जमीअते ओलमाए हिंद का दूसरा इजलास, 19, 20, 12 नवंबर 1920 को दिल्ली में हुआ, जिसके ख़ुतबा सदारत में दर्ज जे़ल बातें शामिल की गई।

जमीअते ओलमाए हिंद का दूसरा इजलास, 19, 20, 12 नवंबर 1920 को दिल्ली में हुआ, जिसके ख़ुतबा सदारत में दर्ज जे़ल बातें शामिल की गई।
1 :    इस्लाम और मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्‍मन अंग्रेज़ है जिससे तर्के मुवालात फ़र्ज़ है।
2 :    तहफ़्फ़ुज़े मिल्लत (उम्‍मत की रक्षा) और तहफ़्फ़ुज़े ख़िलाफ़त (खिलाफत की रक्षा) ख़ालिस इस्लामी मुतालिबे (मांग) हैं। अगर बिरादराने वतन (गैर-मुस्लिम क़ौमए) इस में हमदर्दी और इआनत करें तो जायज़ और मुस्तहिक़ शुक्रिया हैं।

मौलाना हफ़ीज़ अलरहमान साहिब वासिफ़ तारीख़ जमीअते ओलमा पर एक तारीख़ी तबसरा में सफ़ा 44 पर लिखते हैं :

नवंबर 1919 में ख़िलाफ़त कांफ्रेंस की तक़रीब से हिंद के तमाम खित्तों के ओलमा की एक मुक़तदिर जमाअत जमा हो गई। ख़िलाफ़त कान्फ़्रैंस के इजलासों से फारीग होने के बाद तमाम ओलमा मौजूद ने एक जलसा मुनाक़िद किया जिसमें सिर्फ़ ओलमा हज़रात ही शरीक थे। मौलाना अबुल वफा सनाउल्लाह साहिब की तेहरीक और मौलाना मेज़ुज़्ज़मां साहिब और दीगर हाज़िरीन की ताईद में जनाब फ़ाज़िल अल्लामा हज़रत मौलाना अब्दुल बारी साहिब इस जलसे के सदर क़रार पाए और कार्रवाई शुरू हुई। तमाम हाज़रीने जलसा ने आपस में इत्तिफ़ाक़ करके तय कर लिया कि जमीअत क़ायम की जाये और इसका नाम जमीअत उलमाए हिंद रखा जाये। तमाम हाज़िरीन ने उसी वक़्त जमीअत की रुकनीयत मंज़ूर कर ली और जमीअते ओलमा हिंद क़ायम हो गई।

6 सितंबर 1920 को जमीअत का इजलास हुआ जिसमें पाँच सौ ओलमाओं के दस्तख़त से तर्के मुवालात का फ़तवा शाया हुआ। ये फ़तवा मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहिब नायब अमीर शरीयत बिहार ने लिखा था।

उलमाए सूबाऐ मुत्तहिदा का अज़ीमुश्‍शान जलसा
5, 6, April 1920 को उलमाए सूबाऐ मुत्तहिदा का एक अज़ीमुश्‍शान जलसा तमाम ओलमा को मसलाऐ ख़िलाफ़त पर मुजतमा (एक) करने के लिए मुनाक़िद हुआ। अक्सर ओलमा व अवाम शरीक हुए। इस जलसा में निम्‍नलिखित तजावीर मंज़ूर हुई:

1 : ओलमा फ़ौरन मसला ख़िलाफ़त में राय आम्मा (जनमत) की तैय्यारी के लिए काम करें।
2 : मुख़ालिफ़ व मुनाफ़िक़ ओलमा का मुक़ातआ (बायकाट) किया जाये।
3 : ओलमा जान और दिल, तक़रीर और तहरीर से मसलाऐ ख़िलाफ़त की ताईद (पैरवी) करने का वाअदा अपने मुरीदों और तमाम मुरीदों से लें।
4 : मुसलमान आइनी इस्तिलाहात के तहत (संविधान के नाम से) होने वाले इंतिख़ाब से अपने आपको अलग रखें।
मुसलमानों का ताल्लुक़ ख़िलाफ़त के साथ
हिंदुस्तान के मुसलमान ख़िलाफ़त के लिए अपनी जान माल से इसके साथ थे। जब 1897 में यूनान ने ख़िलाफ़त के साथ जंग शुरू की तो मुसलमानाने हिंद ने उस वक़्त भी चंदा करके तुर्कों की मदद की थी। 1912 में जब जंगे बुलक़ान (Balkan) हुई तो हर एक मुसलमान बैचेन था और कसरत से चंदा हुआ। ऐसे कई लोग थे जो इस काम के लिए घर बार छोड़कर निकल गए थे। जंगे बुलक़ान के ज़माने में दारुल उलूम देवबंद के तलबा (छात्र) महमूद अल-हसन (رحمت اللہ علیہ) की क़ियादत (नेतृत्‍व) में वक़्ती तौर पर तालीम तर्क (छोड़) कर घरों से निकल कर शहर-शहर और गांव में घूमे और इसके लिए चंदा वसूल करते थे। इसका सारा हिसाब उस ज़माने के मशहूर अख़बार, ''पैसा लाहौर'' में शाया करवाते थे। इसी ज़माने में महमूद अलहसन (رحمت اللہ علیہ) हर रोज़ एक हदीस जिहाद के बारे में पढ़ दिया करते थे। इससे तलबा में अज़ीम जोश पैदा होता था। लोगों ने दरख़ास्त की कि दारुल उलूम बंद कर दिया जाये। ख़ुद मौलाना की यही मंशा थी। कुछ लोगों ने शुबह ज़ाहिर किया कि ऐसा करने से हुकूमत की नाराज़गी मोल लेनी पड़ेगी जो दारुल उलूम के क़याम के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। मौलाना ने फ़रमाया कि ऐसा ही मामला उस्ताद मरहूम के ज़माने में भी सामने आया था और उन्होंने फ़रमाया था कि दारुल उलूम दीन की ख़िदमत के लिए क़ायम किया गया है। अगर दीन की ख़िदमत ही को आज़ार (नुकसान) पहुँचे तो दारुल उलूम की ज़रूरत ही क्‍या है ?

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने 1920 में ख़िलाफ़त मूवमेंट की अगुवाई (नेतृत्‍व) करते हुए एक किताब लिखी, “मसला ख़िलाफ़त और जज़ीरतुल अरब,  उस वक़्त ख़लीफ़ा सुलतान मुहम्मद ख़ान सादस थे। मौलाना ने बहुत वज़ाहत के साथ और क़ुरआन और सुन्‍नत से साबित करते हुए लिखा कि बिना ख़लीफ़ा के इस्लाम का वजूद मुम्किन नहीं है। और हिंदूस्तान के मुसलमानों को उसकी बाज़याबी (दोबारा क़ायम करने) के लिए अपनी पूरी कुव्‍वत के साथ लगना चाहिए। मौलाना ने अपनी किताब के सफ़ा नंबर 176 में लिखा कि : अहकाम शरई दो किस्म के होते हैं: एक क़िस्म उन अहकाम की है जिनका ताल्लुक़ (सम्‍बन्‍ध) लोगो की इस्लाह से होता है जैसे तमाम अवामिर व नवाही और फ़राइज़ और वाजिबात। दूसरे वो हैं जिनका ताल्लुक़ (सम्‍बन्‍ध) लोगों से नहीं बल्कि उम्मत, क़ौम और इज्तिमाई फ़राइज़ और मुल्की सियासत से होता है। जैसे फ़तह मुमालिक और क़वानीन सियासी व मुल्की।

ख़िलाफ़त के ख़ात्‍मे के बाद ये मसला दरपेश आया कि अब जुमा की नमाज़ में किसको मुख़ातब किया जाएगा, और ज़कात किसको दी जाऐगी क्योंकि ख़िलाफ़त और हिन्दुस्तानी मुस्लिम रियासत भी मुकम्मल तौर पर ख़त्म हो गयी थी। बर्तानिया सरकार को ज़कात दी नहीं जा सकती। लिहाज़ा वक़्ती तौर पर उसको इसी तरह क़ायम रखी जाये और नमाज़े जुमा भी इत्तिहादे मिल्लत के ख़ातिर क़ायम रखी जाये ताकि मिल्लत का शिराज़ा ना बिखरे। ये फ़ैसला ओलमा की क़ियादत (नेतृत्‍व) में इमामुलहिंद मौलाना आज़ाद की क़ियादत (नेतृत्‍व) में किया गया।
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