दाख़िली अमन (Internal Security)

रियासत की आंतरिक सुरक्षा व शांति की ज़िम्मेदारी आंतरिक सुरक्षा विभाग पर होती है जिसका नेतृत्व मुदीर अल अमन अल दाख़ली या Director of Internal Security करता है। इस विभाग की शाखा रियासत की हर विलायत में होती हैं जिन्हें इदाराऐ अमन दाख़िली (internal securitysection

कहा जाता है और जिनकी सरबराही शुर्ता (police force) के अफ़्सर की होती है जो इस काम के निफाज़ में वाली के अधीन होता है लेकिन प्रशासनिक मुआमलात के एतबार से आंतरिक सुरक्षा विभाग के अंतर्गत ही रहता है । उसकी कारकर्दगी ख़ास क़ानून के तहत संघठित होती है।

आंतरिक सुरक्षा विभाग ही वो इदारा होता है जो अमन और सलामती से मुताल्लिक़ तमाम मुआमलात का ज़िम्मेदार होता है। ये इदारा रियासत भर में अमन और सलामती शुर्ता के ज़रीये से सँभालता है और अमन व सलामती की बरक़रारी के लिए ये विभाग केन्द्रीय हैसियत रखता है लिहाज़ा उसे शुर्ता की सेवाऐं हर वक़्त हाँसिल रहती हैं और जिस तरह ये चाहे उन्हें हाँसिल कर सकता है और उस विभाग का हुक्म तुरंत काबिले निफाज़ होता है। जब उस विभाग को फ़ौजी मदद की ज़रूरत महसूस हो तो इस पर ये आइद होता है कि वो ख़लीफ़ा से उसकी दरख़ास्त करे। अब ये ख़लीफ़ा की पर होता है कि वो फ़ौज को आंतरिक सुरक्षा विभाग की मदद का हुक्म दे, या उस विभाग को फौजी मदद उपलब्ध करे जो अमन और सलामती क़ायम रखने में विभाग की मदद करें, या जिस तरह ख़लीफ़ा मुनासिब समझे क़दम उठाये। ख़लीफ़ा को ये भी अधिकार होता है कि वो विभाग की इस दरख़ास्त को रद्द कर दे और उन्हें सिर्फ शुर्ता पर ही संतोष करने के लिए हुक्म दे।

शुर्ता के लोग वो बालिग़ मर्द होंगे जो रियासत के शहरी हों, इस में औरतों के लिए भी गुंजाइश है जो आंतरिक सुरक्षा विभाग की औरतों से सम्बन्धित मुहिमों में शरीक हों। इस मक़सद के लिए अहकामे शरीयत के मुताबिक़ ख़ास क़ानून जारी किया जाएगा।

शुर्ता की दो क़िस्में होती हैं, एक फौजी शुर्ता और दूसरी वो जो शासकों के आदेश के अधीन रहती है, सुरक्षा के लिहाज़ से उनको विशेष पोशाक और चिन्ह दिये जाते हैं।

अल्लामा ज़हरी कहते हैं: शुर्ता के मानी हर चीज़ में श्रेष्ठ होने के हैं और यही शुर्ता होता है क्योंकि ये सिपाहीयों में मुमताज़ (unique) या Elite होते हैं। कहा गया है कि शुर्ता फ़ौज से आगे रहता है और अपनी ख़ास ढाँचे और लिबास से पहचाना जाता है। अल्लामा अल समई ने भी शुर्ता की तारीफ़ की है। क़ामूस में आता है: शुर्ता के शीन पर पेश है और इस का सैग़ाऐ वाहिद शुर्त है। ये पहला कतीबा या Regiment होता है जो जंग में उतरता है और मौत के लिए तैयार रहता है। ये वो टुकड़ी होती है जो वालियों की मददगार होती है। उनके नाम जैसे कि तुर्की शुर्ता या जहनी शुर्ता होते हैं और ये पहचान के मक़सद से है।

फौजी शुर्ता फौज ही का हिस्सा या Division होती है जिनकी अलग से पहचान होती है और ये फ़ौज के मुआमलात के लिए सबसे आगे रहते हैं। फौजी शुर्ता फ़ौज ही का हिस्सा है और अमीरे जिहाद के यानी युद्ध विभाग के अधीन होता है। शुर्ता की दूसरी क़िस्म जो शासकों के आदेश के अधीन होती है, वो आंतरिक सुरक्षा विभाग के अंतर्गत आती है। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अनस رضي الله عنه से रिवायत है कि:

((أن قیس ابن سعد ص کان یکون بین یَدَي النبيا بمنزلۃٖ صاحب الشُرَطِ من الأمیر))
क़ैस इब्ने साद رضي الله عنه हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के साथ इस तरह रहते थे जैसे एक अमीर के साथ शुर्ता (पुलिस) होता है।

यहां हज़रत क़ैस से मुराद हज़रत क़ैस इब्ने साद इब्ने उबादा अलख़ज़रजी अल अंसारी हैं। इसी तरह तिरमिज़ी शरीफ़ में रिवायत है कि:

((کان قیس بن سعدص من النبیا بمنزلۃ صاحب الشرطۃمن الأمیرِ۔ قال الأنصاری:یعنی مما یلي من امورہ))
क़ैस इब्ने साद رضي الله عنه हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के साथ इस तरह रहते थे जैसे एक अमीर के साथ शुर्ता (पुलिस) होता है। अल अंसारी कहते हैं कि इससे मुराद ये है कि वो अमीर के मुआमलात सँभाला करते थे।

ख़लीफ़ा को ये अधिकार होता है कि वो या तो इस शुर्ता जो आंतरिक शांति और सुरक्षा बरक़रार रखता है, फौज ही का हिस्सा बनाए यानी युद्ध विभाग के अंतर्गत रहे या फिर उनके लिए अलग और स्थाई विभाग यानी आंतरिक शांति विभाग कायम करे।

इसके बावजूद हम ये तबन्नी (adopt) करते हैं कि शुर्ता की इस क़िस्म को जो आंतरिक शांति की बरक़रारी के लिए सबसे आगे रहती है, उसे अलैहदा हैसियत ही से रखा जाये और ये आंतरिक सुरक्षा विभाग के ही अधीन रहे जो एक बाक़ायदा विभाग हो और ख़लीफ़ा दूसरे रियासती विभागो की तरह इस पर निगरां हो। यही हज़रत क़ैस इब्ने साद رضي الله عنه वाली पिछली हदीस के बमूजब होगा और यही बात जिहाद से सम्बन्धित इन चार विभागो के अलैहदा होने की बेहस में हमने बयान की। और ये चारों विभाग ख़लीफ़ा की निगरानी में हों ना कि एक ही विभाग की शक्ल में। इस तरह शुर्ता आंतरिक सुरक्षा विभाग ही के अंतर्गत आता है।

आंतरिक सुरक्षा विभाग की ज़िम्मेदारीयां:

आंतरिक सुरक्षा विभाग की ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो रियासत में आंतरिक सुरक्षा और शांति को क़ायम रखे। जिन चीज़ों से आंतरिक सुरक्षा और शांति को ख़तरा हो सकता है वो निम्नलिखित हैं:

इन आमाल में इस्लाम से इर्तिदाद (पलट जाना) और रियासत से बग़ावत है जैसेकि तोड़फोड, इमारतों को धवस्त करना, हड़तालें, इंतिशार (बिखराव), रियासत के अहम केन्द्रों यानी Vital Centres पर क़ब्ज़ा कर लेना और वहाँ के लोगों को बन्दी बना लेना, लोगों की निजी संम्पत्तियों में या सरकारी संम्पत्तियों में जबरदस्ती दखल अन्दाज़ी, या रियासत से बग़ावत और उससे हथियारबन्द लड़ाई करना वग़ैरा। इसी तरह राहज़नी, लोगों को उनका माल लूट लेने के लिए डराना धमकाना और लोगों को परेशान करना भी आंतरिक सुरक्षा और शांति के लिए ख़तरे के कारण होते हैं।

लोगों के दौलत की चोरी, लूट मार, डकैती, धोखाधड़ी, लोगों के साथ ज़बरदस्ती करना और उन्हें मारपीट कर ज़ख्मी या क़त्ल कर देना, या उनकी इज़्ज़त पर हमला करना और उन पर इल्ज़ाम लगाना, उनके बारे में ग़लत बातें मशहूर करना और ज़िना करना भी शामिल है।

और आंतरिक सुरक्षा विभाग की ज़िम्मेदारीयों में ये भी शामिल होता है कि सन्देहास्पद लोगों से निपटे और उनसे उम्मत और रियासत को पैदा होने वाले ख़तरों को ख़त्म करे।

ये वो अहम काम हैं जो रियासत की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरे की वजह हो सकते हैं और आंतरिक सुरक्षा विभाग उनसे अवाम और रियासत की हिफ़ाज़त का काम अंजाम देता है। लिहाज़ा जब एक व्यक्ति इर्तिदाद का गुनाह करता है और फिर तौबा करके रुजू नहीं करता और इस पर क़त्ल का हुक्म जारी किया जाता है तो यही विभाग इसके क़त्ल किए जाने के हुक्म को लागू करता है फिर अगर इर्तिदाद करने वालों का पूरा गिरोह हो तो उनको इस बात से सूचित किया जाना ज़रूरी हो जाता है और उनसे इस्लाम की तरफ वापस पलटने की माँग की जाती है, अगर वो तौबा करके रुजू कर लेते हैं और अहकामे शरीयत के पाबंद हो जाते हैं तो उनसे माफी का मुआमला किया जाता है, लेकिन अगर वो इर्तिदाद पर क़ायम रहें तो फिर उनसे क़िताल किया जाता है, अगर ये गिरोह तादाद में इतना ही है कि शुर्ता ही उनसे मुक़ाबला करके उन्हें ज़ेर कर सकता है तो उनसे लड़ा जाता है और अगर ये गिरोह बड़ी तादाद में और शुर्ता के लिए ये मुम्किन नहीं कि वो खु़द ही निपट सके, तो उनकी ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो ख़लीफ़ा से फौजी मदद की दरख़ास्त करें और अगर ये भी काफ़ी ना हो तो सीधे तौर पर पर फौजी हस्तक्षेप की दरख़्वास्त करें।

ये मुआमला तो इस्लाम से फिर जाने वालों का था, अब वो लोग जो रियासत से बग़ावत कर जाएं, तो ये देखा जाएगा कि क्या उनकी बग़ावत हथियारों के साथ है और तोड़फोड़, हड़तालें, प्रदर्शन, अहम केन्द्रों पर क़ब्ज़ा, निजी, सरकारी और जन संम्पत्ति में हस्तक्षेप और उन्हें नुक़्सान पहुंचाने तक ही सीमित है तो आंतरिक सुरक्षा विभाग सिर्फ शुर्ता के ज़रीये इन आमाल की रोक थाम करता है। अगर आंतरिक सुरक्षा विभाग सिर्फ शुर्ता के ज़रीये इन आमाल की रोक थाम ना कर पाए तो वो ख़लीफ़ा से रियासत के बाग़ीयों के इन कामों को रोकने के मक़सद से फ़ौजी मदद की माँग करता है।

इसके विपरीत अगर रियासत के बाग़ी हथियार उठा लें और किसी जगह पर क़ाबिज़ होकर उस पर प्रभुत्व हाँसिल कर लें, यहाँ तक कि आंतरिक सुरक्षा विभाग के लिए उनको वापिस लाकर उन पर उनकी बग़ावत, नाफ़रमानी और सरकशी के मुक़द्दमे के लिए उन्हें हाज़िर करे, तो ऐसी सूरत में वो ख़लीफ़ा से ज़रूरत के मुताबिक फ़ौजी मदद या फ़ौज तलब करता है जो इन बाग़ीयों के लिए काफ़ी हो। फिर इसके पहले कि बाग़ीयों से जंग की शुरूआत हो, उनसे बातचीत की जाती है ताकि उनकी माँगों को मालूम किया जा सके। फिर उनसे माँग की जाती है कि वो इताअत और जमात में शामिल होने के लिए रुजू कर लें और अपने हथियार डाल दें। अब अगर वो मान जाते हैं और रुजू कर लेते हैं और फिर अहकामे शरई के पाबंद हो जाते हैं तो उनका मुआमला यहां ख़त्म हो जाता है। लेकिन अगर वो रुजू करने से इंकार कर दें और बग़ावत व जंग पर क़ायम रहते हैं, तो उनसे तादीबी क़िताल किया जाता है यानि उन्हें अनुशासन में रखने के लिये हल्का क़िताल किया जाता है ना कि क़त्ल और ग़ारत का क़िताल, ताकि वो हथियार डाल कर बग़ावत से बाज़ आ जाऐं और इताअत क़बूल कर लें । हज़रत इमाम अली رضي الله عنه ने ख़्वारिज से क़िताल इसी तरह किया था; कि वो पहले उन्हें अपनी तरफ़ बुलाते थे ताकि वो बग़ावत से बाज़ आ जाऐं। फिर भी अगर वो बग़ावत पर जमे रहें तो उनसे तादीबी क़िताल किया जाता ताकि वो हथियार डाल कर और बग़ावत बंन्द कर के इताअत पर लौट आएं।

ऐसे बाग़ी जो राहज़नी करें, जो लोगों पर हमले करें, राजमार्गों पर रुकावटें खड़ी करें और लोगों का क़त्ल करें तो आंतरिक सुरक्षा विभाग उनका पुलिस के ज़रीये मुक़ाबला करेगी और उनको सज़ा दी जाएगी, जो क़त्ल, या हाथ और पैर काटने की होती है या उन्हें किसी और जगह निर्वासित (Deport) कर देगी जैसा कि क़ुरआन हकीम में आया है:

إِنَّمَا جَزَٲٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُ ۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِى ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَـٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ
जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं, और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करने के लिए भाग दौड करते हैं, इनका सिला बस यही है कि बुरी तरह क़त्ल किए जाएं, या सूली पर चढ़ाए जाएं, या उनके हाथ और उनके पैर विपरीत दिशाओं से काट डाले जाएं या उन्हें मुल्क से निकाल दिया जाये।

(तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अलमायदा-33)

ऐसे लोगों से क़िताल उन लोगों से क़िताल से भिन्न है जो रियासत से बग़ावत करें और हथियार उठाएं। इन बाग़ीयों से क़िताल उन्हें इताअत में लाने की ग़रज़ से किया जाता है जबकि इस क़िस्म के डकैतों से क़िताल उन्हें क़त्ल करने और उनके हाथ पैर काट देने के लिए होता है। ये लोग मुक़ाबला करें या भाग खड़े हों उनसे लड़ा जाता है जैसा कि आयत में आया है। इनमें से जो क़त्ल और माल लूटने का गुनाहगार हो, वो क़त्ल भी किया जाएगा और सूली पर भी चढ़ाया जाएगा; जो क़त्ल करे लेकिन माल लौटने का मुर्तक़िब ना हो, तो वो क़त्ल किया जाएगा लेकिन सूली पर नहीं चढाया जाऐगा; जो माल लूटे लेकिन क़त्ल करने का अपराधी ना हो, उसका, या तो दाहिना हाथ और बाँया पैर, या फिर बाँया हाथ और दाहिना पैर काट दिया जाएगा और वो क़त्ल नहीं किया जाएगा; और जो हथियार उठाए और लोगों को डराए धमकाए, लेकिन क़त्ल और माल लूटने का अपराध ना करे, तो वो ना क़त्ल किया जाएगा, ना सूली चढ़ाया जाएगा ना ही इसके हाथ पैर काटे जाऐंगे बल्कि उसे इस शहर से रियासत के दूर दराज़ शहर में रहने पर मजबूर किया जाएगा यानी जिला बदर कर दिया जाएगा।

आंतरिक सुरक्षा विभाग रियासत में शांति और सुरक्षा क़ायम रखने के लिए उस वक़्त तक सिर्फ़ पुलिस पर भरोसा करती है, और जब पुलिस शांति और सुरक्षा बरक़रार रखने में लाचार हो तब ही आंतरिक सुरक्षा विभाग ख़लीफ़ा से फ़ौजी दस्ते की मदद या फ़ौजी मदद, जैसी ज़रूरी हो माँग सकता है।

लोगों की दौलत पर आक्रमण के मुआमले जैसे चोरी, लूट और लोगों की जान पर आक्रमण जैसे किसी को ज़ख़्मी या क़त्ल कर देना, या लोगों के ख़िलाफ़ झूठी बातें उड़ाना, झूठे इल्ज़ाम लगाना या ज़िना, तो आंतरिक सुरक्षा विभाग ऐसे वाक़ियात और हादसों को निगरानी (Vigilance) और  गशत (Patrolling) से रोकता है, और इन अपराधों के गुनाहगारों के ख़िलाफ़ अदालती अहकामात को लागू करता है। इन सब के लिए आंतरिक सुरक्षा विभाग सिर्फ़ पुलिस ही का उपयोग करता है।

निज़ाम की हिफ़ाज़त और आंतरिक शांति और सुरक्षा पर निगरानी के लिए शुर्ता पर ही निर्भर रहा जाता है, इसी तरह तमाम मुआमलात की तनफ़ीज़ भी शुर्ता ही के ज़रीये से की जाती है क्योंकि हज़रत अनस अल मार رضي الله عنه की रिवायत में आता है कि हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत क़ैस इब्ने साद رضي الله عنه को अपने घर के सामने बतौरे साहिबे शुर्ता तय कर रखा था, जो इस बात पर दलालत करता है कि शुर्ता शासकों के क़रीब हों। यहां उनके क़रीब या सामने होने से मुराद ये होती है कि शासकों को जब भी किसी शरई हुक्म को लागू करने, शासन व्यवस्था को क़ायम करने या सुरक्षा और शांति की हिफ़ाज़त का मसला हो तो शुर्ता उन्हें बजा लाए और ये भी कि वो रातों को गश्त (Patrol), चोरों का पीछा, बुराई फैलाने वालों को पकड़ें और जिन लोगों को ऐसे तत्वों का डर हो उन्हें उनकी बुराई से सुरक्षित रखें। हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه के दौरे ख़िलाफ़त में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने मसूद رضي الله عنه रातों को गश्त करने पर नियुक्त किए गए थे। हज़रत उमर अपने दौरे ख़िलाफ़त में निजी तौर पर ख़ुद ये काम अपने ग़ुलाम के साथ अंजाम दिया करते थे और कईं बार आप के साथ हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने औफ़ رضي الله عنه हुआ करते थे। लिहाज़ा कुछ मुस्लिम देशों में बड़े घरों में रातों को हिफ़ाज़त के लिए पहरेदार नियुक्त करने का रिवाज चल गया है या हुकूमत उनके घरों की हिफ़ाज़त के लिए पहरेदार नियुक्त करती है और उन लोगों से इसके बदले रक़म वसूल करती है, ये क़तअन ग़लत है क्योंकि ऐसी निगहदाशत बहरहाल हुकूमत ही की ज़िम्मेदारी होती है। ये पहरेदारी और निगरानी शुर्ता के ख़ास कामों का हिस्सा है जिसकी जनता ज़िम्मेदार नहीं होती और ना उनसे ऐसी पहरेदारी के ख़र्चे वसूल किए जा सकते हैं।
वो लोग जो अफ़्वाहें फैलाते हों और लोगों में शक और वसवसा (बुरे विचार) पैदा करते हों जिनसे रियासत, जमात या फिर जनता को ख़तरे और नुक़्सान का अंदेशा हो, रियासत का ज़िम्मेदारी होती है कि वो ऐसे लोगों से निपटे, और जनता में जिस किसी को ऐसे लोगों की ख़बर हो उसके लिए ज़रूरी होता है कि वो इस ख़बर की सूचना सम्बन्धित विभाग तक पहुंचाए। इसकी दलील वो रिवायत है जो हज़रत जै़द इब्ने अरक़म رضي الله عنه से बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में नक़ल की गई है:

(کنت فی غزاۃ،فسمعت عبداللّٰہ ابن ابي یقول :لا تنفقوا علی من عند رسول اللّٰہ ،حتی ینفضوا من حولہ،ولئن رجعنا الی المدینۃ لیخرجن الأعز منھا الأذل،فذکرت ذلک لعمي أو لعمر،فذکرہ للنبي ا فدعاني فحدثتہ ۔۔۔الحدیث )وفی مسلم فأتیت النبي فأخبرتہ
हज़रत जै़द इब्ने अरक़म رضي الله عنه फ़रमाते हैं कि मैं एक जंग में शरीक था तो मैंने अब्दुल्लाह इब्ने अबी को कहते सुना कि जो लोग अल्लाह के रसूल के साथ हैं उन पर ख़र्च ना करो ताकि वो लोग अल्लाह के रसूल का साथ छोड़ दें, और जब हम मदीना पहुंचेंगे तो उनके मुअज़्ज़िज़ साथीयों को ज़लील करके निकाल बाहर करेंगे। हज़रत जै़द इब्ने अरक़म رضي الله عنه कहते हैं कि मैंने ये इत्तिला अपने चचा या हज़रत उमर को दी और उन्होंने इस का ज़िक्र हुज़ूर नबी करीम  صلى الله عليه وسلم से किया, फिर हुज़ूर नबी करीम  صلى الله عليه وسلم ने मुझे बुला भेजा और मैंने उन्हें सारी बात बताई, या जैसा कि मुस्लिम शरीफ की रिवायत में है कि मैं नबी करीम के पास आया और उन्हें सारी बात बताई।

अब्दुल्लाह इब्ने अबी के बारे में मालूम है कि वो जंग करने वाले मुशरिकीन से लड़ने से गुरेज़ कर रहा था और काफ़िरों से इसके ताल्लुक़ात भी ज़ाहिर थे और वो मदीना के आस पास बसे यहूदीयों और दूसरे इस्लाम दुश्मन तत्वों से भी सांठ गांठ रखता था। इस तरह वस्वसा पैदा करने वालों के ख़िलाफ़ कार्यवाही से निपटा जाना होता है कि इस में कहीं भी जनता के साथ जासूसी करने का गुनाह ना हो जो कि हराम है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है :
وَلَا تَجَسَّسُوْا
यानि तजस्सुस या जासूसी ना करो। (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अल हुजरात-12)
लिहाज़ा ऐसी कार्यवाही सिर्फ़ उन ही लोगों के ख़िलाफ़ हो जो वस्वसा डालते हों।

The suspects are those who visit the disbelievers frequently who are actual or
potential warriors
ये अहल रेब वो हैं जो जंग करने वाले, या हुक्मी कुफ़्फ़ार से लड़ने में अमलन मुतरद्दिद हों या ऐसी हरकत करते हों जो इस तरफ इशारा करती हो। इसकी वजह ये है कि उन कुफ़्फ़ार पर जिनसे लड़ाई हो, जासूसी करना युद्ध नीति और मुसलमानों की नुक़्सान से हिफ़ाज़त के पेशे नज़र जायज़ है और इसके लिए शरई दलायल हैं। इस कार्यवाही के अंतर्गत हर वो पक्ष आता है जिससे लड़ाई दरपेश हो। रियासत पर ऐसी कार्यवाही करने का कारण उन लोगों के साथ होना तो स्पष्ट है जिनसे जंग हो रही हो, लेकिन उनके साथ साथ वो गिरोह भी इस में आते हैं जिनसे जंग का हुक्म है क्योंकि उनसे जंग की संभावना हमेशा रहती है।

इस तरह जनता का हर वो व्यक्ति जो लड़ने वाले कुफ़्फ़ार से सांठ गांठ रखे, वो भी शक के दायरे में होगा क्योंकि उसका सम्बन्ध ऐसे लोगों से बना हुआ है जिनकी जासूसी हलाल रखी गई है, यानी लड़ने वाले कुफ़्फ़ार से।

उसकी तफ़सील निम्नलिखित है:-

1. जंग करने वाले कुफ़्फ़ार की जासूसी अमलन रियासत का फर्ज़ है और उसकी पुष्टी पिछ्ले क़ाइदे (ما لا یتم الواجب الا بہ فھو واجب) के सिवा भी है, क्योंकि दुश्मन की ताक़त, इसके उद्देश्य, मंसूबा अमली और इसकी फौजी अहमियत के ठिकानों की मालूमात वग़ैरा ऐसे तत्व हैं जिनकी जानकारी उसे शिकस्त देने में बहुत अहम होती है और ये तमाम मुआमलात युद्ध विभाग के नज़रों के सामने होते हैं। इसके अंतर्गत अवाम के वो लोग भी आ जाते हैं जो जंग करने वाले काफ़िरों से अमलन सम्बन्ध रखते हों, क्योंकि हक़ीक़तन ये सही नहीं कि जनता किसी ऐसे दुश्मन से सम्बन्ध रखती हो जिससे हालते जंग हो।

2. वो लोग जो अमलन जंग करने वालों से सम्बन्ध रखें वो भी युद्ध पक्ष के हुक्म में आते हैं और उनके ख़िलाफ़ जासूसी करना जायज़ है, बल्कि अगर उनसे ख़तरा हो कि वो मुतहारबीन (जंग करने वालों) की मदद और सहयोग करेंगे या उनके साथ मिल जाएंगे तो ऐसी हालत में उनके ख़िलाफ़ जासूसी करना रियासत का फर्ज़ बन जाता है। ऐसे लोग जो सीधे तौर पर पर तो मुतहारिब ना हों लेकिन मुतहारिब के हुक्म में आते हों दो क़िस्म के होते हैं:

पहली क़िस्म उन हुक्मी मुतहारबीन की है जो अपने ही वतन में रहते हों, उनकी जासूसी युद्ध विभाग करता है।

दूसरी क़िस्म उन हुक्मी मुतहारबीन की है जो हमारी रियासत में पनाह ले कर दाख़िल हो गए हों; उनकी निगरानी और उन पर जासूसी आंतरिक सुरक्षा विभाग के अंतर्गत आती है।
इस तरह रियासत में रहने वाले हुक्मी मुतहारबीन की आंतरिक सुरक्षा विभाग के ज़रीये निगरानी और जासूसी और रियासत के बाहर रहने वाले हुक्मी मुतहारबीन की युद्ध विभाग के ज़रीये जासूसी दो अहम मुआमलात से शर्त के साथ जुडी होती है:

पहली शर्त ये है कि ऐसी जासूसी और निगरानी के नतीजे में आने वाली जानकारी को हुक्मी मुतहारबीन के ज़िम्मेदारों या उनके नुमाइंदों को पेश किया जाये कि उन लोगों ने कुफ़्फ़ार के साथ सांठ गांठ की थी, चाहे रियासत के अन्दर या रियासत के बाहर। ये निहायत ग़ैरमामूली और ध्यान देने वाली बात है।

दूसरी ये कि इन दोनों विभागो की कार्यवाही के नतीजे में हाँसिल होने वाली जानकारी को क़ाज़ीये हिस्बा के सामने पेश किया जाये जो ये फ़ैसला करे कि आया हुक्मी मुतहारिबों की कार्यवाहीयों से इस्लाम और मुसलमानों को ख़तरे की संभावना थी या नहीं।

इन दोनों विभागों की इस जासूसी कार्यवाही के लिए दलायल निम्नलिखित हैं:

1. अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस क़ौल को सामने रखते हुऐ मुसलमानों की जासूसी हराम है कि (وَلَا تَجَسَّسُوْا) यानी तजस्सुस या जासूसी ना करो। ये दलील दरअसल आम है जिसके कारण जासूसी हर एक पर हराम हो जाती है जब तक कि कोई ऐसी दलील ना हो जो इस हुक्म को ख़ास करती हो। इसकी पुष्टी मुसनद अहमद और सुनन अबु दाऊद में हज़रत अल मिक़दाद رضي الله عنه और अबी इमामा رضي الله عنه से रिवायत करदा इस हदीस से होती है, रावी कहते हैं हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم رضي الله عنه ने फ़रमाया:

((إنَّ الأمیر إذ ابتغی الریبۃ من النّاس أفسدھم))
जब अमीर (ख़लीफ़ा) लोगों में शुबहात डाले तो वो लोगों में फ़साद (ख़राबी पैदा) करता है।

लिहाज़ा जासूसी चाहे वो मुसलमान की हो या ग़ैर मुस्लिम की वो हराम होती है।

2. उन काफ़िरों की जासूसी करना जिनसे हमारी आमने सामने की जंग हो रही हो, या उन हुक्मी मुतहारिब कुफ़्फ़ार की जासूसी जो राजदूत वग़ैरा की शक्ल में हमारी रियासत में दाख़िल हो जाएं, या उन हुक्मी मुतहारिब कुफ़्फ़ार की जासूसी जो अपने ही मुल्क में निवास करते हों, जायज़ होती है और अगर उनसे किसी ख़तरे की संभावना होतो ऐसी सूरत में रियासत पर उनकी जासूसी फ़र्ज़ हो जाती है।
सीरते नबवी में इसके दलायल स्पष्ट हैं, जैसेकि:

v सीरते इब्ने हिशाम में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने जह्श رضي الله عنه के मुहीम के बारे में आता है कि हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने उन्हें रवाना करते वक़्त एक ख़त सौंपा और हुक्म दिया कि इस ख़त को दो दिन की दूरी तय कर लेने के बाद ही खोलना। चुनांचे जब हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने जह्श दो दिन की दूरी तय कर चुके तो इस ख़त को खोला, इस में लिखा था:

जब तुम मेरे इस ख़त को देखो तो मक्का और ताइफ के बीच नख़लिस्तान तक पहुंचो और वहाँ से क़ुरैश पर नज़र रखो और उनकी ख़बरें हम तक पहुँचाओ।

v जंगे बदर के बारे में सीरते इब्ने हिशाम में इब्ने इसहाक़ के हवाला से आता है:

हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم और हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه सवार होकर निकले और चलते रहे यहां तक कि एक अरब शेख़ से सामना हुआ, हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने शेख़ से क़ुरैश और ख़ुद मुहम्मद  صلى الله عليه وسلم और उनके सहाबा رضی اللہ عنھم के बारे में मालूम किया और अपने बारे में कुछ नहीं बताया, शेख़ ने कहा कि मैं उस वक़्त तक आप को कुछ नहीं बताऊंगा जब तक आप लोग अपने बारे में ना बता दें, हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया कि अगर तुम कुछ बताओगे तब ही हम अपने बारे में बताएंगे। शेख़ ने कहा कि तो क्या यूं बदला होगा, हुज़ूर ने फ़रमाया हाँ; तब शेख़ ने कहा: मुझे ख़बर मिली है कि क़ुरैश फ़लां फ़लां दिन मक्का से रवाना हुए हैं, अगर मेरी ख़बर सही है तो क़ुरैश आज फ़लां जगह हो सकते हैं। जब शेख़ अपनी ख़बर दे चुके तो पूछा कि आप लोग कौन हैं? हुज़ूर ने फ़रमाया हम पानी से आए हैं और वहाँ से चल दिए, शेख़ पूछ रहा था, पानी से आए हैं या ईराक़ के पानी से? इसके बाद हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم अपने सहाबा के पास वापस तशरीफ़ ले आए, फिर जब शाम हुई तो आप ने हज़रत अली رضي الله عنه, हज़रत ज़ुबैर इब्ने अल अव्वाम رضي الله عنه, हज़रत साद इब्ने अबी वक़्क़ास رضي الله عنه और दूसरे सहाबाऐ किराम رضی اللہ عنھم को मैदाने बद्र में पानी वाली जगह पर जमा किया और क़ुरैश पर जासूसी करके जो ख़बरें आप तक पहुंची थीं, उनका जायज़ा लिया।

v इसी तरह इब्ने हिशाम में इब्ने इसहाक़ की रिवायत नक़ल है जिसका शीर्षक “बसबस इब्ने अमरू और अदी इब्ने अबी ज़ग़बा की जासूसियों का जायज़ा” है, कहते हैं: बसबस इब्ने अमरू और अदी इब्ने अबी ज़ग़बा ने उन बूढ़ियों की बातचीत सुनी जो वो पानी भरते हुए क़ुरैश के आने वाले क़ाफ़िले के सम्बन्धित कर रही थीं, फिर वो अपने ऊंट पर बैठ कर हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم के पास आऐ और उन्हें सारी बात बताई।

हालाँकि ये दलायल क़ुरैश के लिए हैं जो कि असली मुतहारिब (belligerent) थे, बहरहाल ये दलायल हुक्मी मुतहारबीन पर भी लागू होते हैं क्योंकि उनसे जंग की संभावना होती है। इनके बीच फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि अमलन मुतहारिबों के ख़िलाफ़ जासूसी का काम फ़र्ज़ हो जाता है क्योंकि युद्ध नीति के मुताबिक़ दुश्मन को मात देने के लिए ये ज़रूरी है; जबकि हुक्मी मुतहारिबों के सम्बन्ध में ये जायज़ रहता है क्योंकि उनसे जंग की संभावना होती है। अलबत्ता उन हुक्मी मुतहारिबों से अगर नुक़्सान का अन्देशा हो, यानी उनके ज़रीये दुश्मन को मदद देने या उनसे जा मिलने का ख़तरा हो तो फिर अब उनकी जासूसी सिर्फ जायज़ ही नहीं रह जाती बल्कि फ़र्ज़ हो जाती है।

लिहाज़ा जंग करने वाले कुफ़्फ़ार की जासूसी मुसलमानों के लिए जायज़ और रियासत पर इसका बंद-ओ-बस्त करना वाजिब होता है, जैसा कि हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم से साबित दलायल से स्पष्ट हुआ और आगे ये कि शरई क़ायदा (ما لا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب) का भी यही तक़ाज़ा है।

चुनांचे अगर रियासत की अवाम, चाहे वो मुस्लिम हों या ज़िम्मी, अगर कुफ़्फ़ार से सांठ गांठ करें, फिर चाहे ये कुफ़्फ़ार वो हों जिनसे अमलन जंग हो रही हो या वो हुक्मन मुतहारिब हों; फिर ऐसे लोग इस्लामी रियासत में हों या रियासत के बाहर अपने मुल्क में; तो ऐसे मुतहारिबीन (belligerents) की जासूसी और उनकी निगरानी (Surveillance) जायज़ होगी, क्योंकि उनके सम्बन्ध उन लोगों से हैं जिनकी जासूसी जायज़ है और इसलिए भी कि इनका कुफ़्फ़ार के लिए जासूसी करना रियासत के लिए नुक़्सान का कारण होता है।

अलबत्ता इस क़िस्म की जासूसी के लिए पिछली दोनों शर्तों का ध्यान में रखना ज़रूरी होगा।
अमलन मुतहारिब कुफ़्फ़ार से सम्बन्ध रखने वालों की जासूसी युद्ध विभाग की ज़िम्मेदारी में आता है, और उन अवाम की जासूसी जो हुक्मी मुतहारिबों से या उनके नुमाइंदों से उनके देश में खु़फ़ीया सम्बन्ध रखें, उनकी जासूसी भी युद्ध विभाग ही के कार्यक्षेत्र का हिस्सा है। इसके विपरीत आंतरिक सुरक्षा विभाग उन लोगों की जासूसी पर निगरां होता है जो इस्लामी रियासत ही में हुक्मी मुतहारिबों या उनके नुमाइंदों से सन्देहास्पद सम्बन्ध रखें।




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