इस्लामी रियासत ख़िलाफ़त है, वो शख़्स जो ख़िलाफ़त के मंसब पर फ़ाइज़ होता है वो हुकूमत,
अथार्टी और क़वानीन से मुताल्लिक़ तमाम इख्तियारात का बिला तख़सीस
(exception) मालिक होता है। ख़िलाफ़त दुनिया के तमाम मुसलमानों की क़ियादत-ए-आम्मा है जो इस्लाम
के अता करदा अफ़्क़ार (विचारों) और इस्लाम के मुतय्यन करदा क़वानीन के मुताबिक़ इस्लामी
शरई अहकामात को नाफ़िज़ करती है और वो लोगों को इस्लाम के पैग़ाम से आगाह कराती है और
उसे इख़तियार करने की तरफ़ दावत देती है और अल्लाह की राह में जिहाद करती है ताकि इस्लाम
के पैग़ाम को पूरी दुनिया तक फैलाया जाये। ख़िलाफ़त को इमामत या इमारतुल मोमिनीन भी कहते
हैं। ये एक दुनियावी मंसब (ओहदा) है और इस मंसब का आखिरत की ज़िन्दगी से कोई
ताल्लुक़ नहीं है। ख़िलाफ़त का वजूद लोगों पर इस्लाम को नाफ़िज़ करने और उसे पूरी इंसानियत
तक इस्लाम को फैलाने के लिये है। ख़िलाफ़त नबुव्वत से अलग है की क्योंकि नबुव्वत और
रिसालत वो वो ओहदे हैं जिन में नबी या रसूल को वह्यी के ज़रीये अल्लाह की तरफ़ से शरीयत
अता होती है ताकि वो उसे लोगों तक पहुंचाएं; इस बात से क़ता नज़र कि उसे नाफ़िज़ किया जाता है यह नहीं। अल्लाह
(سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَـٰغُ ٱلۡمُبِينُ
“और रसूल के ज़िम्मे तो (पैग़ाम को ) साफ़ तौर पर
पहुंचा देना है
(अल-नूर: 54)
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَـٰغُ
“और आप صلى
الله عليه وسلم का काम तो सिर्फ़ (पैग़ाम को) पहुंचा देना है
(आले इमरान: 20)
और फ़रमाया:
عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَـٰغُ
“रसूल के ज़िम्मे तो ( पैग़ाम को) पहुंचा देना है
(अलमाइदा: 99)
लिहाज़ा नबुव्वत ख़िलाफ़त से मुख़्तलिफ़ है, जो कि अल्लाह की शरीयत को लोगों पर नाफ़िज़ करने का नाम है। नबी
या रसूल की नबुव्वत या रिसालत के लिये ये शर्त नहीं कि वो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल
करदा को लोगों पर नाफ़िज़ भी करे। बल्कि उनके लिये शर्त ये है कि वो इस शरीअत को क़बूल
करे जो अल्लाह ने उन पर वह्यी की है और उसे लोगों तक पहुंचाए।
इस से हम ये देख सकते हैं कि मंसबे नबुव्वत-ओ-रिसालत,
ख़िलाफ़त के मंसब से मुख़्तलिफ़ है क्योंकि नबुव्वत अल्लाह की तरफ़
से अता करदा है और अल्लाह जिसे चाहता है इस मुक़ाम पर फ़ाइज़ करता है जबकि ख़िलाफ़त एक बशरी
मंसब है और मुसलमान अपने में से जिसे चाहते हैं बैअत देते हैं और ख़लीफ़ा मुक़र्रर करते
हैं।
सय्यदना मुहम्मद صلى الله عليه
وسلم हुक्मरान थे और आप صلى الله عليه
وسلم ने अल्लाह की नाज़िल करदा शरीयत को नाफ़िज़ किया। पस आप صلى
الله عليه وسلم नबुव्वत व रिसालत के मंसब पर भी फ़ाइज़ थे और इस के साथ साथ वो मुसलमानों के हुक्मरान
भी थे ताकि वो इस्लाम के अहकामात को क़ायम करें। अल्लाह ताला ने जिस तरह उन्हें तब्लीग़
का हुक्म दिया इसी तरह हुकूमत करने का हुक्म भी दिया। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को हुक्म दिया:
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
“और अल्लाह के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़
उनके दरमियान फैसला करें
(अलमाइदा: 49)
और इरशाद फ़रमाया:
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِتَحۡكُمَ بَيۡنَ
ٱلنَّاسِ بِمَآ أَرَٮٰكَ ٱللَّهُۚ
“बिलाशुबा हम ने हक़ के साथ इस किताब को आप صلى
الله عليه وسلم पर नाज़िल किया ताकि आप صلى
الله عليه وسلم लोगों के दरमियान इस के मुताबिक़ फैसला करें जिस से अल्लाह ने
आप صلى الله عليه وسلم को शनासा किया”.
(अन्निसा : 105)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ
“ऐ रसूल صلى الله عليه وسلم जो कुछ भी आप صلى
الله عليه وسلم के रब की जानिब से आप صلى
الله عليه وسلم की तरफ़ नाज़िल किया गया,
उसे लोगों तक पहुंचा
दीजिए”
अलमाइदा: 67)
और फ़रमाया:
وَأُوحِىَ إِلَىَّ هَـٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَ
“और मेरे पास ये क़ुरआन बतौर वह्यी भेजा गया है ताकि मैं इस के ज़रीए
तुम्हें और जिस जिस को ये क़ुरआन पहुंचे,
उन सब को डराऊं
(अल अनाम: 19)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फरमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلۡمُدَّثِّرُ
( ١ ) قُمۡ فَأَنذِرۡ ( ٢ )
ऐ कपडा ओढने वाले उट्ठो और लोगों को आगाह करो
(अल मुदस्सिर
:1-2)
पस रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने क़ौल के ज़रीए अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाया
जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अल्लाह के इस
क़ौल को लोगों तक पहुंचाया:
وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰ
“और अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद
को हराम ठहराया है”
(अलबक़रा: 275)
और या फिर आप صلى الله عليه
وسلم ने अपने अमल के ज़रीए अल्लाह के पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाया
जैसा कि हुदैबिया का मुआहिदा, जो आप صلى الله عليه
وسلم ने बिना किसी हिचकिचाहट के किया। आप صلى
الله عليه وسلم अल्लाह के अहकामात में किसी से मश्वरा ना करते और लोगों
को उन पर अमल करने का क़तई हुक्म देते। हत्ता कि अगर कोई आप صلى
الله عليه وسلم को एसा मश्वरा देता जो वह्यी से टकराव रखता होता तो आप صلى
الله عليه وسلم इस की राय को पूरी तरह से मुस्तरद (अस्वीकार) कर देते और अगर कोई आप صلى
الله عليه وسلم से ऐसा हुक्म मालूम करता जिस के मुताल्लिक़ कोई वह्यी नाज़िल ना हुई होती तो आप
صلى الله عليه وسلم खामोश रहते जब
तक कि इस के मुताल्लिक़ कोई वह्यी नाज़िल ना हो जाती। जब आप صلى
الله عليه وسلم कोई अमल करते तो आप صلى
الله عليه وسلم लोगों से मश्वरा करते और जब लोगों के किसी झगडे का फैसला करते तो उन शवाहिद की
बुनियाद पर करते जो आप صلى الله عليه
وسلم के सामने पेश किये जाते और उस चीज़ की तौसीक़ (पुष्टि) ना
करते कि आया ये फैसला मुआमले की असल हक़ीक़त के मुताबिक़ है यह नहीं।
जब सूरह अल-तौबा नाज़िल हुई तो आप صلى
الله عليه وسلم ने अली बिन अबी तालिब (रज़ि) को हुक्म दिया कि वो अबू बक्र (रज़ि) की तरफ़ रवाना हो और उन से जा मिलें ताकि हज के मौसम
में लोगों को बुला कर इस सूरह को उन तक पहुंचा दें। पस अली (रज़ि) ने अराफात के मौक़े
पर ये सूरह लोगों के सामने तिलावत की। आप صلى
الله عليه وسلم उन के दरमियान घूमे यहां तक कि आप صلى
الله عليه وسلم ने इस सूरह की तब्लीग़ फरमा दी। हुदैबिया के मुआहिदे पर दस्तख़त के मौक़े पर आप صلى
الله عليه وسلم तमाम सहाबा की आरा (राय) को मुस्तरद कर दिया और उन्हें अपनी राय पर मजबूर किया
क्योंकि आप صلى الله عليه وسلم की राय अल्लाह
की तरफ़ से वह्यी करदा थी। जब जाबिर (रज़ि) ने आप صلى
الله عليه وسلم से अपनी दौलत के मुताल्लिक़ सवाल किया तो आप صلى
الله عليه وسلم ने उस वक़्त तक इस का जवाब ना दिया जब तक अल्लाह की तरफ़ से वह्यी ना आ गई जिस में
मीरास के अहकामात बयान किये गए थे। बुख़ारी ने मुहम्मद बिन अल मुनकदिर से रिवायत किया:
))سمعت جابربن عبداللّٰہ یقول:مرضت فعادني
رسول اللّٰہﷺ، وأبوبکروھما ماشیان، فأتاني وقد أُغمي عليّ، فتوضأ رسول اللّٰہﷺ فصَبَّ
عليّ وَضوء ہ فأفقت، فقلت: یارسول اللّٰہ، کیف أصنع في مالي؟کیف أقضيفيمالي؟قال:فلم
یجبنيبشیء حتی نزلت آےۃ المیراث((
“मैंने जाबिर बिन अबदुल्लाह को कहते हुए सुना;
मैं बीमार पड़ गया
तो रसूलुल्लाह मेरी इयादत के लिये आए और उन के साथ अबू बक्र (रज़ि) थे। जब वो आए तो
मैं बेहोश था। पस आप صلى الله عليه
وسلم ने वुज़ू किया और मेरे ऊपर पानी डाला तो में होश में आ गया। मैंने कहा ए अल्लाह
के रसूल صلى الله عليه
وسلم मुझे बताईए कि मैं अपनी दौलत का क्या करूँ । मैं किस तरह अपनी दौलत का फैसला करूं?
आप صلى
الله عليه وسلم मुझे कुछ जवाब ना दिया यहां तक कि मीरास की आयत नाज़िल हो गई”.
ये सब नबुव्वत-ओ-रिसालत और लोगों को तब्लीग़ करने के मुताल्लिक़ था। जहां तक हुकूमत
करने का ताल्लुक़ है तो रसूलुल्लाह ने मुख़्तलिफ़ तरीका इख़तियार किया। उहद की जंग के
मौके पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه
وسلم ने मुसलमानों को मस्जिद में जमा फ़रमाया और उन से इस बात पर मश्वरा किया कि क्या वो मदीना में रह कर लड़ना चाहते हैं यह बाहर निकल कर लड़ना
चाहते हैं। अक्सरियत की राय ये थी कि बाहर निकल कर लड़ा जाये जब कि आप صلى
الله عليه وسلم की राय ये थी कि मदीना के अन्दर रह कर मुक़ाबला किया जाये। ताहम आप صلى
الله عليه وسلم ने अक्सरियत की राय पर अमल किया और जंग के लिये मदीना से बाहर निकले। इलावा अज़ीं
जब आप صلى الله عليه وسلم लोगों के दरमियान
फैसला करते तो आप صلى الله عليه
وسلم उन्हें मुतनब्बा(सचेत) करते कि ऐसा मुम्किन है कि वो एक फ़रीक़(गिरोह) की निसबत दूसरे
फ़रीक़ के हक़ में फैसला कर दें। बुख़ारी ने उम्मे सलमा से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने अपने घर के दरवाज़े पर झगड़े की आवाज़ सुनी। आप صلى
الله عليه وسلم बाहर निकले और उन से कहा:
))إنما أنا بشر وإنہ ےأتیني الخصم،فلعل
بعضکم أن یکون أبلغ مِن بعض فأحسب أنہ صادق فأقضي لہ بذلک،فمن قضیت لہ بحق مسلم فإنما
ھي قطعۃ من النار، فلےأخذھا أولیترکھا((
बेशक मैं एक इंसान हूँ और लोग मेरे पास झगड़ा लेकर आते हैं और
इन में से बाअज़ दूसरों से चर्ब ज़बान (ज़्यादा बोलने वाले) होते हैं,
तो मैं उसे सच्चा
जान कर इस के हक़ में फैसला कर देता हूँ । तो मैंने जिस के हक़ में फैसला किया जबकि दूसरा
मुसलमान हक़ पर था, तो ये इस के हक़ में जहन्नुम का टुकड़ा है,
ख़ाह वो उसे ले
ले या छोड़ दे
अहमद ने अनस (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))۔۔۔وإني
لأرجوأن ألقی اللّٰہ ولا یطلبني أحد بمَظْلِمَۃظلمتھا إیاہ، في دم ولامال((
मैं चाहता हूँ कि क़यामत के दिन मैं इस हाल में अल्लाह से मुलाक़ात
करूँ कि कोई मेरे ख़िलाफ़ माल या ख़ून में नाइंसाफ़ी करने का दावेदार ना हो
ये इस बात की तरफ़ वाज़िह इशारा है कि आप صلى
الله عليه وسلم एक वक़्त में दो मनासिब (ओहदों) पर फ़ाइज़ थे: नबुव्वत-ओ-रिसालत और वह्यी करदा शरीयत
को नाफ़िज़ करने के लिये दुनिया के तमाम मुसलमानों की क़ियादत-ओ-हुकूमत। और आप صلى
الله عليه وسلم ने हर ज़िम्मेदारी को उस की ज़रूरत के मुताबिक़ पूरा किया और दोनों मनासिब में मुख़्तलिफ़
तरह से अमल किया। आप صلى الله عليه
وسلم ने मुसलमान मर्दों और औरतों दोनों से बैअत ली लेकिन आप صلى
الله عليه وسلم ने नाबालिग़ बच्चों से बैअत ना ली, जिस से ये ज़ाहिर होता है कि ये बैअत रिसालत पर बैअत ना थी बल्कि
ये बैअत हुकूमत थी। लिहाज़ा हम ये देख सकते हैं कि अल्लाह ताला ने इस्लाम के पैग़ाम
की तब्लीग़ और रिसालत की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के मुताल्लिक़ रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم की कभी सरज़निश (मलामत) नहीं की। बल्कि अल्लाह ताला ने आप صلى
الله عليه وسلم को तसल्ली दी कि आप صلى
الله عليه وسلم लोगों की तरफ़ से इस दावत को क़बूल ना करने पर रंजीदा ना हों क्योंकि रिसालत के मंसब
का तक़ाज़ा सिर्फ़ तब्लीग़ है और आप صلى
الله عليه وسلم के ज़िम्मे इस पैग़ाम को सिर्फ़ लोगों तक पहुंचा देना है
और बस। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
فَلَا تَذۡهَبۡ نَفۡسُكَ عَلَيۡہِمۡ حَسَرَٲتٍۚ
पस आप صلى
الله عليه وسلم उन के ग़म में घुल घुल कर अपने आप صلى
الله عليه وسلم को हलाक ना करें
(फ़ातिर: 8)
और इरशाद फ़रमाया:
وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُ فِى ضَيۡقٍ۬ مِّمَّا يَمۡڪُرُونَ
आप صلى
الله عليه وسلم उन के हाल पर रंजीदा ना हों और जो मक्र-ओ-फ़रेब ये करते हैं उन
पर दिल गिरिफ़ता ना हों
(अलनहल: 127)
और फ़रमाया:
إِنۡ عَلَيۡكَ إِلَّا ٱلۡبَلَـٰغُۗ
आप صلى
الله عليه وسلم के ज़िम्मे तो बस ये है कि आप صلى
الله عليه وسلم (पैग़ाम) लोगों तक पहुंचा दें
(अश्शूरा: 48)
लेकिन हुकूमत की ज़िम्मेदारीयों की अंजाम दही के मुआमले में अल्लाह ताला ने रसूलुल्लाह
صلى الله عليه وسلم को हल्की सरज़निश
की। ये तनबीह (चेतावनी) इन अहकामात के निफ़ाज़ से मुताल्लिक़ अफ़आल पर थी जो अल्लाह आप
صلى الله عليه وسلم पर नाज़िल कर चुका
था और आप صلى الله عليه وسلم उस की तब्लीग़ फरमा चुके थे। अल्लाह ने खिलाफ-ए-ऊला अमल करने पर आप
صلى الله عليه وسلم को हल्के अंदाज़ में सरज़निश की। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इरशाद फरमाया
مَا كَانَ لِنَبِىٍّ أَن يَكُونَ لَهُ ۥۤ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ
فِى ٱلۡأَرۡضِۚ
और नबी صلى
الله عليه وسلم के लिये (मुनासिब)
ना था कि वो ( कुफ़्फ़ार को ) असीर बनाते जब तक कि वो ज़मीन पर अच्छी तरह उन का ख़ून ना
बहा लेते
(अल अनफ़ाल: 67)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
عَفَا ٱللَّهُ عَنكَ لِمَ أَذِنتَ لَهُمۡ
अल्लाह आप صلى
الله عليه وسلم को माफ़ करे , आप ने क्यों उन्हें इजाज़त दे दी
(अत्तोबा: 43)
ये इस बात को वाज़िह करता है कि मंसब-ए-नबुव्वत मुसलमानों की क़ियादत व हुक़ूमत
के मंसब से मुख़्तलिफ़ (भिन्न) है ।
और इस से ये भी वाज़िह हो जाता है कि मंसबे ख़िलाफ़त एक दुनियावी मंसब (ओहदा) है और ये
इल्हामी मंसब नहीं और ये कि ख़िलाफ़त ,जो तमाम दुनिया के मुसलमानों की क़ियादत-ओ-हुक्मरानी का नाम है,
एक बशरी मंसब है और ये ख़ुदाई मंसब नहीं । ये हुकूमती मंसब है
जिस पर रसूलुल्लाह फाईज़ हुए और फिर आप صلى
الله عليه وسلم उसे मुसलमानों के लिये छोड़ गए और ये फ़र्ज़ क़रार दिया कि
उन के बाद मुसलमान अपने में से ख़लीफ़ा चुनें; जो आप صلى الله عليه
وسلم के बाद हुकूमत में मुसलमानों का ख़लीफ़ा होगा ना कि वो नबुव्वत
में आप صلى الله عليه وسلم का क़ाइम मक़ाम हो।
पस ख़िलाफ़त मुसलमानों की क़ियादत के लिहाज़ से रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم की जानशीनी का मंसब है ताकि इस्लाम के अहकामात को नाफ़िज़ किया जाये और दावत की ज़िम्मेदारी
को सरअंजाम दिया जाये और ये वह्यी के पहुंचने
और अल्लाह की तरफ़ से शरीअ वसूल करने के लिहाज़ से रसूलुल्लाह की जानशीनी का मंसब नहीं
है।
जहां तक रसूलुल्लाह की इस्मत (गुनाहों से मुबर्रा) होने का ताल्लुक़ है तो आप صلى
الله عليه وسلم की ये इस्मत बहैसियत नबी है ना कि बहैसियत हुक्मरान । क्योंकि इस्मत ऐसी सिफ़त है
जिस से तमाम अंबिया रसूल मुत्तसिफ़ (सिफत रखते थे)
इस बात से क़ता नज़र कि उन्होंने बज़ात-ए-ख़ुद लोगों पर अपनी शरीयत
की बुनियाद पर हुकूमत की और उसे नाफ़िज़ किया या फिर उन्होंने सिर्फ़ लोगों को शरीयत की तब्लीग़
फ़रमाई और उन्हें हुकूमत का मंसब हासिल ना था और ना ही उन्होंने शरीयत को नाफ़िज़ किया।
लिहाज़ा सय्यदना मूसा (अलैहिस्सलाम), सय्यदना ईसा (अलैहिस्सलाम) और सय्यदना इब्राहीम
(अलैहिस्सलाम) इसी तरह मासूम थे जिस तरह सय्यदना मुहम्मद صلى
الله عليه وسلم मासूम थे।
पस गुनाहों से पाक होना नबुव्वत-ओ-रिसालत का तक़ाज़ा है ,
हुकूमत का नहीं। ये हक़ीक़त कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने हुकूमत की ज़िम्मेदारीयों के दौरान कभी कोई हराम अमल नहीं किया और ना ही किसी
वाजिब में कोई कोताही बरती, तो ये इस वजह से था कि आप صلى
الله عليه وسلم बहेसीयत नबी-ओ-रसूल मासूम थे। और ये इस वजह से नहीं था कि आप صلى
الله عليه وسلم हुक्मरान थे। लिहाज़ा हुक्मरानी का काम सरअंजाम देने के लिये आप صلى
الله عليه وسلم का मासूम अनिल-ख़ता होना ज़रूरी ना था ताहम
आप صلى الله عليه وسلم इस वजह से गुनाह-ओ-मासियत
से पाक थे क्योंकि आप صلى الله عليه
وسلم नबी और रसूल थे। चुनांचे आप صلى
الله عليه وسلم ने बशरी हैसियत में दीगर इंसानों की मानिंद हुक्मरानी का
काम सरअंजाम दिया और क़ुरआन ने सरीहन ये बयान किया है कि आप صلى
الله عليه وسلم एक इंसान थे। अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۟ بَشَرٌ۬ مِّثۡلُكُمۡ
कह दीजिए, कि मैं तुम लोगों की तरह एक इंसान ही हूँ
(अलकहफ़: 110)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इसी आयत में आप صلى
الله عليه وسلم और दूसरे इंसानों के दरमियान फ़र्क़ को वाज़िह कर दिया है
। चुनांचे इरशाद फ़रमाया
يُوحَىٰٓ إِلَىَّ
(लेकिन) मेरी तरफ़ वह्यी की जाती है
(अलकहफ़: 110)
यानी वो फ़र्क़ ये है कि आप صلى الله عليه
وسلم पर वह्यी नाज़िल होती थी, गोया बहैसियत नबी आप صلى
الله عليه وسلم मुख़्तलिफ़ थे इस के इलावा आप صلى
الله عليه وسلم बाक़ी इंसानों की तरह एक इंसान ही थे। पस हुक्मरानी में आप
صلى الله عليه وسلم बाक़ी इंसानों की तरह एक इंसान थे और आप صلى
الله عليه وسلم के खुलफा भी बिलाशुबा बाक़ी इंसानों की मानिंद इंसान थे क्योंकि वो हुकूमत में आप
صلى الله عليه وسلم के जानशीन थे ना
कि नबुव्वत व रिसालत में। इसलिये ख़लीफ़ा का मासूम अनिल ख़ता होना शर्त नहीं क्योंकि हुक्मरानी
के लिये मासूम होना लाज़िमी नहीं और मासूम होना सिर्फ़ नबुव्वत का ही तक़ाज़ा है।
ख़लीफ़ा सिर्फ़ एक हुक्मरान होता है और बस। लिहाज़ा इस ओहदे पर फ़ाइज़ होने वाले शख़्स
के लिये इस्मत की शराइत का होना बेमहल है । बल्कि हुक्मरान के लिये इस्मत की शर्त आइद
करना जायज़ ही नहीं क्योंकि इस्मत का होना सिर्फ़ अंबिया के साथ मख़सूस है और अंबिया के इलावा किसी और के लिये मासूम होने का दावा करना
जायज़ नहीं। क्योंकि अंबिया और रसूलों के लिये इस्मत शरीयत की तब्लीग़ की वजह से है
गोया ये शरीयत की तब्लीग़ में किसी ख़ता से पाक होना है। तब्लीग़ में किसी भी किस्म की
ख़ता से पाक होना हर तरह के गुनाहों से पाक होना है क्योंकि इस्मत के कामिल होने का
तक़ाज़ा ये है कि अंबिया गुनाहों से मुबर्रा
(बरी) हों।
अबिया का गुनाहों से पाक होना अल्लाह के पैग़ाम की तब्लीग़ की बिना पर है ना कि इस
नुक़्ता की बुनियाद पर कि लोग उन पर ईमान लाते हैं या नहीं या ये कि वो अपने अमल में ग़लती कर सकते
हैं या नहीं। क्योंकि ज़रूरी चीज़ ये है कि वो तब्लीग़ में कोई ख़ता ना करें और बस। अगर
अल्लाह ताला ने उन्हें इस्मत की सिफ़त अता ना की होती तो ऐसा मुम्किन था कि वो अल्लाह
के पैग़ाम को छुपा लेते या इस में अपनी तरफ़ से कुछ इज़ाफ़ा कर लेते या इस में से कुछ बयान
ना करते या अल्लाह के साथ झूटी बात को मंसूब करते या इस पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाने
में ग़लती कर जाते और कोई इसी बात कह देते जो तब्लीग़ का हिस्सा ना हो। ये सब बातें
अल्लाह के पैग़ाम की तब्लीग़ के मुनाफ़ी हैं और नबी या रसूल होने के मुनाफ़ी हैं,
जिस पर ईमान लाना वाजिब है। लिहाज़ा ये ज़रूरी था कि अंबिया और रसूल अल्लाह के पैग़ाम की तब्लीग़ में मासूम
हों जिस का लाज़िमी मतलब ये है कि वो हर किस्म
के गुनाहों से पाक हों।
औलमा ने इस अम्र (बात) पर इख्तिलाफकिया है कि अंबिया गुनाहों से पाक होते हैं या
नहीं। बाअज़ औलमा ने ये कहा कि अंबिया और रसूल कबीरा गुनाहों के इर्तिकाब से पाक होते
हैं और ये मुम्किन है कि कोई सगीरा गुनाह उन से सरज़द हो जाये और बाअज़ औलमा ने कहा कि
वो कबीरा और सगीरा दोनों तरह के गुनाहों से पाक होते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिये
ज़रूरी है क्योंकि तब्लीग़ का इन्हिसार उन के आमाल पर है। अगर तब्लीग़ की कामलीयत अंबिया
और रसूल के अफ़आल पर मुनहसिर (निर्भर) है तो फिर ये लाज़िम है कि उन के अफ़आल भी इस्मत-ए-तब्लीग़
में शामिल हो और अंबिया अपने अफ़आल में गुनाहों से मुबर्रा हों । क्योंकि तब्लीग़ की
कामलीयत इस के बगैर मुम्किन नहीं कि अंबिया अपने आमाल में गुनाहों से पाक हों लेकिन
जब तब्लीग़ को पूरा करने का दारो मदार इन अफ़आल पर ना हो तो फिर वो अफ़आल इस्मत के दायरे
में शामिल ना होगा। और वो इन अफ़आल में ख़ता से पाक नहीं होगा क्योंकि तब्लीग़ का काम
इस अमल के बगैर ही पूरा हो गया। यही वजह है कि मुसलमानों के दरमियान इस बात पर कोई
इख्तिलाफनहीं कि नबी صلى
الله عليه وسلم खिलाफे ऊला अमल करने से मासूम ना थे क्योंकि तब्लीग़ की तकमील का दारो मदार इस बात
पर नहीं।
लिहाज़ा गुनाहों से पाक होना सिर्फ़ तब्लीग़ के साथ मख़सूस है चुनांचे अंबिया और
रसूल के अलावा कोई और इस ख़ुसूसियत का मालिक नहीं और किसी और के लिये इस का होना क़तअन
जायज़ नहीं। ताहम अंबिया की इस्मत की दलील एक अक़्ली दलील है और ये किसी शरई नस की बुनियाद
पर नहीं। क्योंकि अक़्ल ये शर्त आइद करती है कि अंबिया और रसूल,
अल्लाह के पैग़ाम की तब्लीग़ में खताओं से पाक हों। पैग़म्बर
और रसूल होना मासूमियत का तक़ाज़ा करता है वरना नबी या रसूल नहीं हो सकते। और ये भी मबनी
बर अक़्ल है कि जिस शख़्स को अल्लाह ने अपने पैग़ाम की तब्लीग़ के लिये मामूर नहीं किया
,इसके लिये गुनाहों से मासूम होना जायज़ नहीं। क्योंकि तमाम इंसानों
को अल्लाह ताला ने इस फ़ित्रत पर पैदा किया है कि उन से ख़ता व भूल सरज़द होते हैं और
चूँकि अल्लाह ने उन्हें मुक़ाम-ए-नबुव्वत व
रिसालत पर फ़ाइज़ नहीं किया लिहाज़ा कोई ऐसी वजह नहीं जो इस बात का तक़ाज़ा करे कि वो गुनाहों
से मासूम हों। अगर कोई शख़्स ये दावा करता है कि वो मासूम अनिल ख़ता है तो इस का मतलब
ये होगा कि वो अल्लाह की तरफ़ से पैग़ाम लेकर आया है जो कि जायज़ नहीं क्योंकि रसूलुल्लाह
के बाद कोई नबी नहीं। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
وَلَـٰكِن رَّسُولَ ٱللَّهِ وَخَاتَمَ ٱلنَّبِيِّـۧنَۗ
लेकिन आप صلى
الله عليه وسلم अल्लाह के रसूल हैं और नबुव्वत का इख़्तेताम करने वाले हैं
(अल अहज़ाब: 40)
लिहाज़ा इस्मत का दावा करना दरअसल नबुव्वत का दावा करना है। क्योंकि नबी अल्लाह
की तरफ़ से लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाता है और चूँकि वो बशर होने के नाते अल्लाह
के पैग़ाम को पहुंचाने में ख़ता कर सकता है लिहाज़ा अल्लाह के पैग़ाम में तग़य्युर-ओ-तबद्दुल
से महफ़ूज़ रखने के लिये अंबिया का मासूम अनिल ख़ता होना ज़रूरी है और यही वो सबब है जिस
की वजह से इस्मत अंबिया और रसूल की सिफ़ात में
से एक सिफ़त होती है और सिर्फ़ वही इस्मत की
ख़ुसूसियत के मुक़तज़ी होते हैं। अगर कोई शख़्स मासूम अनिल ख़ता होने का दावा करे तो गोया
वो इस्मत की वजह और मक़सद का दावा कर रहा है यानी तब्लीग़-ए-रिसालत ,यानी वो इस बात का दावा कर रहा है कि उसे अल्लाह की तरफ़ से अल्लाह
के पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाने पर मामूर किया गया है। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के लिये मासूम
अनिल ख़ता की शर्त आइद करना दुरुस्त नहीं क्योंकि इस के लिये ये शर्त मुक़र्रर करने
का मतलब ये है कि उसे तब्लीग़ और रिसालत के मंसब पर फ़ाइज़ किया गया है जिस की वजह से
इस के लिये मासूम होना लाज़िमी है, और ये अम्र जायज़ नहीं।
ये सब इस बात को वाज़िह करता है कि ख़लीफ़ा एक बशर होता है और वो ख़ताएं और गुनाह कर
सकता है और ये मुम्किन है कि इस से भूल चूक, गलती और गुनाह सरज़द हो और ये कि वो झूट ,
ख़ियानत और मासियत और दीगर बातों का इर्तिकाब करे। क्योंकि वो
एक आम इंसान है और वो नबी नहीं और ना ही वो रसूल है । रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने हमें इस बात की ख़बर दी कि इमाम ग़लती कर सकता है जैसे उन्होंने ये भी बताया
कि इमाम ऐसा अमल कर सकता है जिस से लोग नफ़रत करें और इस पर लानत करें जैसे कि ज़ुल्म,
मासियत या ऐसी कोई और बात । बल्कि आप صلى
الله عليه وسلم ने यहां तक बताया कि इस से सरिह कुफ्र का ज़हूर भी मुम्किन है। मुस्लिम ने अबूहरैरह
(رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))إنماالإم جُنَّۃ یقاتل من وراۂ
وےُتقی بہ، فإن أمربتقوی اللّٰہ عزوجل وعدل کان لہ بذلک أجر وإن ےأمر بغیرہ کان علیہ
منہ((
बेशक ख़लीफ़ा ढाल है जिस के पीछे से लड़ा जाता है और इसी के ज़रीये
तहफ़्फ़ुज़ हासिल होता है। पस अगर वो तक़वे का हुक्म दे और अदल-ओ-इंसाफ़ करे तो उसे इस
के मुताबिक़ अज्र होगा और अगर वो इस के इलावा हुक्म दे तो उसी क़दर इस पर वबाल होगा
साबित ये हुआ कि ऐसा मुम्किन है कि इमाम तक़वा के बरख़िलाफ़ हुक्म दे। मुस्लिम ने
अब्दुल्लाह (رضي
الله عنه) से रिवायत किया
कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه
وسلم ने इरशाद फ़रमाया
))إنھا ستکون بعدي أثرۃ وأمور
تنکرونھا قالوا:یارسول اللّٰہ کیف تأمر من أدرک منا ذلک؟ قال: تؤدون الحق الذي علیکم،
وتسألون اللّٰہ الذيلکم((
अनक़रीब मेरे बाद हुक़ूक़ तलफ़ किये जाएंगे और ऐसे उमूर होंगे जिन्हें
तुम ना पसंद करोगे (सहाबा (رضی
اللہ عنھم)) ने कहा: हम में से जो वो ज़माना पाए आप صلى
الله عليه وسلم उन्हें क्या हुक्म देते हैं। आप صلى
الله عليه وسلم ने जवाब दिया: तुम पर किसी का जो हक़ हो उसे अदा करना और अपने
हुक़ूक़ अल्लाह से मांगते रहना
मुस्लिम ने औफ़ बिन मालिक (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))خیار أئمتکم الذین تحبونھم ویحبونکم
وےُصلّون علیکم وتُصلّون علیھم وشرار أئمتکم الذین تبغضونھم ویبغضو نکم، وتلعنونھم
ویلعنونکم، قیل:یارسول اللّٰہ أفلا ننابذھم بالسیف؟فقال:لا، ما أقاموا فیکم الصلاۃ،
وإذا رأیتم من ولا تکم شےئاً تکرھونہ، فاکرھونہ، فاکرھوا عملہ، ولاتنزعوا یداً من طاعۃ((
तुम्हारे लिए बेहतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम मुहब्बत करो और
वो तुम से मुहब्बत करें। वो तुम्हारे लिए दुआएं करें और तुम उन के लिए दुआएं करो और
तुम्हारे बदतरीन इमाम वो होंगे जिन से तुम नफ़रत करो और वो तुम से नफ़रत करें और तुम
उन पर लानत करो और वो तुम पर लानत करें । कहा: ए अल्लाह के रसूल صلى
الله عليه وسلم ! हम उन्हें तलवार से निकाल बाहर ना करें । आप صلى
الله عليه وسلم ने फ़रमाया: नहीं,
जब तक कि वो तुम्हारे
दरमियान नमाज़ को क़ायम रखें। ख़बरदार! अगर तुम अपने हुक्मरान में कोई इसी चीज़ देखो
जिस से तुम नफ़रत करते हो , तो इस अमल से नफ़रत करो लेकिन इताअत से हाथ मत खींचो
बुख़ारी ने जुनादा बिन अबी उमय्या से रिवायत किया,
जो बयान करते हैं: हम उबादा बिन सामित (رضي
الله عنه) के पास गए जब वो बीमार थे,
हम ने उन से कहा, अल्लाह आप की बेहतरी
करे ,
हमें रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم की हदीस सुनाएं
जिस से अल्लाह आप को नफ़ा बख़्शे। आप ने कहा:
))دعاناالنبیﷺ فبایعناہ فقال فیما أخذ
علینا أن بایعَنا علی السمع و الطاعۃ فی منشطنا و مکرھنا و عسرنا و یسرنا و أثرۃ علینا
و أن لا ننازع الأمر أہلہ قال : الا أن ترو کفراً بَواحاً عندکم من اللّٰہ فیہ برہان((
रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने हमें बुलाया और हम ने आप صلى
الله عليه وسلم को बैअत दी। वो उमूर जिन पर आप صلى
الله عليه وسلم ने हम से बैअत ली (वो ये थे): हम बैअत करते हैं कि हम तंगी और
आसानी में, पसंद और नापसंद में और अपने ऊपर तरजीह दिये जाने में (यानी हर
हालत में) सुनें और इताअत करेंगे, और ये कि हम अहल-ए- अम्र (हाकिम) से तनाज़ा ना करेंगे। आप صلى
الله عليه وسلم ने कहा: मगर ये कि तुम उन की तरफ़ से कुफ्रे बुवाह (वाज़िह कुफ्र
) देखो जिस के मुताल्लिक़ तुम्हारे पास अल्लाह की बुरहान (वाज़िह दलील ) मौजूद हो
तिरमिज़ी ने आयशा (رضي
الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))ادرأوا الحدود عن المسلمین ما استطعتم،
فإن کان لہ مخرج فخلوا سبیلہ۔ فإن الإمام أن یخطئ في العفو خیر من أن یخطئ في العقوبۃ((
जिस हद तक मुम्किन हो सके लोगों पर से हदूद की सज़ाओं को टालो।
फिर अगर मुजरिम की रिहाई की कोई सूरत हो तो उसे छोड़ दो। इस लिये कि अगर इमाम दरगुज़र
करने में ग़लती करे तो ये बेहतर है इस बात से कि वो सज़ा देने में ग़लती करे ।
ये अहादीस इस बात को सरिह तौर पर बयान कर देती हैं कि इमाम के लिये ये मुम्किन
है कि वो ग़लती करे या वो भूल जाये या वो मासियत का काम करे। इस के बावजूद रसूलुल्लाह
صلى الله عليه وسلم ने ये इरशाद फ़रमाया
कि उस की इताअत की जाये जब तक कि वो इस्लाम को नाफ़िज़ करता रहे और इस से कुफ्रे बुवाह
का ज़हूर ना हुआ हो और वो मासियत का हुक्म ना दे। तो क्या रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم की इन अहादीस के बाद भी कुछ कहा जा सकता है जिन में आप صلى
الله عليه وسلم खुलफा के मुताल्लिक़ ख़बर दी कि उन से ऐसी बातें रौनुमा होंगी जिस का मुसलमान इनकार
करेंगे और इस के बावजूद आप صلى الله عليه
وسلم ने उन की इताअत करने का हुक्म दिया। क्या इसके बाद भी ये कहना मुम्किन है कि ख़लीफ़ा
को ख़ता और गुनाहों से बरी होना चाहिये और उसे दीगर इंसानों से मुख़्तलिफ़ होना चाहिये?
ये वाज़िह है कि रियासत-ए-ख़िलाफ़त एक इंसानी रियासत होती है और
ये रियासत इलाहिया नहीं होती।
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