तलबे नुसरत (MATERIAL SUPPORT) की खिलाफत के क़याम मे फर्ज़ियत

तलबे नुसरत (MATERIAL SUPPORT) की खिलाफत के क़याम मे फर्ज़ियत
आएं अब हम खिलाफते राशीदा के क़याम के तरीक़े से संबधित अहकामात में से एक अहम तरीन हुक्म (तलबे नुसरत) के बारे में कुछ जान लें । हमें इस हुक्म को पहचानने के लिए जिसको इख़्तियार करना आज हम पर ज़रूरी है उसकी दुबारा तफ़्सीली तौर पर जांच के लिए धीरे धीरे आगे बढ़ना होगा । खास तौर अब जबकि विभिन्न प्रकार के अफ़राद इस्लामी रियासत के क़याम के लिए काम करने का दावा करते हैं लेकिन तलबे नुसरा के हुक्म पर थोड़ी तवज्जोह नहीं देते और नज़रअंदाज कर देते हैं । वो यूं अमल करते हैं जैसे ये कोई फरुई मामला (ग़ैर बुनियादी) हो जिसकी कोई एहमीयत नहीं है या फिर ऐसा जैसे उसकी अस्नाद (रिवायात का सिलसिला) ज़ईफ़ है जिससे हुक्म लेना जायज़ नहीं है। यहाँ तक कि वो अपने इस अमल पर इक्तिफ़ा (संतोष) नहीं करते बल्कि इस हुक्म को ही निशाना बनाते हैं और इस पर अमल करने वालों पर तन्क़ीदें और आलोचना करते हैं । हालाँकि नबी (صلى الله عليه وسلم) की सीरत पर मौजूद तमाम किताबों ने इस हुक्म पर बेहस की और इसकी तफ़्सील में थोड़े फ़र्क़ के साथ इसको बयान किया है और तफ़्सीलात में ये फ़र्क़ अहम नही हैं कि इनका ज़िक्र किया जाये । ये बात काबिले-ग़ौर है कि उस दौर के सीरत के लेखको का ताल्लुक़ आज की किसी जमात से नहीं था बल्कि उनको तो मौजूदा अलग-अलग जमातों का इल्म भी ना था इसके बावजूद उन्होंने रसूल की सीरत में आप (صلى الله عليه وسلم) के तलबे नुसरत के अमल को बयान किया और बेहस की है और ख़ुद क़ुरआन ने उन लोगों का यूं ज़िक्र किया जिन्होंने नुसरत दी थी:


﴿آوَواْ وَّنَصَرُوا﴾ {8:72}
“उन्होंने पनाह दी और मदद की।”
और नुसरत या मदद करने वालों को दूसरी जगह यूं कहा

﴿الأَنصَارِ﴾ {9:100}
“नुसरत देने वाले”
क़ुरआन का ये ऐसा बयान है जो (नुसरत का) फे़अल करने वालों की तारीफ़ में है और उनकी महत्वपूर्ण सिफ़्फ़त का बयान है जो हमेशा के लिए उनकी ख़ासीयत बतला दी गई है।

वो जो भी आप (صلى الله عليه وسلم) की सीरत पर ग़ौर करता है वो सीरत से ये जान लेगा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उन सरदारों से नुसरत तलब की थी जो क़ुव्वत और ताक़त रखते थे । बावजूद इसके कि एक क़बीले के बाद दूसरा क़बीले ने इन्कार किया या बुरे अंदाज़ से पेश आया या इक़्तिदार की नाक़ाबिले क़बूल शर्ते रख़ीं आप (صلى الله عليه وسلم) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) बराबर तलबे नुसरत पुर इसरार करते रहे और बार-बार इस अमल को दोहराते रहे और थक कर हार नहीं मान ली। इब्ने-ए-साद ने अपनी तबक़ात में ऐसे 15 क़बीलों और सरदारों का ज़िक्र किया है जिनसे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने नुसरत तलब करने के लिए मुलाक़ातें कीं थीं ।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये निरंतर तौर पर बार बार इस अमल को दोहराना अगर कुछ इशारा देता है तो वो ये है कि आप (صلى الله عليه وسلم) की ये दृढ़ता (persistence) कोशिश इस बात की इंतिहाई वाज़ेह दलील है कि तलबे नुसरत ये रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से हुक्म मिला था जिसको अदा करना आप (صلى الله عليه وسلم) पर लाज़िम था। दूसरी घटना ये कि जिन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) की ये दावत सुनी और लब्बैक कहते हुए आप (صلى الله عليه وسلم) की मदद की, क़ुरआन का उन लोगों को अंसार के लक़ब से नवाज़ना, एक मज़ीद इज़ाफ़ी दलील है। क़ुरआन ने एक से अधिक अलग-अलग जगहों पर उन लोगों की तारीफ़ की और उनके साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मग़फ़िरत का मामला किया है। और रुत्बे के लिहाज़ से मुहाजिरीन के बाद इन ही लोगों का मुक़ाम और मर्तबा है।
रिवायात में तलबे नुसरत के अमल से संबधित अलफ़ाज़ जिस अंदाज़ में आए हैं उनसे भी ये इशारा मिलता है कि ये एक शरई हुक्म है। चुनांचे इसीलिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) विभिन्न क़बीलों से ये फ़रमाते रहे:
((يا بني فلان اني رسول الله إليكم، يأمركم أن تعبدوا الله ولا تشركوا به شيئاً، وأن تخلعوا ما تعبدون من دونه من هذه الأنداد، وأن تؤمنوا بي و تصدقوا بي و تمنعوني حتى أبين عن الله ما بعثني به))

“ए फ़ुलां के बेटो! में तुम्हारी तरफ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) का रसूल हूँ, (अल्लाह سبحانه وتعالى) तुम्हें हुक्म देता है कि तुम उसकी इबादत करो, उसके साथ किसी को शरीक ना बनाओ जिन शरीकों की तुम इबादत करते हो इससे बाज़ आओ मुझ पर ईमान लाओ मेरी तस्दीक़ करो और मेरी हिफ़ाज़त करो ताकि में उस चीज़ को बयान करूं जिसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुझे देकर भेजा है ।”  (सीरते इब्ने हिशाम)
ये अल्लाह (سبحانه وتعالى) और अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) का अम्र यानी फ़ैसला है और अम्र क्या होता है, अम्र हुक्म शरई होता है। शरई हुक्म को अंजाम देने के लिए मुनासिब उस्लूब इख़्तियार किए जाते हैं जो मुबाह हैं । हुक्म उस्लूब नहीं होता कि एक हुक्म को किसी उस्लूब से बदला जा सके, उस्लूब ही उस्लूब से बदल सकता है । इंशाअल्लाह इस पर तफ़्सील आगे की जाएगी।
फिर वो गुफ़्तगु और मुबाहिसे जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) और उन लोगों के बीच हुए जिनसे आप (صلى الله عليه وسلم) नुसरत तलब कर रहे थे और इसी तरह उक़्बा की जो दूसरी बैअत हुई इस दौरान बैअत करने वालों के साथ आप (صلى الله عليه وسلم) की जो गुफ़्तगु हुई उनसे साफ़ और वाज़ेह तौर पर मालूम होता है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इस अमल के पीछे मक़सद क्या था और जिसकी पूर्ति के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) निरंतर जद्दो जहद किया करते थे, तलबे नुसरत के पीछे आप (صلى الله عليه وسلم) का मक़सद यही था कि इस अमल के ज़रीये दीन को क़ायम किया जाये और ऐसी रियासत क़ायम की जाये जो दीन की हिफ़ाज़त करे, उसको नाफ़िज़ करे और उसकी तब्लीग़ करे यानी उसको फैलाए । तरीक़े के इस हुक्म को हम किस तरह नज़रअंदाज कर देंगे हालाँकि हम जानते हैं कि यही वो हुक्म है जिसके ज़रीये दावत की शक्ल तब्दील हो गई और इसी हुक्म ने दावत को उसके अपने दार (वतन) में पहुंचाया जो वहां इस्लाम को नाफ़िज़ करता है और उसकी दावत को फैलाता है। अगर हमारी दावत का मक़सद भी वही है जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत का मक़सद था तो इस तरीक़ा-ए-अमल को नज़रअंदाज करने की फिर क्या वजह हुई?
कुफ़्फ़ार ये समझ गए थे कि तलबे नुसरत की गतिविधियों के बाद बैअत या अहद किया जाएगा जो इस दीन को ग़ालिब करने के मक़सद से होगा। चुनांचे हम देखते हैं कि बनु आमिर बिन सासाह क़बीले ने ये जान लिया था कि इस मामले का ताल्लुक़ क़ुव्वत व इक़्तिदार से है । ये भी देखें कि कुफ़्फ़ारे मक्का किस तरह ग़ुस्से से पागल हो गए जब उन्हें उक़्बा की दूसरी बैअत के मुताल्लिक़ ख़बर मिली और फिर उन्होंने मदीना के लोगों से कहा: “ए ख़ज़रज के लोगो! हमें ख़बर मिली है कि तुम हमारे साहिब की तरफ़ आए थे और तुम उनको हमारे बीच से निकाल ले जा रहे हो और हम से जंग करने के लिए उनसे बैअत करते हो।” इसके अलावा हम देखते हैं कि बैअत “उक़्बा सानिया होने के बाद शैतान इंतिहाई ऊंची आवाज़ में चीख़ते हुए क्या कहता है: ए अखाशिब वालो! क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारी इस लड़ाई में मुहम्मद और साबईन (तौहीद परस्त) तुम से मिल कर लड़ें ?”
बैअत उक़्बा सानिया के दौरान अल-बरा ने कहा था: “हम बैअत देते हैं, ए अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم), अल्लाह (سبحانه وتعالى) की क़सम, हम जंगजू और हथियारों से लैस लोग हैं ।” और अबू अल-हैसम बिन अल-तैहान ने कहा: “ए अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم), हमारे और दीगर क़ौम (यहूदीयों) के बीच ताल्लुक़ात (मुआहिदे) हैं अब अगर हम उनको तोड़ते हैं, बिलफ़र्ज़ हम ने ताल्लुक़ात तोड़ लिए और फिर अल्लाह (سبحانه وتعالى) आप को ग़ालिब कर दे तो आप अपनी क़ौम की तरफ़ लोट आयेंगे और हमें छोड़ देंगे ? ”
असअद बिन ज़ुराराह ने कहा: “यक़ीनन आज उन्हें यहां (मक्का) से निकाल ले जाने का मतलब होगा तमाम अरब को ललकारना और उन्हें दुश्मन बना लेना और तुम्हारे इज़्ज़तदारों (अशराफ़) को ज़िब्ह करवाना और उन्हें तलवारों से कटवाना ।” अब्बास बिन उबादा का ये कहना कि: “अगर आप चाहते हैं तो हम अहले मिना पर अपनी तलवारों से टूट पड़ेंगे ।”
रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अबू-अलहैतम को ये कह कर जवाब देना:


((بل الدم الدم، والهدم الهدم، أنا منكم وأنتم مني، أحارب من حاربتم وأسالم من سالمتم))
“नहीं ख़ून का बदला ख़ून है, तबाही का बदला तबाही है, में तुम में से हूँ और तुम मुझ में से हो, जिसके साथ तुम लड़ोगे उसके साथ में लड़ूंगा और जिसके साथ तुम अमन (मुआहिदा) करोगे उसके साथ मैं अमन करूंगा ।”  (सीरते इब्ने हिशाम)
देखें कि हज़रत आइशा (رضي الله عنها ) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के बारे में कहती हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इस पर मुतमईन और ख़ुश हुए कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मदद अता की और एक जंगजू क़ौम, हथियारों से लैस आप (صلى الله عليه وسلم) की मददगार बना दी। इसी तरह ग़ौर कीजिए कि इब्ने हिशाम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के मुताल्लिक़ तलबे नुसरा के विषय पर बात करते हुए क्या कहते हैं : “जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपने नबी (صلى الله عليه وسلم) को सहारा देने और अपने दीन की नुसरत का इरादा फ़रमाया तो आप (صلى الله عليه وسلم) को अंसार के लोगों से जा मिलाया।”

उल्लेखित तमाम अलफ़ाज़ इस तलबे नुसरत के हुक्म की एहमीयत को स्पष्ट करने वाले दलायल हैं जो इन जुमलों को दूसरे किसी भी मानी में बदलने नहीं देते कि जिससे ये मालूम हो कि किसी शख़्स या क़ौम को इस्लाम की दावत दी जाये और वो क़बूल कर ले तो इसने दीन को नुसरत दी है। क्योंकि ये अलफ़ाज़ जैसे कि बैअत, इज़हार उद्दीन (दीन का ग़लबा), नुसरत (मदद), जंग, इज़्ज़त दारों (अशराफ़) को ज़िब्ह करवाना, उन्हें तलवारों से कटवाना, तमाम अरब को ललकारना और उन्हें दुश्मन बना लेना, वो आप (صلى الله عليه وسلم) की ऐसी हिफ़ाज़त करें जिस तरह अपनी औरतों और अपनी औलादों की हिफ़ाज़त किया करते हैं, ये तमाम अलफ़ाज़ तलबे नुसरा के हुक्म की वही शक्ल और सूरत और तरीक़ा बतलाते हैं जिस तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने तलबे नुसरा किया था, यानी दीन की मदद और हिमायत के लिए तलबे नुसरा, दीन की तब्लीग़ के लिए तलबे नुसरा, तब्लीग़ जिसके लिए क़ुव्वत इस्तिमाल करने की ज़रूरत पड़ती है, इस इस्लामी रियासत को क़ायम करने की कोशिश में तलबे नुसरा जो दीन और इसके दाइओं की हिफ़ाज़त करे और इस्लाम के अहकामात को नाफ़िज़ करे और पूरी दुनिया में इस्लाम के पैग़ाम को पहुंचाए।
इस मामले में नीचे दिए गए चंद अफ़आल (actions) जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने किए जिनका लिहाज़ रखना चाहिए :
  1. रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अफ़राद और दावत दोनों की हिफ़ाज़त के लिए पनाह और हिमायत तलब की थीं, ये मदद मुशरिकीन से भी ली जा सकती है जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपने चचा से ली थी और चचा ने आप (صلى الله عليه وسلم) की हिमायत और मदद की और हर किसी को आप (صلى الله عليه وسلم) को नुक़्सान पहुंचाने से रोका। और फिर जैसा कि ताइफ से लौटने के बाद मुतअम बिन अदी ने आप (صلى الله عليه وسلم) को अमान देकर मदद की। लेकिन ये मदद भी इस स्थिति में ली जा सकती है कि इस मदद से मुसलमान पर किसी क़िस्म का दबाव या दीन से संबधित किसी क़िस्म का समझौता करने का कोई ख़तरा ना हो। चुनांचे जब आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा ने दावत में ज़रा नरमी लाने का मुतालिबा किया तो इस पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपने चचा से ये फ़रमाया:
((والله يا عماه لو وضعوا الشمس في يميني و القمر في يساري
على أن أترك هذا الأمر ما تركته حتى يظهره الله أو أهلك دونه))


 “ए चचाजान! अल्लाह (سبحانه وتعالى) की क़सम अगर ये मुशरिकीन सूरज को मेरे दाएं हाथ में रखें और चांद को मेरे बाएं हाथ रखें ताकि में इस दावत से बाज़ आजाऊ तो भी हरगिज़ मैं बाज़ नहीं आऊँगा । यहां तक कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) इस दीन को ग़ालिब करे या उसकी ख़ातिर मुझे क़त्ल कर दिया जाये ।”  (सीरते इब्ने हिशाम)

 (2) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) सरदारों से मुलाक़ातें करते थे और ये तमन्ना करते थे कि वो ईमान क़बूल कर लें तो शायद उनके ईमान लाने की वजह से उनके अतराफ़ (surroundings) और पीछे जो हिमायती हैं वो लोग भी ईमान ले आयेंगे, आप (صلى الله عليه وسلم) का ऐसा करने का मक़सद दावत को आसानी के साथ फैलाना था और लोगों के बीच उसे ज़्यादा क़बूलीयत हासिल हो और वह एक आम दावत बन जाये, इसके अलावा ये अमल मक़बूल अवामी गिरोह तैय्यार करने में बड़ा किरदार अदा करता है ।
(3) तलबे नुसरा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने सिर्फ़ उन अफ़राद से की थी जो क़ुव्वत और ताक़त रखते थे और इसके लिए इस्लाम को शर्त क़रार दिया था जैसा कि उक़्बा की दूसरी बैअत (उक़्बा सानिया) के दौरान हुआ।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में अहले क़ुव्वत से नुसरत तलब की गई थी। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने की हक़ीक़त ये थी कि उस वक़्त उन लीडरों से नुसरत तलब की जाती थी जो क़ौम का सरदार होने के साथ साथ अवाम में आम तौर पर मक़बूल होते थे यानी उनके पास अवामी ताक़त भी हुआ करती थी । उस ज़माना में लीडर या रहनुमा हुक्मरान भी हुआ करता था और जंग में क़ाइद (leader) भी होता था और रहनुमाई के लिए भी इसी रहनुमा की राय की तरफ़ लोग रुजू करते थे और उसकी राय पर सब लोग इत्तिफ़ाक़ करते थे।

आज के हुक्मरान सिर्फ़ ताक़त के बलबूते पर हुकूमत करते हैं और उनके पास अवामी मक़बूलियत नहीं होती, बज़ाहिर उनकी जो अवामी मक़बूलियत नज़र आती है वो अक्सर हक़ीक़तन सच्ची नहीं होती। हमारी दावत में इस बारे में हमें वो अमल करना चाहिए जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने किया यानी उन लोगों से राब्ता करना हम पर फ़र्ज़ है जो समाज में असरो रसूख़ रखते हैं ताकि वो दावत के दरवाज़े अपने लोगों के लिए खोलें और यूं उनके अतराफ़ मौजूद हिमायती लोगों के लिए दावत क़बूल करना आसान हो जाए, यूं दावत के लिए अवामी मक़बूलियत हासिल की जाये। हम पर लाज़िम है कि हम अहले क़ुव्वत जैसे जनरलों वग़ैरा से नुसरत तलब करें ताकि हुकूमत तक पहुंचा जाये।जब जमात के अफ़राद पर तक्लीफ़ और सख़्ती में इज़ाफ़ा हो जाए तो ऐसी सूरत में उनके साथीयों और जान पहचान वाले लोगो से पनाह तलब करने में कोई नुक़्सान नहीं है, लेकिन उसकी शर्त ये है कि इसमें पनाह लेने वाले अफ़राद के ईमान पर कोई ख़तरा या इस पर दबा ना डाला जाये, अगर हम इस तरह ये अमल करेंगे तो हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करेंगे और मौजूदा हालात में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के नक़श-ए-क़दम पर चलेंगे।

यही वो तरीक़ा है जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इख़्तियार किया और यही वो तरीक़ा है जिसे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी में इख़्तियार करना हम पर फ़र्ज़ हो जाता है। इस अमल से हमें जो नताइज हासिल होंगे वो ये हैं ।

(1) शबाब जो अच्छी तरह तैय्यार हो चुके होंगे जिनके हाथों इस्लाम नाफ़िज़ हो सकेगा, जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मुहाजिरीन को तैय्यार किया था जिन्होंने मक्का में दावत फैलाने की ज़िम्मेदारी सँभाली और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के साथ मिल कर रियासत के क़याम और फिर आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद उम्मत की क़यादत की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने अपने कंधों पर उठाई।

(2) इस्लामी फ़िक्र की हिमायत में अवामी जनसमर्थन हासिल हो जाएगा जो आम बेदारी से पैदा होती है, यानी ऐसा अवामी गिरोह तैय्यार करना जो इस्लाम के अलावा किसी और निज़ाम को हुकूमती निज़ाम क़बूल करने पर राज़ी ना हो और इस्लाम के नाफ़िज़ होने की सूरत में उसको दिलो जान से अपनाए, जैसा कि अहले मदीना के साथ हुआ उन्होंने इस्लाम को चाहा और इसके लिए जीने मरने को तैय्यार हुए।

(3) पनाह देने वाले और अहले क़ुव्वत व ताक़त जिनके ज़रीये हम इक़्तिदार हासिल करेंगे।
जब हम ये तमाम काम कर चुके होंगे तो इसका मतलब है कि हम ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े पर कारबन्द होकर पैरवी की है जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने इख़्तियार किया था और अब हम तलबे नुसरा का अमल और अल्लाह (سبحانه وتعالى) की मदद का इंतिज़ार कर रहे होंगे जब कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने शरीयत की पाबंदी करने वाले मोमिनों से नुसरत (इमदाद) का वाअदा फ़रमाया है । इरशाद है:

وَكَانَ حَقًّا عَلَيۡنَا نَصۡرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ
 “मोमिनों की मदद हम पर लाज़िम है ।” {30:47}
मज़ीद फ़रमाया:

وَلَيَنصُرَنَّ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُ ۥۤۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِىٌّ عَزِيزٌ
“और अल्लाह यक़ीनन उनकी मदद करेगा जो अल्लाह के (दीन) की मदद करते हैं ।” {22:40}

وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّـٰلِحَـٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ ڪَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَہُمُ ٱلَّذِى ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّہُم ۚ يَعۡبُدُونَنِى لَا يُشۡرِكُونَ بِى شَيۡـًٔ۬اۚ مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنً۬ا
“अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने तुम में से उन लोगों से वाअदा फ़रमाया है जो ईमान लाए और नेक अमल करते रहे कि उनको ज़रूर ज़मीन में ख़िलाफ़त अता करेगा जैसा कि उनसे पहले लोगों को ख़िलाफ़त से नवाज़ा, उनके दीन को ग़ालिब करेगा जिसको उसने उनके लिए पसंद फ़रमाया, उनके ख़ौफ़ को अमन से बदल देगा, वो मेरी इबादत करेंगे और किसी को मेरा शरीक नहीं बनाएंगे।” (24अल-नूर-55)

नोट: इस टोपिक पर मज़ीद वज़ाहत के लिये पडिये: तरीक़ा और उस्लूब के बीच फ़र्क़
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