तक़लीद

तक़लीद की तारीफ़ :
ھو العمل بقول الغیر من غیر حجۃ ملزمۃ
( बगै़र किसी लाज़िमी हुज्जत के दूसरे के क़ौल पर अमल करना )
तक़लीद के दलायल

अक़ीदे में तक़लीद नाजायज़ है जैसा कि कई आयात में मज़कूर है, अलबत्ता अहकामे शरईया में इस का जवाज़ मुन्दर्जा जे़ल नुसूस से साबित है :

فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّڪۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ
 पस तुम अहले ज़िक्र से पूछ लो अगर तुम्हें ख़ुद इल्म ना हो (अल अंबिया-7)

यहां ये सवाल उठ सकता है कि आयत से मुराद अहले किताब हैं, तो इस का इतलाक़ मुसलमानों पर कैसे हो सकता है ? इस का जवाब ये है कि सही है कि ये आयत अहले किताब के बारे में नाज़िल हुई मगर क़ायदा है :

العبرۃ بعموم اللفظ لا بخصوص السبب
(लफ़्ज़ के उमूम का ऐतबार होगा ना शाने नुज़ूल की ख़ुसूसीयत का)

यहां أَهۡلَ ٱلذِّڪ के उमूम में मुसलमान भी शामिल हैं क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है :

وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّڪۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡہِمۡ
ये ज़िक्र (क़ुरआन) हम ने आप की तरफ़ उतारा है कि लोगों की जानिब जो नाज़िल फ़रमाया गया है आप उसे खोल खोल कर बयान कर दें (अल नहल-44)

यहां अल्लाह سبحانه وتعال ने क़ुरआन को ज़िक्र से मौसूम किया है चुनांचे यहां से मुसलमानों का अहल-ए-ज़िक्र में से होना साबित है। यहां ये ना कहा जाये कि आयत ईमान के बारे वारिद हुई है, तो उसे अहकाम के मौज़ूअ में कैसे इस्तिअमाल किया जा सकता है ? ये इसलिए क्योंकि आयत का मौज़ूअ ईमान नहीं बल्कि मार्फ़त है यानी आयत में लाइलमों को अहल-ए-इल्म से पूछने को कहा गया है क्योंकि कलिमा فَسۡـَٔلُوٓاْ (पूछो) आम है और इस में अहकाम शरई भी शामिल हैं ।

और हज़रत जाबिर رضي الله عنه से ये रिवायत है कि एक शख़्स जिनाबत की हालत में था और उस के सर पर चोट थी, ग़ुस्ल के वक़्त उस ने बाअज़ सहाबा ऐ किराम से पूछा कि क्या इस पर कोई रुख़सत है जिस पर उन्होंने इन्कार किया (यानी उसे पूरा ग़ुस्ल करना पड़ेगा), इस ग़ुस्ल के बाद वो हलाक हो गया। इस पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया :

إنما کان یکفیہ أن یتیمم ویعصب علی رأسہ خرقۃ فیمسح علیھا ویغسل
سائر جسدہ، ألا سألوا إذا لم یعلموا ؟ إنما شفاء العي السؤال (أبو داود)
बेशक ये काफ़ी था कि वो तयम्मुम कर लेता और सर पर एक कपड़ा बांध कर इस पर मस्ह कर लेता और बाक़ी जिस्म को धो लेता, उन्होंने पूछा क्यों नहीं अगर (ये) मालूम ना था, बेशक बीमारी का ईलाज पूछना है (अबु दाऊद)

इन नुसूस से मुक़ल्लिद के लिए मुज्तहिद की तक़लीद का जवाज़ साबित है। चूँकि वो ख़ुद नुसूस से हुक्म अख़ज़ करने से क़ासिर है, इसलिए उस पर वाजिब है कि वो किसी मुज्तहिद की तक़लीद करे । याद रहे कि तक़लीद से मुराद किसी शख़्स की ज़ाती तक़लीद नहीं बल्कि ये हुक्म अल्लाह की माअर्फ़त हासिल करने के लिए है, ताकि वो इस अख़ज़ शुदा हुक्मे शरई पर अमल कर सके। अगर किसी शख़्स की ज़ाती तौर पर तक़लीद की गई तो ये हराम है क्योंकि मुसलमान सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म की पैरवी करता है ना किसी इंसान की ।

तक़लीद असल नहीं

मुकल्लिफ़ के लिए असल ये है कि वो ख़ुद अल्लाह के हुक्म को नुसूस से मुस्तंबत करे क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال अपने ख़िताब में एक ख़ास गिरोह यानी फ़क़त मुज्तहिदीन-व-उलमा से मुख़ातिब नहीं बल्कि ये ख़िताब सारी इंसानियत को है । चुनांचे मुकल्लिफ़ के
लिए तक़लीद असल नहीं क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है :
وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۚ إِنَّ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡبَصَرَ وَٱلۡفُؤَادَ كُلُّ أُوْلَـٰٓٮِٕكَ كَانَ
عَنۡهُ مَسۡـُٔولاً۬
जिस बात का तुझे इल्म ना हो उसकी पैरवी मत कर क्योंकि कान और आँख और दिल, इन में से हर एक से पूछगछ की जाने वाली है (अल इसरा-36)

तक़लीद चूँकि बिला दलील के हुआ करती है इसलिए इस से इल्म-व-यक़ीन का दर्जा हासिल नहीं हो सकता, ये फ़क़त दलील से मुम्किन है। अलबत्ता ये दलील मुक़ल्लिद के लिए मलजिमहৃ (लाज़िमी) नहीं होती, जैसा कि इज्तिहाद के ज़रीये मुज्तहिद के लिए हुआ करती है। पस जिस ने ख़िताबु अल्लाह सुना इस पर लाज़िम हो गया कि वो इस पर ईमान लाए और जो इस पर ईमान लाया इस पर अहकाम शरई पर अमल करने के लिए उन को नुसूस से ख़ुद समझना वाजिब हो गया । अलबत्ता चूँकि इस ख़िताब को सही समझना हर एक के लिए मुम्किन नहीं है इसलिए तक़लीद फ़क़त आजिज़ी-व-मजबूरी की वजह से नागुज़ीर है।

एक मसले में एक ही मुज्तहिद की तक़लीद

याद रहे कि मुक़ल्लिद के लिए ये लाज़िम है कि वो एक मसले में एक ही मुज्तहिद की तक़लीद करे जब कि इस के लिए दूसरे मसाइल में किसी दूसरे मुज्तहिद की तक़लीद जायज़ है । इस पर इज्माए सहाबा की दलील है । चुनांचे ये लाज़िमी नहीं कि तमाम मसाइल में एक ही मुज्तहिद की तक़लीद की जाये, अलबत्ता ये ज़रूरी है कि एक मसला में एक ही मुज्तहिद की तक़लीद हो, वर्ना ये गुमान ग़ालिब रहेगा कि वो अपनी ख्वाहिशात की पैरवी करे यानी जो हुक्म उसे आसान लगे वो उस को इख़्तियार करे और ये हराम है

क्योंकि इस सूरत में इस ने अल्लाह के हुक्म की पैरवी नहीं की बल्कि अपनी ख़्वाहिश की, अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है :

فَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلۡهَوَىٰٓ
पस अपनी ख्वाहिशात की पैरवी मत करो (अन्निसा-135)

मसले की तारीफ़ :
ھو کل فعل أو مجموعۃ أفعال لا یتوقف غیرھا في صحتہ علیھا
(वो हर फे़अल या अफ़आल का मजमूआ जिस पर किसी और (अम्र) की सेहत मौक़ूफ़ ना हो)

मसलन वुज़ू पर किसी और अम्र (काम) की सेहत मौक़ूफ़ है यानी नमाज़ क्योंकि ये इस का जुज़ (शर्त) है, इसलिए ये मसले की तारीफ़ से ख़ारिज है, मगर चूँकि नमाज़ पर किसी और अम्र की सेहत मौक़ूफ़ नहीं है, इसलिए ये एक मसला क़रार पाया।


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