हुक्काम पर आईद फराईज़ - अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुनकर से मुताल्लिक

शरअ जिसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने नाज़िल किया और वाज़ेह बयान किया है, उनको सिर्फ़ वाज़ेह अफ़्क़ार नहीं बनाया, बल्कि शारेअ (legislator) ने उसको एक वास्तविक और मुजस्सम (tangible reality) बनाया है लिहाज़ा इस मक़सद की ख़ातिर ऐसे अमली अहकामात नाज़िल फ़रमाए जो हर हाल और हक़ीक़त में इसके अस्तितव की सुरक्षा को निश्चित बनाने से संबधित हैं और उन चीज़ों से रोकते हैं जिन्हें शरअ ने मुनकर क़रार दिया है, इस मक़सद के लिए एक तरीक़ा वज़ा (create) फ़रमाया जो कि रियासते इस्लामी है चुनांचे कायनात के हाकिम अल्लाह (رب العزت) ने इस रियासत के क़याम का हुक्म दिया ताकि वो रियासत उसकी शरअ की हिफ़ाज़त करे, लिहाज़ा अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने ऐसी रियासत के अमीर (हाकिम) से संबधित अहकामात बयान फ़रमाए उसे भी मारूफ़ का हुक्म दिया और मुनकर से मना फ़रमाया, उसको दीन को क़ायम करने और उसकी निगेहबानी करने का हुक्म दिया, फिर इस मक़सद की ख़ातिर उम्मत को हुक्म दिया कि रियासत के अमीर के हुक्म की पाबंदी करें और हाकिम के ज़िम्मे अहकामात की ग़ैर अदायगी या ग़फ़लत की सूरत में हाकिम का मुहासिबा करें, अल्लाह (ذو الجلال) का यह मुतालिबा उम्मत के अफ़राद और एहज़ाब (जमातों) दोनों से है चुनांचे रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
((سيد الشهداء حمزة بن عبد المطلب و رجل قام إلى إمام
جائر فأمره و نهاه فقتله))

“शुहदा के सरदार हमज़ा बिन (رضي الله عنه) अब्दुल-मुत्तलिब हैं और वो शख़्स भी जो ज़ालिम हुक्मरान के सामने खड़ा होकर उसको अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करे ।”  (रिवाया अल हाकिम)  मज़ीद फ़रमाया:

((أفضل الجهاد كلمة حق عند سلطان جائر))

“जाबिर हुक्मरान के सामने कलिमा हक़ कहना अफ़ज़ल तरीन जिहाद है । (रिवाया इब्ने माजा व निसाई)
रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:



((لتأمرن بالمعروف و لتنهون عن المنكر و لتأخذن على يد
الظالم و لتأطرنه على الحق أطراً و لتقصرنه على الحق قصراً))

“तुम ज़रूर बह ज़रूर अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करो, और ज़ालिम का हाथ रोको और तुम उसको सिर्फ़ और सिर्फ़ हक़ पर कारबन्द और हक़ तक ही सीमित रखो ।” (रिवाया अबू दाऊद व तिर्मीज़ी)

ज़ालिम हुक्मरान को कौन हक़ पर कारबन्द और हक़ ही तक सीमित रख पाएगा सिवाए उसके जो क़ुव्वत व ताक़त रखता हो यानी जमात या हिज़्ब क्योंकि इन्फ़िरादी तौर पर तन्हा कभी भी ये काम अंजाम नहीं दिया जा सकता चुनांचे नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) का या हुक्म एहज़ाब यानी मुसलमानों की जमातों या ग्रुप से संबधित है । माज़ी में सहाबा (رضی اللہ عنھم) और फ़ुक़हा (رحمت اللہ علیہ) ये जानते थे कि कि इस्लाम और शरअ के लिए असल और बुनियादी चीज़ इस्लामी रियासत है जब इस्लामी रियासत होगी तो अहकामात नाफ़िज़ होंगे और अगर रियासत इस्लामी ना हुई तो शरई अहकामात ज़ाया हो जाएंगे, जब अबु-बकर (رضي الله عنه) से ये पूछा गया कि “इस्लाम को दाइमी (permanent) तौर पर नाफ़िज़ और क़ायम रखने के लिए क्या चीज़ बुनियादी हैसियत रखती है?” तो फ़रमाया:”जब तक हुक्मरान हक़ पर क़ायम होंगे (यानी रियासत ख़ालिस्तन इस्लामी होगी)” शेख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिया (رحمت اللہ علیہ) ने फज़ैल से अयाज़ का और अहमद बिन हबंल से, इन दोनों का ये क़ौल नक़ल किया है कि “अगर हमारी दुआ क़बूल होती तो हम सुल्तान (अमीर) के लिए दुआ करते ।” इस्लाम तमाम इंसानों का दीन है जो तमाम बनी नौ इंसान के लिए अपने दामन में ख़ैर लिए हुए है। ये दीन किसी क़ौम के लिए ख़ास नहीं कर दिया गया है। इसका अक़ीदा आलमी और आफ़ाक़ी (universal) है चुनांचे इससे तशकील पाने वाला निज़ाम भी आफ़ाक़ी व आलमी है, पूरे विश्व में उसको फैलाने का तरीक़ा भी इस दीन ने ख़ुद बता दिया है जो कि एक रियासत के ज़रीये है, रियासत दीन को नाफ़िज़ करेगी और पूरे आलम तक दीन को फैलाएगी, नतीजतन इस्लामी रियासत सबसे अहम मारूफ़ है जिसका वजूद लाज़िमी है ताकि ये इस पर आइद फ़र्ज़ अदा करे,

लिहाज़ा रियासत की अपनी ज़िम्मेदारीयां कौन सी हैं? अगर ये रियासत मौजूद नहीं होगी तो इसका काम कौन करेगा? अगर रियासत ही राहे-हक़ से भटकने लगे तो उसकी ग़लती कौन सही करेगा? अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने रियासत पर जो ज़िम्मेदारी डाली है, वो पूरे के पूरे दीन को नाफ़िज़ करना है। रियासत ही दुनिया के हर मामलत में दीन की ततबीक़ (application) के लिए ज़िम्मेदार है, वो मामलात व्यक्तिगत श्रेणी के फ़राइज़ हो या सामूहिक श्रेणी के हो या फ़राइज़ ऐनी या कफ़ाई फ़राइज़ (collective obligations) हो इन तमाम के निफ़ाज़ को यक़ीनी बनाने के लिए रियासत ज़िम्मेदार है चुनांचे रियासत ही दीन के क़याम यानी मारूफ़ के क़याम और मुनकर को अमली तौर पर ख़त्म करने की ज़िम्मेदार है रियासत ही दीन यानी मारूफ़ के क़याम और मुनकर को अमली तौर ख़त्म करने का ज़िम्मेदार है लिहाज़ा अगर रियासत में कोई मुसलमान नमाज़ ना अदा करता हो तो रियासत उसको अदायगी का हुक्म देगी और तामील ना होने की सूरत में सज़ा देगी । इसी तरह अगर वो ज़कात ना दे, हज ना करे या रोज़ा ना रखे तो हर मुस्लिम फ़र्द से इन जैसे तमाम ऐनी फ़राइज़ की पाबंदी भी रियासत ही करवाएगी और इसमें कोताही करने वालों का मुहासिबा करेगी और उन मारूफ़ात को समाज में सुरक्षित करेगी इस तरह उनकी ज़िंदगीयों में दीन को क़ायम रखेगी और यही कैफ़ीयत कफ़ाई फ़राइज़ की भी है। इसी तरह उम्मत के तमाम मफ़ादात का हुसूल और उनकी निगहबानी जैसे तिब्ब और रियाज़ी (medicine and engineering), वग़ैराह से संबधित उलूम को तरक़्क़ी देना, ज़राए नक़्ले-हमल को बेहतर बनाना क़ुव्वत  और ताक़त का हुसूल इन फ़राइज़ की अदायगी जो उम्मत पर फ़र्ज़ हैं जिनके हुसूल के लिए इंतिज़ाम, मुताल्लिक़ा ज़िम्मेदारीयों के लिए नज़म व ज़ब्त (management) और उनकी तक़सीम और आपसी रब्त-ओ-हम आहंगी (coordination) की ज़रूरत होती है और जिन फ़राइज़ की ज़िम्मेदारी उम्मत में तक़सीम होती है जैसे जिहाद और इज्तिहाद का क़याम ये सभी ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारीयां है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने ख़लीफ़ा को इन तमाम की अदायगी का हुक्म दिया है। ख़लीफ़ा इन मामलात में किसी किस्म की कोताही करे तो उसका मुहासिबा करना उम्मत पर फ़र्ज़ है उम्मत ख़लीफ़ा पर दबाव बना कर उसकी भरपाई करेगी। शारेअ ने इसके बारे में बड़े दकी़क़ अहकामात बयान फ़रमाए हैं, अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानों पर हराम क़रार दिया है कि हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें सिवाए जब वो कुफ्रे-बुआह (खुल्लम खुल्ला) का इर्तिकाब करे।

इस्लामी रियासत में बुनियादी तौर पर हुक्मरान ही लोगों के मामलात की अहकामे शरीया के मुताबिक़ निगरानी करने का ज़िम्मेदार है हाकिम ही शरई तौर पर मुनकिरात को रोकने का ज़िम्मेदार है ख़ाह ये मुनकिरात अफ़राद से पैदा होते हो या जमातों से क़ायम होते हो,

चुनांचे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इरशाद फ़रमाया:

((الإمام راع وهو مسؤول عن رعيته))
“इमाम निगहबान है और वह अपनी रियाया के बारे में मिस्ल है ।”

इमाम इसका ज़िम्मेदार है कि अफ़राद और जमातों को तमाम फ़राइज़ का पाबंद बनाए अगर किसी मारूफ़ की अंजामदेही के लिए इसे ताक़त के इस्तिमाल की ज़रूरत पड़े तो इस पर लाज़िम है कि वो ताक़त का इस्तिमाल करे। इसी तरह मुनकिरात को रोकने के लिए भी ताक़त के इस्तिमाल की ज़रूरत पड़े तो ताक़त का इस्तिमाल इस पर फ़र्ज़ है । रियासत बुनियादी तौर पर मुनकिरात को मिटाने यानी उनको हाथ यानी क़ुव्वत से रोकने की मजाज़ (responsible) और काबिल है, क्योंकि शरअ ही इस्लाम को नाफ़िज़ करने और अहकामात की अदायगी को लोगों पर लाज़िम करने के बारे में ज़िम्मेदार है ।

लेकिन अगर हुक्मरान ख़ुद मुनकर का इर्तिकाब करे, ज़ुल्म करे या बातिल तरीक़े से लोगों का माल हड़प करे या किसी की हक़तलफ़ी करे या रियाया की परवरिश में किसी किस्म की सुस्ती करे या अपने फ़राइज़ को अंजाम ना दे, इस्लाम के किसी क़ानून से इख़्तिलाफ करे या किसी और मुनकर का इर्तिकाब करे तो मुसलमानों पर फ़र्ज़ है कि सबके सब ऐसे हाकिम के मुहासबे के लिए उठ खड़े हो और हाकिम के मुनकर का विरोध करें और इन्फ़िरादी और जमाअती तौर पर कोशिशें करें ताकि वो अपने इस अमल को तबदील करे अगर इस सूरत में मुसलमान ख़ामोश रहें या मुनकर को ख़त्म ना करें तो सबके सब मुसलमान गुनहगार होंगे।

हुक्मरान की तरफ़ से किसी मुनकर के इर्तिकाब की सूरत में इस मुनकर को रोकने और हुक्मरान का एहतिसाब (accountability), ज़बानी मुहासिबा की शक्ल में किया जाएगा । क्योंकि मुस्लिम (رحمت اللہ علیہ) ने उम्मे सलमा (رضي الله عنها)  से रिवायत किया है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:



((ستكون أمراء فتعرفون و تنكرون، فمن عرف برىء، و من
أنكر سلم، و لكن من رضي و تابع))

“अनक़रीब तुम हुक्मरानों (के कामों को) मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकर, तो जिसने (मुनकर को बुरा जाना वह बरी हुआ और जिसने) (मुनकर का) इनकार किया वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो ना बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा) ।”

इस तरह इब्ने मसऊद (رضي الله عنه) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((... كلا والله لتأمرن بالمعروف ولتنهون عن المنكر، و لتأخذن
على يد الظالم و لتأطرنه على الحق أطراً و لتقصرنه على الحق قصراً))

सुनो! अल्लाह की कसम तुम ज़रूर बिल ज़रूर अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करोगे तुम ज़ालिम का हाथ रोकोगे, उसको हक़ पर कारबंद करोगे और हक़ तक ही उसको सीमित रखोगे ।”

एक और रिवायत में है कि :

((أو ليضربن الله قلوب بعضكم على بعض أو ليلعنكم
كما لعنهم))

“सुनो! अल्लाह की कसम तुम ज़रूर बिल ज़रूर अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करोगे तुम ज़ालिम का हाथ रोकोगे, उसको हक़ पर कारबंद करोगे और हक़ तक ही उसको सीमित रखोगे, वरना अल्लाह (سبحانه وتعالى) तुम्हारे दिलों में एक दूसरे के लिए नफ़रत भर देगा और साबिक़ा लोगों की तरह तुम पर भी लानत करेगा।” (रिवाया अबु दाऊद)
 
इस तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने जाबिर हुक्मरान के सामने कलिमा-ए- हक़ कहने को अफ़ज़ल तरीन जिहाद क़रार दिया जब किसी साइल ने अर्ज़ किया कि कौन-सा जिहाद अफ़ज़ल है? फ़रमाया:

((أفضل الجهاد كلمة حق عند سلطان جائر))
“जाबिर हुक्मरान के सामने कलिमा-ए-हक़ कहना अफ़ज़ल तरीन जिहाद है ।”

ज़हन नशीन रहे कि हाकिम के ख़िलाफ़ मुसल्लह बग़ावत सिर्फ़ उस वक़्त जायज़ है जब हुक्मरान खुल्लम खुल्ला कुफ्र का इर्तिकाब करे और इस कुफ्र की शरई दलील मौजूद हो और वो एक आश्कारा कुफ्र हो जिसमें कोई शुबा ना मौजूद हो । या ये हुक्मरान अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा इस्लामी अहकामात छोड़ कर खुल्लम खुल्ला वाज़ेह कुफ्र के अहकामात को अपनी हुकूमत में इख्तियार करे। औफ़ बिन मालिक अल-शजई (رحمت اللہ علیہ) से रिवायत है कि उन्होंने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को फ़रमाते सुना: 
 ((خيار أئمتكم  الذين تحبونهم ويحبونكم ويصلون عليكم
وتصلون عليهم وشرار أئمتكم الذين تبغضونهم ويبغضونكم
وتلعنونهم ويلعنونكم قيل يا رسول الله أفلا ننابذهم بالسيف
فقال لا ما أقاموا فيكم الصلاة))
 “तुम्हारे अच्छे हुक्मरान वो होंगे जिनसे तुम मुहब्बत करो और वो तुम से मुहब्बत करें तुम उनके लिए दुआएं करो और वो तुम्हारे लिए दुआएं दीं और तुम्हारे बुरे हुक्मरान वो हैं जिन तुम बुग़्ज़ रखते हो और तुम से बुग़्ज़ रखते हो तुम उन पर लानत भेजते हो और वो तुम लानत भेजते हैं । कहा कि ए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) क्या इस हाल में हम उनको निकाल बाहर ना करें, फ़रमाया: नहीं जब तक वो तुम्हारे बीच नमाज़ को क़ायम करते रहें ।” (मुस्लिम)

यहां नमाज़ को क़ायम करने का मतलब इस्लाम का क़याम यानी शरीयत का निफ़ाज़ है यहां जुज़ कह कर कुल मुराद ली गई है ( باب تسمیات الکل بسمل جزئ)। उम्मे सलमा (رضي الله عنها) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((ستكون أمراء فتعرفون و تنكرون، فمن عرف برىء، و من
أنكر سلم، و لكن من رضي و تابع، قالوا: أفلا نقاتلهم؟
قال: لا ما صلوا))۔

“अनक़रीब तुम्हारे हुक्मरान होंगे तुम उनके (बाअज़ कामों को) मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकर में से, तो जिसने (मुनकर को) बुरा जाना वो बरी हुआ और जिसने (मुनकर का) इनकार किया वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ न महफ़ूज़ रहा) अर्ज़ किया, क्या हम उनसे क़िताल ना करें? फ़रमाया: नहीं जब तक वो नमाज़ पढ़ते हैं ।"

यानी जब तक वो शरई अहकामात की अदायगी करते रहें जिनमें नमाज़ भी एक अहम जुज़ है यहां भी जुज़ कह कर कुल मुराद है । उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) से रिवायत है कि :

((بايعنا رسول الله   على السمع و الطاعة في العسر و اليسر،
و المنشط و المكره و على أثرة علينا، و على أن لا ننازع الأمر أهله
قال: إلا أن تروا كفراً بواحاً عندكم من الله تعالى فيه برهان، و على
أن نقول الحق أينما كنا لا نخاف في الله لومة لائم))۔

“हमने तंगी और कुशादगी, पसंद और नापसंद के ऊपर किसी और को तर्जीह देने की सूरत में बहरहाल सुनने और इताअत करने पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की बैअत की, इस बात पर भी कि हम उलिल अम्र से नज़ाअ नहीं करेंगे फ़रमाया: हाँ सिर्फ़ इस सूरत में कि हम जब तुम (इन हुक्मरानों की तरफ़ से) ऐसा कुफ्रे बुआह देखो जिसकी अल्लाह की तरफ़ से तुम्हारे पास दलील हो, इस बात पर भी बैअत की कि हम जहां भी होंगे हक़ बात कहेंगे और अल्लाह के मुआमले में किसी मलामत गिर की मलामत से नहीं डरेंगे ।” 

इन अहादीस से ये बात रोज़ रोशन की तरह वाज़ेह हो जाती है कि हुक्मरान के ख़िलाफ़ हथियार युक्त बग़ावत उस वक़्त तक जायज़ नहीं जब तक वो शरअ के मुताबिक़ हुकूमत कर रहा है यानी ये सिर्फ़ उस वक़्त जायज़ है कि वो खुल्लम खुल्ला कुफ़्रिया अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करने लगे, जिन अहकामात के कुफ्र होने की ऐसी दलील मौजूद हो कि इसमें किसी किस्म का शक बाक़ी ना रहे ।
गौरतलब है कि ये तमाम बग़ावत उस वक़्त हैं जब एक मुसलमान हुक्मरान मौजूद है और उसने अपनी ज़िम्मेदारी में ग़फ़लत बरती है या अगर ऐसे हालात हो जाएं कि वो कुफ्रे बुआह (खुल्लम खुल्ला कुफ्र) के ज़रीये हुकूमत करने लगे चाहे कुफ्र एक हुक्म हो। तो फिर उम्मत पर फ़र्ज़ है कि इन्फ़िरादी और जमाती तौर पर इस हुक्मरान के सामने खड़े हो और बज़ौरे ताक़त उसको रोकें चाहे इसके लिए हथियारों के इस्तिमाल की ज़रूरत पड़े। यहां इस सवाल के बारे में सोचिए कि अगर सिरे से शरई हुक्मरान ही मौजूद ना हो और दारुल इस्लाम ही मौजूद ना हो तो क्या होगा? लाज़िमी बात है कि हुक्मरान से संबधित जितने भी अहकामात हैं मुअत्तल हो जाएंगे, फ़साद आम हो जाएगा, बुराई आम होगी, बदअख़्लाकी का दौर दौरा होगा। लोगों के ताल्लुक़ात फ़ासिद किस्म के होंगे मुनकर आम होगा, मारूफ़ नापायदार और तहलील हो रहा होगा, मुसलमान कमज़ोर होंगे उनकी हैबत कम होगी और उनका इज़्ज़तो-वक़ार ख़त्म हो जाएगा। वो बगै़र दाँतों और बगै़र पंजों वाले शेर की तरह होंगे, वो भी सिर्फ़ तस्वीर होगी हक़ीक़त में कुछ नहीं होंगे, खाती हुई तस्वीर ना भूक मिटा सकती है और ना ही शेर की तस्वीर से कोई डरता है।

इन जैसे हालात में जैसा कि आज हमारा हाल है, उम्मत को चाहीए कि एक ऐसे ख़लीफ़ा का तक़र्रुर करें जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करे क्योंकि उम्मत में ऐसे ख़लीफ़ा की मौजूदगी उम्मत पर फ़र्ज़ है लेकिन सवाल ये है कि कौन इस ख़लीफ़ा को वजूद में लाएगा और या किस तरह अंजाम दिया जाएगा? आगे इंशाअल्लाह इस्लामी जमातों की मौजूदगी की फ़र्ज़ीयत और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर के सिलसिले में उनके काम के बारे में बेहस की जाएगी |

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