मतलूबा जमात की सिफ़ात क्या हों/CHARACTERISTICS OF THE REQUIRED GROUP :
जी हाँ ऐसी जमात या जमातों को वजूद में लाना शरअ के तहत फ़र्ज़ है जो ख़िलाफ़त के क़याम के ज़रीये दुबारा इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम करें । इस हुक्म की दलालत निम्न लिखित आयते-करीमा करती है:وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ
وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُون﴾َ {3:104}
“तुम में एक जमात ज़रूर ऐसी होनी चाहिए जो ख़ैर (इस्लाम) की तरफ़ दावत दे और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर करे और यही लोग कामयाब हैं ।”
इस आयत में अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानों पर इज्तिमाई फ़र्ज़ क़रार दिया है कि इनमें कम अज़ कम एक जमात ज़रूर ऐसी मौजूद हो जिसका काम अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर हो। आयत में निम्न लिखित तलबे जाज़िम (यानी शरअ से हकमीया फ़रमान/imperative command) है
”ولتکن“
“ज़रूर मौजूद हो”
ये हुक्म तमाम मुसलमानों पर एक फ़रीज़ा है और इसके फ़र्ज़ होने की वजह दावत और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर के काम का मुसलमानों पर फ़र्ज़ होना है और
”منکم“
“तुम में से”
ये शरई क़रीना है जिसमें से (ताबीज़/partative/विभाजक) बाज़ीयत का मफ़हूम निकलता है यानी बाअज़ अफ़राद इस ज़िम्मेदारी को अंजाम दें, इससे से मालूम हुआ कि अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर फ़र्ज़े किफ़ाया है और उसे व्यक्तिगत तौर पर अंजाम देना हर फ़र्द की ज़ाती इस्तिताअत में नहीं है, क्योंकि इसके लिए इल्म, वाक़्फीयत और हिक्मत की ज़रूरत होती है जो हर किसी में मौजूद नहीं होती। इस वजह से लफ़्ज़ ”امة“का मतलब यहां मुसलमानों में से एक गिरोह है ना कि तमाम मुसलमान उम्मत । क़ुरआन में ”امة“का लफ़्ज़ लोगों की एक जमात इस माअनी में इस्तिमाल हुआ है जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मूसा (علیہ ا لسلام) के बारे में फ़रमाया:“तुम में से”
﴿وَلَمَّا وَرَدَ مَاء مَدْيَنَ وَجَدَ عَلَيْهِ أُمَّةً مِّنَ النَّاسِ يَسْقُونَ﴾ {28:23}
“और जब (मूसा علیہ ا لسلام) मदयन के पानी पर पहुंचा तो वहां लोगों की एक जमात दिखाई दी जो अपने जानवरों को पानी पिला रहे थे ।”
चुनांचे ऊपर बयान हुई आयत में जमात से मुराद कोई आम जमात नहीं बल्कि मुसलमानों की एक ऐसी जमात है जिसकी ज़िम्मेदारी भी इस आयते-करीमा में बयान करदी गई है यानी उसका काम अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर और ख़ैर की तरफ़ दावत करना है। आयत के बयान में शामिल हुक्मरान हैं क्योंकि हक़ीक़ी माअनों में हाकिम ही हर मारूफ़ और हर मुनकर के वजूद के लिए बुनियादी वजह होते हैं और अपनी क़ुव्वत से वो चाहें तो मारूफ़ फैलायें या अपनी क़ुव्वत से वो मुनकर फैला सकते हैं । मुस्लिम हुक्मरान या तो अपनी रियाया के मामलात की निगरानी इस्लाम और शरई अहकामात के मुताबिक़ करेगा या वो ऐसा ना करके इस्लामी अहकामात में कोताही का मुर्तक़ब होगा, जिस पर उसका मुहासिबा करना यानी हाकिम पर अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर किया जाना फ़र्ज़ है। चुनांचे मालूम हुआ कि ये जमात सियासी होगी क्योंकि इसके काम का ताल्लुक़ हुक्काम से है। अगर हुक्मरान मौजूद ही नहीं हो तो इस जमात का काम शरअ की तरफ़ से निर्धारित तरीक़े से शरई हुक्मरान को वजूद में लाना है और अगर शरई हुक्मरान मौजूद हैं लेकिन हक़ से किनाराकशी कर रहे हैं तो जमात का काम इसकोताही पर उनका मुहासिबा करना है। ख़ुद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने हुकमरानों के साथ इस फ़रीज़े का ताल्लुक़ और उसकी एहमीयत को यूं बयान फ़रमाया:
((و الذي نفسي بيده لتأمرن بالمعروف ولتنهون عن المنكر أو ليوشكن الله أن يبعث عليكم عقاب من عنده، ثم لتدعنه فلا يستجيب لكم))۔
“उस ज़ात की क़सम जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है तुम ज़रूर बिल ज़रूर अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करोगे वरना इस बात का ख़ौफ़ है कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) तुम पर अपनी जानिब से एक अज़ाब भेज दे, फिर तुम दुआएं मांगोगे लेकिन तुम्हारी दुआएं क़बूल नहीं होंगी ।”(अहमद तिर्मीज़ी)
रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
((سيد الشهداء حمزة بن عبد المطلب ورجل قام إلى إمام جائر فأمره و نهاه فقتله))۔
“शुहदा के सरदार हम्ज़ा (رضي الله عنه) बिन अबदुल-मुत्तलिब हैं और वो शख़्स जो जाबिर हुक्मरान के सामने खड़े होकर अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर करे और वो हुक्मरान उसको क़त्ल कर डाले ।”(अल-हाकिम)
और फ़रमाया:
((مروا بالمعروف وانهوا عن المنكر قبل أن تدعوا فلا يستجاب لكم))۔
“अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करो इससे पहले कि तुम दुआएं मांगो लेकिन तुम्हारी दुआएं क़बूल ना की जाएं ।” (इब्ने माजा)
मज़ीद फ़रमाया:
، قلنا لمن؟قال: ((لله عز وجل و لرسولهولأئمة المسلمين و عامتهم))۔
“दीन नसीहत है। हमने कहा किस की? फ़रमाया: अल्लाह (عزوجل), रसूलुल्लाह, मुसलमानों के आइमा और आम मुसलमानों की ।” (मुस्लिम)यही वजह है कि इस जमात का काम ख़ैर की तरफ़ दावत देने के अलावा अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर है । इस अज़ीम ज़िम्मेदारी का एक हिस्सा हुक्मरान का मुहासिबा करना या शरअ के मुताबिक़ ऐसे हाकिम को वजूद में लाना है चुनांचे ये एक सियासी काम है क्योंकि इसका ताल्लुक़ हुक्काम से है। लिहाज़ा पिछली आयत ऐसी सियासी एहज़ाब या जमातों की मौजूदगी फ़र्ज़ क़रार देती है जो इस्लाम की बुनियाद पर क़ायम हों ।
ये हक़ीक़त है कि दीन में ऐसे बेशुमार अहकामात मौजूद हैं जो ख़लीफ़ा के वजूद से जुड़े हुए हैं जिनकी वजह से ख़लीफ़ा की मौजूदगी और ख़लीफ़ा को वजूद में लाने के लिए ख़िलाफ़त के क़याम की ख़ातिर काम करना फ़र्ज़ हो जाता है, इस फ़र्ज़ के नतीजे में ऐसी जमात की मौजूदगी भी फ़र्ज़ हो जाती है जो इस शरई फ़र्ज़ को अदा करने के लिए काम करे । ये तमाम इस शरई क़ायदा के आधार पर है :
مالا اسم الواجب فهوبه واجب۔
“जिसके बगै़र फ़र्ज़ अदा नहीं हो सकता तो वो भी फ़र्ज़ है ।”
ऊपर बयान हुई आयत अस्लन मदनी आयत है जो इस्लाम की बुनियाद पर सियासी
जमातों को क़ायम करने और उनकी मौजूदगी के फ़र्ज़ होने की दलालत करती है, आयत
में इस जमात पर किस किस्म की ज़िम्मेदारी है उसको भी बयान कर दिया है जो
कि ख़ैर की तरफ़ दावत और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर है । चूँकि लफ़्ज़
“अल-खैर”, “अल-मारूफ़” और “अल-मुनकर” में “अल” (definite article) मौजूद है
जो जतलाता है कि फे़अल की दरकार जिन्स कुल (whole gender) है लिहाज़ा
“अल-ख़ैर” यानी तमाम ख़ैर (पूरे इस्लाम की ख़ैर ना कि जुज़वी ख़ैर) और
“अल-मारूफ़” और “अल-मुनकर” जिसमें तमाम मारूफ़ात और तमाम ही मुनकिरात शामिल
हैं लिहाज़ा इस जमात का मुकम्मल इस्लाम की दावत देना और इस्लाम के तमाम
मारूफ़ात का हुक्म देना और तमाम मुनकिरात से रोकना मतलूब है। “अल” इशारा है
जिसकी मौजूदगी से काम की जिन्स और नौईयत मालूम होती है कि इस जमात से क्या,
कितना और किस किस्म का काम मतलूब है ।
जुमला के एतबार से आयत में उमूमीयत (generality) है जो हुक्म में तमाम अफ़राद को शामिल करती है। लेकिन ज़िम्मेदारी अंजाम देने के ताल्लुक़ से उसे कम या ज़्यादा अफ़राद हासिल कर सकते हैं चुनांचे तमाम ही किस्म के लोग इस हुक्म में शामिल हैं यानी अफ़राद, जमातें और हुक्मरान । हुक्म को अंजाम देने से संबधित कम या ज़्यादा अफ़राद की छूट शरअ ने हुक्म की हक़ीक़त को मद्दे-नज़र रख कर निर्धारीत की है जिसकी प्राप्ति के लिए ये जमात क़ायम हुई है। ये राय निजी शौक़ के आधार पर और बेसबब या धुन्धली (arbitrarily or vaguely) नहीं है बल्कि उसे साफ़ वाज़ेह कर दिया गया है कि अगर ज़िम्मेदारी से रुख़ मोड़ लिया गया हो तो फ़िर इस मामले को लाज़िमी तौर पर दरुस्त करने की जद्दो-जहद करना ज़रूरी है। ऐसी जमातों को नसीहत करना लाज़िम है ताकि वो अपने इन्हिराफ़ को महसूस कर सके और गुमराही में घिर जाने से रुक जाएं । चुनांचे ये मामला भी दूसरे शरई मामलात की तरह है जिसको अक़्ल, हालात या मस्लिहत (personal benefit) की ख़ातिर दुबारा तशरीह के लिए हरगिज़ आज़ाद नहीं छोड़ दिया गया है ।
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