वाली (गवर्नर)

वाली वो शख़्स है जिसे ख़लीफ़ा रियासत की किसी विलाया (सूबे) का हुक्मरान और अमीर मुक़र्रर करता है।

इस्लामी रियासत के ज़ेर नगीं (अधीन) ज़मीन को सूबों में तक़सीम किया जाएगा और हर सूबा विलाया कहलाएगा। हर सूबे को मज़ीद तक़सीम किया जाता है जिन में से हर एक अमाला कहलाता है। वो शख़्स जिसे विलाया के ऊपर मुक़र्रर किया जाये उसे वाली या अमीर कहते हैं जिस शख़्स को अमाला पर मुक़र्रर किया जाये उसे आमिल या हाकिम कहते हैं।

पस वाली हुक्मरान होता है क्योंकि विलाया से मुराद हुकूमत है। जैसा कि क़ामूस अलमुहीत में बयान किया गया:

(وَ وَ لیَ الشیءَ وعلیہ وِلاےۃًوالوَلاےَۃً أوھی المَصْدَرُ وبالکسر الخُطّۃُ والامارۃ والسُلطانُ)

वाली ख़लीफ़ा की तरफ़ से मुक़र्रर किया जाता है यह उसे वो शख़्स मुक़र्रर करता है जिसे ख़लीफ़ा इस काम के लिये मुक़र्रर करे। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के सिवा किसी और को वाली मुक़र्रर करने का हक़ हासिल नहीं। विलाया या इमारा के ओहदे यानी वाली या अमीर मुक़र्रर करने की असल रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का अमल है। आप صلى الله عليه وسلم से ये साबित है कि आप صلى الله عليه وسلم ने इलाक़ों पर वाली मुक़र्रर फ़रमाए और उन्हें उन सूबों पर हुकूमत करने का इख्तियार अता किया। आप صلى الله عليه وسلم ने मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) को अलजुनद पर मुक़र्रर फ़रमाया, ज़ैद बिन लबीद (رضي الله عنه) को हज़रे मौत पर मुक़र्रर फ़रमाया और अबू मूसा अल अशअरी  (رضي الله عنه) को ज़ुबैद और अदन पर मुक़र्रर फ़रमाया।

वाली ख़लीफ़ा का नायब होता है, वो वो तमाम काम अंजाम देता है जिस का सवाबदीदी इख्तियार ख़लीफ़ा उसे दे। शरह के मुताबिक़ विलाया की नौईय्यत की कोई हद मुक़र्रर नहीं लिहाज़ा ख़लीफ़ा किसी को भी अपनी मर्ज़ी से हुकूमत करने के काम पर मुक़र्रर करे तो वो इस काम पर ख़लीफ़ा की मुक़र्रर करदा शराइत के मुताबिक़ वाली होगा। ताहम रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم उस इलाक़े को तय किया करते थे जिस पर वो वाली मुक़र्रर फ़रमाते यानी वो इस इलाक़े की इमारत उस अमीर के हवाले करते थे।

विलायत दो किस्म की होती है: विलायत-ए-आम्मा और विलायत-ए-ख़ास्सा। विलायत-ए-आम्मा सूबे के तमाम हुकूमती मुआमलात का अहाता करती है। किसी शख़्स को ख़लीफ़ा की तरफ़ से विलायत-ए-आम्मा देने के मानी ये हैं कि ख़लीफ़ा ने वाली को इस सूबे या इलाक़े की इमारत (हुकूमत) तफ़वीज़ (सुपुर्द) की कि वो वाली इस सूबे के तमाम लोगों के उमूर की देखभाल करे। पस लोगों के तमाम उमूर की निगरानी करना वाली की आम ज़िम्मेदारी होती है। जहां तक विलायत-ए-ख़ास्सा का ताल्लुक़ है तो इस में उस सूबे का अमीर अफ़्वाज के मुआमलात को मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) करने, सूबे के लोगों पर हुकूमत करने, इलाक़ों की हिफ़ाज़त करने और सूबे की औरतों और बच्चों का तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) करने तक महदूद होती है। वाली ए खास का अदलिया (अदालत) या खिराज-ओ-सदक़ात इकट्ठा करने में कोई अमल दख़ल नहीं होता। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने वालीयों को विलायत-ए-आम्मा अता की। जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अमरो बिन हज़म (رضي الله عنه) को यमन पर वाली मुक़र्रर किया। इसी तरह आप صلى الله عليه وسلم ने वालीयों को विलायत-ए-ख़ास्सा भी अता की जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अली (رضي الله عنه) को यमन में अदलिया पर मुक़र्रर फ़रमाया। रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफा ने उसी पर अमल किया। उमर (رضي الله عنه) ने मुआवीया बिन अबूसुफ़ियान को शाम पर वाली-ए-आम मुक़र्रर किया, जबकि अली (رضي الله عنه) ने अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي الله عنه) को बसरा पर वाली-  ए-ख़ास मुक़र्रर फ़रमाया। बसरा के अम्वाल (खज़ाने) पर ज़ेद (رضي الله عنه) ज़मादार थे, जबकि इस के अलावा बाक़ी तमाम उमूर (मुआमलात) अब्दुल्लाह बिन अबास (رضي الله عنه) के ज़िम्मे थे।

शुरुआती दौर में दो तरह की विलाया हुआ करती थीं:
विलायतुल सलात और विलायतुल खिराज । 

यही वजह है कि कुतुब-ए- तारीख में सूबों के सरबराहान (प्रमुखों) की विलायत के लिये इन दो इस्लाहात को इस्तिमाल (शब्दों) किया गया है। पहला: इमारतुल सलात (नमाज़) और दूसरा: इमारतुल सलात वल खिराज । दूसरे लफ़्ज़ों में अमीर को या तो सलात व खिराज दोनों पर मुक़र्रर किया जा सकता है या सिर्फ़ खिराज या सिर्फ़ सलात पर। लफ़्ज़ अल सलात विलाया और इमारत की निसबत से बोला जाता है तो इस मतलब महज़ नमाज़ में लोगों की इमामत करना नहीं बल्कि इस से मुराद है अम्वाल (दौलत) के इलावा लोगों के तमाम तर उमूर को चलाना है । क्योंकि यहां लफ़्ज़ अल सलात के मआनी हैं अम्वाल इकट्ठे करने के अलावा बाक़ी तमाम हुकूमती उमूर। लिहाज़ा जब वाली खिराज और सलात दोनों पर ज़िम्मेदार होता है तो उसे विलायत-ए-आम्मा कहते हैं। लेकिन अगर उस की इमारत सलात या खिराज तक महदूद हो तो ये विलायत-ए-ख़ास्सा कहलाती है। दोनों सूरतों में ये ख़लीफ़ा की अपनी मर्ज़ी पर है क्योंकि उसे ये हक़ हासिल है कि वो विलाया को खिराज या अदलिया तक महदूद करे और वो विलाया को खिराज, अदलिया या फ़ौज के अलावा किसी और मुआमले तक महदूद कर सकता है। वो सूबे या विलाया के बन्दोबस्त के लिये जिस सूरत -ए-हाल को सब से ज़रूरी ख़्याल करे, इसे इख्तियार कर सकता है। क्योंकि शरीयत ने वाली के लिये मख़सूस ज़िम्मेदारीयों को तय नहीं किया और इस पर ये फ़र्ज़ नहीं कि वो तमाम तर हुकूमती उमूर को अंजाम दे। अलबत्ता शरीयत ने इस बात को तय किया है कि वाली या अमीर का काम हुकूमत करना होता है और वो ख़लीफ़ा का नायब होता है और ये भी कि उसे खास इलाक़े का अमीर होना चाहिये। उसे रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से अख़ज़ किया गया है। लिहाज़ा ख़लीफ़ा को ये इख्तियार है कि वो अपनी राय के मुताबिक़ किसी वाली को विलायत-ए-आम्मा सुपुर्द करे या वलायत-ए-ख़ास्सा की ज़िम्मेदारी दे और ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से साफ है। सीरत-ए-इबन हिशाम में बयान किया गया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रोह बिन मुसैक को मुराद, ज़ुबैद और मुज़हज के क़बीले पर मुक़र्रर फ़रमाया और इस के साथ आप صلى الله عليه وسلم ने ख़ालिद बिन सईद बिन अल आस (رضي الله عنه) को सदक़ात पर वाली मुक़र्रर फ़रमाया। मज़ीद बयान किया गया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ज़ियाद बिन लबीद अल अंसारी (رضي الله عنه) को हज़रे मौत और इस के हासिल होने वाले सदक़ात पर वाली बना कर भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) को सदक़ात और जिज़िया की वसूली पर ज़िम्मेदार बना कर नजरान रवाना किया। इस तरह आप صلى الله عليه وسلم ने अली (رضي الله عنه) को यमन पर वाली बना कर भेजा जैसा कि मुस्तदरक हाकिम में बयान किया गया है। “इस्तीआब” में बयान किया गया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने क़ुरआन की तालीम और इस्लाम के क़वानीन सिखाने और उन के मुआमलात का फैसला करने के लिये मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) को अलजुनद पर मुक़र्रर फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने उन्हें यमन के आमिलीन (आमिलीन) से सदक़ात की वसूली की ज़िम्मेदारी भी दी। सीरत इब्ने हिशाम में मर्वी है कि जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم जंग अह्द के लिये निकले तो आप صلى الله عليه وسلم ने उम्मे मकतूम (رضي الله عنه) को मदीना में “सलात” पर मुक़र्रर फ़रमाया।

वालीयों का तक़र्रुर और उन की माज़ूली (बर्खास्ती):   
     
ख़लीफ़ा वालीयों का तक़र्रुर करता है जबकि आमिलीन का तक़र्रुर या तो ख़लीफ़ा करता है और या फिर वाली इन का तक़र्रुर करता है, अगर उसे ये इख्तियार तफ़वीज़ (सुपुर्द) किया गया हो। वालीयों और आमिलीन के ओहदे (पदों) की शराइत वही हैं जो कि ख़लीफ़ा के मुआविनीन की हैं । इन का मुसलमान , मर्द, आज़ाद, आक़िल , बालिग़ , आदिल होना और ये काम अंजाम देने की काबिलियत रखना लाज़िम है और अफ़ज़ल ये है कि वो मुत्तक़ी और बाअसर लोगों में से हो।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ही वाली और इलाक़ों के अमीर मुक़र्रर फ़रमाया करते थे। बाअज़ औक़ात आप صلى الله عليه وسلم उन्हें पूरे सूबे पर मुक़र्रर फ़रमाते थे, जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अमरो बिन हज़म (رضي الله عنه) को पूरे यमन पर मुक़र्रर फ़रमाया और कभी आप  صلى الله عليه وسلم एक वाली को किसी इलाक़े के एक हिस्से पर मुक़र्रर फ़रमाते थे जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) और अबू मूसा अल अशअरी (رضي الله عنه) को मुक़र्रर फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने इन दोनों को यमन के दो मुख़्तलिफ़ हिस्सों पर मुक़र्रर फ़रमाया जो एक दूसरे से अलग थे और आप صلى الله عليه وسلم ने उन से कहा:

((یسّرا ولا تعسّرا وبشّرا ولا تُنفّرا))
(लोगों पर) आसानी करना और तंगी मत करना, ख़ुशख़बरी सुनाना और मुतनफ़्फ़िर (नफरत) ना करना
(बुख़ारी ने इस हदीस को रिवायत किया)

एक और रिवायत में है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
((وتطاوعا))

और एक दूसरे से तआवुन करना

जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि वाली अपनी विलाया में आमिलीन का तक़र्रुर ख़ुद कर सकता है, तो ये इस वजह से लिया गया है कि ख़लीफ़ा को ये हक़ हासिल है कि वो आमिलीन के तक़र्रुर का इख्तियार वाली को सौंप सकता है।

जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि वाली के ओहदे पर तक़र्रुर की शराइत वही हैं जो कि मुआविन तफ़वीज़ के ओहदे की हैं। उसे इस बात से अख़ज़ (प्राप्त) किया गया है कि वाली मुआविन की तरह है क्योंकि वो हुकूमत के मुआमलात में ख़लीफ़ा का नायब होता है। पस वो हुक्मरान होता है और उस की वही शराइत होती हैं जो ख़लीफ़ा और ख़लीफ़ा के मुआविन की होती हैं । इसके लिये मर्द होना लाज़िम है क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((لن یفلح قوم ولوا أمرھم امرأۃ))

वो क़ौम कभी फ़लाह नहीं पा सकती जो औरत को अपना हुक्मरान बना ले
(बुख़ारी ने इस हदीस को अबी बकरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)

यहां लफ़्ज़ विलाया से मुराद हुकूमत है और लफ़्ज़ (امرھم) इस पर दलालत करता है। और जब लफ़्ज़ वली और विलाया को लफ़्ज़ (امرھم) की निसबत से इस्तिमाल किया जाये तो इस से मुराद हुकूमत और अथार्टी होता है। वाली के लिये आज़ाद होना भी लाज़िमी है क्योंकि ग़ुलाम अपनी ज़ात का ख़ुद मालिक नहीं होता लिहाज़ा वो दूसरों पर हुक्मरान नहीं बन सकता। इस का मुसलमान होना भी शर्त है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَـٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلاً
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने काफ़िरों को मोमिनीन पर कोई रास्ता (इख्तियार या ग़लबा) हर गिज़ नहीं दिया
(अन्निसा:141)

वाली का आक़िल और बालिग़ होना इसलिये लाज़िमी है क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((رفع القلم عن ثلاثہ۔۔۔))
तीन क़िस्म के लोगों से क़लम उठा लिया जाता है।
  
और आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया कि इन में ये शामिल हैं:
((وعن الصبي حتی یبلغ،وعن المبتلی حتی یبرأ))

बच्चा जब तक कि वो बालिग़ ना हो जाये और मजनून जब तक कि उस की अक़्ल वापिस ना लौट आए
(अबू दाऊद ने इस हदीस को रिवायत किया)

जिस से क़लम उठा लिया जाये वो गैर मुकल्लिफ़ (ग़ैर ज़िम्मेदार) है। और जिस से क़लम उठा लिया जाये वो अहकाम-ए-शरीयत को पूरा करने का ज़िम्मेदार नहीं इसलिये ये दुरुस्त नहीं कि उसे अहकामात की लागू करने की ज़िम्मेदारी दी जाये, यानी हुकूमत इस के हाथ में दी जाये। इसी तरह वाली के लिये लाज़िम है कि वो आदिल हो क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने गवाह के लिये आदिल होने की शर्त आइद की है पस हुक्मरान का आदिल होना बदरजा ऊला ज़रूरी है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٍ۬ فَتَبَيَّنُوٓ
ऐ ईमान वालों! जब कोई फ़ासिक़ तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो उस की तहक़ीक़ कर लिया करो
(अल हुजरात:6)

लिहाज़ा हुक्मरान का इन में से होना ज़रूरी है जिस के हुक्म की तसदीक़ की ज़रूरत ना हो। इसलिये हुक्मरान का उन लोगों में से होना जायज़ नहीं जिन के अल्फाज़ फैसले के वक़्त बिला तस्दीक़ क़बूल नहीं किये जा सकते। वाली के लिये क़ाबिल होना और उन हुकूमती मुआमलात को अंजाम देने की सलाहियत रखना भी ज़रूरी है जो उसे सौंपे जाएं। क्योंकि जब अबुज़र (رضي الله عنه) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से हुकूमत तलब की तो आप صلى الله عليه وسلم ने अबुज़र (رضي الله عنه) से फ़रमाया:

((إني أراک ضعیفاً۔۔۔))
मैं तुम्हें कमज़ोर पाता हूँ
और एक और रिवायत में है :

 ((یا أبا ذر إنک ضعیف وإنھا أمانۃ))
ऐ अबूज़र ! तुम कमज़ोर हो और ये ओहदा एक अमानत है
(इन दोनों अहादीस को मुस्लिम ने अबुज़र (رضي الله عنه) से रिवायत किया)

चूँकि वाली अपनी विलाया का अमीर होता है लिहाज़ा इस हदीस का इतलाक़ इस पर भी होता है। ये इस बात की दलील है कि जो शख़्स कमज़ोर हो यानी इस काम की काबिलियत ना रखता हो इस का वाली बनना दुरुस्त नहीं।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم उन लोगों में से वाली मुक़र्रर फ़रमाते जो अच्छे और अहल-ए-इल्म होते , अपने तक़वा की वजह से मारूफ़ (प्रचलित) होते, अपने शोबे में माहिर होते और जो लोगों के दिलों को ईमान से लबरेज़ कर देते और लोगों में रियासत के लिये इज़्ज़त-ओ-एहतिराम के जज़बात पैदा करते। सुलेमान बिन बुरीदा  (رضي الله عنه)  ने अपने वालीद से रिवायत किया :

((کان رسول اللّٰہﷺ إذا أمر أمیراً علی جیش،أو سرےۃ أوصاہ في خاصتہ بتقوی اللّٰہ،ومن معہ من المسلمین خیرا))
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم जब किसी शख़्स को लश्कर का अमीर मुक़र्रर करते तो उसे खासतौर पर अल्लाह से डरने और जो मुसलमान उन के साथ हों उन के साथ भलाई करने की वसीअत फ़रमाते
(मुस्लिम)

“वाली” विलाया का अमीर होता है लिहाज़ा वो इस हदीस के हुक्म में शामिल है।

जहां तक वाली को माज़ूल (बर्खास्त) करने का ताल्लुक़ है तो वो माज़ूल हो जाता है जब ख़लीफ़ा उसे माज़ूल कर दे या इस सूबे के लोगों की अक्सरियत या लोगों के नुमाइंदे “वाली” पर बेहद नाराज़गी का इज़हार कर दें या वो इस से ख़ुश ना हों। वाली को माज़ूल करने का इख्तियार ख़लीफ़ा को हासिल होता है क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) को कोई वजह बतलाए बगैर यमन की विलायत से माज़ूल कर दिया। आप صلى الله عليه وسلم ने बहरीन के आमिल अल उला बिन हज़रमी (رضي الله عنه) को उस वक़्त माज़ूल कर दिया जब अब्दे क़ैस के वफ्द ने उनकी शिकायत की। इसी तरह उमर बिन अल खत्ताब (رضي الله عنه) किसी वजूहात की बिना पर या फिर कोई वजह बताए बगैर अपने वालीयों को माज़ूल कर दिया करते थे। आप ने ज़ैद बिन अबी सुफ़ियान को कोई वजह बताए बगैर माज़ूल कर दिया और आप ने साद बिन अबी वक़्क़ास  (رضي الله عنه) को उस वक़्त माज़ूल कर दिया जब लोगों ने उन के ख़िलाफ़ शिकायत की और फिर कहा

(إني لم أعزلہ عن عجز و لا عن خیانۃ)
मैने उसे ना अहली (अयोग्यता) या ख़ियानत (बेईमानी) की बिना पर माज़ूल नहीं किया
ये इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा जब चाहे वाली को माज़ूल कर सकता है और उसके लिये वाली को माज़ूल करना ज़रूरी है जब इस विलाया के लोग वाली के ख़िलाफ़ शिकायत करें।

वाली के लाज़िमी इख्तियारात:

वाली को हुकूमत करने और अपने सूबे में मुख़्तलिफ़ शोबों (विभागों) के काम की निगरानी करने का इख्तियार हासिल होता है और वो ये काम ख़लीफ़ा के नायब की हैसियत से अंजाम देता है। इसलिये वाली को अदलिया (अदालत), अम्वाल (राजकोष) और मुसल्लह अफ़्वाज (हथियार बन्द फौज) के सिवा सूबे में तमाम तर इख्तियारात हासिल होते हैं। वो सूबे के लोगों पर अमीर होता है और सूबे से मुताल्लिक़ तमाम मुआमलात की निगरानी करना उस की ज़िम्मेदारी होती है। अहकामात की तनफीज़ के लिहाज़ से पुलिस इस के अधीन काम करती है लेकिन वो इंतिज़ामी लिहाज़ से इस के मातहत नहीं होती।

ये इस वजह से है क्योंकि ख़लीफ़ा वाली को जिस जगह पर भी मुक़र्रर करे वो इस के नायब की हैसियत से काम करता है और इस मुआमले में उसे वही इख्तियारात हासिल होते हैं जो ख़लीफ़ा के हैं। अगर उसे विलायत-ए-आम्मा तफ़वीज़ की जाये यानी उसे उस इलाक़े की उमूमी (आम) ज़िम्मेदारी हासिल हो तो इस उमूमी ज़िम्मेदारी को अंजाम देने में वो ख़लीफ़ा के मुआविन (वज़ीर) की तरह काम करता है और अगर उसे विलायत-ए-ख़ास्सा दी जाये तो वो इन खास मुआमलात की निगरानी करेगा जिस पर उसे मुक़र्रर किया गया हो। उसी सूरत -ए-हाल में उसे दूसरे मुआमलात का जायज़ा लेने का इख्तियार हासिल नहीं होगा। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने कुछ लोगों को हुकूमत के मुआमले में मुतलक़ (स्थाई) इख्तियारात के साथ मुक़र्रर फ़रमाया और कुछ को विलायत-ए-आम्मा सौंपी और कुछ लोगों को मख़सूस जगहों पर मख़सूस मुआमलात पर विलायत अता की। जब आप صلى الله عليه وسلم ने मआज़ (رضي الله عنه) को यमन रवाना किया तो उन्हें सिखाया कि उन्होंने किस तरह चलना है। बैहक़ी, अहमद और अबु दाऊद  ने मआज़ (رضي الله عنه) से  रिवायत किया:

((أن رسول اللّٰہﷺ لما بعث معاذاً إلی الیمن قال لہ:کیف تقضي إذا عرض لک قضاء،قال:أقضي بکتاب اللّٰہ،قال: فإن لم تجدہ في کتاب اللّٰہ قال :أقضي بسنۃ رسول اللّٰہ ﷺ قال: فإن لم تجدہ في سنۃ رسول اللّٰہ ﷺ قال: أجتھد برأیي لا آلو،قال:فضرب بیدہ في صدري وقال: الحمد للّٰہ الذي وفق رسول رسول اللّٰہ لما یرضي رسول اللّٰہ))

जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने माअज़ (رضي الله عنه) को यमन भेजा तो आप صلى الله عليه وسلم ने इस से कहा : अगर कोई मुआमला तुम्हारे सामने पेश हो तो तुम किस तरह इस का फैसला करोगे। मआज़ (رضي الله عنه) ने कहा: मैं अल्लाह (سبحانه وتعال) की किताब के ज़रीए फैसला करूंगा । आप صلى الله عليه وسلم ने पूछा: अगर तुम उसे अल्लाह (سبحانه وتعال) की किताब में ना पाओ ? तो मआज़ (رضي الله عنه)  ने जवाब दिया : मैं अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم की सुन्नत के ज़रीए फैसला करूंगा । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने कहा: अगर तुम अल्लाह के रसूल की सुन्नत में उसे ना पाओ? मआज़ (رضي الله عنه) ने जवाब दिया: मैं अपनी राय में भरपूर कोशिश करूंगा, और अपनी कोशिश में कोई कमी नहीं छोडूँगा। आप صلى الله عليه وسلم ने अपना दस्त-ए-मुबारक मआज़ (رضي الله عنه) के सीने पर मारा और कहा: सब तारीफ़ें अल्लाह ही के लिये हैं जिस ने अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم के पयाम्बर की उस चीज़ में मदद की जिससे अल्लाह का रसूल राज़ी हुआ ।

आप صلى الله عليه وسلم ने अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) को हिदायात दिये बगैर यमन रवाना किया क्योंकि आप صلى الله عليه وسلم अली (رضي الله عنه) के इल्म और काबिलियत पर मुतमईन थे। जब आप صلى الله عليه وسلم ने मआज़ (رضي الله عنه) को यमन भेजा तो उन्हें सलात और सदक़ात पर मुक़र्रर फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रोह बिन मुसैक को मुराद, मुदजज और ज़ुबैद पर आमिल मुक़र्रर फ़रमाया और ख़ालिद बिन सईद (رضي الله عنه) को उन के साथ सदक़ात की वसूली के इख्तियारात के साथ रवाना किया। ये सब इस बात पर दलालत करता है कि वाली को हुक्मरानी के तमाम तर इख्तियारात हासिल होते हैं जैसा कि मआज़ (رضي الله عنه)  को हिदायात देने और अली (رضي الله عنه) को हिदायात ना देने से ज़ाहिर है। ये इस बात की तरफ़ भी इशारा करता है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने कुछ वालीयों को सलात और सदक़ात पर विलायत-ए-आम्मा अता की जबकि कुछ को विलायत –ए- ख़ास्सा अता की जो सिर्फ़ सलात या सिर्फ़ सदक़ात तक महदूद थी।

अगरचे ख़लीफ़ा के लिये जायज़ है कि वो किसी वाली को विलायत-ए-आम्मा या विलायत-ए-ख़ास्सा तफ़वीज़ कर सकता है, ताहम ये बात साबित शूदा है कि मुआवीया को जब विलायत-ए-आम्मा अता की गई तो वो उसमान (رضي الله عنه) के दौर-ए-ख़िलाफ़त में ख़लीफ़ा की अथार्टी से आज़ाद हो गए और उन पर उसमान (رضي الله عنه) की अथार्टी नज़र नहीं आती थी। चुनांचे मुआवीया ने शाम में हासिल हुकूमती इख्तियारात की बिना पर उसमान (رضي الله عنه)  की वफ़ात के बाद तनाज़ा खड़ा किया और अब्बासी खुलफा के दौर-ए-ज़वाल (पतन के दौर) में भी ऐसा ही हुआ जब विलायात (सूबे) ख़ुदमुख़तार हो गए और उन पर ख़लीफ़ा की अथार्टी कम होकर महज़ इस क़दर रह गई कि उन के लिये ख़ुतबात में दुआ की जाये और जो सिक्के जारी किये जाएं उन पर ख़लीफ़ा का नाम गुदा हो। चुनांचे वाली को विलायत-ए-आम्मा सौंपा जाना इस्लामी रियासत के लिये नुक़्सान का सबब बन सकता है। लिहाज़ा वाली को विलायत-ए-ख़ास्सा तफ़वीज़ (सुपुर्द) की जानी चाहिये जो उसे ख़लीफ़ा की अधीनता से आज़ाद होने से दूर रखे। जो चीज़ विलाया को रियासत से जुदा करने में बुनियादी किरदार अदा करती है वो अफ़्वाज, अम्वाल और अदलिया का विलाया के हाथ में होना है । क्योंकि अफ़्वाज ताक़त का ज़रीया हैं, अम्वाल (राजकोष) की हैसियत ऐसे ही है जैसे कि जिस्म में ख़ून की होती है और अदलिया (अदालत) के ज़रीए हदूद का निफाज़ और हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ मुम्किन होता है। चुनांचे वाली को विलायत-ए-आम्मा की बजाय विलायत-ए-ख़ास्सा दी जानी चाहिये जिस में अदलिया , अफ़्वाज और अम्वाल शामिल ना हों। इन तीनों मुआमलात को वाली के हाथ में देना विलाया के रियासत से जुदा होने का सबब पैदा करना और रियासत की अथार्टी को कमज़ोर बनाना है। ताहम, चूँकि वाली एक हुक्मरान है और इस के पास क़ुव्वत-ए-नाफ़िज़ा का होना ज़रूरी है, लिहाज़ा पुलिस इसी के मातहत होगी और पुलिस फ़ोर्स और ऊपर लिखे तीन शोबों (विभाग) के अलावा तमाम शोबे उस की इमारत के तहत होंगे। चूँकि पुलिस फ़ोर्स हथियार बन्द फौज का हिस्सा है ,इसलिये इंतिज़ामी लिहाज़ से वो फ़ौज के अधीन होती है लेकिन अहकामात को लागू करने के लिये पुलिस का इस्तिमाल वाली के हाथ में होता है।

हुकूमत करने के लिये वाली जो काम अंजाम देता है ,ख़लीफ़ा को उस की रिपोर्ट देना वाली के लिये लाज़िम नहीं, मासवाए उस वक़्त जब वो ऐसा करना चाहे। ताहम अगर कोई खिलाफ-ए-मामूल वाक़िया पेश आ जाए तो वाली पर लाज़िम है कि वो ख़लीफ़ा को इस से खबरदार करे और उस की हिदायात का इंतिज़ार करे और फिर ख़लीफ़ा की हिदायात के मुताबिक़ अमल करे । अगर वो महसूस करे कि मुआमला ऐसा है जिसमें देरी नहीं की जा सकती और इसके लिये फौरन क़दम उठाना ज़रूरी है तो वाली को चाहिये कि वो फ़ौरी इक़दाम करे और फिर ख़लीफ़ा को इस से आगाह करे और इन वजूहात (कारणों) को बयान करे जिस की वजह से क़दम उठाने से पहले ख़लीफ़ा को आगाह करना मुम्किन ना था।

जहां तक मुआविन-ए-तफ़वीज़ और वाली के बीच फ़र्क़ का ताल्लुक़ है, तो मुआविन अपने हर अमल की अंजाम देही के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा को आगाह करता है जबकि वाली के लिये ऐसा करना लाज़िमी नहीं। उस की वजह ये है कि मुआविन-ए-तफ़वीज़ ख़लीफ़ा का ज़ाती (personal) नायब है और उस की ज़ात का नुमाइंदा है और वो ख़लीफ़ा का काम अंजाम देता है । लिहाज़ा अगर ख़लीफ़ा की वफ़ात हो जाये तो इस का मुआविन भी बर्ख़ास्त हो जाता है। लेकिन वाली का मुआमला ऐसा नहीं। क्योंकि वाली ना तो ख़लीफ़ा की ज़ात का वकील है और ना ही इस का ज़ाती नायब है और ना ही ख़लीफ़ा का काम अंजाम देता है । लिहाज़ा ख़लीफ़ा की वफ़ात पर वो अपने ओहदे पर बरक़रार रहता है।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जब वालीयों का तक़र्रुर फ़रमाया तो उन्हें अपने काम की अंजाम देही के मुताल्लिक़ रिपोर्ट करने की हिदायत नहीं फ़रमाई और वो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को अपनी ज़िम्मेदारीयों की अंजाम देही से मतला (खबरदार) नहीं किया करते थे। वो अपनी राय और मर्ज़ी से अपने काम अंजाम देते थे और हर कोई अपनी इमारत पर इस अंदाज़ से हुकूमत करता जिसे वो मुनासिब समझता । मआज़ (رضي الله عنه), उताब बिन उसैद , अल ऊला बिन  हज़रमी और आप صلى الله عليه وسلم के दूसरे तमाम वालीयों का यही मुआमला था। ये इस बात को ज़ाहिर करता है कि वाली के लिये ख़लीफ़ा को अपने हर काम की रिपोर्ट देना लाज़िम नहीं । इस लिहाज़ से वो मुआविन-ए-तफ़वीज़ से मुख़्तलिफ़ होता है क्योंकि मुआविन के लिये अपने हर काम की अंजाम दही के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा को आगाह करना और अपने काम के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा की राय तलब करना लाज़िम है जबकि वाली के लिये ऐसा करना लाज़िम नहीं। चुनांचे ख़लीफ़ा मुआविन की तमाम तर कारगुज़ारी का जायज़ा लेता है लेकिन वाली के मुआमले में ख़लीफ़ा के लिये ऐसा करना ज़रूरी नहीं, अगरचे वो वाली की सूरत-ए-हाल से भी बाख़बर रहता है और इस के मुताल्लिक़ मौसूल (प्राप्त) होने वाली इत्तिलाआत (सूचनाओं) का जायज़ा लेता रहता है। पस वाली को अपनी विलाया पर मुकम्मल तसर्रुफ़ (इख्तियार/authourity) हासिल होता है। यही वजह है कि जब माअज़ (رضي الله عنه) को यमन की तरफ़ रवाना किया गया तो उन्होंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से कहा:

(اجتھد براءي)
मैं अपनी राय में भरपूर कोशिश करूंगा।

ये इस बात की दलील है कि वाली के लिये ख़लीफ़ा को रिपोर्ट देना और ख़लीफ़ा से हर मुआमले में हिदायात लेना ज़रूरी नहीं बल्कि वो अपनी राय के मुताबिक़ मुआमलात को चलाता है। वो अहम मुआमलात से मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा की तरफ़ रुजू कर सकता है लेकिन ऐसे मुआमलात जो आम नौईय्यत के  हों उन के लिये वो ख़लीफ़ा की तरफ़ रुजू नहीं करेगा कि कहीं लोगों के मुआमलात के हल में देरी ना हो। अगर कोई ग़ैरमामूली सूरत-ए-हाल जन्म ले तो वाली पर इसके लिये ख़लीफ़ा की तरफ़ रुजू करना लाज़िम है क्योंकि वाली को विलाया सौंपने का मतलब ये है कि ख़लीफ़ा ने वाली को एक इलाक़े या सूबे पर इमारत सौंपी है ताकि वो इस के मुताल्लिक़ उमूमी ज़िम्मेदारीयों को अंजाम दे। अगर कोई ग़ैरमामूली सूरत-ए-हाल जन्म ले तो उसे ख़लीफ़ा की तरफ़ रुजू करना चाहिये मासिवाए  कि ये खतरा हो कि कहीं इस मुआमले में निबटने में ताख़ीर के नतीजे में फ़साद बरपा ना हो जाये। उसी सूरत-ए-हाल में वो तुरंत क़दम उठाएगा और बाद में ख़लीफ़ा को इसकी खबर करेगा।
किसी वाली का लम्बे वक़्त तक वाली के ओहदे पर बरक़रार रहना दुरुस्त नहीं। बल्कि अगर वो अपनी विलाया में गहरा असर-ओ-रसूख़ (प्रभाव) हासिल कर ले या लोग उस की शख्सियत के परस्तार हो जाएं तो उसे इस ओहदे से आज़ाद कर देना बेहतर है।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم वालीयों को एक ख़ास मुद्दत के लिये मुक़र्रर फ़रमाया करते थे । कोई भी शख़्स आप صلى الله عليه وسلم के तमाम मदनी दौर के लिये वाली के ओहदे पर नहीं रहा । ये इस बात की तरफ़ इशारा है कि वाली का तक़र्रुर कभी भी मुस्तक़िल (स्थाई) तौर पर नहीं होना चाहिये बल्कि थोडे समय के लिये होना चाहिये जिस के बाद ये ज़िम्मेदारी उस से वापिस ले ली जाये , चाहे ये अर्सा कितना ही लम्बा क्यों ना हो इस के मुताल्लिक़ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से कोई बात साबित नहीं। इस मुआमले के मुताल्लिक़ जो बात साबित है वो ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने किसी भी शख़्स को अपने तमाम दौर के लिये वाली नहीं रखा । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم वालीयों का तक़र्रुर फ़रमाते और उन्हें माज़ूल कर देते। ताहम उम्मत को जिस फ़ित्ने ने हिला कर रख दिया उस की वजह ये थी कि उमर (رضي الله عنه) और उसमान (رضي الله عنه) के दौर-ए-ख़िलाफ़त में एक लम्बे अर्से के लिये शाम की विलाया मुआवीया के पास रही । इस से ये पता चलता है कि लम्बी मुद्दत की विलायत मुसलमानों और रियासत के लिये नुक़्सानदेह साबित हो सकती है लिहाज़ा मुद्दत-ए-विलायत का तवील (लम्बी) होना दुरुस्त नहीं।

वाली का एक विलाया से दूसरी विलाया तबादला नहीं करना चाहिये क्योंकि अगरचे विलायत पर तक़र्रुर एक आम निगरानी की ज़िम्मेदारी सौंपता है लेकिन ये एक ख़ास इलाक़े पर होती है । लिहाज़ा पहले वाली को पिछली विलायत से बर्खास्त किया जाये और फिर दुबारा उस को नई जगह मुक़र्रर किया जाये।

ये बात रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से साबित है कि वो वालीयों को माज़ूल किया करते थे लेकिन कोई इसी रिवायत नहीं मिलती कि उन्होंने किसी वाली का एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में तबादला किया हो। इसके अलावा विलाया पर तक़र्रुर (नियुक्ति) एक अक़्द (अनुबन्ध) है जो साफ अल्फाज़ में तै पाता है लिहाज़ा किसी इलाक़े या सूबे की विलायत के अक़्द में इस बात का बयान ज़रूरी है कि वाली को किस इलाक़े पर हुकूमत करना होगी और उसे उस वक़्त तक हुकूमत करने के इख्तियारात हासिल होंगे जब तक कि ख़लीफ़ा उसे माज़ूल ना कर दे। अगर उसे माज़ूल ना किया जाये तो वो बदस्तूर इस इलाक़े का वाली रहेगा । ताहम अगर इस का एक जगह से दूसरी जगह तबादला किया जाये तो ऐसा करने से ना तो वो अपने पिछले ओहदे से माज़ूल होगा और ना ही वो नई जगह का वाली क़रार पाएगा। क्योंकि पिछले ओहदे से उस की बरतरफ़ी के लिये वाज़िह अल्फाज़ में ये बयान करना ज़रूरी है कि उसे फलां विलाया से माज़ूल किया जाता है। और इसे नई जगह पर तैनात करने लिये नए अक़्द की ज़रूरत है जिस में नई जगह पर बतौर वाली उस की तक़र्रुरी को बयान किया गया हो। यही वजह है कि वाली का एक जगह से दूसरी जगह तबादला नहीं किया जा सकता बल्कि पहले इसे मौजूदा विलाया की ज़िम्मेदारीयों से आज़ाद किया जाता है और फिर नई जगह पर नई विलाया सौंपी जाती है।

वालीयों के काम की पूछगछ करना ख़लीफ़ा पर लाज़िम है:

ख़लीफ़ा को वाली के आमाल के मुताल्लिक़ पूछगछ करनी चाहिये और इस का बग़ौर जायज़ा लेते रहना चाहिये । ख़लीफ़ा को चाहिये कि वो वालीयों की सूरत-ए-हाल को जानने और उन के कामों का जायज़ा लेने के लिये किसी को मुक़र्रर करे । ख़लीफ़ा के लिये ये भी लाज़िम है कि वो इन सब से या इन में से कुछ वालीयों से वक़्त वक़्त पर मिले और अपने वालीयों के ख़िलाफ़ अवाम की शिकायात भी सुने।

नबी  صلى الله عليه وسلم से ये साबित है कि आप صلى الله عليه وسلم वालीयों को मुक़र्रर करने से पहले इन का जायज़ा लेते थे जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने माअज़ (رضي الله عنه) और अबू मूसा अल अशअरी (رضي الله عنه) की मर्तबा किया। आप صلى الله عليه وسلم उन्हें बताते थे कि उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियां किस तरह अंजाम देनी हैं जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अमरो बिन हज़म (رضي الله عنه) की मर्तबा क़िया । आप صلى الله عليه وسلم कुछ अहम मुआमलात से उन्हें आगाह करते थे जैसा कि आप صلى الله عليه وسلم ने अबान बिन सईद (رضي الله عنه) को बहरीन की विलायत सौंपते वक़्त किया। आप صلى الله عليه وسلم ने उन से फ़रमाया:

((استوص بعبد قیس خیراً و أکرم سراتھم))
अब्दे  क़ैस का ख़्याल रखना और उन के सरदारों का एहतिराम करना

इसी तरह ये भी साबित है कि आप صلى الله عليه وسلم अपने वालीयों का मुहासिबा किया करते थे और उन की हालत का जायज़ा लेते थे और उन के बारे में आप صلى الله عليه وسلم को जो इत्तिलाआत पहुंचती थीं उन्हें सुनते थे। आप صلى الله عليه وسلم हासिल होने वाले अम्वाल (माल) और उन के खर्च की जांच पड़ताल करते थे। बुख़ारी ने अबू हमीद अल साअदी (رضي الله عنه) से  रिवायत किया:

((أن النبی ﷺ ٓاستعمل ابن الْلُّتبِیَّہ علی صدقات بنی سلیم فلما جاء الی رسول اللّٰہ ﷺ و حاسبہ قال: ھذا الذی لکم و ھذہ ھدےۃ اُھدیت لي ، فقال رسول اللّٰہ ﷺ: فھلا جلست فی بیت أبیک و بیت أمک حتیتأتیک ھدیتک إن کنت صادقاً ، ثم قام رسول اللّٰہ ﷺ فخطب الناس و حمد اللّٰہ و أثنی علیہ ثم قال : أما بعد فإنی استعمل رجالًا منکم علی أمور مما ولاّني اللّٰہ فےأتی أحدکم فیقول ھذا لکم و ھذہ ھدےۃ أھدیت لي۔ فھلاجلس فی بیت أبیہ و بیت أمہ حتی تأتیہ ھدیتہ إن کان صادقاً، فواللّٰہ لا ےأخذ أحدکم منھا شےءًا بغیر حقہ إلا جا ء اللّٰہَ یحملہ یوم القیامۃ ، ألا فلأعرفنّ ما جاء اللّٰہَ رجلٌ ببعیر لہ رُغا ء أو ببقرۃ لھا خوارأو شاۃ تیعر، ثم رفع یدہ حتی رأیت بیاض ابطیہ ألا ھل بلّغت ))

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इब्ने लुतबिया को बनी सलीम से सदक़ात की वसूली पर आमिल मुक़र्रर फ़रमाया। जब वो रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم के पास वापिस आया और हिसाब किताब किया , तो इस ने कहा : ये आप के लिये है और ये मेरे लिये (लोगों की तरफ़ से ) हदिया है । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने कहा : क्यों ना तुम अपने माँ बाप के घर में बैठो और फिर देखो कि तुम्हें कोई तोहफ़ा मिलता है या नहीं , अगर तुम वाक़ई सच्चे हो। फिर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم खड़े हुए और अल्लाह (سبحانه وتعال) की हम्द-ओ-सना बयान करने के बाद कहा :मैं तुम लोगों को चंद मुआमलात में मुक़र्रर करता हूँ जिस पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुझे इख्तियार बख्शा है। फिर तुम में कोई मेरे पास आता है और कहता है कि ये आप के लिये है और ये मेरे लिये तोहफ़ा है। क्यों ना वो अपने माँ बाप के घर में बैठे ताकि उसे घर में ही तोहफ़े पहुंच जाएं अगर वो सच्चा है। अल्लाह (سبحانه وتعال) की कसम ! तुम में से कोई नहीं जो इन (सदक़ात) में से नाहक़ ले और क़यामत के दिन वो अल्लाह के पास इस का बोझ उठाता हुआ ना आए। मैं उस शख़्स को क़यामत के दिन पहचान लूंगा जब वो अल्लाह के पास इस हालत में आएगा कि उस की गर्दन पर ऊंट बड़बड़ाता हुआ होगा या गाय डकरा रही होगी या बकरी मिनमिनाती हुई होगी। फिर आप صلى الله عليه وسلم ने अपने हाथों को इतना बुलंद किया कि हम ने आप صلى الله عليه وسلم की बग़लों की सफेदी देखी । फिर फ़रमाया: क्या मैंने (पैग़ाम-ए-हक़) पहुंचा नहीं दिया

उमर (رضي الله عنه) वालीयों का निहायत बारीक बीनी से जायज़ा लिया करते थे । आप ने मुहम्मद बिन मुसलमा को वालीयों के मुआमलात जानने और उन के आमाल का जायज़ा लेने के लिये मुक़र्रर फ़रमाया। उमर (رضي الله عنه) हज के मौक़ा पर वालीयों को जमा फ़रमाते ताकि उन की कारकर्दगी का जायज़ा लें और आप वालीयों के मुताल्लिक़ लोगों की शिकायात को सुनते थे। आप वालीयों के साथ विलाया के मुआमलात के मुताल्लिक़ सलाह मशवरा करते और वालीयों के ज़ाती हालात के बारे में भी मालुमात हासिल करते। रिवायत किया गया है कि एक मर्तबा उमर (رضي الله عنه) ने कहा: 

( أرأیتم إذا استعملت علیکم خیر من أعلم ثم أمرتُہ بالعدل، أکنت قضیت الذي علّي، قالو : نعم قال: لا ، حتی أنظر فی عملہ أَعَمِل بما أمرتُہ بہ أم لا)
अगर मैं तुम में से बहतरीन शख़्स को तुम पर मुक़र्रर कर दूं और उसे अदल करने का हुक्म दूं तो क्या तुम ये कहोगे कि मैंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी लोगों ने कहा: हाँ।  उमर (رضي الله عنه) ने कहा:  नहीं, नहीं जब तक मैं उस की कारकर्दगी का जायज़ा ना ले लूं और ये ना देख लूं कि जो हुक्म मैंने दिया है वो उसने पूरा किया है या नहीं ।

ये एक मशहूर बात है कि  उमर (رضي الله عنه) वालीयों और आमिलों का सख़्त मुहासिबा किया करते थे। हत्ता कि आप ने ठोस सबूत मिलने से भी पहले सिर्फ़ शुबह पड़ने पर चंद वालीयों को माज़ूल कर दिया। यहां तक कि ज़रा सा शक पड़ने पर,जो कि शुबह के दर्जे तक भी ना पहुंचा हो, आप अपने वाली को माज़ूल कर देते थे। एक मर्तबा आप से इसके मुताल्लिक़ सवाल किया गया तो आप ने जवाब दिया: 

(ھان شيء أصلح بہ قوماً أن أُبدِلَھم امیراً مکان أمیر)
लोगों के उमूर की इस्लाह के लिये एक अमीर को दूसरे अमीर से बदल देना आसान है

ताहम इस क़दर सख़्ती के बावजूद आप उन्हें मुकम्मल इख्तियार देते कि वो अपनी राय के मुताबिक़ विलाया के मुआमलात चलाएं और आप इस बात का ध्यान रखते थे कि हुकूमत के मुआमलात में वालीयों की शौहरत और रोब मुतास्सिर ना हो। आप उन की बात सुनते थे और उन के दलायल को अहमियत देते थे। अगर आप को कोई दलील पसंद आती तो आप उसे क़बूल करते और इस के मुताल्लिक़ अपने इत्मीनान को छुपा कर ना रखते और बाद में उस आमिल की तारीफ़ फ़रमाते। एक दिन आप को हुम्स पर मुक़र्रर अपने आमिल अमीर बिन साद के मुताल्लिक़ ये ख़बर पहुंची कि उन्होंने मिंबर पर बैठ कर ये बात कही: 

(لا یزال الإسلام منیعاً ما اشتدًّا السُلطان۔ ولیست شدَّۃ السلطان قتلاً بالسیف او ضرباً بالسَوْط ولکن قضاءً بالحق وأخذاً بالعدل )
इस्लाम बाक़ी रहेगा जब तक रियासत की अथार्टी मज़बूत रहेगी। और रियासत की अथार्टी तलवार से गर्दनें मारने या कोड़े बरसाने से नहीं होती बल्कि हक़ के साथ फैसले करने और अदल क़ायम करने से होती है
(وددت لو أن لي رجلاً مثل عُمیر بن سعد أستعین بہ علی أعمال المسلمین)

उमर (رضي الله عنه) ने जब ये सुना तो कहा:  मेरी ख्वाहिश है कि मेरे पास अमीर बिन साद जैसे लोग हों जो मुसलमानों के मुआमलात में मेरी मदद करें
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