शेख तक़ी उददीन अन्नबहानी (रह0)

शेख तक़ी उददीन अन्नबहानी (रह0)
(शेख तक़ी के फरज़िन्द की जानिब से नवम्बर 2009 मे डेनमार्क मे दी गई एक तकरीर)
                      
بسم الله الرحمن الرحيم
                                                                       
खिलाफत के बानी मुहम्म्द तक़ी उददीन बिन इबराहीम बिन इसमाईल अनबहानी (रह0) 1911 ई0 ने फिलिस्तीन के एक गाँव हैफा मे पैदा हुए। वह एक इल्मी माहोल मे पले बढे थे। उनके वालिद शेख इबराहीम एक फक़ीह और फिलस्तीन और दमिश्क मे आला शरई ओहदों पर फायज़ थे। उनके दादा एक ऐसे फक़ीह स्कालर थे जिन का अरबी ज़बान की साईंस और उसूल फिक़्ह से मुताअलिक़ इल्म के एक बहरे बेकराँ की तरह थे। इसीलिए उन्होने कोई किताब या तहरीरी मवाद वरसे मे न छोडा बल्कि फतावा देने और जामिया अलअज़हर और मराकिश व तेविंस के उल्मा की मजालिस मे शिरकत पर ही क़ानेए रहे। जहाँ तक उनके नाना यूसुफ अननबहानी का ताल्लुक़ है तो वह इल्म और सियासत दोनों मैदानों मे बहुत पुरजोश अन्दाज़ मे मुतहर्रिक रहे। वह उस्मानी रियासत के मसलक़ पर एक सूफी थे। उन्होनें ने लेबनान और दूसरी जगहों पर फिक़्ह और शायरी मे काफी काम किया, उनकी कही हुई नज़मों की ताफाद पाँच सौ से ज़ाएद है। यह यूसफ अननबहानी ही थे जिन्होने ने अपने पोते के सलाहियतों को दरयाफत किया और उनको अपने खर्चे पर जामिया अलअज़हर तालीम के लिए भेज दिया। शेख तक़ी के वालिदा मुहतरम का नाम तक़ीयह था और उन्हें इस्लामी उलूम से आला वाक़ियफत थी यहाँ तक कि औरतें उनसे फतावा लेने की गर्ज़ से आया करती थीं। ताहम वह कुछ लिखने से क़ासिर थीं क्योंकि निबानाती इलाज की महारत का दावा करने वाली एक औरत ने उनका गलत इलाज किया जिससे वह क़ुव्वत बीनाई से मुकम्मल महरुम हो गईं। ये ईमान अफरोज़ माहोल था जिसमे शैख तक़ी उद्दीन अनबहानी ने परवरिश पाई। वह अपने नाना शेख यूसुफ अननबहानी के बहुत क़रीब ह्थे, और जब भी वह गर्मियों में इस्तबूल या लेबनान से अपने गाँव आते थे तो शेख तक़ी उनसे बहुत कुछ सीखते। दस साल की उमर मे ही शैख तक़ी ने क़ुरआन पाक हिफ्ज़ कर लिया था, और दस साल की उम्र से पहले ही वह फिक़्ह की किताबोंके मुताअले के शग़ल मे मगन हो चुके थे। उन्होने दस साल की उम्र से पहले ही शेअर कहना भी शुरु कर दिये थे। वह बहुत कम उम्र मे बहुत से मैदानों मे इंतेहाई पर ऐतमाद हो चुके थे। वह इस क़दर बहादुर थे कि अपने गाँव के ऐतराफ मे खेलने के दौरान वह भेडों, जंगली कुत्तो और साँपों को मार भगाते। जल्द ही अपने हम असरों मे उनकी लीडर शिप क़ायम हो चुकी थी। वह क़ुरआन के हिफ्ज़ शेअर कहने के मुतालबे मे खुसुसी शोक रखते थे।

उनके नाना शेख यूसुफ अननबहानी ने उन्हें 16 साल की उम्र मे जामिया अलअज़हर भेज दिया और उन्हें पाँच उस्मानी सोने के सिक्के दिये ताकि वह अलअज़हर और शोबे साइंस (उलूम इस्लामिया) मे अपनी तालीम जारी रख सके। खिलाफत के ज़वाल के मिस्र मे सियासी सूरते हाल गैर मुस्तहकम थी। हालात यूँ थे कि कुछ् लोग खिलाफत के क़याम का मुतालबा कर रहे थे। शेख तक़ी इस माहोल से मुतासिर हुए, जिसमे दो गिरोह बन चुके थे, एक गिरोह इस्लाम की वापिसी का मुतालाबा कर रहा था जबकि दूसरा गिरोह वह मगरिबी फलसफों की गलीज़ सक़ाफतों मे लिथडा हुआ था। आप ने शायर अहमद शूती की हिमायत की जो अपनी फसीह व बलीग़ और पुरअसर शायरी से खिलाफत के दौर की यादें ताज़ह कर रहा था और उसके ज़वाल के नोहे सुना रहा था। आप उसके हर सेमिनार मे जाने के मितलाशी थे क्योंकि आपको खुद बचपन से शायरी का जबरदस्त शोक था। और आखिर कैसे मुमकिन था कि वह उसके मुदाह न होते क्योंकि शौकी अपने दौर मे शायर का बेताज बादशाह था। तक़ी उद्दीन अननबहानी सियासत मे गहरे लगाव और जोश व जज़्बे के बाजूद किसी गिरोह या जमाअत मे शामिल न हुए और इसकी वजह यह थी कि यह तमाम जमाअतें इस मक़सद से बहुत दूर थी जो शेख तक़ी के दिल मे इंतेहाई गहराई से पिन्हा था और वह थी खिलाफत की मुहब्बत जिसका इन्हेदाम सिर्फ चन्द साल पहले हुआ था।

ताहम सियासत से उनका गहरा लगाव और जोश जज़्बा, जामिया अलअज़हर मे उनकी आला तालीम की राह मे आडे न होसका। मिस्र मे उनके क़याम के दौरान उनके वालिद का “अलज़म” गाँव मे इंतेक़ाल हुआ। इंतेक़ाल की खबर सुनते ही वह शाक की हालत मे फौरन वापिस गाँव पहुँचे। उनके वालिद की उम्र उस वक़्त 48 साल थी। वालिद के इंतेक़ाल के बाद 1932 ई0 मे उनके नाना शेख यूसुफ अननब्हानी का भी इंतेक़ाल हो गया जिनकी उम्र 90 बरस थी। उसके बाद वह वापिस अलअज़हर आए और तालीम जारी रखी, और पूरी यूनिवर्सिटी(जामिया अलअज़हर) मे अव्वल पोजीशन हासिल की। उस पर फिलस्तीन के एक अखबार ने सफह अव्वल पर सुर्खी लगाई, “फिलस्तीन की जानिब से शेख तक़ी उद्दीन को मुबारक बाद” । 

आप 1933 ई0 मे फिलस्तीन वापिस आए और हैफा की शरई कोर्ट मे कातिब की हैसियत से काम शुरु कर दिया। आप के खानदान को हैफा मुनतक़िल होना पडा क्योंकि आप ने ख्नानदान के वाहिद कफील थे। जब 1936 ई0 मे शहीद अज़द्दीनुल क़ासिम की क़ियादत मे बग़ावत हुई तो आपने उसका साथ दिया। आप रेलियों से खिताब करते और अवाम को बरतानिया की हुकमरानी के खिलाफ उभारते जो फिलस्तीन मे यहूदियों की आबादकारी के असल मुंतज़िम थे। अज़द्दीनुल क़ासिम भी आप की तक़रीरों से हद दरजा मुतासिर हुए और तक़रीर के बाद सताइश और हिमायत मे आप का थपथपाते। इस तरह शेख तक़ी भी अज़द्दीनुल क़ासिम के शऊर और बहादुरी से मुतासिर थे खुसुसन उन के सियासी शऊर से कि असल बरतानिया है न कि यहूदी। यही वजह है कि शेख तक़ी ने पूरे इखलास और तक़वे के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ जेहाद किया। ताहम अंग्रेज़ बहर हाल लोगों की तवज्जोह यहूदियों की जानिब मे कामयाब रहे जिन्हें अंग्रेज़ों ने खुल कर असलहे और गोला बारूद से लैस किया था।

शेख तक़ी ने हैफा की एक ताजिर अली मियासी की फरज़िन्दह से 1933 मे शादी की कुछ अरसे बाद बेसान शहर मे उनकी शरई क़ाज़ी के उहदे पर तरक़्क़ी हो गई। अगले साल उनका पहला बेटा इब्राहीम पैदा हुआ। जिस के बाद आप याफा के शहर मुनतक़िल हुए और दो साल वहाँ रहे।

शेख शहर भर मे लोगो के महबूब थे। आप इस शहर मे एक भी यहूदी नहीं बसता था। एक बार शहर का आमिल मुहम्मद अली अल जब्बारी उन से मिलने आया वह उन से एक ज़ाती अदालती मुआमला पर बात करने आया था। शेख तक़ी ने मिलने से इंकार कर दिया और कहा कि “ मैं अदालत के मुआमलात अदालत के बाहर नहीं सनता।“ गुस्से मे आकर नाज़िम ने उनको शहर से बाहर निकलने का हुक्म दे दिया। इस वाक़ेअ के पीछे एक सियासी वजह थी,दरअसल अरदन का बादशाह अब्दुल्लाह अलखलील शहर के दौरे पर आया तो शेख तक़ी उद्दीन अनबहानी के सिवा हर एक उसके इस्तेक़बाल को गया, उनकी कमी को शिद्द्त से महसूस किया गया क्योंकि वह शहर के वाहिद क़ाज़ी थे। नाज़िम को इस बात पर शदीद खुफ्फत उठानी पडी थी इसलिए उसने शेख तक़ी को शहर से निकालने का मुतालबा किया था।
शेख यहाँ से आखिर कार रामल्लाह पहुँचे जहाँ 1947 ई0 मे उन्हें रमल्ला और अल्लद का क़ाज़ी मुक़र्रर किया गया।यह रमल्ला ही था जहाँ शेख खिलाफ सियासी और असकरी महाज़ पर ज़्यादा मुतहर्रिक हुए खुसुसन अंग्रेज़ों के इंखेलाअ और यहूदी के हक़ मे अक़वाम मुतहदह की क़रारदाद के बाद। शेख ने रामल्लाह और अल्ल्द के नौजवानों को जमा किया जिसमे से कुछ मुझे अभी भी याद हैं जैसे कि दाऊद हमदान, नमर अल मसरी, इब्राहीम अबुदय्या, ग़्सीन एक शख्स कुछ और जिनका मुझे नाम याद नहीं। यह गिरोह सुप्रीम अरब इत्तेहाद फार फिलस्तीन् के खिलाफ था जिसकी क़ियादत बरतानिया का जासूस अलहाज अल अमीन अल हुसैनी कर रहा था। वह यूनुस अल बहरी के साथ मिल कर हिट्लर की जासूसी करता था, अल बहरी “अरबुक बर्लिन” का ब्राड्कास्टर था।
मुहकेखेज़ तौर पर हिट्लर की इंटेलीजेंस के ऐंजेंट उनके मंसूबों का पता ही न चल सका। ताहम हसन सलामा ने उनके मंसूबों को भाँप लिया और वह फिलस्तीन से बरतानवी इंखेला के बाद सोने से भरी हुई 20 चादरें ले कर फिलस्तीन वापिस आया ताकि उस असलहे खरीद कर यहूदियों का मुक़ाबला किया जा सके। शेख तक़ी के गिरोह के कुछ लोगों के सिवा किसी को इसका इल्म न था, जो कि असलहे खरीदने के लिए शाम के सफर था। उस वक़त के वज़ीर जमील मुरदाम ने मुजाहिदीन की मदद के लिए दो लाख शामी सिक्कों की पेशकश की लेकिन शेख तक़ी ने इंकार कर दिया। वह रामल्लह वापस आये और वहाँ से मिस्र गये ताकि वहाँ से असलहे खरीद सकें। वह वापस अपने साथियों के पास आये जो छ्त पर असलहे टेस्ट कर रहे थे और उनसे कहा हमें हर सूरत मे अपने चीज़ों का खुद ही इंतेज़ाम करना होगा।” वह सब मंसूबे को समझ गये थे और असलहे के डीलरों को तलाश करने मे लग गये ताकि उन से असलहे खरीदे सकें। उन्होने नवजवानों को असकरी तरबियत देनी शुरु की और यहूद के साथ असकरी मुअरके शुरू कर दिये। इन मुअरकों मे उन्हें असलहा यहाँ तक कि फौजी गाडियाँ भी ग़नीमत मे मिलीं।  हसन सलामह ताहम तलअबीब जाने की कोशिशों मे रामल्ला के क़रीब एक मुअरके मे शहीद हो गये। इब्राहीम अबुद्य्या भी कमर मे गोली लगने से ज़ख्मी होगये, उन्हें बेरूत के एक अस्पताल ले जाया गया जहाँ वह चार साल के बाद इंतेकाल कर गये। उसके बाद अरदन की फौज रामल्लह और अल्लद की से पीछे हट गयी और यहूदियों के हवाले कर दिया। फिर तमाम लोगों को हिजरत करनी पडी और शेख तक़ी भी उनके साथ हिजरत करके वहाँ से निकल आये। शेख अलअक़द्स चले गये और वहाँ से दमिश्क़ से होते हुए बेरुत चले गये और जहाँ उनके खानदान वाले रिहाइश पज़ीर थे। उन तूफानी वाक़ेआत के बाद आप ने “इंक़ादे फिलस्तीन ” के नाम से किताब लिखी, और उसके बाद “रियासतुलअरब” लिखा जो अरब बादशाहों और सदूर के नाम था। इसी दौरान उन्हें मग़रिबी किनारे की शरई अदालत का सदर मुक़र्रर कर दिया गया। ताहम हम वह नई मुलाज़मत की वजह से भी सियासत मे सरगरम किरदार अदा करने से पीछे न हटे। आप ने नाबल्स मे एक खुतबा दिया जिसमें आप आपने शाह अब्दुल्लाह पर शदीद तनक़ीद की और उस पर रामल्लह और अल्लद को यहूदियों के हवाले करने के की ग़द्दारी का इल्ज़ाम लगा दिया। शाह अब्दुल्लाह ने अरदन से अपने महल बुलाया और उससे उनके नाना शेख यूसुफ अनबहानी के बारे मे नरमी से गुफतुगू की ताकि उसकी हमदर्दी हासिल की जा सके और उसके बाद उसके खुतबे के बाद शेख तक़ी को शदीद झिड्का जो आपने नाबुलस मे दिया था मे दिया था। ताहम शेख अननब्हानी खामोश रहे और एक लफ्ज़ भी न कहा। जब वह जाने के लिए उठे तो शाह ने अपना हाथ बढाया ताकि शेख तक़ी उसे बोसा दें ताहम शेख ने सिर्फ हाथ मिलाने पर ही इकतेफा किया, जिस पर ग़ुस्से मे आकर शाह ने अपने मुहाफिज़ों को शेख तक़ी को गिरफतार करने का हुक्म दे दिया। आप जाअफर जेल मे 90 दिन तक क़ैद रहे जो कि जंगल मे था। उन्हें उनकी मुलाज़मत से माज़ूल करने के बाद रिहा कर दिया गया।
1952 ई0 मे आप ने अपने ज़हन के सफहे क़ुरतास पर मुनतक़िल करना शुरु कर दिया। इस दौरान आप अरदन की एक इस्लामी यूनिवर्सिटी मे उस्ताद के फराएज़ को सरअंजाम दे रहे थे। आप अपनी सोच को अपने क़ाबिले ऐतमाद शागिर्दों को मुंतक़िल कर रहे थे। इस तरह हिज़्ब का पहला हल्क़ा वजूद मे आया जिसमे नमर अलमिसरी, दाऊद हमदान, शेख अहमद दाऊद शामिल थे और ये हलक़ा अलक़ुदस मे मुनक़्क़िद होता था। आप ने एक जगह किराये पर ली ताकि हिज़्ब का मरकज़ बन सके और अपने हाथों से उसमे पोस्टर जिसपर”खिलाफत” लिखा हुआ था,आवेज़ाँ किया। यहाँ से आप ने अरबी किनारे और अरदन के तमाम शहरों मे लगन, मुस्तैदी और पुरजोश अन्दाज़ से सरगर्मियाँ शुरु कर दीं, इस पुकार को ज़बरदस्त और पुरजोश रिसपाँस मिला। यहाँ से आप दमिशक बग़दाद और बैरुत गये और जहाँ हज़ारों की तादाद मे लोगों ने हिज़्ब मे शमूलियत अखतियार की, जिसमें शामी पार्लियमेंट के बारह डिप्टी(मेम्बर पार्लियामेंट) भी शामिल थे।
इसी असना मे जमाल अब्दुल नासिर (मिस्र मे ग़द्दारे उम्मत) मुआशिरे मे उतरा और 1955 ई0 मे मक़बूलियत हासिल करने लगा। हिज़्ब ने उसके अमरीका के साथ ताअल्लुअक़ात को दरयाफत कर लिया, लेकिन जमाल अब्दुल नासिर की अवाम के ज़हनों पर असर अन्दाज़ होने के वजह से हिज़्ब की मक़बूलियत घटने लगी, लोगों का दबाव और् शबाब के खानदानों का दबाव बढ्ने लगा, यहाँ तक कि यह मुआमला हिज़्ब की लीडर शिप तक पहुँच गया। नमर अल मिसरी और शेख हमदान की जानिब् से यह राय ज़ाहिर की गई अब्दुल नासिर को चैलेंज  करने से हिज़्ब को ज़वाल का सामना करना पडेगा। यह बहस कई दिनों तक जारी रही, नतीजतन शेख ने दोनों को हिज़्ब से निकाल दिया और उनकी जगह शेख दाऊद और शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम की क़ियादत का हिस्सा बना दिया।

आप(शेख तक़ी) अवाम की जानिब से शदीद रद्दे अमल के बावजूद इस राह पर मुस्तक़िल मिजाज़ी से क़ायम रहे जो कि अब्दुल नासिर के खुतूत, लिखे मवाद और मिस्री, बरतानवी और अमरीकी सफारत खाने के पाँचवी (फिफ्थ)कालम नवीसों की तहरीरों से सख्त मुतासिर थे। ताहम अरदन, शाम, लेबनान, और इराक़ के सैकडों नवजवान उन “नासिरी” तूफानों के सामने मुसतक़िल मिज़ाजी से डटे रहे, वह पमफ्लेट तक़सीम करते रहे, बावजूद इसके अवाम की अक़सरियत इन्हे मुसतरिद करती रही और उन्हें अवाम से मसाएब का सामना करना पडा।

अरदन मे इंटेलीजेंस के पीछे होने के वजह से शेख तक़ी उद्दीन अनबहानी 1955 मे शाम मे मुंतक़िल हो गये। 1956 ई0 मे उनका शाम का वीज़ा मुस्तरद कर दिया गया, जिसके बाद आप लेबनान मुंतक़िल हो गये। बेरूत लेबनान मे आप को 1957 ई0 मे तीन माह के लिए क़ैद भी किया गया। उनको अदालत मे पहली पेशी पर ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। पेशी पर जब अपनी दिफाई बयान का आग़ाज़ इस जुमले से किया: “ हम दुनिया को एक खास नुक़ते नज़र से देखते हैं” तो जज ने आप को मज़ीद बात करने पर पाबन्दी लगा दी। इस पर बाहिश तक़ी उददीन नबहानी जो लेबनान मे अपनी मज़बूत सियासी किरदार के वजह से जाने जाते थे, ने शेख तक़ी की जानिब से बात की, यहाँ तक कि वह जज के कमरे मे घुस गये और् दरवाज़े को ठोकर मार कर खोला और कहा: “ तुम मेरे क्लाइंट की रिहाई का हुक्म अभी और इसी वक़्त जारी करोगे!”  शेख तक़ी उद्दीन पर इल्ज़ाम यह था कि “ उन्होने ने एक गैर कानूनी गिरोह मे शमूलियत अखतियार की है जिसने सियासी तसादुम को जन्म दिया है।“ हिज़्ब ने लेबनान मे एक ईसाई से अखबार हिज़ारह(तहज़ीब) 6 महीने के लिए किराये पर हासिल कर लिया था। ताहम छ्ह माह की मुद्द्त गुज़रने पर अखबार ने इस कांट्रेक्ट को मज़ीद जारी रखने से इंकार कर दिया, यूँ यह इशाअत रुक गयी। हिज़्ब की तरफ से अखबार की इशाअत ने ईसाइयों मे शदीद गुस्से को जन्म दिया था खुसूसन एक गिरोह ”कसाएर” और एक श्ख्स कुमैल शमऊन मे,जो कि उस वक़्त रिपब्लिक का चेयर मैन था। शेख तक़ी की गिरफतारी दर असल इसी वजह से अमल मे आयी थी।

1958ई0 मे मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर की शह और अमली मदद से लेबनान मे एक मक़बूल इंक़ेलाब व क़वू पज़ीर हुआ। हिज़्ब का काम तकरीबन्रुक गया क्योंकि शमऊन की लेबनानी फौज और मुसलिम इंक़ेलाबियों के दरमियान लडाईयों के बाएस अमन व अमान की सूरते हाल इंतेहाई बदतर हो चुकी थी। ताहम हिज़्ब सियासी पमफलैट तक़सीम करती रही जिसमें इस इंक़ेलाब के पीछे अमरीकी हाथ को बेनक़ाब किया गया था और कुमैल शमूऊन को लेबनान मे पहले से अमरीकी ऐजेंट की सूरत मे आशकार किया गया था। शाम जो कि उस वक़्त मिस्र का इत्तेहादी था, ने रक़म, असलहे और अफराद से मज़ाहमती क़ुव्वतों की मदद की। उसी साल शमऊन का चेहरा उस वक़त मफलूज हो गया जब वह शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम (रह0) से मिलने के लिए वाशरूम से बाहर निकला और ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे पर लगा। वह बेरुत के एक अस्पताल मे खुफिया इलाज के लिए दाखिल हो गया जहाँ चन्द माह के इलाज से मामूली बहाली हो सकी, उसने इलाज जारी न रखा और एक अखबारी मज़मून मे यह पढ़ने के बाद कि सेक्योर्टी फोर्सेस चन्द दिनों मे उसे गिरफतार करने वाली हैं, रोपोशी मे चला गया। वह मौत तक रुपोशी मे ही रहा।
शेख तक़ी उद्दीन अननबहानी की रुपोशी की मुद्द्त 1959 ई0 के आखिर मे शुरू हुई, जब वे बेरुत के इलाक़े बरज अलबरा जनाह मे हिज़्ब के एक शबाब के घर मे मुनतक़िल हो गये। वह दो महीने वहाँ रहे जिस के बाद तराबलुस मे एक खाली इलाक़े मे मुनतक़िल होगये जिसे “अलक़ुबह” के नाम से जाना जाता था। यहाँ पर सिर्फ तीन इमारते थी। हम अकसर हफ्ते मे एक बार उनसे मिलने जाया करते थे, सिक्योर्टी खुदशात की बिना पर हम मे से एक मुखतलिफ मौक़े पर जाता। मुस्तक़िल मुलाक़ातों मे शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम, लुत्फी और अब्दुल हादी, जो कि अलक़बह के क़रीब रहते थे, शामिल थे। शेख हालात से वाकिफ रहने के लिए लेबनानी रिपोर्टों, रेडियो की खबरों और लेबनान अरदन, इराक़, मिस्र, सूडान के पार्टी मेम्बरान और जर्मनी के शबाब जिनमे फादी खालिद और फादी अब्दुल्लाह शामिल थे, की जानिब से क़ाबिले ऐतमाद ज़राए से हासिल करदह खुसूसी रिपोर्टों से इस्तेफादह करते थे। फिर अचानक वह हुआ जिसकी उन्हें उम्मीद न थी। पोरच मे खडे ताजुद्दीन ने एक सेक्योर्टी गाडी को बिल्डिंग के मेन गेट पर आते देखा। दो अफराद जिन्होने खाकी यूनिफार्म पहन रखा था, गाडी से निकले और बिल्डिंग मे दाखिल हुए। ताजुद्दीन दौड कर अपने वालिद(शेख तक़ी) के पास आये और जो कुछ उन्होने देखा बताया। वालिद ने ने उन्हें कहा कि खामोशी से बैठ जाओ और इंतेज़ार करो। तकरीबन 15 मिनट के बाद वालिद ने उन्हें कहा बाहर जाओ और देखो कि गाडी मौजूद है कि नहीं? ताहम गाडी जा चुकी थी। उन्होने ने बेटे को हुक्म दिया कि फौरन बेरुत मे घर जाये और आज के बाद न वह और न ही घर के का कोई अफराद इधर आये। शेख तक़ी हिज़्ब के शबाब शेख तालिब की जानिब मुनतक़िल हो गये, जिन्होने ने अपने घर के साथ एक और घर  “अलमलूलह” मे उनके लिए किराये पर ले लिया। उनके घर के ऊपर वाले पोज़ीशन मे एक औरत उन की टोह मे रहने लगी और शेख और दीगर शबाब के बारे मे अथार्टी वालों को बता दिया जो शेख से मिलने आया करते थे। जब अथार्टी वाले आये और घर की तलाशी ली, तो उन्हें कुछ भी न मिला यूँ वह वहाँ से नाकाम व नामुराद रुखसत हो गये। उसके बाद शेख तक़ी और शेख अब्दुल क़य्यूम ज़ल्लूम ने उल्मा वाला पोशाक छोड़ दिया और नारमल कपडे पहने लगे।

आप बैरूत के इलाके “अलनबा” मे मुनतक़िल होगये जहाँ हिज़्ब के शबाब कसरत से आबाद थे। उसके बाद शेख तक़ी और शेख ज़ल्लूम दावत की गर्ज़ से इराक गये, और ऐसा हुआ कि अब्दुस्सलाम आरिफ जो कि जमाल अब्दुल नासिर का मुदाह था, वहाँ पर हुक्मरान बन गया। ताहम वह किसी का कोई खास इत्तेहादी न थी। शेख तक़ी उद्दीन अननबहानी ने एक वफ्द तैयार किया और उसे हिदायात दे कर उस के पास भेजा कि वह उसे हिज़्ब के अफकार वाज़ेह करें और इस से मुतालबा करें कि वह इक़्तेदार हिज़्ब के हवाले करें(यानी हिज़्ब को नुसरत दे) ताकि इसलाम को नाफिज़ किया जा सके। ताहम वफद के अफरकान ने इस हिज़्ब के नज़रियात पहुँचाने पर ही इकतेफा किया लेकिन इस से इक़तेदार हिज़्ब के हवाले करने का मुतालबा ही न किया। जिस के जवाब मे अब्दुससलाम ने वफद से कहा कि वह इराक मे काम जारी रखें और उन्हें यहाँ किसी किस्म की मुश्किल का सामना नही करना पडॆगा, क्योंकि वह खिलाफत के दोबारा क़याम की सोच से मुतासिर हुआ था। वफद की कारगुज़ारी पर अमीर हिज़्बुत तहरीर शेख तक़ी उद्दीन अननबहानी को गुस्सा आया और उन्होने कहा कि “ मुझे इस मामले के लिए खुद जाना चाहिए था।” यह नुसरह हासिल करने की पहली कोशिश थी।
5 जून को अरदन की फौज से नुसरह से मिलने मे नाकामी के बाद 1967 मे अमीर हिज़्ब ओमान(अरदन) मुनतक़िल हो गये। अरदन की फौज मे हिज़्ब के कई शबाब मौजूद थे और उन्होने इस दावत पर लब्बैक कहा और अरदन मे हुकुमत को उखाडने और खिलाफत के क़याम के मंसूबे पर काम शुरु किया। 1968-69 को आधी रात के वक़त वह फौजी रेडियो की नशरियात पर निगरान था और उसने रेडियो नशरियात को अरदन की हुकूमत से बचाना था खोफज़दह हो गया। जबकि उस फौजी के इशारह पर ही दूसरे फौजियों ने उस वक़्त हरकत मे आना था जब वह रेडियो पर नम्बर का “एक” लफज़ कहता। पस वह खोफज़दह हो कर बादशाह के महल मे गया और शाह हुसैन को जगाया और उसे हिज़्ब के मंसूबे से आगाह कर दिया। शाह हुसैन फौरी तौर पर हरकत मे आया और उसने अरदन के हर हिस्से को क़ाबू मे रखने के लिए फौज को भेज दिया। हिज़्ब के दूसरे मेम्बरान जो कि दूसरी यूनिटों मे मौजूद थे जब उन्होने ने नम्बर “एक” का एक इशारा नहीं सुना तो वह हरकत मे नहीं आये और इस तरह हुकूमत को गिराने का यह मंसूबा नाकाम हो गया।

शाह हुसैन की हुकूमत कमज़ोर हो रही थी और क़बाएल बादशाह हुसैन की हिमायत से दस्तबरदार हो गये क्योंकि उन्हें बादशाह हुसैन की ग़द्दारी का इल्म हो गया था कि उसने मगरिबी किनारे को यहूदियों के हवाले कर दिया है और शाम के खिलाफ जंग मे यहूदियो की मदद की है, इस सूरते हाल मे हिज़्ब ने एक बार फिर हुकूमत को गिराने का मंसूबा बनाया। इसी साल एक अक्तूबर की हुकूमत को गिराने का मंसूबा भी नाकाम हो गया। इस मंसूबे मे फतह ग्रुप के मेम्बरान भी शामिल थे, इस मंसूबे की वजह यासर अराफात था। यासर अराफात को इस मंसूबे का इल्म फतह के एक रहनुमा अबु सालेह के ज़रिये हुआ। अबु सालेह को इस मंसूबे का इल्म दो फौजियों के ज़रिये हुआ। अबु सालेह ने उन दो फौजियों का ऐतमाद यह कह कर हासिल कर लिया कि वह यासर अराफात और बादशाह हुसैन के खिलाफ है। यासर अराफात ज़ाती तौर पर बादशाह के पास गया और उसे हुकूमत गिराने के इस मंसूबे से आगाह किया। हुसैन ने इस मंसूबे मे शामिल फौजियों की गिरफ्तारी का हुक्म जारी कर दिया। मंसूबा नाकाम हो गया और इंटेलीजेंस के अहलकारों ने हिज़्ब की बानी अराकीन मे एक रुक्न शेख अहमद अलदौर को गिरफ्तार कर लिया और बदतरीन तशद्दुद का निशाना बनाया। फिर यह अहलकार नमर अबु ताहा को गिरफतार करने उनकी लोहे की दुकान पर गये और उन्हें अपने साथ चलने को कहा। अबु ताह ने उनसे जैकेट पहने की इजाज़त माँगी और इसी बहाने अपने घर फोन किया और कहा: “ मैं हुकूमती अहलकारों के साथ आ रहा हूँ “। अहलकारों ने यह बात सुन ली थी और उन्हें बहुत मारा पीटा। फोन की दूसरी जानिब अमीर हिज़्ब शेख तक़ी, शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम, अब्दुल हमीद ज़ल्लूम, इब्राहीम अलशरबानी और कई दूसरे लोग मौजूद थे जो अबु ताहा की बरवक़्त ज़ेहानत भरी चाल से वहाँ बच निकलने मे कामयाब हो गये।

इसके बाद अमीर हिज़्ब तक़ी बग़दाद मुनतक़िल हो गये और नुसरह हासिल करने की कोशिशों मे मसरूफ हो गये। इसी मक़सद के लिए उन्होने शबाब से कहा कि वह जल्दी करें मगर ऐहतियात के साथ। फिर वह ओमान (अरदन) वापस आगये जहाँ 1970 के अवाएल मे अरदन की फौज और फिदाईन के दरमियान सूरते हाल खराब होती जा रही थी। सूरते हाल उस वक़्त मज़ीद खराब हो गयी जब अल जबह अल शेअबियह  ने तीन यूरीपी तैयारों को अग़वा कर लिया और फिर उन्हें तबाह कर दिया। उस वाक़ेअ के बाद ज़बरदस्त जंग हुई जिसमें पचास हज़ार लोग मारे गये। इन वाक़ेआतका इखतेताम उस वक़्त हुआ जब क़ाहिरा मे अरब कांफेरेंस बुलवाई गयी। इस सूरते हाल की वजह से अब्दुल नासिर दिल के दौरे से मर गया। फिदाईन ने एहराज जरास की तरफ हिजरत की और अरदनी फौज ने ओमान मे मौजूद एक एक इमारत तलाशनी शुरू की। जिस वक़्त तलाशी का अमल जारी था शेख तक़ी इस बात से बचने के लिए वह पहचाने जायें, वह एक अस्पताल मे रूपोश थे। इस अस्पताल मे हिज़्ब का एक शबाब डाक्टर के तौर पर काम करता था। फौजी अस्पताल  मे फिदाईन की तलाश मे आए। डाक्टर ने शेख तक़ी की आखों पर पट्टी बाँध दी और फौजियों से कहा कि “ यह बूढा आदामी है यह फिदाई नहीं हो सकता।” इसके बावजूद उन्होने गुस्ल खाने की तलाशी ली और चले गये। जब सूरते हाल मे इस्तेहकाम आया तो शेख तक़ी ने अस्पताल छोड दिया और बेरूत की तरफ चले गये और जहाँ उन्हें अपनी वालिदह के इंतेक़ाल की मौसूल हुई और वह बहुत अफसुरदह हो गये। इसके बाद वह एक गाँव “मकीन” मुंतक़िल हो गये जहाँ से वह रोज़ाना पैदल अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम के साथ  पाँच किमी0 फासले पर मौजूद शहर “आले” मे अब्दुल हादी फाऊर से मिलने जाते थे जो वहाँ पर रियाज़ी के एक उस्ताद के तौर पर काम करते थे।
फिर शेख तक़ी बग़दाद गये जहाँ पर 1968 मे एक लाख अफराद पर मुशतमिल एक मलेशिया क़ायम हो चुकी थी जिसका मक़सद बाअस पार्टी की हुकूमत को क़ायम रखना था। उन्होने मलेशिया की तक़रीबन अस्सी(80) फौजियों से मुलाक़ात की,  उन फौजियों और अमीर हिज़्ब के दरमियान बातचीत तक़रीबन आठ घंटे तक जारी रही है जिसके बाद उन फौजियों ने क़सम कि वह रियासत खिलाफत के क़याम के लिए हिज़्ब को नुसरह देगें। इसके बाद शेख तक़ी बेरुत वापस आगये और “बअर अल अब्द” के इलाक़े मे रहने लगे जो कि उस वक़्त हिज़्बुल्लाह और मुहम्मद हसन फज़लुल्लाह का मज़बूत गढ था। यह इलाक़ह उनके लिए महफूज़ था जहाँ वह हुक्काम की निगाहों से दूर रह सकते थे। यहाँ रह कर अमीर हिज़्ब ने एक बार फिर फतह के मुखलिस मेम्बरान की हिमायत हासिल करने की कोशिश शुरु की जो कि यासर अराफात के खिलाफात थे। उनमें सईद सियाल, अबु दाऊद, अबु अकरम, और अबु मूसा शामिल थे।
1972 के अवाएल मे शेख तक़ी ने बग़दाद का सफर अखतियार किया ताकि हुकूमत को गिराने के मंसूबे को आखिरी शक्ल दी जा सके। वह एक शबाब के घर पर क़याम पज़ीर हुए। इसी दौरान एक वाक़ेया पेश आया। हुआ यह कि एक शबाब अहमद साबिरह ने बेरूत से बग़दाद का सफर अखतियार किया। उनके पास कुछ खुतूत थे जो कि मुखतलिफ इलाक़ों के ज़िम्मेदार बेरूत भेजते थे। साबरह की हवाई अड्डे पर तलाशी ली गयी और उनसे कुछ बरादमद नहीं हुआ। लेकिन जिस वक़्त उन्हें वहाँ से जाने की इजाज़त मिलने वाली थी एक सिपाही ने उनसे कहा जो नक़दी वह ले जा रहे हैं उसे दोबारा दिखायें, जिसे वह पहले देख चुके थे और कुछ बरामद नहीं हुआ था। लेकिन अब ग़ैर से देखने से उन्हें एक लिफाफा मिला जिसमें एक खूतूत थे। साबरह को गिरफ्तार कर लिया गया और बहुत मारा पीटा गया जब तक उन्होने यह तस्लीम नहीं कर लिया कि वह यह खुतूत डाक्टर खलील के लिए ले जा रहे थे। जिसके बाद डाक्टर खलील को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें भी बदतरीन तशद्दुद का निशाना बनाया गया लेकिन उन्होने किसी बात का इक़रार न किया। कुछ दिनों के बाद डाक्टर खलील की बीवी और बहन को उनके पास लाया गया और उनसे क़ैदखाने मे मुलाक़ात की। बीवी और बहन ने बताया कि उन्हें धमकियाँ दी जा रहीं है कि उन्हें घर से निकाल दिया जायेगा। इस बात पर वह ग़म व ग़ुस्से से पागल हो गये और अपने राब्ते के बन्दे(अमीर हिज़्ब) की जगह की निशान देही कर दी लेकिन अमीर हिज़्ब की शक्ल व सूरत के मुतालिक़ दुरुस्त मालूमात न दीं। शेख तक़ी को गिरफ्तार कर लिया गया और बदतरीन तशदुद का निशाना बनाया गया। उनके सर पर इस क़द्र ज़रब लगाईं गईं कि वह कई दफा बेहोश हुए। हर बार बेहोश होने पर उन पर पानी फेंका जाता और होश मे आने पर उन से सवाल किया  जाता “तुम कौन हो?” जिस पर वह जवाब देते कि “मैं फराज हूँ”। यह वह नाम था जो उनके पासपोर्ट पर तहरीर था। उअंके साथ क़ैदखाने मे दो ऐजेंटों को क़ैदियों के रूप मे रखा गया था जो कि इस बात का दावा करते थे कि वह हिज़्ब के मक़सद की हिमायत करते हैं। लेकिन शेख को उन पर शक था। एक फौजी आता और वह उन क़ैदियों से पूछ्ता “ क्या इस शख्स ने इक़रार कर लिया है?” और फिर वह शेख को  ज़ोरदार ठोकर मारता। कुछ अरसे बाद शेख तक़ी को ऐहसास हुआ कि यह फौजी दरअसल इन दो क़ैदियों की हक़ीक़त आशकार करने आता है और शेख तक़ी को सिर्फ इसलिए मारता है ताकि वह अपने आप को शक होने से बचा सके, क्योंकि वह उन फौजियों मे से था जिन्होने हिज़्ब की मदद की थी। गिरफ्तारी के तीन महीने बाद शेख तक़ी और डाक्टर खलील को रिहा कर दिया गया और वह मिस्र चले गये और वहाँ से बेरूत पहुँचे।
शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम ने मुझे वालिद साहब के घर आने की इत्तेलाअ दी और मैं उनसे मिलने के लिए फौरन चल पडा। जब मैने दरवाज़ा खोला तो मैने देखा कि उनकी रंगत ज़र्द पड चुकी थी और वज़न 45 किलो से ज़्यादह नहीं था जबकि पहले उनका वज़न 90 किलो के करीब था। मैं अपने आप पर क़ाबू न रख सका और रो पडा। उनकी यह हालत क़ैदखाने की बदतरीन तशद्दुद का नतीजा थी। वह कैसे रिहा इसके मुतालिक उन्होनें तस्दीक़ की I.D. दुरुस्त है लेकिन तसवीर दुरुस्त नहीं है। जब मुझे और सलीम लुतफी को वालिद साहब की गिरफ्तारी का इल्म हुआ तो हमने फैसला किया इनकी गिरफ्तारी की खबर खुफिया रखी जाये यहाँ तक कि अपनी वालिदा और बहन भाईयों से भी ऐसा रवय्या रखा कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। कुछ् अरसे बाद इराक़ी हुक्काम ने वालिद साहब के कज़न को हमारे पास भेजा। हमारे ये चचा 1948 से इराक़ मे रिहाइश पज़ीर थे। उन्होने मुझसे से कहा कि उनकी मुलाक़ात शेख तक़ी से कराई जाये। मैं ने उन्हें बताया कि वह रोपोश हैं और किसी से मुलाक़ात नहीं कर सकते। वह मुझसे एक हफते तक वालिद साहब से मुलाक़ात करवाने को कहते रहे और आखिर कार मैं ने उनसे कहा कि वालिद साहब बहुत मसरुफ हैं और वह उनसे मुलाक़ात नही कर सकते और अब मैं भी कारोबारी सिलसिले मे बलगराम जा रहा हूँ। हैरतअंगेज़ अन्दाज़ मे तौर पर होटल मे मेरी मुलाक़ात इराक़ी फौजियों से हुई। होट्ल के मुलाज़िम के मुताबिक़ यह भी होटल उसी दिन आये थे जिस दिन मैं आया था। मेरा शिनाख्ती कार्ड देखने के बाद उन्होने मुझे जानने की कोशिश की। उनमे से एक ने कहा कि वह सिलवाकिया मे तीन महीने फौजी ड्यूटी कर चुका है। मुझे इस बात का यक़ीन हो गया कि यह लोग इस होटल मे मेरे लिए आये हैं और उनको मेरे मुतालिक़ मेरे वालिद के कज़न ने बताया। उन्होने मुझे क़बरस चलने पर आमादह करने की कोशिश की और उनके साथ कुछ दिन गुज़ारने की दावत दी।मैने उनकी पेशकश की मुखालिफत नहीं की। ताहम उस दौरान मैने जर्मनी के टिकट के हुसूल की कोशिश शुरु कर दी। मे   जैसे ही मुझे टिकट मिला मैने होटल छोड दिया,लेकिन उनके लिए एक खत भी छोड़ा जिसमे बयान किया कि मैं करोबारी की ऐमरजंसी की वजह से जल्दी जा रहा हूँ। मै पहले ज़ग़रब और फिर फ्रेंकफ्रट गया और फिर गरन का टिकट लिया ताकि इराक़ी हुक्काम से बच सकूँ क्योंकि मुझे खदशा था कि वह मुझे अग़वा करके मेरी और मेरे वालिद की मुलाक़ात करवाना चाहते हैं। जब मैं ने वालिद साहब को अपनी कहानी सुनाई तो मेरे वालिद ने मेरे अमल की ताईद की और कहा कि तुम्हारे इस अमल ने मेरी रिहाई मे मदद दी क्योंकि मेरी गिरफ्तारी की खबर पर हुक्काम मुताअल्लकह लोगों का रद्दे अमल जानना चाहते थे।
वालिद साहब ने दोबारा सेहतयाब होने के बाद “अल फकीर” (फिक्र करना) लिखी। उनका यह अमल इस बात की निशानदेही करता है था कि क़ैद के दौरान तशद्दुद ने हिज़्ब के लिए काम करने और नुसरह हासिल करने के लिए मुखतलिफ असलूब अखतेयार करने के लिए उनका अज़म दो गुना कर दिया है। उनकी मुलाक़ात एक शामी आफीसर से हुई थी और उन्हें महसूस हुआ कि उसके ताअल्लुक़ात अमरीकियों से हैं। उन्होने अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम अल नहलवी को इस बात से आगाह किया जो कि खुद भी माज़ी मे शामी फौज के सिपाही रह चुके थे और उन्होने इस बगावत को बरपा किया था ताकि जिसने 1961 मे शाम और मिस्र को तक़सीम कर दिया था। अलनहलवी ने कहा: “मै जानता हूँ मगर शायद अल्लाह उसे हिदायत दे।  वह भी हमारी तरह इन्सान है और इसलामी रियासत के क़याम मे हमारी मदद कर रहा है।“ अमीर हिज़्ब उनकी राय से मुत्तफिक़ नहीं थे और उन्होने अल नहलवी से दरख्वास्त की कि उसे उस दस्ते का हिस्सा न बनाया जाए जो नुसरह तलाश करता है।

और फिर अक्टूबर 1973 की जंग शुरू होगई। अगर ईराक़ियों का एक गिरोह यहूदियों को अलक़मयतरह् रोक न लेता तो दमिशक़  का सुक़ूत हो जाता। इस गिरोह की सरबराही एक ऐसा सिपाही कर रहा था जिसका ताक़ल्लुक़ हिज़्ब के नुसरह तलाश करने वाले दस्ते से था। उसने शेख तक़ी से दरख्वास्त की उस वक़्त शाम मे हुकूमत का तख्ता पलट दिया जाए और उनसे वादा किया वह हाफिज़ अल असद का सर उनके सामने पेश करेगा। लेकिन अमीर हिज़्ब ने इससे इत्तेफाक़ नहीं किया और कह कि खित्तह उस वक़्त हालते जंग मे है और इस क़ाबिल नहीं कि रियासते खिलाफत के लिए नुक़ते आगाज़ बन सके। वह सिपाही यहूदियों के साथ जंग मे शहीद हो गये। उनहोने उस वक़्त पिसपाई अखतियार करने पर मजबूर किया था जबकि वह दमिशक़ से सिर्फ बीस किमी0 दूर रह गये थे।

यह बात साबित होगई कि शाम की फौज अपने बल बूते पर इज़राईल को शिकस्त नहीं दे सकती क्योंकि इसको सिर्फ बाअस पार्टी की हुकूमत को क़ायम रखने के क़ाबिल बनाया गया था। इस वजह से शामी हुकूमत की तवज्जोह ग़ैर बाअस पार्टी फौजियों से हट गयी और यह सूरते हाल हिज़्ब के नुसरह हासिल करने वालों लोगों के लिए बहुत फायदेमन्द साबित हुई है। शामी फौजी के फौजी बडी तादाद मे हिज़्ब मे शामिल होने लगे। इस सूरते हाल से अमेरिकियों ने C.I.A ज़रिये निज़ाम की निगरानी शुरु कर दी और यूँ हाफिज़ अलअसद के खिलाफ बग़ावत मे रुकावटें खडी कर दीं। शाम मे पेश आने वाली सूरते हाल के बाद हिज़्ब ने अपनी तवज्जोह और तवानाई का महवर इराक़ को बना लिया और शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम ने तर्की का सफर अखतियार किया ताकि वहाँ पर हिज़्ब के लिए हिमायत पैदा की जाये।

अप्रैल 1975 मे बेरूत मे जंग छिड गयी और ज़हलफ शहर का मुहासिरा कर लिया गया। हिज़्ब ने यहूदियों के इस मंसूबे का पता लगा लिया जिसके तहत उन्होने हिसाबियाह और रासियह के ज़रिये अलबक़ीअ पर कब्ज़ा करना था ताकि ज़हलफ की नाक़ा बन्दी खत्म की जा सकी। अमीर हिज़्ब जिस जगह रिहाइश पज़ीर थे वे इसाई इलाक़े बअर अलअब्द से क़रीब था। उन्होने किसी और महफूज़ मुक़ाम पर मुंतक़िल होने से इंकार कर दिया लेकिन जब एक गोली उनके सर के क़रीब से गुज़री तो उन्होने मजबूरबन उस जगह को छोड दिया।
1976 मे वालिद साहब ने जमाल सालेह के ज़रिये मुझे बुलवाया और कहा कि मैं वालिदह भाई और बहन को अबुज़हबी ले जाऊँ जहाँ पर ताज (मेरा भाई) इंजीनीयर के तौर पर काम कर रहा था। यह इस लिए किया गया क्योंकि मार्च मे इराक़ मे हुकूमत का तख्ता उलटने का मन्सूबा बन चुका था। वालिद साहब ने मुझे से कहा कि मैं रेडियो बग़दाद की नशरियात रात को सुनता रहूँ और अगर इंक़ेलाब मे कामयाबी हो जाती है तो घर वालों के साथ ले कर बग़दाद का सफर इखतेयार करुं। हम अबुज़हबी चले गये। मै ने पूरे एक महीने तक इंतेज़ार किया और हर रात रेडियो बग़दाद के नशरियात सुनता रहा लेकिन कुछ भी न हुआ। मैने अपने फैसले के तहत बेरूत वापिस आ गया और जब मैं वालिद साहब से मिला तो वह नाराज़ हुए और कहा कि फौरन वापस जाओ और रेडियो बग़दाद की नशरियात सुनता रहूँ। जब मैं अबु ज़हबी वापिस पहँचा तो बेरुत का हवाई अड्डा छह महीने तक बन्द रहा और उस वक़्त तक नहीं खुला जब तक फौजें हवाई अड्डे मे दाखिल नहीं होगईं। इन फौजियो के साथ शामी हुक्काम भी थे। इस सूरते हाल ने अमीर हिज़्ब को मज़ीद हिफाज़ती इक़दामात लेने पर मजबूर कर दिया ताकि उनकी रिहाइश की जगह का  किसी को इल्म न हो सके। जब शाम पर सरकारी तौर पर लेबनान मे दाखिल हो गया तो हिज़्ब के मेम्बरान ने सुन्नी अफवाज मे नुसरह तलाश करनी शुरु कर दी। शामी अफवाज के सरबराह के मुताअलिक यह ख्याल था कि वह सुन्नी है लेकिन उसके मुताअलिक मालूमात हासिल करने के बाद पता चला कि उसका ताअल्लुक़ फ्रीमेसेन से है। इसलिए हिज़्ब ने उससे अपनी तवोज्जोह हटा ली और कोशिश करने लगी कि खिलाफत के क़याम के बाद लेबनान शाम का हिस्सा बना लिया जाय चाहे इसका क़याम का ऐलान दमिशक़ से हो या बगदाद से या ओमान से हो।
1977 की बहार मे अमीर हिज़्ब को दिल का दौरा पडा और उन्हें बेरुत मे अमेरिकन यूनिवर्सिटी के अस्पताल मे दाखिल कर दिया गया जहाँ वह दस दिन तक ज़ेरे इलाज रहे। उनके चेहरे पर थकावट के आसार वाज़ेह थे जो कि रमज़ान मे और मे नुमाया हो गये। सितम्बर की रात को जबकि इंक़ेलाबी इक़दाम किया जाना था, तो एक सरकारी एहलकार ने पैग़ाम भेजा कि इस मंसूबे को अक्टूबर तक इल्तवा मे डाल दिया जाए। शेख तक़ी मुझे एक तरफ ले कर गये और कहा मुझे लगता है कि मेरा वक़्त क़रीब है। उन्होने मुझसे कहा कि रोना मत और इस वक़्त हिज़्ब के साथ मिल कर काम करते रहना जब तक खिलाफत का क़याम न हो जाये अगर मेरा इंतेक़ाल इससे क़ब्ल हो जाये। नवम्बर मे अनवर सादात(जो कि उस वक़्त मिस्र का सरबराह था)ने जल्दी मे अलक़ुद्स का दौरा किया। यह एक ऐसी हरकत थी जिसने पूरे आलमे इस्लाम पर सकतह तारी कर दिया। इस वाक़ेअ से मेरे वालिद को शदीद गुस्सा आया और उन्होने कहा कि सादात को मिस्र वापस आने से क़बल ही क़त्ल कर देना चाहिए बिल्कुल उसी तरह जिस तरह शाह अब्दुल्लाह को क़त्ल किया गया था। उन्होने मस्जिद अक़सा से ईदुल अज़हा का खुतबा बराहे रास्त सुना, जो इस्राईली रेडियो नशरियात पर नशर किया गया था और फिर वह वाक़ेअ पज़ीर न हुआ कि जिसकी तवक़्क़ोअ कर रहे थे। तो उनका गुस्सा मज़ीद बढ गया और इस हालत मे वह कमरे मे एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाने लगे। फिर अचानक रुके और कहा “ मैं जानता हूँ कि उम्मत ज़वाल पज़ीर हो चुकी है लेकिन मुझे यह अन्दाज़ा न था कि इस क़दर ज़वाल पज़ीर हो चुकी है।” कुछ दिनो के बाद उन्हें सर्दी लग गयी और वह बिस्तर के हो गये। उन्होने डाक्टर तौफीक़ अबु महमूद को खत लिखना शुरु किया जो जर्मनी मे रहते थे लेकिन वह इस खत को कभी खत्म न कर सके। यह उनकी ज़िन्दगी की आखिरी तहरीर थी। डाक्टर ज़ियाद क़ुल्लियत, जिसने वालिद साहब के दिल के दौरे के दौरान इलाज किया था, बुलवाया गया कि वह वालिद साहब को देखे और उन्हें फौरी तौर पर अस्पताल ले जायें। वालिद साहब को देखने के बाद उसने बताया कि उन्हें फालिज का दौरा पडा है। उनके खून मे शकर की मिक़दार मज़ीद बढ गई थी और खून का दबाव भी और उनकी दिल की धडकन बहुत तेज़ हो गई ठीक डाक्टर जियाद ने खून के दबाव को कम करने के लिए गलोकोज़ के टीके लगाये लेकिन इसके नतीजे मे शकर की मिक़दार मज़ीद बढ गई और वालिद साहब बेहोश हो गये। मैं डाक्टर ज़ियाद के हवाले से मशक़ूक़ हो गया क्योंकि ऐसा लग रहा था कि डाक्टर ज़ियाद घबराहट मे हैं। मैं उसे ग़ुस्से से देखने लगा लेकिन मैं ने अपने खदशे का इज़हार किसी नहीं किया क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि वालिद साहब सेहत याब हो जायेंगें। मैने अबु जमाल और अहमद बक़्र के साथ मशवरा किया कि क्यों न वालिद साहब को इलाज के लिए अमेरिका ले जाया जाए। मौत से दो दिन क़बल उनकी तबयत और बिगड गयी और अहमद बकर फूट फूट कर रोने लगे तो मैने उनसे कहा “ ऐ अबु उसामा हमें अस्पताल मे शर्मिन्दा न करो।“ इंतेक़ाल के बारह घंटे क़बल वह होश मे आये और हमें देखा। मैने उनसे पूछा कि क्या व्ह मुझसे नाराज़ हैं तो उन्होने इंकार मे सर हिलाया और फिर बेहोश हो गये। इंतेक़ाल से चार घंटे क़बल उन्होने क़ुरआन पाक की तिलावत शुरु कर दी लेकिन सांस मे तेज़ी की वजह से तिलावत समझ मे नहीं सका। उनकी रूह दिसम्बर 1977 की सुबह चार बचे परवाज़ कर गयी। उन्हें उसी दिन असर के वक़्त क़बरिस्ताने शोहदा मे दफनाया गया। उनके जनाज़े मे बीस ज़ाएद लोग भी नहीं थे!! उनके इंतेक़ाल की खबर शबाब से भी मखफी रही जब तक शेख अब्दुल क़दीम ज़ल्लूम तुर्की से वापिस नही आगये और हिज़्ब के उमूर को संभाल नही लिया।
मैं डाक्टर ज़ियाद के हवाले से मुतजसस रहा जब तक मैने अस्पताल के सरबराह से मुलाक़ात का फैसला नहीं किया। यह साहब हिज़्ब से मुंसलिक रहे थे। मैने तमाम वाक़ेआत उनके सामने रखे। उन्होने एक मुस्तनद और माहिर डाक्टर से मुलाक़ात का ऐहतामाम इस शर्त पर किया कि न तो डाक्टर का नाम सामने आएगा और नही मरीज़ का। उस डाक्टर ने बताया कि गुलूकोज़ का इस्तेमाल का एक ग़ल्ती थी लेकिन डाक्टर ने यह नहीं बताया कि यह एक जुर्म था। मुझे पता चला कि दर असल मेरे वालिद शेख तकी को इराक़ के हुक्काम ने क़त्ल करवाया है। पस उन्हें शहादत की मौत नसीब हुई है और उनका सिलह अल्लाह के पास है। मैं इस बात का तज़करह किसी नहीं करना चाहता था क्योंकि उस वक़्त इसमे कोई फायदा नही देखता था।  बत्तीस सालों इस राज़ को सीने मे रखने के बाद अब पहली बार इसका इज़हार कर रहा हूँ।
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