आज पूरी
दुनिया मग़रिबी सरमायादाराना निज़ाम (पश्चिमी पूँजीवादी व्यवस्था) के ग़लबे (प्रभुत्व)
के नीचे ज़िंदगी गुज़ार रही है जिसकी सरदारी अमरीका के हाथ में है। मशरिक़ (पूर्व) से
मग़रिब (पश्चिम) और शुमाल (उत्तर) से जुनूब (दक्षिण) पूरी इंसानियत इस निज़ाम (व्यवस्था)
की चक्की में पिस रही है। खास तौर पर उम्मते मुस्लिमा अपनी तारीख़ (इतिहास) के स्याह
तरीन दौर से गुज़र रही है। इसके इलाक़े कुफ़्फ़ार (काफिरों) की गिरिफ़त (कपड़) में है
और इसके वसाइल (संसाधन) अग़यार (गै़रो) की सनअतों (उद्योगों) और कारख़ानों में इस्तिमाल
हो रहे हैं जबकि उम्मत ख़ुद इस प्यासे ऊंट की मानिंद है जो सहराअ में चला जा रहा है
ये जाने बगै़र के पानी के मश्कीज़े उसके ऊपर लदे हुए हैं। आज उम्मते मुस्लिमा की जान, माल, इज़्ज़त, अक़ीदा (आस्था) और सरज़मीं महफ़ूज़ नहीं। इसके ऊपर मग़रिब (पश्चिमी)
के बिठाए हुए करप्ट एजैंट हुक्मरान और मग़रिब (पश्चिम) का दिया हुआ निज़ाम (व्यवस्था)
मौजूद है। इस सूरते हाल ने बिल उमूम (आम तौर पर) उम्मत के अंदर एक मायूसी को जन्म दिया
है कि इस मंझदार से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं। अब कोई मसीहा और मह्दी ही होगा
जो आकर इस मफ़लूक हाली से निजात दिलाएगा मगर वो लोग जो क़ौमों की तवारीख़ (इतिहास) और
सवानिह से वाक़िफ़ हैं वो जानते हैं कि उरूज व ज़वाल का ताल्लुक़ माद्दी (पदार्थिक) और
सनअती (उद्योगिक) तरक़्क़ी से नहीं बल्कि उन अफ़्क़ार (विचारों) और नज़रियात
(दृष्टिकोण) से है जिनकी बुनियाद पर कौमें मुनज़्ज़म (संघठित) होती हैं, मुतहर्रिक (आंदोलित) होती हैं और अपनी ज़िंदगी के मामलात चलाती
हैं। इस मज़मून मे हम माज़ी में बरपा होने वाले इन्क़िलाबात पर एक नज़र डालेंगे वहीं पर
इन मुआशरों (समाजों) में बरपा होने वाली तब्दीलियों के मुहर्रिकात और अस्बाब (कारणों)
पर भी एक नज़र डालेंगे ताकि ये समझा जा सके कि आया आज उम्मत तब्दीली के लिए तैय्यार
है या नहीं।
''फ़्रांसीसी इन्क़िलाब''
अठारवीं
सदी का यूरोप एक नई आगाही और बेदारी के दौर से गुज़र रहा था। कुरूने वुसता (Middle
Ages/मध्य युग) में चर्च और पादरीयों के ज़ुल्म और मज़हब (धर्म) के नाम पर इस्तिहसाल (शोषण) दर
इस्तिहसाल (शोषण) ने यूरोप को तारीकी (अंधकार) और बदहाली की गहराईयों में ला खड़ा किया
था। चर्च का ये इक्तिदार (सत्ता) एक हज़ार साल से भी ज़्यादा तवील था जिसकी बुनियादें
313 ई. में सल़्तनते रुम में उस वक़्त पड़ें जब शाह Constantine ने ईसाईत क़बूल करके ईसाइयत को रियासत के सरकारी मज़हब
(धर्म) का रुतबा दे दिया। इससे पहले रियासत के मामलात में मज़हब (धर्म) का कोई अमल दख़ल
ना था और रुम एक रिपब्लिक के तौर पर मौजूद था। Constantine के ईसाइयत क़बूल करने से ईसाइयत एक मज़लूम मज़हब (धर्म) की बजाय
एक ग़ालिब सियासी क़ुव्वत (राजनीतिक ताक़त) के तौर पर उभरी। इसाइयों के पोप ने इस मौक़ा
से फ़ायदा उठाते हुए ऐलान किया कि अब ईसाइयत सल्तनत का सरकारी मज़हब बन चुकी है इसलिए
तमाम क़वानीन (क़ानून/Rules) ईसाइयत के मुताबिक़
बनाए जाऐंगे और अदालतों के फ़ैसले भी मज़हबी (धार्मिक) पेशवाओं की सवाबदीद पर तय पाएंगे।
इस तरह चूँकि मसीही मज़हब की तशरीह का हक़ भी सिर्फ़ पोप को हासिल हो गया लिहाज़ा मुक़न्निना
(Legislature) और अदलिया (Judiciary) दोनों किलीसाई निज़ाम के ताबे हो गए। इस निज़ाम को नाफ़िज़ (लागू) करने के लिए पूरी
सल्तनत में पादरीयों के दरजात (पद) मुक़र्रर किए गए यानी कारडीनल, आरचबशक और आख़िर में गांव का पादरी और इन तमाम तक़र्रीयों (नियुक्ति)
का इख्तियार (अधिकार) पोप को हासिल था जिसकी सुकूनत दारुल हकूमत रुम में होती थी।
इसके बाद
तक़रीबन एक हज़ार साल तक यूरोप एक तारीक तरीन (अंधियारे) दौर से गुज़रा जिसे आम तौर
पर Dark
Ages के नाम से जाना जाता है। इस दौर की नुमायां ख़ुसूसीयात (खासियते)
ये थीं।
(1) ईसाइयत
सरकारी मज़हब की हैसियत से किलीसाई निज़ाम की शक्ल में यूरोप का सबसे मज़बूत इदारा बन
गई।
(2) ईसाइयों
के उल्मा और मशाइख़ इस हद तक ताक़तवर हो गए के इनका फ़रमान अल्लाह का फ़रमान गिरदाना
जाता था और एक आम ईसाई अंधा मुक़ल्लिद होता था। इसी रविष के बारे में क़ुरआन में अल्लाह
(سبحانه وتعالى) फ़रमाते हैं कि "इन्होंने
(ईसाईयों) अपने फ़क़ीहों और राहिबों को अल्लाह के सिवा अपना रब बना डाला"
(3) इस
दौर में यूरोप का सबसे बड़ा जागीरदार और मालदार इदारा किलीसा था। मज़हब के नाम पर लोगों
से जायदादें और दौलत समेटी जाती थी। हर शख़्स पर लाज़िम था कि अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा
चर्च को दे। इसके अलावा एक और टैक्स (1/10th) या अशरभी आमदन पर वसूल किया जाता था। चर्च दिन ब दिन अमीर होती गई। इस अमर (हुक्म)
का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्पेन में मुल्क की चौथाई ज़मीन, पर तान्या में 1/5 ज़मीन, जर्मनी में तीसरा हिस्सा और फ़्रांस का निस्फ़ रकबा चर्च की
मलकियत था। इन ज़मीनों पर कोई महसूल (टेक्स) वसूल नहीं किया जा सकता था और ना ही ये
हुकूमत के अमल दख़ल में थी।
(4)
सल्तनत के मुआमले में पोप का फ़ैसला हतमी और आख़िरी होता था।
(5) मज़हबी
अदालतों का क़याम हर जगह पर था जो कि दहश्त की अलामत बन गई थीं।
(6) सांईसी
तहक़ीक़, उलूम व फ़नून की तरक़्क़ी और जिद्दते फ़िक्र पर एक जमूद तारी
हो गया क्योंकि हर नई सोच और तहक़ीक़ को पहले चर्च के तयशुदा अक़ाइद (आस्था) की छननी
से गुज़रना पड़ता था। बहुत सारे सांईंसदान और मुफ़क्किरीन इसी छननी की ज़द में आकर अपनी
जानें गंवा बैठे। एक मशहूर मिसाल कायनात से मुताल्लिक़ किलीसा के इस तसव्वुर की थी कि
ज़मीन साकित है और दूसरे सय्यारे और सूरज इसके गिर्द घूमते हैं। कोपरनीकस, गीलीलीव और केपलर ने मुसलमान सांईंसदानों की तहक़ीक़ की बुनियाद
पर जब ये हक़ायक़ बयान किए तो उन पर मुक़द्दमात क़ायम किए गए और अपने रवैय्ये पर माफ़ी
मंगवाई गई। इस मौक़े पर गीलीलीव का वो मशहूर फ़िक़रा अदा हुआ जब इसने माफ़ी मांगने के
बाद ज़ेरलब कहा : ''मैं मानू या ना मानू ज़मीन तो बहरहाल घूमती रहेगी।''
(7) इन्हीं
Dark
Ages में ख़ानक़ाही निज़ाम की बुनियाद पड़ी जिसका नज़रिया रूह को परवान
चढ़ाने के लिए माद्दे को मारने के हवाले से था।
(8) ईसाइयत
की ख़ामीयों को दूर करने के लिए कुछ इस्लाह पसंद तहरीकें भी उठीं जिनमें सैंट आगसटाइन
(354CE-430CE),
सैंट थॉमस अकवाइनो (1227CE-1272CE) और आख़िर में मार्टिन लूथर किंग (1483CE-1546CE) ज़्यादा मशहूर हैं। मार्टिन लूथर किंग की तहरीक इसलिए भी अहम
है क्योंकि ये यूरोप में निशाते सानिया (पुर्नजागरण/Revival) के साथ पैवस्ता है और ये ईसाइयत को दो ढड़ों यानी कैथोलिक और
परोटीसटनटस में तक़सीम (बटवारें) करने के मूजिब बनी। इस तेहरीक (आंदोलन) का एक इंतिहाई
अहम पहलू अवाम (जनता) को चर्च की वफ़ादारी से निकाल कर हुब्ब-उल-व्तनी और वतन से वफ़ादारी
की तरफ़ लेकर आना था।
इन तेहरीकों
(आंदोलनों) की मिसाल आज के दौर में उठने वाली अदलिया की तेहरीक से समझी जा सकती है
जिसका मक़सद मौजूदा निज़ाम (व्यवस्था) के अन्दर रहते हुए उसी निज़ाम (व्यवस्था) के
इदारों को मज़बूत करने की कोशिश है। जैसा कि अदलिया की तेहरीक में नज़र आया कि अवाम (जनता)
के अंदर उस निज़ाम (व्यवस्था) के साथ एक नई उम्मीद पैदा की गई हालाँकि मसला आज़ाद अदलिया
का नहीं बल्कि स्क्रिप्ट और फ़र्सूदा निज़ाम (व्यवस्था) का है जिसको जड़ से उखाड़ कर
फेंकने की ज़रूरत है। इस्लाही और इन्क़िलाबी तेहरीकों में ये एक नुमायां फ़र्क़ है कि
इस्लाही तेहरीकें मौजूदा निज़ाम के Framework के अंदर ही patchwork करने और इसी निज़ाम (व्यवस्था) को बेहतर करने की कोशिश करती
हैं जबकि इन्क़िलाबी तेहरीकें (क्रांतिकारी आंदोलन) एक out of the
box हल को सामने लाकर मौजूदा निज़ाम (व्यवस्था) को उसकी बुनियादों
से उखाड़ना चाहती हैं। यूरोप की निशाते सानिया (पुर्नजागरण) (Renaissance) की तेहरीक एक ऐसी ही तेहरीक थी। (Renaissance) फ़्रांसीसी ज़बान का लफ़्ज़ है। इसका मतलब दुबारा ज़िंदा होना
या दूसरा जन्म है। (Renaissance) दरहक़ीक़त किलीसा की इजारादारी (Monopoly) के ख़िलाफ़ अक़्ल और साईंस की बग़ावत का दौर था मगर इस बग़ावत
का रद्दे अमल इतना शदीद हुआ कि आज भी सदीयां गुज़रने के बावजूद यूरोप के अज़हान (दिमागों)
में मज़हब (धर्म) का नाम आते ही जब्रो इस्तिहसाल (शोषण), फ़िक्री (वैचारिक) पाबंदीयों, गुलामाना ज़हनियतों,
मज़हबी तबक़े (धार्मिक वर्ग) की मआशी (आर्थिक) लूट खसूट और जिस्मानी
तशद्दुद की तस्वीर बन जाती है।
यूरोप की
निशाते सानिया (पुर्नजागरण) की तेहरीक (आंदोलन) के पीछे मौजूद मुहर्रिकात का मुताला
(अध्ययन) इंतिहाई ज़रूरी है। आईए एक नज़र उन मुहर्रिकात पर डालते हैं।
(1) किलीसाई
मज़हब (धर्म) का जबर,
जिसके ख़िलाफ़ अवाम (जनता) के ज़हनों (दिमागों) में मौजूद नफ़रत
का लावा जो कई सदीयों से अंदर ही अंदर उबल रहा था, इस दौर में फटकर बाहर आ गया।
(2) सांईंसी
इन्किशाफ़ात,
जिन्होंने कायनात से सम्बन्धित चंद ईसाई अक़ाइद (आस्था) को
यकसर मुस्तर्द (अस्वीकार) कर दिया था, जिसकी वजह से अवाम (जनता) के ज़हनों में मज़हब (धर्म) से सम्बन्धित शकूक व शुबहात
ने जन्म लिया जिसके बाद हर अक़ीदे (आस्था) को अक़्ल की कसौटी पर परखा जाने लगा।
(3) जर्मनी
के शहर,
मेनज़ में दुनिया का सबसे पहला छापाख़ाना 1448 ई. में क़ायम हुआ, जिसने इल्म और फ़िक्र (विचारों) को पादरीयों की इजारादारी (Monopoly) से निकाल कर आम अवाम (जनता) की गोद में डाला। किताबों और रिसालों
की इशाअत से इल्मी दुनिया पर चर्च की इजारादारी (Monopoly) ख़त्म हो गई और वो मुसन्निफ़ीन भी मंज़रे आम पर आने लगे जिनका
किलीसा से कोई ताल्लुक़ (सम्बन्ध) नहीं था। इस तरह इस तेहरीक का पैग़ाम यूरोप के गोशे
गोशे में फैल गया।
(4) यूरोप
में फ़नून व अदब,
तारीख़ (इतिहास), सियासयात और सांईंस जैसे मज़ामीन में बड़े-बड़े स्कॉलर पैदा हुए जिनमें कोपरनीकस, गलेलीयू, न्यूटन, केपलर और फ्रांसिस बेकन जैसे लोग शामिल थे। उन लोगों ने यूरोप
को सांईंस व अदब की एक नई दुनिया से रोशनास करवा दिया।
इन मुहर्रिकात
ने इस निशाते सानिया (पुर्नजागरण) की राह हमवार की मगर सियासी फ़िक्र (राजनीतिक
विचार) के मैदान में जिस किताब ने कलीदी किरदार अदा किया वो मीका वली की किताब "The Prince" है। इस किताब में हुकूमत चिली के फ़न को उजागर किया गया है जिसमें
रियासत और हुक्मरान को बुनियादी दर्जा देकर उनको आलातरीन इदारा बनाकर पेश किया गया
है। मज़ीद बरआं ये कि इंसान अपनी फ़ित्रत में हरीस (लालची), ख़ुदग़रज़ और माद्दी फ़ायदे की ख्वाहिश रखता है। इंसान को बिना
किसी रोक टोक और मज़हब (धर्म) की क़ैद के बगै़र इन नफ़सानी ख्वाहिशात की तकमील की इजाज़त
होनी चाहिए,
यानी के Freedom का तसव्वुर
और रियासत का काम उन Freedoms की हिफ़ाज़त करना है। मीका वली के तसव्वुरात को मज़ीद आगे बढ़ाने
वाले लोगों में तीन नाम बहुत अहम हैं। थॉमस हाबज़ (1588CE), जान लॉक (1778CE) और जैन
जैक्वस रूसो (1712CE-1778CE)। ये तीनों हज़रात अपने दौर में सैकूलर नुक्ता-ए-नज़र
(दृष्टिकोण) के अलमबरदार थे और उनके अहदाफ़ (objective) में क़ौमी सैकूलर रियास्तों का क़याम और मज़हब (धर्म) को सियासत
(राजनीति) से मुकम्मल तौर पर पाक करना था। उनके अफ़्क़ार (विचारों) में वाज़ेह (स्पष्ट)
तौर पर मज़हब से पाई जाने वाली नफ़रत और इंसान की आज़ादी के तसव्वुरात मिलते हैं। मज़ीद
बरआं ये आज़ादी रियासत के ख़िलाफ़ इस्तिमाल नहीं की जा सकती क्योंकि रियासत के ख़िलाफ़ इन
आज़ादियों का इस्तिमाल ख़ुद अपनी आज़ादियों को सल्ब (छिनना) करना है और दोयम ये इस मुआशरती
अक़द की ख़िलाफ़वर्जी़ है जिसकी बदौलत हर शख़्स की आज़ादी की यक़ीन दयानी होती है। रियासत
के ख़िलाफ़ उठने का हक़ सिर्फ़ उस वक़्त है जब वो आज़ादी महय्या ना कर सके। ये और उन जैसे
दीगर (दूसरे) तसव्वुरात ही थे जिन्होंने मग़रिबी सरमायादाराना इन्क़िलाब (पश्चिमी
पूँजीवादी आंदोलन) की बुनियाद रखी। यहां ये बात समझना इंतिहाई ज़रूरी है कि तब्दीली
ख़ाह (चाहे) कितनी ही बड़ी क्यों ना हो, उसकी हक़ीक़त ख़ाह कुछ भी हो मगर इसके पीछे एक नज़रिया या मब्दाह का होना इंतिहाई ज़रूरी
है। हर इन्क़िलाब एक नज़रिया से ही शुरू होता है और ये फ़िक्र (विचार) ही है जो लोगों
को मुतहर्रिक करती है और उनके अंदर जोश और वलवला पैदा करती है।
ये जोश
और वलवला मीका वली,
जान लॉक और रूसो जैसे लोगों ने पैदा किया जिसकी बदौलत अठारवीं
सदी की आख़िरी दहाई में फ़्रांस के अंदर वो इन्क़िलाब पैदा हुआ जिसे दुनिया फ़्रांसीसी
इन्क़िलाब के नाम से याद है। 1774 ई. में बादशाह Louis, the 16th ने तख़्त सँभाला। उस वक़्त फ़्रांस बदतरीन मआशी मसाइल
(आर्थिक समस्या) से गुज़र रहा था जिसकी वजह वो सात साला जंग थी जो फ़्रांस और इसके
इत्तिहादी,
बर्तानिया और इसके इत्तिहादियों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। इस मआशी
बोहरान (आर्थिक संकट) के नतीजे में पहली बार ये तजवीज़ (प्रस्ताव) दी गई कि नोबलज़ और
कलरजी पर भी Land
Tax आइद किया जाये। ये दोनों तबक़ात (वर्ग) जिनको First
Estate और Second
Estate भी कहा जाता है, फ़्रांस की कुल आबादी का तीन फ़ीसद थे मगर ज़्यादातर दौलत पर क़ाबिज़ (हावी) थे, इस तजवीज़ (प्रस्ताव) के मुख़ालिफ़ (विरूध) थे। इस बात पर Estates
General का इजलास बुलाने पर इत्तिफ़ाक़ राय हुआ। ये एक तरह की जनरल असैंबली
थी जिसने नोबलज़,
कलरजी और आम अवाम (जनता) की बराबर-बराबर नुमाइंदगी थी। कमज़ोर
होती हुई कलरजी की गिरिफ़त (पकड़) और लड़खड़ाती हुई बादशाहत ने Commons के नुमाइंदों को मज़ीद बहादुर कर दिया। उन्होंने जनरल असैंबली
में अपनी नुमाइंदगी को दुगुना करने का मुतालिबा (मांग) कर दिया जिसे Louis, the
16th ने दबाव पड़ने पर मंज़ूर कर लिया। इंतिख़ाबात (चुनाव) के नतीजे
में नोबलज़ को 291,
कलरजी को 300 जबकि Third Estate यानी Commons
को 610 सीटें मिली। Commons के 610 नुमाइंदों का वाज़ेह (स्पष्ट) मतलब था कि उनको दूसरे फ़रीक़ों के मुश्तर्क
(समान) नुमाइंदों यानी 591 पर भी बरतरी हासिल थी। वो जानते थे कि ख़ामोश इन्क़िलाब (क्रांति)
तो बरपा हो ही चुका है इसलिए उन्होंने ख़ुद को क़ौमी असैंबली क़रार दे दिया यानी अवाम
(जनता) की असैंबली। मगर इससे पहले कि ये गिरोह 10 जून, 1789 ई. को इस तयशुदा हाल में इकट्ठा होता, Louis,
the 16th ने ये हाल बंद करवा दिया और मजबूरन ये इजलास एक क़रीबी टेनिस
कोर्ट में हुआ जहां ये हलफ़ उठाया गया कि जब तक फ़्रांस के लिए एक नया आयन तैय्यार
ना हो जाये ये इजलास ख़त्म नहीं होगा। इस हलफ़ को टेनिस कोर्ट ओथ के नाम से जाना जाता
है। जल्द ही कलरजी के मुंतख़ब (चुनाव) बेशतर (कई) नुमाइंदे और नोबलज़ के 47 मैंबर्ज़ उनसे
आ मिले। 27 जून 1789 ई. को Louis, the 16th के हुक्म पर पैरिस और वरसीलीज़ को फ़ौज ने घेरे में ले लिया। इसके फ़ौरन बाद Louis, the
16th ने वज़ीरे ख़ज़ाना (वित्त मंत्री) जैक्वस नेकर को जो कि इन्क़िलाबियों
(क्रांतिकारियों) का हामी था, इसके ओहदे से मुअत्तल
कर दिया। इस बात पर पूरे पैरिस में ये एहसास जागा कि Louis, the
16th की जानिब से असैंबली के ख़िलाफ़ एक Royal Coup
का ऐलान है और अवाम (जनता) ने खुली बग़ावत शुरू कर दी। उन्हें
बाहर से आने वाली फ़ौज का ख़ौफ़ भी था जिसमें मुक़ामी फ्रांसीसों की बजाय ग़ैर-मुल्की ज़्यादा
थे कि इसका मक़सद क़ानूनसाज़ असैंबली को ख़त्म करना है। उधर असैंबली के मैंबरान ने nonstop सैशन शुरू कर दिया ताकि उन्हें रोका ना जा सके। पूरा पैरिस
हंगामों, अफ़रातफ़री और लूट मार के वाक़ियात का शिकार हो गया। हुजूम
को जल्द ही फ़्रांसीसी गार्ड की हिमायत मिल गई जिसमें मुसल्लह फ़ौजी शामिल थे। ये फ़्रांस
की फ़ौज का एक इलियट हिस्सा था और उनकी हिमायत इन्क़िलाब की कामयाबी में इंतिहाई अहम
साबित हुई। 14 जुलाई को Bastille के क़िले पर हमला किया गया जो कि बादशाहत के ज़ुल्म और ताक़त
का एक अहम निशान समझा जाता था। इन्क़िलाबियों (क्रांतिकारियों) ने इस क़िले पर क़ब्ज़ा
करके क़ैदीयों को आज़ाद करवा दिया। Louis, the 16th को एहसास हो गया कि वो ये लड़ाई हार चुका है और उसने नेकर को
दुबारा बहाल करके अपनी शिकस्त तस्लीम कर ली। इसके बाद 4 अगस्त, 1789 ई. को क़ानूनसाज़ असैंबली ने जागीरदारियत के ख़ात्में का
ऐलान कर दिया जिसके बाद नोबलज़ और कलरजी को मिलने वाली तमाल मुराआत ख़त्म हो गईं। 6
अक्तूबर 1789 ई. को बादशाह Louis, the 16th और इसके ख़ानदान कोइ रसलीज़ से पैरिस मुंतक़िल कर दिया गया जहां से वो 20 जून 1791 ई. को फ़रार होने की कोशिश में पकड़ा गया
और 21 जनवरी 1793 ई. को तख़्तादार पर चढ़ा दिया गया। बिलआख़िर 21 सितंबर 1792 ई. में फ़्रांस
की क़ानूनसाज़ असैंबली ने बादशाहत के ख़ात्में का ऐलान किया और फ़्रांस को एक रिपब्लिक
क़रार दे दिया। ये दिन फ़्रांसीसी रिपब्लिकन कैलिंडर का पहला दिन माना जाता है। ये सिलसिला
9 नवंबर 1799 ई. तक चलता रहा जब नपोलीन बौना पीट ने फ़ौजी इन्क़िलाब के ज़रीये हुकूमत
का तख़्ता उलट दिया।
कम्यूनिस्ट इन्क़िलाब
यूरोप में
सरमायादाराना (पूँजीवादी) इन्क़िलाब (क्रांति) के बाद दुनिया एक नए दौर में दाख़िल हो
गई थी। मग़रिब (पश्चिम) में सरमायादार (पूँजीवादी), अवाम (जनता) के नुमाइंदों की सूरत
में मस्नदे इक्तिदार पर बैठ गए थे। सरमायादारना निज़ाम (पूँजीवादी व्यवस्था) ने यूरोप
को जो दिया सौ दिया,
मगर उस निज़ाम (व्यवस्था) का भयानक चेहरा जल्द ही अपने मस्नूई
ख़ुशनुमा मासिक के नीचे से निकल आया। उस वक़्त यूरोप के पड़ोस में मौजूद रूसी रियासत पर
Czars की हुकूमत थी। यूरोप की तरह रूस भी एक ऐसे दौर से गुज़र रहा
था जहां अवाम (जनता) का मआशी इस्तिहसाल (आर्थिक शोषण) हो रहा था। सियासी सूरते हाल
ग़ैर-यक़ीनी और इंतिशार की तस्वीर बनी हुई थी। सनअत व तिजारत ज़वालपज़ीर थी, ज़रई सनअतें सत्तरवीं सदी के मॉडल पर चल रही थीं, सनअत और बंकारी में चालीस फ़ीसद से ज़्यादा हिस्सा बैरूनी सरमायादारों
का था। लोगों के लिए ज़िंदा रहना एक कश्मकश थी। कमाई कम और अख़राजात ज़्यादा, बैरूनी क़र्ज़ा जात बढ़ रहे थे। ग़रज़ीका मुल्क दीवालीया होने
को था। इस सूरते हाल में लोग सियासी निज़ाम (राजनीतिक व्यवस्था) और हुकूमत से उकताए
हुए थे और एक तब्दीली के इंतिज़ार में थे।
इससे पहले
के हम कमीयूनिस्ट इन्क़िलाब (क्रांति) की तारीख़ (इतिहास) और वाक़ेआत की तरफ़ बढ़ें, हमें इन अफ़्क़ार (विचारों) की तरफ़ भी देखना होगा जो कमीयूनिस्ट
इन्क़िलाब (क्रांति) की बुनियाद बने। कमीयूनिस्ट इन्क़िलाब (क्रांति) का फ़िक्री (वैचारिक)
बानी कार्ल माक्स (1818CE-1883CE) को कहा जाता है। कार्ल माक्स के अफ़्क़ार (विचारों) को एक फ़िक़रे
में समाने के लिए उसकी किताब The Communist Manifesto के पहले बाब की पहली सतर काफ़ी है जो 1848 ई. में शाय हुई। इसने कहा The
history of all hiterto existing society is the history of class struggles. यानी कि आज तक तमाम समाजों की तारीख़ तबक़ाती (वर्गी) जद्दोजहद
की तारीख़ (इतिहास) है। उसने कहा कि मुआशरे (समाज) की तबक़ाती तक़सीम (वर्गीकरण) बाअज़
इंसानों की बनाई हुई मस्नूई तक़सीम (बटंवारा) है जिसका मक़सद इंसान के हाथों इंसान के
इस्तिहसाल (शोषण) के सिवा कुछ नहीं। इसीलिए उसने ज़ाती मिल्कियत को ख़त्म करके रियासती
मिल्कियत का तसव्वुर पेश किया। अपनी किताब "Das Capital" यानी सरमाया (पूँजीवादी) में उसने ये कहा कि इंसानी तारीख़
(इतिहास) तमाम की तमाम ज़राए (कृषि) पैदावार के गिर्द घूमती है। तारीख़ (इतिहास) में
जितनी तब्दीलीयां वाक़ेअ (घटित) हुई हैं ख़ाह वो जंगों की सूरत में हो, नक़्ले मकानी, नए मुमालिक (देशों) का वजूद या इन्क़िलाबात की शक्ल में, बाअज़ नसलों की अफ़्ज़ाइश हो या बाद का इस्तिहसाल (शोषण), ये सबज़राइअ पैदावार की नौईयत और उनकी मिल्कियत की तब्दीलीयों
की वजह से रौनुमा हुई हैं इसलिए ज़राए (कृषि) पैदावार पर चंद मख़सूस (खास) लोगों का क़ब्ज़ा
जिन्हें इसने Bourgeois कहा, ही मुआशरे की बुरी
हालत और बुराईयों मसलन ग़ुर्बत (गरीबी), भूक,
क़हत (अकाल), झूठ,
फ़रेब और मुनाफ़क़तों का ज़िम्मेदार है। इसी बिना पर ज़राए (कृषि)
पैदावार पर एक खास तबक़ा (वर्ग) का क़ब्ज़ा नहीं होना चाहिए बल्कि दौलत की तक़सीमे मेहनत
के मुसावी (बराबर) होनी चाहिए जिसकी अमली सूरत ज़राए पैदावार पर रियासती कंट्रोल है।
कम्यूनिज़्म की फ़िक्री (वैचारिक) बुनियाद को समझने के लिए चाल्स डार्विन का नज़रीया-ए-इर्तिक़ा
(Evolution
Theory) को समझना इंतिहाई ज़रूरी है। ये डार्विन का नज़रीया-ए-इर्तिक़ा
ही था जिसके तसव्वुरात ने कार्ल माक्स और सैगमंड फ्राइड जैसे मुफ़क्किरीन को अपने नज़रियात
के दिफ़ा (रक्षा) में मदद दी। इस नज़रिया (दृष्टिकोण) ने ख़ुदा के वजूद पर एतराज़ उठाया
और माद्दे के इर्तिक़ा के अमल में एक मावरा-ए-अक़्ल हस्ती (अक़्ल से परे एक ज़ात)
की ज़रूरत को ख़त्म कर दिया और इस तरह से ईसाईयत जो फ़िक्री (वैचारिक) तौर पर दीवालीया
मज़हब है,
वो इन हमलों का कोई असरदार जवाब ना दे सका। इससे ईसाईयत के अक़ाइद
(आस्था) पर एक कड़ी और बराहे रस्त ज़रब लगी। जहां एक तरफ़ साईंस और मईशत (अर्थव्यवस्था)
में डार्विन और मार्क्स ईसाईयत के अक़ाइद (आस्थाओं) की धज्जियां उड़ा रहे थे, रही सही कसर एक माहिरे नफ़सीयत सैगमंड फ्राइड ने पूरी कर दी
जिसने तमाम ज़हनी मराइज़ (रोग) जैसे मायूसी, दिवानगी,
हिस्टेरिया, वहम,
एहसास कमतरी व बरतरी की बुनियादी वजह ज़हनी दबाव (Repression) को क़रार दिया और इस दबाव की वजह वो क़दग़न बताई जो मुआशरे (समाज)
और मज़हब (धर्म) ने इंसान की जिन्सी ख्वाहिश पर लगाई है। इस दबाव (Repression) को ख़त्म करने
का तरीक़ा यही है कि इंसान को जिन्सी तसकीन हासिल करने के लिए मुकम्मल आज़ादी दी जाये
और मज़हब व मुआशरे की खड़ी की गई दीवारों को ख़त्म कर दिया जाये। इन अफ़्क़ार (विचारों)
को समझने से मालूम होता है कि अगरचे सरमायादाराना इन्क़िलाब (पूँजीवादी क्रांति) ने
भी मज़हब (धर्म) को गिरजाघर तक सीमित करने की बात की थी मगर मज़हब (धर्म) की बुनियादों
पर इतना शदीद हमला पहले कभी नहीं हुआ था। रूस में आने वाला ये इन्क़िलाब (क्रांति) उन्ही
अफ़्क़ार व नज़रियात (विचार व दृष्टिकोण) की बुनियाद पर आया था। इसीलिए हम देख सकते हैं
कि इस इन्क़िलाब के बाद ये मज़हब ही था जो हर ज़ुल्म और जबर का निशाना बना, ख़ाह वो ईसाईयत हो, इस्लाम हो या कोई और।
बीसवीं
सदी की इब्तिदा (शुरूआत) में कम्यूनिज़्म के नज़रिए (दृष्टिकोण) की मक़बूलियत ने दिन
ब दिन इज़ाफ़ा (बढो़तरी) हो रहा था। रूस की Russion Social Democratic Labour
Party कम्यूनिस्ट इन्क़िलाब (क्रांति) के लिए जद्दोजहद कर रही थी।
इस जमाअत में आम तौर पर दो तसव्वुरात के हामिल लोग मौजूद थे। एक वो जिन्हें एतिदाल
पसंद (नर्मीपंसद) कहा जा सकता है जिनकी क़ियादत (नेतृत्वता) जूलियस मारटोव कर रहा था
और जो Czars की हुकूमत को ही एक रिपब्लिक में बदल देना चाहते थे और एक Hard liner तबक़ा (वर्ग) जिनकी क़ियादत (नेतृत्वता) विलादमीर लेनिन कर
रहा था जिनको आम ज़बान में इन्क़िलाबी (क्रांति) कहा जा है। 1903 ई. में होने वाले एक
अहम पार्टी वोट जिसमें पार्टी की रुकनीयत सिर्फ़ सरगर्म कम्यूनिस्ट वर्करों को दिए
जाने पर वोटिंग हुई,
के बाद ये नाम Manshevik यानी अक़ल्लीयत और Bolshevik यानी अक्सरीयत में बदल जाये। अक्सरीयत लेने वाला ग्रुप लेनिन
का था जिनके नज़दीक पार्टी की रुकनीयत सिर्फ़ सरगर्म कम्यूनिस्ट वर्करों का हक़ थी
और ये Bolsheviks ही थे जिन्होंने 1917 ई. में हुकूमत का तख़्ता उलट कर इन्क़िलाब
(क्रांति) बरपा किया जिसको तारीख़ Bolshevik इन्क़िलाब (क्रांति) के नाम से याद करती है।
1905
ई. रूस में इन्क़िलाब (क्रांति) की पहली कोशिश का साल था जब एक पुरअमन रैली को Winter
Palace (Czars
की रिहायश गाह) की तरफ़ जाने से रोका गया और फायरिंग के नतीजे
में सैंकड़ों लोग मारे गए। उस दिन को Bloddy Sunday यानी ख़ूनी इतवार के नाम से जाना जाता है। इसके नतीजे में उठने वाली तेहरीक
(आंदोलन) को फ़ौज के कुछ हिस्सों और मज़दूरों की भरपूर हिमायत हासिल थी मगर लिबरल तबक़ा
(वर्ग) के पीछे हट जाने से ये इन्क़िलाब (क्रांति) नाकाम हो गया और अप्रैल 1906 ई. तक
14000 Bolsheviks क़त्ल जबकि 75000 को जेल भेजा जा चुका था। ये इन्क़िलाब
(क्रांति) नाकाम तो हो गया मगर इसने जहां एक तरफ़ Czars की हुकूमत के ऐवानों में खलबली मचा दी वहां दूसरे तरफ़ अवाम (जनता) के अंदर हुकूमत
के ख़िलाफ़ नफ़रत और ग़ुस्से में मज़ीद इज़ाफ़ा (और ज़्यादा बढो़तरी) किया। यहां ये बात
समझनी इंतिहाई अहम है कि मुआशरे (समाज) में रौनुमा होने वाला एक अहम वाक़िआ एक तेहरीक
(आंदोलन) को जन्म दे सकता है ख़ाह वो लाल मस्जिद जैसा कोई वाक़िया हो या फिर वज़ीरस्तान
का ऑप्रेशन। वो लोग जो मुआशरे (समाज) की सोच और जज़बात से आगाह हैं और सियासी (राजनीतिक)
सूझबूझ के मालिक हैं वो ऐसे वाक़ेआत की वजह से बदलती हुई राय आम्मा (जनमत) को अपने
हक़ में हमवार करना ख़ूब जानते हैं। यही एक सियासतदान (राजनीतिज्ञ) की सलाहियत का सबूत
है। ऐसा ही कुछ रूस के अंदर हुआ।
पहली जंगें
अज़ीम (विश्वयुद्ध) में रूस की हज़ीमत आमेज़ शिकस्त ने Czar की हुकूमत की रही सही साख़्त भी ख़त्म कर दी थी। मुआशरे (समाज)
के हर तबक़े (वर्ग) के अंदर हुकूमत और निज़ाम (व्यवस्था) के ख़िलाफ़ जज़बात मौजूद थे।
फरवरी 1917 ई. इन्क़िलाब रूस का महीना, जिसको इन्क़िलाबे फरवरी भी कहा जाता है जब 23 फरवरी इल्मी यौम ख़वातीन के मौक़ा पर
St.
Petersberg में टेक्सटाइल फ़ैक्ट्रीयों के मुलाज़िम जिनमें ज़्यादातर ख़वातीन
थीं,
अपनी अबतर मआशी (सामाजिक) सूरते हाल और रोटी के लिए हड़ताल कर
दी। मुज़ाहिरीन (प्रदर्शनकारी) की तादाद बढ़ते बढ़ते 24 फरवरी तक दो लाख तक पहुंच गई
और फ़ौज ने उनके ख़िलाफ़ हथियार उठाने से इनकार कर दिया यानी के Chain of
Command तोड़ दी और इस तरह St. Petersberg में मर्कज़ी (केन्द्रिय) हुकूमत का अस्र व रसूख़ ख़त्म हो गया
मगर हड़तालों का सिलसिला निहरिका और पूरे मुल्क में हड़तालें जारी रही हत्ता कि 10 अक्तूबर
को Bolshevik
Central Committee ने एक मुसल्लह बग़ावत का ऐलान कर दिया। 23 अक्तूबर को Bolshevik रहनुमा, जान एनोलट ने Tallinn,
Estonia में जबकि 25 अक्तूबर को St. Petersberg में मुसल्लह बग़ावत हो गई। 25 और 26 अक्तूबर की दरमियानी रात
को Winter
Palace पर धावा बोल दिया गया और यूं कम्यूनिस्ट इन्क़िलाब 25 अक्तूबर
1917 ई. को बरपा हुआ। लीवन टरोटसकी इन्क़िलाब (क्रांति) के हवाले से कहता है, ''ये इन्क़िलाब किसने बरपा किया, जिन मुट्ठीभर Bolsheviks ने। यक़ीनन तब्दीली के लिए अफ़रादी क़ुव्वत इतनी अहम नहीं
जितनी कि इस मख़सूस (खास) गिरोह की अपने अफ़्क़ार (विचारों) और नज़रियात से Committment और अपने मक़सद के हासिल करने के लिए तड़प है।'' आज भी उम्मत का एक छोटा सा गिरोह इस तब्दीली को लाने के लिए
काफ़ी है। ज़रूरत इस बात की है कि उम्मत के साथ तफ़ावुत और राब्ते के ज़रीये दरुस्त अफ़्क़ार
(विचार) उम्मत तक पहुंचाए जाएं।
इन दोनों
इन्क़िलाबात (क्रांतियों) में एक मुश्तर्क (समान) पहलू ये है कि ये दोनों इन्क़िलाबात
(क्रांतियॉं) ख़ूनी थे जिसकी बुनियादी वजह वो तरीका-ए-कार है जिस पर चलते हुए ये इन्क़िलाबात
(क्रांतिया) बरपा किए गए। यानी एक तरफ़ अवामी सतह (आम) पर बग़ावत और इसके साथ अस्करी
जद्दोजहद के ज़रीये मुआशरे (समाज) में बदअमनी और इंतिशार फैलाना। फ़्रांसीसी इन्क़िलाब
(क्रांति) में तीस से चालीस हज़ार लोग इन फ़सादाद में हलाक हुए। इसी तरह से लाखों लोग
रूसी इन्क़िलाब (क्रांति) में होने वाले फ़सादाद की भेंट चढ़ गए। इसी तरह जब ये इन्क़िलाबात
दूसरे मुल्कों में बरामद किए गए तो वहां पर भी बहुत बड़े पैमाने पर ख़ून की नदियां बहीं।
चीन का कम्यूनिस्ट इन्क़िलाब उसकी एक वाज़ेह (स्पष्ट) मिसाल है। यहीं से ये तसव्वुर
आम हुआ कि इन्क़िलाबात ख़ूनी नौईयत के ही हो सकते हैं और इन्क़िलाब (क्रांति) लाने के
लिए सड़कों पर ख़ून बहना एक लाज़िमी बात है। इसके बरअक्स दूसरी जानिब जब हम आक़ाए दो जहां
मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की सीरत को देखते हैं तो हमें एक पुरअमन
सियासी (राजनीतिक) और फ़िक्री (वैचारिक) जद्दोजहद के नतीजे में एक सियासी (राजनीतिक)
तब्दीली नज़र आती है,
एक ऐसी तब्दीली जिसकी नज़ीर नहीं मिलती और ये तब्दीली इंतिहा
ही Radical नौईयत की थी जिसने मदीने के पूरे मुआशरे को बिलख़सूस और पूरे
जज़ीरानुमा अरब को बिलउमूम यकसर बदल के रख दिया। इस्लाम के लिए राय आम्मा को हमवार करने
के साथ-साथ नबीए अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने तलब-ए-नुसरा के ज़रीये इस रुकावट को
ही रस्ते से हटा दिया जिस टकराव के नतीजे में यक़ीनन बहुत सा ख़ून बहता।।। मगर आपको
जिस मिन्हज (तरीक़े) पर चलने के लिए रबे कायनात ने और दिली और अज़हान (दिमांगो) की
जंग थी,
और एक ख़ून का क़तरा बहाए बगै़र ये तब्दीली रौनुमा हो गई।
यक़ीनन
इस्लामी रियासत के अज़सरे नौ अहया (पुर्नजागरण) के लिए काम करने वालों के लिए आप (صلى
الله عليه وسلم) की सीरत से ही हिदायत लेनी है और किसी और इन्क़िलाब या इसके तरीका-ए-कार
को अपनाना शरअन जायज़ नहीं और ना ही अमली तौर पर एक बेहतर रास्ता है। आज इक्कीसवीं
सदी में ख़िलाफ़त अला मिन्हज नबुव्वत ही वापिस आएगी, यही आक़ाए दो जहां (صلى الله عليه وسلم) की बशारत है और यही रब्बे कायनात का
वाअदा है।
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