वली अहद या जांनशीन मुक़र्रर करना

किसी को वलीअहद या जांनशीन बनाने से उस की ख़िलाफ़त क़ायम नहीं होती। क्योंकि ये मुसलमानों और ख़लीफ़ा के दरमयान एक अक़्द है। मुसलमानों की बैअत करना और जिस शख़्स की वो बैअत करें उस शख़्स का उस बैअत को क़बूल करना, इस मुआहिदे की लाज़िमी शराइत हैं। किसी को अपना वली अहद या जांनशीन नामज़द करने से ये शर्त पूरी नहीं होती, लिहाज़ा इस से ख़िलाफ़त क़ायम नहीं हो सकती। इसी तरह ख़लीफ़ा का अपने बाद दूसरे को ख़लीफ़ा मुक़र्रर करने से ख़िलाफ़त का मुआहिदा वक़ूअ पज़ीर नहीं होता क्योंकि उसे ख़िलाफ़त का मुआहिदा करने का हक़ ही नहीं क्योंकि ये मुसलमानों का हक़ है ,ख़लीफ़ा का नहीं। मुसलमानों को ये इख्तियार है कि वो जिस से चाहें, ख़िलाफ़त का मुआहिदा करें। चुनांचे किसी को अपना वली अहद मुक़र्रर करना यानी उसे अपने बाद ख़लीफ़ा होने का अहद देना जायज़ नहीं। क्योंकि ये ऐसी चीज़ देना है जिस का ख़लीफ़ा मालिक ही नहीं। और किसी भी शख़्स को ऐसी चीज़ दे देना, जो उस शख़्स की अपनी मिल्कियत ना हो,जायज़ नहीं। इसलिए एक ख़लीफ़ा के लिए दूसरे शख़्स को अपना ख़लीफ़ा बनाना,ख़ाह वो इस का बेटा हो या क़रीबी रिश्तेदार या कोई और, क़तअन जायज़ नहीं और ना ऐसा करने से ख़िलाफ़त का मुआहिदा वक़ूअ पज़ीर हो सकता है। क्योंकि ये अक़्द उस की तरफ़ से हुआ ही नहीं जो उस हक़ का मालिक है। लिहाज़ा ऐसा अक़्द उक़द-ए-फ़ुज़ूली है जो कि सही अक़्द नहीं ।

जहां तक इस रिवायत का ताल्लुक़ है कि अबूबक्र (رضي الله عنه) उमर (رضي الله عنه) को अपने बाद ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया और उमर (رضي الله عنه) ने अपने बाद छः अफ़राद को मुक़र्रर किया और तमाम सहाबा (رضی اللہ عنھم) ख़ामोश रहे और उन्होंने उस की मुज़म्मत भी नहीं की और ये सुकूत (खामोशी) इन का इजमा (खामोश इज्मा) था , तो ये जांनशीन मुक़र्रर करने (के जवाज़) की कोई दलील नहीं। इसलिए कि अबूबक्र (رضي الله عنه) ने बज़ात-ए-ख़ुद अपने बाद ख़लीफ़ा मुक़र्रर नहीं किया बल्कि आप ने मुसलमानों से मश्वरा किया कि वो किस को अपने बाद ख़लीफ़ा बनाना चाहते हैं और (इस के नतीजे में) आप ने अली (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) को नामज़द किया। इसके बाद लोगों ने अबूबक्र (رضي الله عنه) की ज़िंदगी में ही ,तीन माह के दौरान, अक्सरियत के साथ उमर (رضي الله عنه) पर इत्तिफ़ाक़ कर लिया। फिर लोगों ने अबूबक्र (رضي الله عنه) की वफ़ात के बाद उमर (رضي الله عنه) की बैअत की, तब जाकर उमर (رضي الله عنه) ख़िलाफ़त क़ायम हुई । बैअत से पहले उमर (رضي الله عنه) ख़लीफ़ा नहीं थे और उन की ख़िलाफ़त ना तो अबूबक्र (رضي الله عنه) की नामज़दगी से क़ायम हुई और ना ही महज़ मुसलमानों के इंतिख़ाब से । बल्कि ये ख़िलाफ़त उस वक़्त क़ायम हुई थी जब मुसलमानों ने उमर (رضي الله عنه) की बैअत की और उमर (رضي الله عنه)  ने उसे क़बूल किया।

जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि उमर (رضي الله عنه) ने छः अफ़राद को मुक़र्रर किया था तो आप (رضي الله عنه) ने ऐसा मुसलमानों की दरख़ास्त पर किया था। फिर अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (رضي الله عنه) ने लोगों के साथ मश्वरा किया कि वो इन छः में से किसे ख़लीफ़ा बनाना चाहते हैं । अक्सर लोगों ने अली (رضي الله عنه) को इस शर्त पर ख़लीफ़ा मुंतख़ब करने पर इत्तिफ़ाक़ किया कि वो अबुबक्र(رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه)  के तरीक़े पर कारबन्द रहेंगे ,बसूरत-ए-दिगर (इस शर्त से अली (رضي الله عنه) के इनकार की सूरत में) उसमान (رضي الله عنه)  को ख़लीफ़ा बनाया जाये । जब अली (رضي الله عنه) ने अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) के तरीक़े पर कारबन्द रहने की पाबंदी को क़बूल करने से माज़रत की तो अबदुर्रहमान बिन औफ़ (رضي الله عنه) ने उसमान (رضي الله عنه) की (इसी शर्त पर) बैअत कर ली। चुनांचे फिर दूसरे लोगों ने भी उन की बैअत की। यूं उसमान (رضي الله عنه)  की ख़िलाफ़त लोगों की बैअत से क़ायम हुई ,ना कि आप की ख़िलाफ़त उमर (رضي الله عنه) की नामज़दगी से या लोगों के इंतिख़ाब से क़ायम हुई । अगर लोग उसमान (رضي الله عنه)  की बैअत ना करते या उसमान (رضي الله عنه) इसे क़बूल ना करते तो उन की ख़िलाफ़त भी क़ायम ना होती। चुनांचे ख़लीफ़ा के लिए मुसलमानों की बैअत ज़रूरी है और ख़िलाफ़त वली अहद या जांनशीन मुक़र्रर करने से क़ायम नहीं हो सकती। क्योंकि ये अक़्दुल विलायाৃ (हुकूमत करने का मुआहिदा) है और दूसरे शरई मुआहिदात (सन्धियों) की तरह इस पर भी मुआहिदे के शरई अहकामात का इतलाक़ होता है।

वलीअहदी :

इस्लामी निज़ाम के मुताबिक़ वली अहद मुक़र्रर करने का तरीक़ा एक मुनकिर (बुराई) है और ये इस्लाम से मुकम्मल तौर पर टकराता है। क्योंकि अथार्टी उम्मत के पास है ना कि ख़लीफ़ा के पास ,अगरचे ख़लीफ़ा अथार्टी में सिर्फ़ उम्मत की नुमाइंदगी करता है, और ये इख्तियार हमेशा उम्मत के पास रहता है तो फिर वो ये इख्तियार बज़ात-ए-ख़ुद किसी और के हवाले किस तरह कर सकता है। जो अबूबक्र (رضي الله عنه) ने उमर (رضي الله عنه)  के लिए किया ,वो उमर (رضي الله عنه)  को वली अहद मुक़र्रर करना ना था बल्कि ये ख़लीफ़ा की ज़िंदगी में ही उम्मत की तरफ़ से आइन्दा ख़लीफ़ा का इंतिख़ाब करना था। और फिर अबूबक्र (رضي الله عنه) की वफ़ात के बाद उमर (رضي الله عنه) की बैअत की गई।

इस के बावजूद अबूबक्र (رضي الله عنه) ने अपनी तक़रीर में हद दर्जे एहतियात बरती ताकि लोगों पर ये वाज़िह हो जाये कि इन का ये अमल जांनशीन मुक़र्रर करना नहीं है। जब अबूबक्र (رضي الله عنه) की राय उमर (رضي الله عنه) के इंतिख़ाब के मुताल्लिक़ पुख़्ता हो गई तो आप ने लोगों से ख़िताब करते हुए कहा : “क्या तुम उसे क़बूल करते जो मैं तुम्हारे लिए मुक़र्रर करने जा रहा हूँ? क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) की क़सम! मैंने इस राय पर पहुंचने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और ना ही मैंने अपने किसी क़राबतदार का इंतिख़ाब किया है।“ और इसी बुनियाद पर उमर (رضي الله عنه) ने अपने बेटे अब्दुल्लाह को इन छः अफ़राद के साथ नामज़द किया जिस के बारे में उमर (رضي الله عنه) समझते थे कि उन्हें ख़लीफ़ा को मुक़र्रर करने का इख्तियार हासिल है और ये शर्त आइद की कि उन के बेटे को सिर्फ़ अपनी राय देने का इख्तियार है और यूं आप ने इस बात को यक़ीनी बनाया कि किसी किस्म का शक-ओ-शुबा बाक़ी ना रहे कि वो अपना वली अहद मुक़र्रर करने नहीं जा रहे । ये इसके बरख़िलाफ़ है जो ख़लीफ़ा मुआवीया ने किया  जब उन्होंने अपने बेटे यज़ीद को मुक़र्रर किया, जो कि इस्लाम के निज़ाम से टकराता है। जिन वजूहात की बिना पर उन्होंने इस मुनकिर का आग़ाज़ किया, वो ये हैं:

1: वो हुक्मरानी को ख़िलाफ़त की बजाय बादशाहत तसव्वुर करते थे। ये उन की इस तक़रीर से वाज़िह तौर पर ज़ाहिर है जो उन्होंने अहल-ए-कूफ़ा के सामने सुलह के बाद की। आप ने कहा: “ए अहल-ए-कूफ़ा! क्या तुम ये गुमान करते हो कि मैंने नमाज़,ज़कात और हज के लिए तुम से जंग की, जब कि मैं जानता हूँ कि तुम नमाज़ पढ़ते हो, ज़कात देते हो और हज अदा करते हो? नहीं, मैंने तुम्हारे साथ इस लिए जंग की ताकि तुम्हारे ऊपर और तुम्हारी गरदनों पर हुकूमत करूं और अल्लाह ने मुझे ये अता कर दिया है ख़ाह तुम उसे नापसंद करो। ख़बरदार इस फ़ित्ने में जो माल और ख़ून बहा, इसका बदला ज़रूर लिया जाएगा और हर वो शर्त जो (अमन क़ायम होने से पहले ) मैंने क़बूल की थी वो मेरे क़दमों के नीचे है।“

इब्ने अबी शैबा ने अपनी मुसन्निफ़ में सईद बिन सुवैद से रिवायत किया कि उन्होंने कहा: “मुआवीया ने नख़ला में हमें जुमा पढ़ाया और फिर ये ख़ुतबा दिया...” और बुख़ारी ने अपनी अल-तारीख़ उल-कबीर में भी इस बात को बयान किया है।

देखिए किस तरह मुआवीया ने इस बात का ऐलान किया कि वो इस्लाम के बरख़िलाफ़ अमल करेंगे। उन्होंने इस बात का भी इक़रार किया कि उन्होंने लोगों से इसलिए क़िताल किया ताकि वो उन पर और उन की गरदनों पर हुकूमत करें। इस से बढ़ कर शदीद और संगीन बात आप ने ये की, जब आप ने लोगों से कहा : “हर वो शर्त जिसे मैंने क़बूल किया वो मेरे के क़दमों के नीचे है जबकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَوْفُوْا بِا لْعَھْد ج إِنَّ الْعَہْدَکَانَ مَسْءُوْلاً
अपने वादों को पूरा करो बेशक वादों के मुताल्लिक़ सवाल किया जाएगा
(बनी इसराईल:34)

इस क़ौल से आप ये देख सकते हैं कि उन्होंने ये ऐलान किया कि वो इस्लाम की पाबंदी नहीं करेंगे। जिस तरीक़े से यज़ीद को मुंतख़ब किया गया वो इस बात को मज़ीद वाज़िह कर देता है कि ख़लीफ़ा मुआवीया (رضي الله عنه) ने उम्दन (अपने बेटे को वलीअहद बनाने के लिए) इस्लाम के ख़िलाफ़ अमल किया और विरासती हुक्मरानी की राह निकाली। ये मुआवीया की अपनी सोच थी क्योंकि उन्होंने लोगों की राय तलब की और किसी ने यज़ीद की वली अहदी पर इत्तिफ़ाक़ ना किया । चुनांचे उन्होंने माल का लालच दिया लेकिन फिर भी कोई शख़्स राज़ी ना हुआ। फिर उन्होंने तलवार का इस्तिमाल किया।

इब्ने कसीर, इब्नुल असीर और दूसरे मुअख्खरीन बयान करते हैं कि जब ख़लीफ़ा मुआवीया के वाली हिजाज़ के लोगों से यज़ीद के लिए बैअत हासिल करने में नाकाम हो गए, तो वो ख़ुद फ़ौज और माल लेकर हिजाज़ गए और उन से कहा :”तुम लोग मेरे सुलूक को जानते हो और इस बात से भी वाक़िफ़ हो कि मेरे तुम्हारे साथ ख़ानदानी ताल्लुक़ात हैं, यज़ीद तुम्हारा भाई और तुम्हारा अम्मज़ाद (खाला/मामू का लडका)  है। मेरी ख़्वाहिश है कि तुम ख़िलाफ़त के लिए यज़ीद की तरफदारी करो क्योंकि तुम वो लोग हो जो मुक़र्रर करते और माज़ूल (बर्खास्त) करते हो। तुम लोगों को हुक्मरानी अता करते हो, अम्वाल को जमा करते और उसे तक़सीम करते हो। “अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर  (رضي الله عنه) ने जवाब दिया कि या तो तुम रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का तरीक़ा इख्तियार करो जब उन्होंने किसी को अपना जांनशीन मुक़र्रर ना किया और या फिर वैसा ही करो जिस तरह अबुबक्र और उमर ने किया। ख़लीफ़ा मुआवीया ग़ुस्से में आ गए और बाक़ी लोगों से सवाल किया, इन का जवाब भी वही था जो अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर का था। ये सुन कर मुआवीया ने कहा: “मैं तुम लोगों को ख़बरदार करता हूँ। मैं तुम से एक बात कहता हूँ और अल्लाह (سبحانه وتعال) की क़सम! अगर तुम में से किसी ने इस मौक़े पर इस के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ भी निकाला तो वो दूसरा लफ़्ज़ नहीं बोल सकेगा कि इस से क़ब्ल तलवार उस की गर्दन तक पहुंच जाएगी। पस हर शख़्स अपनी जान की फ़िक्र करे” फिर मुआवीया ने अपने फ़ौजी दस्ते के सालार को हुक्म दिया कि वो हिजाज़ के सरकरदा लोगों और हर मुख़ालिफ़ शख़्स की पुश्त पर दो सिपाहीयों को खड़ा कर दे और उन्हें ये हिदायत कर दे कि अगर इन में से किसी ने भी उस की बात की मुवाफ़िक़त या मुख़ालिफ़त में ज़बान खोली तो तलवार के वार से उस की गर्दन उड़ा दी जाये।

यूं मुआवीया ने अपने बेटे यज़ीद को मुक़र्रर करने के मंसूबे पर अमल दरआमद किया।
वो बुनियाद जिसे मुआवीया ने अपने बाद यज़ीद को मुक़र्रर करने के लिए इख्तियार किया, वो इस्लाम से टकराता है। उमर (رضي الله عنه) ने इरशाद फ़रमाया: “अगर एक शख़्स किसी शख़्स को क़राबतदारी या दोस्ती की बिना पर अथार्टी अता करता है, जबकि उम्मत में इस काम के लिए इस से बेहतर लोग मौजूद हों तो वो अल्लाह , उस के रसूल صلى الله عليه وسلم व मोमिनीन से ख़ियानत करता है।

2: मुआवीया ने अपने बेटे की हुक्मरानी के मुआमले में शरई नुसूस में बहाना किया। इस्लाम ने ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब का इख्तियार उम्मत को दिया है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ऐसा ही किया और इस मुआमले को लोगों पर छोड़ दिया कि वो अपने मुआमलात को चलाने के लिए उस शख़्स को मुक़र्रर कर लें जिसे वो सब से बेहतर समझते हों। ताहम मुआवीया (رضي الله عنه) ने बैअत के हुक्म का ग़लत इंतिबाक़ (जुडाव) किया, जब उन्होंने अपने बेटे यज़ीद को अपने बाद हुक्मरानी दी जैसा कि सासानी (sasans) और बाज़नतीनी  (Byzantians) किया करते थे। यूं उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ही यज़ीद की बैअत लेने की राह निकाली ।

3: सियासी मुआमलात में मुआवीया ने मुनफ़अत (फायदा) को इज्तिहाद की बुनियाद बनाया था। चुनांचे उन्होंने अहकाम-ए-शरई के ज़रीये मुश्किलात को हल करने की बजाय अहकाम-ए-शरीया को हालात के मुवाफ़िक़ बनाने की कोशिश की। उन्हें चाहिए था कि वो मुनफ़अत को इज्तिहाद की बुनियाद बनाने की बजाय इज्तिहाद के इस्लामी तरीक़े को इख्तियार करते ,और माद्दी मुनफ़अत (भौतिक फायदा) की बजाय क़ुरआन और सुन्नत-ए-नबवी को इज्तिहाद की असास (बुनियाद) बनाते। यानी वो अपने ज़माने के मसाइल को हल करने के लिए इस्लामी अहकामात को इख्तियार करते ना कि उन मसाइल के हल के लिए इस्लामी अहकामात को मोड़ते, इन में रद्दो बदल करते और उन की ख़िलाफ़वरज़ी करते।

यहां ये ज़िक्र करना ज़रूरी है कि बेटे को वली अहद मुक़र्रर करने से वो अपने वालीद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बन जाता। बल्कि गुज़श्ता ख़लीफ़ा की वफ़ात के बाद उसे नए सिरे से लोगों से बैअत इनेक़ाद-ओ-इताअत लेना लाज़िमी है। अगरचे बसा औक़ात बैअत का इंतिबाक़ ग़लत अंदाज़ से किया और बैअत रज़ा-ए-रग़बत की बजाय जब्रो क़ुव्वत से हासिल की गई, ताहम इस्लामी रियासत की पूरी तारीख़ में बैअत लेना ही ख़लीफ़ा को मुक़र्रर करने का तरीक़ा रहा है। पस ख़िलाफ़त का इनेक़ाद बैअत के ज़रीये होता रहा ना कि विरासत या वली अहदी के ज़रीये।


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