मजलिसे उम्मत : किसी भी दबाओ के बगै़र तक़रीर और राय के इज़हार का हक़

मजलिसे उम्मत के हर रुक्न को ये हक़ हासिल है कि वो किसी किस्म के दबाओ के बगैर और शरेह की हद में रहते हुए, बात कर सकता है और अपनी मर्ज़ी की राय का इज़हार कर सकता है। क्योंकि मजलिसे उम्मत का रुक्न लोगों की वकालत करता है और वो लोगों की राय को बयान करने और हुक्मरान का मुहासिबा करने में लोगों की नुमाइंदगी करता है। इस का काम है कि वो ख़लीफ़ा या रियासत के दूसरे हुक्काम या किसी भी रियासती इदारे या दफ़्तर के मुलाज़मीन की सरगर्मियों और काम का बग़ौर जायज़ा ले, उन का मुहासिबा करे, उन्हें नसीहत करे, उन से अपनी राय का इज़हार करे, उन्हें मश्वरा दे, उन के साथ मुबाहिसा करे और रियासत के हर ग़लत इक़दाम पर उंगली उठाए। वो ये सारे आमाल इसलिये अंजाम देता है क्योंकि वो मुसलमानों का नुमाइंदा होता है और मुसलमानों पर नेकी का हुक्म देना और बुराई से मना करना, हुक्मरान का मुहासिबा करना और उन्हें नसीहत और मश्वरा देना वाजिब है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنڪَرِ
तुम बहतरीन उम्मत हो जो लोगों के लिये उठाए गए हो ,तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से मना करते हो
(आल-ए-इमरान:110)

और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّـٰهُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّڪَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ
ये वो लोग हैं कि अगर हम उन्हें ज़मीन पर इक़तिदार दें तो ये नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें और मारूफ़ का हुक्म दें और मुनकिर से मना करें
(अल-हज्ज:41)

 और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:

وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٌ۬ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ
और तुम में एक जमात ऐसी ज़रूर होनी चाहिए जो खैर की तरफ़ दावत दे और अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल मुंकर करे। और दरहक़ीक़त यही लोग कामयाब हैं

(आल-ए-इमरान:104)

ऐसी बहुत सी अहादीस भी वारिद हुई हैं जो अम्र बिलमारुफ़ और नहीं अनिल मुंकर को लाज़िम क़रार देती हैं जैसा कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((والذي نفسي بیدہ لتأ مرنَّ بالمعروف، ولتنہونّ عن المنکر، أو لیوشکنَّ اللّٰہ أن یبعث علیکم عقاباً من عندہ، ثمّ لتدعنّہ فلا یستجیب لکم))

उस ज़ात की क़सम जिस के क़ब्ज़ा ए क़ुदरत में मेरी जान है, तुम ज़रूर बिल ज़रूर नेकी का हुक्म दोगे और बुराई से मना करोगे वर्ना करीब है कि अल्लाह तुम पर अपना अज़ाब नाज़िल करे और फिर तुम अल्लाह से दुआ करो और वो उसे क़बूल ना करे

(अहमद ने खुज़ेफ़ा (رضي الله عنه) से  इस हदीस को रिवायत किया)

और आप صلى الله عليه وسلم के इस इरशाद-ए-मुबारका को मुस्लिम ने अबू सईद ख़ुदरी (رضي الله عنه) से  रिवायत किया:

((من رأی منکم منکراً فلیغیرہ بیدہ، فإن لم یستطع فبلسانہ، فإن لم یستطع فبقلبہ و ذلک أضعف الإیمان))
तुम में से जो भी किसी मुनकिर को देखे तो उसे अपने हाथ से बदल दे अगर वो उस की इस्तिताअत ना रखता हो तो ज़बान से (उसे तब्दील कर दे )और अगर उस की भी इस्तिताअत ना रखता हो तो फिर उसे दिल से बुरा जाने और ये ईमान का कमज़ोर तरीन दर्जा है”.

ये आयात और अहादीस मुसलमानों को अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल मुंकर का हुक्म देती हैं। हुक्मरान का एहतिसाब करना अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुंकर का एक हिस्सा है। बल्कि कुछ अहादीस ख़ुसूसी तौर पर हुक्मरानों के एहतिसाब के बारे में वारिद हुई हैं, जिस से हुक्मरानों का मुहासिबा करने और अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल मुंकिर की अहमियत ज़ाहिर होती है , जैसा कि उम्मे अतिया ने अबू सईद (رضي الله عنها) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((أفضل الجھاد کلمۃ حق عند سلطان جائر))
अफ़ज़ल जिहाद ,जाबिर सुल्तान के सामने कलिमा हक़ कहना है

ये नस हुक्मरान के मुहासबे के मुताल्लिक़ है और हुक्मरान के सामने हक़ बात कहने की फ़र्ज़ीयत को बयान करती है और उसे बहतरीन जिहाद क़रार देती है। इन अल्फाज़ के ज़रीए रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस अमल की तरफ़ रग़बत दिलाई और उस की तरग़ीब दी , ख़ाह इस के लिये जान की क़ुर्बानी ही क्यों ना देनी पड़े, जैसा कि सहीह हदीस में रिवायत किया गया:

((سید الشہداء حمزۃ بن عبد المطلب، ورجل قام إلی إمام جائر فأمرہ و نھاہ فقتلہ))
 हमज़ा बिन अब्दुल मुतल्लिब शोहदा के सरदार और वो शख़्स भी , जो ज़ालिम हुक्मरान के सामने खड़ा हुआ और उसे नेकी का हुक्म दिया और बुराई से मना किया और इस (हुक्मरान) ने उसे क़त्ल कर दिया

सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के बाअज़ इक़दामात पर एतराज़ किया और उन्होंने आप صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफ़ा राशिदीन का एहतिसाब किया। ना तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم और ना ही खुलफ़ा राशिदीन ने इस मुहासबे पर सहाबा (رضی اللہ عنھم ) की सरज़निश की। जंगे बदर में हब्बाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) ने जगह के इंतिख़ाब पर एतराज़ किया और आप صلى الله عليه وسلم ने हब्बाब बिन मुंज़िर की राय पर अमल किया। ग़ज़वा उहद के मौक़े पर आप صلى الله عليه وسلم अक्सरियत की राय पर अमल किया, जो मदीना से बाहर निकल कर क़ुरैश का मुक़ाबला करना चाहती थी जबकि आप صلى الله عليه وسلم की ज़ाती राय इस के बरख़िलाफ़ थी। सुलह हुदैबिया के दिन मुसलमानों खास तौर पर उमर (رضي الله عنه) ने इस मुआहिदे पर शदीद एतराज़ किया और ग़ज़वा हुनैन के मौक़े पर अंसार ने इस बात पर नाराज़गी ज़ाहिर की कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने नए मुसलमानों का दिल जीतने के लिये तमाम माल-ए-ग़नीमत उन लोगों में तक़सीम कर दिया है और हमारे लिये इस में कोई हिस्सा नहीं रखा है।


मजलिसे उम्मत का कोई भी रुक्न मुसलमानों के नुमाइंदे की हैसियत से मजलिस में अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ बोलने का हक़ रखता है और बिला रोक टोक और बगैर किसी दबाओ के जिस तरह भी चाहे अपनी राय का इज़हार कर सकता है। उसे ये हक़ हासिल है कि वो ख़लीफ़ा, इस के मुआवनीन , वाली या किसी भी सरकारी मुलाज़िम का मुहासिबा कर सकता है और उन पर लाज़िम है कि वो इस का जवाब दें, जब तक कि हुक्काम का ये एहतिसाब और राय का इज़हार अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ हो।
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