इंतिज़ामी ढांचा

हुकूमती मुआमलात और लोगों के मफादे आम्मा (आम फायदों) से मुताल्लिक़ शोबों (विभागों), इदारों (संस्थाओ) और इंतिज़ामीया को चलाने के लिये ऐसे मुआमलात को अंजाम देने की ज़रूरत होती है जिन का मक़सद रियासती  मुआमलात का इंतिज़ाम करना और लोगों की ज़रूरियात को पूरा करना होता है। हर मसलहा (दफ़्तर) का एक मुंतज़िम आला (व्यवस्थापक) होगा और हर शोबे और इदारे का एक सरबराह (डाइरेक्टर) होगा जो इस शोबे या इदारे के मुआमलात को चलाएगा और वह इस पर सीधे तौर पर ज़िम्मेदार होगा। ये डायरैक्टर्ज़ अपने काम के मुताल्लिक़ , जनरल डाइरेक्टर को जवाबदेह होंगे जो कि मुख़्तलिफ़ शोबों, इदारों और इंतिज़ामीया पर ज़िम्मेदार होते हैं जबकि क़वानीन और उमूमी ज़ाबतों के एतबार से वो डायरैक्टर्ज़ वाली और आमिल को जवाबदेह होंगे।

इंतिज़ामी ढांचा, इंतिज़ामी उमूर चलाने का उस्लूब है और ये हुकूमत करना नहीं:


इंतिज़ामी ढांचा किसी काम को अंजाम देने का एक उस्लूब (ढंग) है और ये मुख़्तलिफ़ ज़रीयों में से एक ज़रीया है। लिहाज़ा इस के लिये किसी ख़ास शरई दलील का मौजूद होना ज़रूरी नहीं। और ये काफ़ी है कि इस के लिये एक आम दलील मौजूद हो जो उस की बुनियाद को साबित करती हो। ये कहना ग़लत है कि उस्लूब इंसानी अफ़आल (actions) हैं लिहाज़ा उन्हें अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ बजा लाना लाज़िमी है। क्योंकि उन के मुताल्लिक़ वारिद होने वाली दलील उन की बुनियाद को आम अंदाज़ में बयान करती है। पस ये दलील तमाम अफ़आल पर लागू होती है जो इस बुनियाद से फूटते हैं सिवाए ये कि ज़िमनी अफ़आल के मुताल्लिक़ भी हुक्म शरई वारिद हुआ हो। उसी सूरत में इस फे़अल को अंजाम देने में इस दलील की इत्तिबा (अनुसरण) लाज़िमी होगी। मिसाल के तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَءَاتَوُاْ ٱلزَّڪَوٰةَ
और ज़कात अदा करो
(अत्तोबा:11)

ये एक आम दलील है। ताहम इस के इलावा ज़कात अदा करने से मुताल्लिक़ ज़िमनी अफ़आल के बारे में भी शरई दलायल वारिद हुए हैं मसलन ज़कात का निसाब (धन) , ज़कात के आमिलीन (ज़कात इकट्ठी करने वाले), वो चीज़े जिन पर ज़कात ली जाएगी। ये तमाम अफ़आल  और ‘ज़कात अदा करो”  के हुक्म की फ़रुआत (शाखें) हैं। अलबत्ता अफ़आल को बजा लाने की कैफ़ियत के मुताल्लिक़ कोई दलील वारिद नहीं हुई यानी आमिलीन को किस अंदाज़ से ज़कात इकट्ठी करनी चाहिये मिसाल के तौर पर क्या वो ज़कात पैदल इकट्ठी करें या इस के लिये सवारी इस्तिमाल करें, क्या वो दूसरे लोगों को अपनी मदद के लिये उजरत पर रख सकते हैं? क्या उन्हें ऐसे गोदाम बनाने चाहिऐं जहां वो ज़कात को इकट्ठा करने के बाद ज़ख़ीरा करें? क्या इन गोदामों को ज़मीन के नीचे होना चाहिये या फिर उन्हें इजनास (गेहूँ) के गोदामों की तरह बनाना चाहिये? क्या ज़कात के रुपयों को बैग में जमा किया जाये या सन्दूकों में? ये तमाम अफ़आल वो ज़िमनी अफ़आल हैं जो कि और ज़कात अदा करो के हुक्म से जन्म लेते हैं। ज़कात के मुताल्लिक़ हुक्म इन सब का भी अहाता करता है क्योंकि उन के लिये ख़ास दलायल मौजूद नहीं और तमाम असालीब का यही मुआमला है। पस उस्लूब एक ऐसा अमल है जो एक ऐसे अमल के तहत आता है जो उस की असल होता है और इस अमल के लिये आम दलील मौजूद होती है। पस उस्लूब के लिये दलील की ज़रूरत नहीं क्योंकि उस की असल की दलील, उस की दलील भी है।

जहां तक इंतिज़ामी ढाँचे के क़याम यानी उसे लोगों को मुक़र्रर करने का ताल्लुक़ है जो हर ज़रूरत से मुताल्लिक़ लोगों के आम फायदे का इंतिज़ाम करें? तो ये फे़अल असल है फुरूअ नहीं , पस इस के लिये दलील की ज़रूरत है। उस की दलील रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के मुबारक आमाल से अख़ज़ की गई है क्योंकि आप ने हुकूमत क़ायम की, इंतिज़ामी उमूर को चलाया, आप صلى الله عليه وسلم ने इस्लाम के पैग़ाम की तब्लीग़ की, इस्लाम को नाफ़िज़ किया और मुसलमानों के आम फायदों का इंतिज़ाम किया। जहां तक तब्लीग़ का ताल्लुक़ है तो ये आप صلى الله عليه وسلم का एक मशहूर अमल है जिस से लोग आगाह हैं। जहां तक अहकाम के नफ़ाज़ का ताल्लुक़ है तो आप पर वही नाज़िल हुई कि आप ज़कात इकट्ठी करें, चोर का हाथ काटें , ज़ानी को संगसार करें, क़ाज़िफ़ (बोहतान लगाने वाले) को कोड़े लगाएं , मुहारिब (दुश्मन)  को क़त्ल करें और ये सब तनफीज़ी अहकाम थे। आप صلى الله عليه وسلم ने अपने हाथों से बुतों को तोड़ा जो कि हुक्म को नाफ़िज़ करना है। आप صلى الله عليه وسلم ने दूसरे लोगों को भी इस काम के लिये भेजा और ये भी हुक्म का निफाज़ है। आप صلى الله عليه وسلم ने मैदान-ए-जंग में दुश्मन को क़त्ल किया और जंग के बाद कुफ़्फ़ार को कैदी बनाया,और ये हुक्म को नाफ़िज़ करना है। आप लोगों को अदल करने का हुक्म देते थे और आप صلى الله عليه وسلم ने बज़ात-ए-ख़ुद अदल क़ायम किया। आप मुजरिमों और बाग़ीयों पर हद जारी करते थे और लोगों को इस बात का हुक्म देते थे कि वो इन तमाम अहकामात की पाबंदी करें जो आप लेकर आए हैं और ये सब अहकामात की तनफीज़ है।
जहां तक मफादे आम्मा से मुताल्लिक़ उमूर के इंतिज़ाम का ताल्लुक़ है तो आप صلى الله عليه وسلم ने मुख़्तलिफ़ शोबों (विभागों) के लिये इंतिज़ामी निज़ाम क़ायम किया और उन शोबों को चलाने के लिये मुंतज़मीन (इंतज़ाम करने वाले) मुक़र्रर किये। आप मदीने में लोगों के मुआमलात को चलाते थे और आप صلى الله عليه وسلم मुख़्तलिफ़ शोबों पर मुंतज़मीन मुक़र्रर करते थे जो इन शोबों के चलाने में आप صلى الله عليه وسلم की मदद करते थे। अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه)  मुआहिदात को कलमबंद करने पर ज़िम्मेदार थे, ये एक इंतिज़ामी ओहदा था और ये हुकूमती ज़िम्मेदारी ना थी । मुएक़ेब बिन अबी फ़ातमा (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुहर पर ज़िम्मेदार थे, ये एक इंतिज़ामी ज़िम्मेदारी थी और हुकूमती ओहदा ना था। बुख़ारी ने अपनी तारीख में मुहम्मद बिन बशार से रिवायत किया जिन्होंने अपने दादा मुएक़िब से रिवायत किया कि उन्होंने (मुएक़ेब ) कहा :  रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुहर लोहे की थी जिस पर चांदी का मुलम्मा था । वो मेरे पास होती थी। यानी मुएक़िब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुहर पर ज़िम्मेदार थे । इसी तरह मुएक़िब बिन अबी फ़ातमा ग़नाइम (माले ग़नीमत) की किताबत और इस के हिसाब किताब पर भी ज़िम्मेदार थे। हुज़ैफ़ा बिन यमान (رضي الله عنه) हिजाज़ के फलों का अंदाज़ा लगाने पर मुक़र्रर थे और अब्दुल्लाह बिन अरक़म (رضي الله عنه) क़बीलों और उन के पानी के हिस्से का हिसाब करने के ज़िम्मेदार थे। ये सब इस बात की दलील है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जिस तरह हुक्मरानी का काम अंजाम दिया इसी तरह आप صلى الله عليه وسلم ने इंतिज़ामी उमूर को भी चलाया। आप صلى الله عليه وسلم ने हर डाइरेक्टर के लिये इस के काम का ताय्युन कर दिया था जिस पर वो ज़िम्मेदार होता था मसलन माल-ए-ग़नीमत का हिसाब किताब रखना, या फलों की पैदावार का अंदाज़ा लगाना। ताहम रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उन ज़ैली आमाल (अतिरिक्त) का ताय्युन नहीं फ़रमाया जिस के मुताबिक़ वो डायरैक्टर्ज़ इस काम को अंजाम दें। इसे तय नहीं करने का मतलब ये है कि ये आमाल असल मक़सद को पूरा करने में सहायक है । पस उन लोगों को ये ज़िम्मेदारी सौंपने का मतलब ये है कि वो इस ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिये अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कोई भी उस्लूब (ढंग) इख्तियार कर सकते हैं, जिस के ज़रीए इस काम को अच्छे तरीके से अंजाम दिया जा सके।

मफादे आम्मा (जन हित) को पूरा करना, लोगों के उमूर की देख भाल करना है:

मफादे आम्मा से मुताल्लिक़ उमूर का इंतिज़ाम करना लोगों के मुआमलात की देख भाल करना है और लोगों के मुआमलात की देख भाल करना ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है और उसे ये हक़ हासिल है कि वो किसी भी इंतिज़ामी तरीका कार को इख्तियार करे और उसे लोगों के लिये लाज़िम क़रार दे दे । ख़लीफ़ा को ये हक़ हासिल है कि वो इंतिज़ामी क़वानीन-ओ-ज़वाब्त नाफ़िज़ कर सकता है और लोगों को उन की पाबंदी करने का हुक्म दे सकता है। क्योंकि ये ज़िमनी आमाल हैं और ख़लीफ़ा लोगों को उन पर चलने पर मजबूर कर सकता है। लोगों पर इन अहकामात पर अमल करना लाज़िम है क्योंकि उन पर अमल करना ख़लीफ़ा के तबन्नी करदा क़वानीन के ज़िमन में आने वाले ज़ाबतों की पाबंदी करना है। एक क़ानून को नाफ़िज़ करने का मतलब दूसरे असालीब को तर्क करना है। ये मुआमला बिल्कुल अहकाम-ए-शरीयत की तबन्नी की तरह है। ये कहना ग़लत है कि उस्लूब मुबाहात में से हैं और कोई शख़्स किसी भी उस्लूब को इख्तियार कर सकता है, जिसे वो पसंद करता हो। पस अगर ख़लीफ़ा किसी मुबाह चीज़ पर अमल को लाज़िम क़रार दे और दूसरे मुबाहात से रोक दे तो ये मुबाहात को हराम क़रार देना है। ये ग़लत है क्योंकि किसी ख़ास उस्लूब को इख्तियार करना ,ख़लीफ़ा का किसी मुबाह को फ़र्ज़ क़रार देना और बाक़ी मुबाहात को हराम बनाना नहीं बल्कि ये उन इख्तियारात को इस्तिमाल करना है जो शरेह ने अहकामात की तबन्नी में ख़लीफ़ा को अता किये हैं। इन में से एक इख्तियार अहकाम-ए-शरीयत और असालीब की तबन्नी करना है ताकि उन्हें नाफ़िज़ किया जा सके। वो इख्तियार जो ख़लीफ़ा को ये इजाज़त देता है कि वो अहकामात-ए-शरीयत की तबन्नी कर सकता है, वो ख़लीफ़ा को इस बात का भी इख्तियार देता है कि वो असालीब की तबन्नी कर सकता है, जो इन अहकाम शरीयत पर अमल दरआमद के लिये ज़रूरी हों। पस ख़लीफ़ा को ये हक़ हासिल है कि वो किसी उस्लूब की तबन्नी करे और लोगों पर इस उस्लूब की पाबंदी करना लाज़िम है जिस की ख़लीफ़ा ने तबन्नी की हो। और वो किसी दूसरे उस्लूब को इख्तियार ना करें, अगर ख़लीफ़ा ने उन से मना क्या हो। लोगों के उमूर की देख भाल के असालीब मुबाहात में से हैं। ताहम ये ख़लीफ़ा के लिये मुबाह हैं ताकि वो लोगों के उमूर की देख भाल के लिए उन्हें इख्तियार करे क्योंकि लोगों के मुआमलात की देखभाल उस की ज़िम्मेदारी है और ये तमाम लोगों के लिये मुबाह नहीं क्योंकि लोगों के उमूर की देख भाल इन का इख्तियार नहीं। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के तबन्नी करदा असालीब की पाबंदी करने की फ़र्ज़ीयत इस वजह से है कि ख़लीफ़ा की इताअत करना वाजिब है और ये पाबंदी मुबाह को फ़र्ज़ क़रार देने की वजह से नहीं।
इंतिज़ामी तफ़सीलात:

ये सब इंतिज़ामीया का इजमाली (मिला जुला /संक्षिप्त) बयान था। जहां तक इंतिज़ामीया की तफ़सीलात का ताल्लुक़ है उसे इंतिज़ामीया की हक़ीक़त से अख़ज़ किया गया है। इंतिज़ामीया की हक़ीक़त का जायज़ा लेने से हम ये देख सकते हैं कि कुछ ऐसे अमल हैं जिन्हें ख़लीफ़ा या इस के मुआविन ख़ुद अंजाम देते हैं चाहे इसका ताल्लुक़ हुकूमत से हो जैसा कि शरेह को नाफ़िज़ करना या उन का ताल्लुक़ इंतिज़ामी उमूर और लोगों के मफादे आम्मा से मुताल्लिक़ मुआमलात से हो, जिस के लिये उस्लूब-ओ-वसाइल (शैली और संसाधन) को इख्तियार करने की ज़रूरत होती है। यही वजह है कि ख़लीफ़ा को मुतय्यन ढाँचे की ज़रूरत होती है जो रियासत के मुआमलात के नज़म-ओ-नसक़ में ख़लीफ़ा की मदद करे। इसी तरह लोगों की ऐसी ज़रूरियात होती हैं जिन्हें पूरा करने की ज़रूरत होती है और उन ज़रूरियात का ताल्लुक़ अवामुन्नास (प्रजा) से होता है। और उन ज़रूरियात को पूरा करने के लिये उस्लूब-ओ-वसाइल की ज़रूरत होती है , लिहाज़ा एक ऐसे इंतिज़ामी ढाँचे का क़याम ज़रूरी है जो कि लोगों के मफादे आम्मा को पूरा करने के लिये मख़सूस हो।

ये ढांचा दफ़ातिर , इदारों और उन के मुंतज़मीन पर मुश्तमिल (आधारित) होता है। दफ़्तर किसी हुकूमती विभाग के आला सतह के इंतिज़ाम का नाम है मसलन तालीम, सेहत, ज़राअत (कृषि), सनअत (उद्योग) वगैरह। ये दफ़ातिर अपने मुआमलात पर और उन तमाम इदारों (संस्थाओ) और शोबों (विभागों) पर ज़िम्मेदार होता है जो इस के तहत आते हैं। हर इदारा अपने मुआमलात और अपने तहत आने वाले शोबों को चलाता है। और हर शोबा अपने मुआमलात और अपने ज़ेली शोबों और अजज़ा (हिस्सों) के मुआमलात को चलाता है।

इन दफ़ातिर , इदारों और शोबों को क़ायम करने का मक़सद ये है कि रियासती उमूर को चलाया जाये और मफादे आम्मा को पूरा किया जाये।

दफ़ातिर, इदारों और शोबों के उम्दा और बिला रूकावट इंतिज़ाम-ओ-इंसिराम के लिये ज़रूरी है कि मुंतज़मीन को मुक़र्रर किया जाये जो कि इन दफ़ातिर, इदारों और शोबों पर ज़िम्मेदार हों। हर दफ़्तर का एक मुंतज़िम-ए-आला (डायरेक्टर) मुक़र्रर किया जायेगा जो कि अपने अधीन तमाम इदारों और शोबों का ज़िम्मेदार होगा और हर इदारे और शोबे के लिये डायरेक्टर मुक़र्रर किया जाएगा जो अपने अपने इदारे और शोबे का सीधे तौर पर ज़िम्मेदार होगा और उन ज़ेली शोबों और अजज़ा का भी ज़िम्मेदार होगा जो इस के तहत आते हैं।

ये इंतिज़ामीया को चलाने के अंदाज़ की वज़ाहत है यानी जिसे रियासती इंतिज़ामीया कहते हैं। ये अवामुन्नास और जो लोग रियासत की अथार्टी के तहत ज़िंदगी बसर करते हैं, के लिये एक उमूमी ढांचा है और उसे दीवान कहा जाता है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के दौर में इंतिज़ामीया के नज़म-ओ-नसक़ या दीवान को किसी खास अंदाज़ से मुनज़्ज़म नहीं किया गया था। आप صلى الله عليه وسلم हर इंतिज़ामी शोबे पर एक मुंतज़िम को मुक़र्रर करते थे जो कि इस शोबे का ज़िम्मेदार होता और इस से मुताल्लिक़ तमाम मुआमलात को चलाता।
इस्लामी तारीख में उमर बिन खत्ताब (رضي الله عنه) ने सब से पहले दीवान मुतआरिफ़  (परीचित) कराया । उस की वजह ये थी कि एक मर्तबा आप ने एक फ़ौजी मुहिम को भेजा और इस मौक़े पर हरमिज़ान वहां मौजूद था इस ने उमर (رضي الله عنه) से कहा:   “आप ने इस जंग में लोगों के बीच माल तक़सीम करने का हुक्म दिया है लेकिन अगर कोई शख़्स ना पहुंच सका तो आप के साथी किस तरह उस की बाबत जान सकेंगे, क्यों ना आप इस के लिये एक दीवान (रेकॉर्ड) मुक़र्रर कर देते” चुनांचे उमर (رضي الله عنه) ने हरमिज़ान से दीवान के मुताल्लिक़ दरयाफ़त किया और इस ने उमर (رضي الله عنه) को इस के मुताल्लिक़ बताया। आबिद बिन यहया ने हारिस बिन नफ़ील से रिवायत किया कि उमर (رضي الله عنه) ने मुसलमानों से दीवान मुरत्तिब करने के मुताल्लिक़ मश्वरा किया और अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) ने मश्वरा दिया:  “एक साल में जमा होने वाले अम्वाल (धन) को लोगों के दरमियान तक़सीम कर दीजिये और इस में से कुछ भी बाक़ी ना छोड़ें” उसमान बिन उफ्फान (رضي الله عنه) ने कहा:  मैं ये देखता हूँ कि अम्वाल की बडी तादाद मौजूद है जो कि तमाम लोगों के लिये काफ़ी है और अगर हम ने इसे शुमार ना किया कि किस को कितना माल दिया गया है तो मुझे डर है कि ये मुआमला ख़राब हो जाएगा इस पर वलीद बिन हिशाम बिन मुग़ीरह ने कहा  “मैं शाम में था और मैंने देखा कि वहां के बादशाह ने एक दीवान बनाया हुआ था और इस ने सिपाहियों को उसे मुरत्तिब करने के लिये मुक़र्रर कर रखा था। तो आप भी ऐसा क्यों नहीं करते।“ उमर (رضي الله عنه) ने वलीद के मश्वरे को क़बूल किया और अक़ील बिन अबी तालिब ,मुख़रमा बिन नौफ़ल और जुबैर बिन मुअत्तम जो क़ुरैश के हसब-ओ-नसब के माहिर थे, को बुलाया और कहा:

اکتبوا الناس علی منازلھم
रिहाइश के मुताबिक़ लोगों की मरदुम शुमारी करो ।

जब इस्लाम ईराक़ में पहुंचा तो अम्वाल की तक़सीम और उन्हें इकट्ठा करने का दीवान इसी तरह जारी रहा। शाम का दीवान इब्रानी ज़बान में था क्योंकि ये रूमी सल्तनत का हिस्सा था और ईरान का दीवान फ़ारसी ज़बान में था क्योंकि ये सल़्तनत-ए-ईरान का हिस्सा था। अब्दुल मलिक बिन मरवान के दौर , यानी सन् 81हिजरी में शाम के दीवान को अरबी ज़बान में मुंतक़िल (transefer) किया गया । फिर जैसे जैसे ज़रूरत पड़ती गई लोगों के मुआमलात को चलाने और ज़रूरियात को पूरा करने के लिये मुतअद्दिद (कईं) दीवान मुरत्तिब (व्यवस्थित) किये गए। कुछ दीवान फ़ौज की तादाद और उन्हें अता किये जाने वाले अम्वाल के लिये मुरत्तिब किये गए। कुछ दीवान लेन देन की अदायगीयों के हिसाब किताब के लिये मुतआरिफ़ कराए गए और कुछ दीवान आमिलों और वालीयों के लिये मुरत्तिब किये गए ताकी तमाम तक़र्रूरयों (नियुक्तियों) और माज़ूलियों (बर्खास्तगी) का रिकॉर्ड रखा जा सके। इसी तरह बैतुल माल में जमा होने वाले अम्वाल और महसूलात (texes) और खर्चो का हिसाब रखने के लिये दीवान मुरत्तिब किये गए। दीवानों को ज़रूरत पड़ने पर मुतआरिफ़ कराया जाता और वक़्त गुज़रने पर संसाधनो और ढंग में तबदीली के साथ साथ इन दीवानों के उस्लूब में तबदीली होती रही।
हर दीवान पर एक सरबराह मुक़र्रर किया जाता और दूसरे अमले का ताय्युन किया जाता। कई बार दीवान के सरबराह को ख़ुद अपने अधीन मुक़र्रर करने का इख्तियार हासिल होता था और कई बार मुलाज़मीन को सरबराह के मातहत मुक़र्रर कर दिया जाता और उसे मुलाज़मीन को मुक़र्रर करने का इख्तियार हासिल ना होता था।
चुनांचे दीवान को ज़रूरत पड़ने पर क़ायम किया जाएगा और इस के लिये उसे उस्लूब-ओ-ज़राए बरुए कार लाए जाएंगे जो ज़रूरियात की फ़ौरी फ़राहमी में मददगार हों। और ज़मान-ओ-मकां (समय और स्थान) के मुताबिक़ , सूबे और इलाक़े के लिहाज़ से विभिन्न उस्लूब-ओ-ज़राए इस्तिमाल करना जायज़ है।
जहां तक इन सरकारी मुलाज़मीन की ज़िम्मेदारीयों का ताल्लुक़ है, तो ये तनख्वाहदार मुलाज़िम होते हैं और इस के साथ साथ वो रियासत के बाशिंदे होते हैं। चुनांचे काम के लिहाज़ से वो अपने शोबे (विभाग) के प्रमुख के सामने जवाबदेह होते हैं और रियासत के शहरी होने के नाते वो हुक्मरान को जवाबदह होते हैं ,चाहे वो वाली हो या मुआविन या फिर ख़लीफ़ा। और उन मुलाज़मीन के लिये शरई क़वानीन और इंतिज़ामी ज़ाब्तों की पाबंदी करना लाज़िम होता है।
मफादे आम्मा (जनहित) के इंतिज़ाम का लायेहा-ए-अमल :
मफादे आम्मा के इंतिज़ाम के लायेहा-ए-अमल की बुनियाद निज़ाम की सादगी, कामों को तेज़ी के साथ निबटाने और इंतिज़ामीया की काबिलियत पर है। ये बात मफ़ाद-ए-आम्मा को बहम पहुंचाने की हक़ीक़त से अख़ज़ की गई है, क्योंकि जो शख़्स सहूलत की फ़राहमी का तालिब होता है वो चाहता है कि ये अमल तेज़ी के साथ और बिला रुकावट  अपनी मंज़िल तक पहुंचे। मुस्लिम ने शद्दाद बिन ओस से रिवायत किया कि 
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

)(إن اللّٰہ کتب الإحسان فی کل شیء، فإذا قتلتم فأحسنواالقِتْلۃ،وإذاذبحتم فأحسنواالذبح۔۔۔۔)(

बेशक अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हर चीज़ में एहसान करने को लिख दिया है। पस जब तुम क़त्ल करो तो अहसन तरीके से करो और जब तुम ज़िबह करो तो अहसन तरीके से करो

पस शरेह ने आमाल को अहसन (अच्छे) तरीके से अंजाम देने का हुक्म दिया है। इस के हांसिल के लिये इंतिज़ामीया को इन तीन उसूलों को सामने रखना चाहिये। 1: निज़ाम की सादगी काम के अंजाम देने को आसान बनाती है जबकि पेचीदगियां सऊबत (तकलीफ) का बाइस (कारण) बनती हैं। 2 : काम को सुरअत (तेज़ी) से अंजाम देना लोगों को गैर ज़रूरी इंतिज़ार और देरी से बचाता है। 3: इंतिज़ामीया में मौजूद मुलाज़मीन (कर्मचारियों) की काबिलियत और इस्तिदाद का होना काम को दर्जा कमाल तक पहुंचाने बल्कि उसे मुकम्मल करने के लिये भी ज़रूरी है।

कौन लोग सरकारी मुलाज़िम बनने के क़ाबिल हैं:

कोई भी शख़्स , ख़ाह वो मर्द हो या औरत, मुसलमान हो या गैर मुस्लिम , जो रियासत की शहरियत रखता हो और इस काम को अंजाम देने की काबिलियत रखता हो, इस बात का अहल है कि उसे किसी भी इदारे का मुंतज़िम या मुलाज़िम मुक़र्रर किया जाये। इस बात को इजारा (नौकरी) से मुताल्लिक़ अहकामात से अख़ज़ किया गया है। शरेह में किसी भी शख़्स को उजरत पर रखना जायज़ है ख़ाह वो मुसलमान हो या गैर मुस्लिम, क्योंकि इजारा की दलील आम अंदाज़ में वारिद हुई है। अल्लाह सुब्हाना-व-سبحانه وتعال ने इरशाद फ़रमाया:

فَإِنۡ أَرۡضَعۡنَ لَكُمۡ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۖ
पस अगर वो तुम्हारे लिये दूध पिलाएं तो तुम उन्हें उन की उजरत दो
(अत्तलाक़:6)

ये एक आम दलील है। बुख़ारी ने अबु हुरेरह (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((قال اللّٰہ تعالی:ثلاثۃ أنا خصمہم یوم القیامۃ۔۔۔ورجل استأجر أجیراً فاستوفی منہ ولم یعطہ أجرہ))
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया: तीन क़िस्म के लोगों से मैं क़यामत के दिन झगड़ा करूंगा। और वो शख़्स जो किसी मज़दूर को उजरत पर रखे, इस से काम ले लेकिन उसे उस की उजरत ना दे

ये दलील भी आम है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बज़ात-ए-ख़ुद एक मर्तबा “बनु अलदील” के एक शख़्स को उजरत पर रखा जो अपनी क़ौम के दीन पर (यानी काफ़िर) था। जो इस बात पर दलालत करता है कि किसी गैर मुस्लिम को उजरत पर रखना इसी तरह जायज़ है जैसे कि किसी मुसलमान को मुलाज़िम रखना। इसी तरह एक औरत को मुलाज़िम रखना इसी तरह जायज़ है जिस तरह किसी मर्द को मुलाज़िम रखना, क्योंकि इजारा की दलील आम है। लिहाज़ा किसी औरत को हुकूमती इदारे का मुंतज़िम या मुलाज़िम मुक़र्रर करना जायज़ है और किसी काफ़िर को किसी हुकूमती इदारे का मुंतज़िम या मुलाज़िम मुक़र्रर करना जायज़ है, क्योंकि ये उजरती (तनख्वाहदार) अमला है और इजारा की दलील आम है। जहां तक सरकारी मुलाज़मत के लिये रियासत की शहरियत की शर्त का ताल्लुक़ है, तो ये इस वजह से है कि रियासत के बाशिंदे पर रियासत के क़वानीन का इतलाक़ होता है जबकि इन क़वानीन का इतलाक़ उन लोगों पर नहीं होता जिन के पास रियासत की शहरियत ना हो यानी जो दारुल-इस्लाम में नहीं रहते हो अगरचे वो मुसलमान ही क्यों ना हों। ये इस वजह से है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अमीरे जैश को रवाना करते वक़्त ये हिदायत की:

((ثم ادعھم إلی التحول من دارھم إلی دار المھاجرین‘ وأخبرھم أنھم إن فعلوا ذلک فلھم ما للمھاجرین‘ وعلیھم ما علی المھاجرین))

फिर उन्हें अपने दार से दारुल मुहाजरीन की तरफ़ नक़्ल-ए-मकानी (हिजरत) की दावत दो, और उन्हें बता दो कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो फिर उन के लिए वही (हुक़ूक़) होंगे जो मुहाजिरीन के लिए हैं और उन की वही ज़िम्मेदारियां होंगी जो मुहाजिरीन की हैं (मुस्लिम ने इस हदीस को बुरीदा से रिवायत किया)

इस का मफ़हूम ये है कि अगर वो दारुल मुहाज़रीन में ना आएं तो फिर उनकी वही ज़िम्मे दारियां नहीं होंगी, अगरचे वो मुसलमान ही क्यों ना हों। यहां जिन लोगों की तरफ़ इशारा किया गया इस से वो लोग मुराद हैं जिन पर अहकामात का इतलाक़ होता है। वरना इजारा की दलील के आम होने की वजह से उन लोगों को मुलाज़िम रखना भी जायज़ होता जिन्हें रियासत की शहरियत हासिल नहीं।

सरकारी अमला ,उजरत पर मुक़र्रर करदा रियासती मुलाज़मीन होते हैं:

रियासती इदारों के मुंतज़मीन (व्यवस्थापक) और मुलाज़मीन (कर्मचारी) उजरत पर मुक़र्रर करदा अमला होता है और उन का तक़र्रुर उजरत के अहकामात के मुताबिक़ किया जाता है। इन का नियुक्ति, बर्खास्तगी , तबादला और मुवाख़िज़ा हुकूमती इंतिज़ामीया , विभागो और इदारों के प्रमुख इंतिज़ामी ज़ाब्तों के मुताबिक़ अंजाम देते हैं।

उसे अजीर से मुताल्लिक़ शरई अहकामात से अख़ज़ किया गया है। मुलाज़मत पर भर्ती करने वाले शख़्स और मुलाज़िम दोनों पर मुलाज़मत के अक़्द की पाबंदी लाज़िमी होती है । क्योंकि जिस चीज़ पर मुआहिदा किया जाये उस की पाबंदी करना फ़रीक़ैन पर लाज़िम होता है। मिसाल के तौर पर मुलाज़मत के मुआहिदे (अनुबन्ध) की मुद्दत के इख़तताम (समाप्ति) से पहले मुलाज़िम को माज़ूल करना दुरुस्त नहीं। रियासत के आम इंतिज़ामी ज़ाबतों की पाबंदी लाज़िम होती है। अबु दाऊद ने अबूहुरैरह (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((المسلمون عند شروطھم))
मुसलमान अपनी शराइत की पाबंदी करते हैं

जहां तक अमले के एक काम से दूसरे काम की तरफ़ तबादले का ताल्लुक़ है तो ये मुआहिदे में तै करदा शराइत के मुताबिक़ ही किया जा सकता है।

मुताल्लिक़ा इदारे, शोबे या इंतिज़ामीया का सरबराह ही लोगों को भर्ती करने , इन का तबादला करने, मुवाख़िज़ा करने और माज़ूल करने पर ज़िम्मेदार होता है। क्योंकि वो इदारे के तमाम कामों पर ज़िम्मेदार होता है और वो अता करदा ज़िम्मेदारी के मुताबिक़ इस बात का इख्तियार रखता है ।












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