन औक़ात तुम्हारी बेपर्दगी के हैं। तुम पर और उन पर इन औक़ात के बाद कोई
गुनाह नहीं है कि तुम एक दूसरे के पास आते जाते रहो। इस तरह अल्लाह अपने अहकामात तुम्हारे
लिए खोल खोल कर बयान करता है और अल्लाह हकीम और अलीम है। और जब तुम्हारे बच्चे बलूग़
को पहुंच जाएं तो लाज़िम है कि वो भी इजाज़त तलब करें जैसे वो इजाज़त तलब करते हैं जो
उन से पहले बालिग़ हुए हैं। इस तरह अल्लाह अपने अहकामात तुम्हारे लिए खोल खोल कर बयान
करता है और अल्लाह हकीम-ओ-अलीम है। (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:
58, 59)
ये वो अहकाम हैं जिन से निजी ज़िंदगी बाहर वालों के दखल से महफ़ूज़
की गई है, इस में अजनबी लोगों और महरमों या क़रीबी रिश्तेदारों के बीच
कोई फ़र्क़ नहीं है। इस निजी ज़िंदगी में औरत दूसरी औरतों और अपने महरमों के साथ रहती
हैं जिन के सामने औरत के लिए जायज़ है कि वो अपना बनाव सिंगार का इज़हार करे। निजी
ज़िंदगी में औरत को इसे ज़ाहिर करने की इजाज़त है। औरतों और महरमों के अलावा औरत को इजाज़त
नहीं कि वो किसी और के साथ निजी हैसियत की ज़िंदगी गुज़ारे क्योंकि उसे ये इजाज़त नहीं
कि वो उनके सामने अपने हाथों और चेहरे के अलावा जिस्म के उन हिस्सों की ज़ीनत का मुज़ाहिरा
करे जो आम तौर पर घरेलू काम काज के दौरान खुले रहते हैं। लिहाज़ा निजी ज़िंदगी मुस्लिम
या ग़ैर मुस्लिम औरतों और महरम मर्दों तक सीमित रखी गई है । इस तरह औरत के लिए जो हुक्म
है कि वो अपने जिस्म के अज़ा का बनाव सिंगार ग़ैर महरम के सामने ज़ाहिर ना करे जबकि यही
अंग महरम मर्दों के सामने खुले रह सकते हैं,
इससे मालूम हुआ कि निजी ज़िंदगी महरमों तक महदूद है,
अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:
وَقُل
لِّلۡمُؤۡمِنَـٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَـٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ
وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ
جُيُوبِہِنَّۖ
وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآٮِٕهِنَّ أَوۡ
ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآٮِٕهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ
أَوۡ إِخۡوَٲنِهِنَّ أَوۡ بَنِىٓ إِخۡوَٲنِهِنَّ أَوۡ بَنِىٓ أَخَوَٲتِهِنَّ أَوۡ
نِسَآٮِٕهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَـٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّـٰبِعِينَ غَيۡرِ
أُوْلِى ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ
عَلَىٰ عَوۡرَٲتِ ٱلنِّسَآءِۖ
और मोमिन औरतों से कहो कि अपनी नज़रें नीचीं रखें और अपनी शर्मगाहों
की हिफ़ाज़त करें और अपना बनाव सिंगार ज़ाहिर ना करें,
मगर अपने शौहरों
के सामने, अपने बापों के सामने या अपने बेटों के या अपने शौहरों के बेटों
के या अपने भाईयों के या अपने भतीजों के या अपने भाँजों के या अपनी औरतों या उन के
सामने जो उन की मिल्के यमीन में हों या उन खादिमों के सामने जिन्हें औरतों की ख़ाहिश
ना हो चाहे मर्द ही क्यों ना हो या उन बच्चों के सामने जो अभी वाक़िफ़ नहीं हुए हैं
औरतों की पोशीदा बातों से। (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल नूर:31)
इन महरमों में वो ग़ुलाम भी शामिल हैं जो उनके अधीन हों और वो
लोग भी जिन में औरतों की शहवत ना हो जैसे बूढ़े,
या अक़्ल और समझ से खाली,
या फिर ख़स्सी जिन के अज़ुऐ तनासुल (जननीय अंग) ना हो। उन के अलावा
यानी ग़ैर महरम चाहे वो रिश्तेदार ही हों, उन्हें इस
निजी ज़िंदगी में रहने की इजाज़त नहीं क्योंकि औरत के लिए अपना बनाव सिंगार उन के सामने
ज़ाहिर करना जो आम तौर से घरेलू ज़िंदगी में ज़ाहिर होता है,
उस की इजाज़त नहीं।
लिहाज़ा निजी ज़िंदगी में ग़ैर महरम मर्दों का होना क़तअन हराम
है सिवाए उन हालात के जिन को शरीयत ने मुबाह (जायज़) रखा है जैसे खाना पीना या रिशतेदारों
से मेल जोल, और इस में भी औरत के लिए लाज़िम है कि उसका महरम उसके साथ हो
और उसका पूरा सतर ढका हुआ हो।
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