मुज्तहिद की तीन अक़साम हैं :
मुज्तहिद मसअला, मुज्तहिद मज़हब और मुज्तहिद मुतलक़ ।
1) मुज्तहिद मसअला:
ये वो है जिस ने चंद एक मसाइल में इज्तिहाद क्या हो । इस के लिए फ़क़त मसला (वाक़े)
और इस से मुताल्लिक़ा लुगवी और शरई मालूमात की माअर्फ़त ज़रूरी है । मसलन अगर इस ने कलोनिंग
(cloning) के मौज़ू पर इज्तिहाद करना है तो उसे पहले उसकी हक़ीक़त को गहराई
से समझना पड़ेगा और फिर इन नुसूस की तरफ़ रुजूअ करना होगा जो इस मसअले से ताअल्लुक़ रखते
हैं । उसे इन नुसूस को गहराई से समझना पड़ेगा ताकि वो कलोनिंग के हुक्म का इस्तिंबात
कर सके। वो मालूमात जो इस मौज़ूअ से ग़ैर मुताल्लिक़ा हैं इस के लिए अहम नहीं हैं। इसीलिए
हर शख़्स मेहनत, पुख़्ता इरादे और नज़म-व-ज़ब्त के साथ इस दर्जे तक पहुंच सकता है
।
2) मुज्तहिदे मज़हब:
ये वो है जो तरीकाये इज्तिहाद (उसूल) में अपने इमाम की पैरवी करता है लेकिन फुरूआत
में इन उसूलों का पाबंद रहते हुए
ख़ुद भी अहकाम मुस्तंबित करता है । और उसे अपने मज़हब के तमाम अहकाम, उनकेदलायल और उनसे इस्तिंबात की कैफ़ीयत की माअर्फ़त हासिल होती
है।
3) मुज्तहिद मुतलक़:
ये वो है जो इजमाली तौर पर शरियते इस्लामी में मुतअद्दिद मसाइल में इज्तिहाद पर
क़ादिर होता है और इस ने अपना उसूल ख़ुद मुतअय्यन किया होता है । मज़कूरा बाला इज्तिहाद
की शराइत मुज्तहिद मुतलक़ के लिए हैं मगर इस का मतलब ये नहीं है कि उसे ये तमाम उलूम-व-मौज़ूआत
ज़बानी याद हूँ और ना ही ये कि वो तमाम अहकाम का अहाता करे क्योंकि ये बशरी क़ुव्वत
से बाहर है। दूसरे लफ़्ज़ों में ये ज़रूरी नहीं है कि वो इन तमाम उलूम-व-मौज़ूआत का आलिम
हो बल्कि इस से फ़क़त ये मुराद है कि वो इन सब की रसाई के हुसूल पर क़ादिर हो। चुनांचे
इस दर्जे तक पहुंचना मुश्किल ज़रूर है लेकिन नामुमकिन नहीं ।
यहां ये ना कहा जाये कि इज्तिहाद की ऐसी तबईज़ (divisibility
)कैसे की जा सकती है क्योंकि या तो बंदे में इज्तिहाद की अहलीयत
हो या ना हो। ये इसलिए क्योंकि ये तबईज़ अबवाब-ए-फ़िक़्ह के ऐतबार से नहीं बल्कि इस्तिंबात
की क़ुदरत के ऐतबार से है । ये इसलिए क्योंकि मुज्तहिद के लिए बाअज़ दलायल को समझना
आसान हो सकता है जिस की वजह से वो इज्तिहाद कर पाया हो जबकि दूसरे दलायल में पेचीदगी
और अदम वज़ाहत की वजह से उन को समझना दुशवार हो सकता है और इज्तिहाद मुहाल । अलबत्ता
इस वजह से इस के दूसरे इज्तिहादात की नफ़ी नहीं की जा सकती ।
मुज्तहिद मुतलक़ के लिए लाज़िम नहीं है कि वो हर मसअले में इज्तिहाद करे बल्कि ये
जायज़ है कि वो किसी और मुज्तहिद की तक़लीद करे, ये अम्र (काम) सहाबा ऐ किराम के इजमाअ से साबित है कि इन में
से बाअज़, चंद मसाइल में, दूसरों
की तक़लीद किया करते थे, इस के बावजूद कि ये तमाम अपने अंदर इज्तिहाद की सलाहीयत रखते
थे । अलबत्ता अगर मुज्तहिद ने इज्तिहाद किया यानी हुक्म मुस्तंबित कर लिया, तो इस सूरत में उस पर अपने इज्तिहाद की पैरवी लाज़िम होगी और
उस का तर्क जायज़ ना होगा सिवाए इन चार सूरतों के :
1) जब इमाम (ख़लीफ़ा) अहकाम की तबन्नी करे, तो इस सूरत में मुज्तहिद के लिए अपने इज्तिहाद को छोड़कर इमाम
के हुक्म पर अमल करना वाजिब होगा क्योंकि शरई क़ायदा है: अम्रउल इमाम यरफउल खिलाफ (इमाम का हुक्म
इख़्तिलाफ को ख़त्म करता है )
2) जब मुज्तहिद के लिए ये बात ज़ाहिर हो जाये कि उसकी दलील ज़ईफ़ है
और दूसरे मुज्तहिद की दलील क़वी है, तो इस सूरत में इस के लिए अपने इज्तिहाद को तर्क करना वाजिब होगा।
3) अगर उसे ये गुमान हो कि दूसरा मुज्तहिद मालूमात को मरबूत करने
में, या वाक़े या दलील को समझने पर ज़्यादा उबूर रखता है यानी उस के
इज्तिहाद पर उसे ज़्यादा एतिमाद है, तो इस सूरत में उस के लिए अपने इज्तिहाद को तर्क करना जायज़ होगा।
4) जब अपने इज्तिहाद को छोड़ने से मुसलमानों की वहदत महफ़ूज़ रह सके।
जैसा कि हज़रत उसमान ने ख़िलाफ़त के मंसब पर फ़ाइज़ होते वक़्त, अपने इज्तिहाद को छोड़ने और हज़रत अब्बू बकर और हज़रत उमर رضي الله عنه के इज्तिहादात
पर अमल करने पर बैअत ली, ताकि उम्मत की वहदत बरक़रार रहे ।
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