शारे ने ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब का इख्तियार उम्मत को दिया है। ख़लीफ़ा के तक़र्रुर का
हक़ और ज़िम्मेदारी तमाम मुसलमानों पर है और ये किसी एक जमात या गिरोह के साथ ख़ास नहीं,
क्योंकि बैअत तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। मुस्लिम ने अब्दुल्लाह
बिन उमर (رضي
الله عنه) से रिवायत किया:
))..من مات ولیس
في عنقہ بیعۃ مات میتۃ جاھلیۃ((
...और जो कोई इस हाल में मरा कि उस की गर्दन में (ख़लीफ़ा की ) बैअत
का (तौक़) नहीं था तो वो जाहिलियत की मौत मरा
ये हुक्म तमाम मुसलमानों के लिए आम है। इसलिए तमाम मुसलमानों में से सिर्फ़ अहले
हल व अक़्द को ही ख़लीफ़ा के तक़र्रुर का हक़ हासिल नहीं और ना ही ये हक़ चंद मख़सूस और मुतय्यन
अफ़राद को हासिल है। ये हक़ तमाम मुसलमानों का है ,हत्ता कि फ़ाजिर गुनहगार और मुनाफ़िक़ भी इन में शामिल हैं,
बशर्तेके वो बालिग़ मुसलमान
हों। क्योंकि इसके मुताल्लिक़ तमाम नुसूस (क़ुरआन-ओ-सुन्नत के तमाम दलायल) आम हैं । इन
में ग़ैर बालिग़ बच्चे की बैअत रद्द करने के इलावा किसी और शख़्स की तख़सीस नहीं की गई।
लिहाज़ा ये अहकामात आम हैं।
अगरचे ख़लीफ़ा का तक़र्रुर मुसलमानों का हक़ है ताहम ये शर्त नहीं कि तमाम मुसलमान
इस हक़ को इस्तिमाल भी करें । क्योंकि अगरचे ख़लीफ़ा का तक़र्रुर फ़र्ज़ है और इसलिए कि
बैअत फ़र्ज़ है, लेकिन ये फ़र्ज़े किफ़ाया है और ये फ़र्ज़े ऐन नहीं। चुनांचे अगर बाअज़ लोग इस फ़र्ज़
को क़ायम कर दें तो बाक़ी लोगों से ये फ़र्ज़ साक़ित हो जाएगा। अलबत्ता ये ज़रूरी है कि
तमाम मुसलमानों के लिए ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब के हक़ के इस्तिमाल को मुम्किन बनाया जाये
,
इस बात से क़ता नज़र कि वो ये हक़ इस्तिमाल करते भी हैं या नहीं।
यानी ये ज़रूरी है कि हर मुसलमान को ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब के सिलसिले में मुकम्मल इख्तियार
होना चाहिए । गोया असल मसला ये है कि मुसलमानों को ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के सिलसिले में
मौक़ा फ़राहम किया जाना ज़रूरी है, ताकि वो अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से लागू
किये गये फ़र्ज़ को अदा करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर सकें। और यह ज़रूरी नहीं कि तमाम
मुसलमान अमलन भी इस काम को अंजाम दें, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों
को रजामंदी के साथ अपने में से एक ख़लीफ़ा मुक़र्रर करने को फ़र्ज़ किया है,
ना कि तमाम मुसलमानों का इस अमल में शामिल होना। चुनांचे दो
सूरतों हो सकती हैं:
1: ख़लीफ़ा के तक़र्रुर
में तमाम मुसलमानों की रजामंदी मौजूद हो।
2: तक़र्रुर में
इन तमाम की रज़ामंदी साबित ना हो।
जबकि इन दोनों सूरतों में मुसलमानों के लिए ख़लीफ़ा के तक़र्रुर को मुम्किन बनाया
जाये।
जहां तक पहली सूरत का ताल्लुक़ है तो ये शर्त नहीं कि मुसलमानों की कोई मख़सूस तादाद
ख़लीफ़ा के तक़र्रुर को अंजाम दे। बल्कि जितने लोग भी ख़लीफ़ा की बैअत करें और इस बैअत
पर मुसलमानों की ख़ामोशी के ज़रीये उन की रजामंदी का इज़हार हो जाये,
या वो इस बैअत की बिना पर ख़लीफ़ा की इताअत पर तैय्यार हों,
या कोई भी ऐसा अमल करें जो उन की रजामंदी पर दलालत करता हो,
तो मुंतख़ब (चयनित) ख़लीफ़ा तमाम मुसलमानों का ख़लीफ़ा होगा। इस
ख़लीफ़ा का क़याम शरई हैसियत रखेगा, ख़ाह उसे पाँच अफ़राद ने ही मुंतख़ब किया हो। लेकिन तक़र्रुर के
इस अमल में ये गिरोह (उम्मत की) इजतिमाईयत का हामिल हो,
नीज़ इस तक़र्रुर में मुसलमानों की रजामंदी भी शामिल हो। ये रजामंदी
उन की ख़ामोशी, इताअत पर आमादगी या ऐसी किसी भी दूसरी अलामत की सूरत में हो सकती है,
बशर्ते के हर एक को मुकम्मल इख्तियार और अपनी राय के इज़हार
का मौक़ा हासिल हो। मगर जब तक तमाम मुसलमानों की रजामंदी हासिल ना हो उस वक़्त तक ख़लीफ़ा
मुक़र्रर नहीं हो सकता। यानी जब तक कि ये काम ऐसा गिरोह ना करे जो मुसलमानों की अक्सरियत
का नुमाइंदा हो, ख़ाह इस गिरोह की तादाद कितनी ही क़लील (कम) क्यों ना हो। इसी के बारे में बाअज़ फुक़हा
का क़ौल है कि अहल-ए-हल-ओ-अक़्द की बैअत से ख़लीफ़ा का तक़र्रुर हो जाता है,
क्योंकि वो अहले हल व अक़्द ही को ऐसी जमात क़रार देते हैं,
जिस की तरफ़ से शराइत पर पूरा उतरने वाले शख़्स की बैअत करने
से तमाम मुसलमानों की रजामंदी हासिल हो जाती है। लिहाज़ा अहले हल व अक़्द की बैअत दरहक़ीक़त
ख़लीफ़ा का तक़र्रुर नहीं करती और ना तक़र्रुर शरअन उन की बैअत से मशरूत है। बल्कि अहले
हल व अक़्द की बैअत तो सिर्फ़ उन अलामात में से एक अलामत है कि मुसलमान उस (शख़्स) की
बैअत पर रज़ामंद हैं। क्योंकि अहले हल व अक़्द ही तमाम मुसलमानों के नुमाइंदे तसव्वुर
किए जाते हैं। और हर वो दलील (अलामत) ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के लिए काफ़ी है,
जिस से इस बात का इज़हार होता हो कि मुसलमान इस ख़लीफ़ा की बैअत
पर राज़ी हैं। चुनांचे ख़लीफ़ा का ये तक़र्रुर शरई तसव्वुर किया जायेगा।
लिहाज़ा मुसलमानों का एक गिरोह ख़लीफ़ा का तक़र्रुर करे और इस तक़र्रुर पर मुसलमानों
की रजामंदी की अलामत ज़ाहिर हो जाये तो हुक्मे शरई पूरा हो जाएगा। ये अलामत मतलूब अलामात
में से कोई भी हो सकती है। ख़ाह ये अहले हल व अक़्द की अक्सरियत की बैअत हो या मुसलमानों
के नुमाइंदगान की अक्सरियत की बैअत हो या मुसलमान किसी जमात की तरफ़ से ख़लीफ़ा की बैअत
पर ख़ामोश रहें या वो इस बैअत की बिना पर रज़ामंदी का इज़हार कर दें । अलगरज़ वो किसी भी
तरीक़े या अलामत से अपनी रजामंदी का इज़हार कर दें, लेकिन शर्त ये है कि उन्हें अपनी राय के इज़हार में मुकम्मल
इख्तियार दिया जाये। शरई हुक्म ये नहीं कि वो अहले हल व अक़्द ही हों या उन की तादाद
पाँच हो या पाँच सौ या उस से ज़्यादा या कम हो या वो दार-उल-ख़िलाफा से ताल्लुक़ रखते
हों या सूबों में रहने वाले हों बल्कि शरई हुक्म ये है कि उन की बैअत मुसलमानों की
अक्सरियत की रजामंदी की अलामत हो। बशर्ते के मुसलमानों को अपनी राय के इज़हार में मुकम्मल
इख्तियार हासिल हो।
यहां तमाम मुसलमानों से मुराद वो मुसलमान हैं जो,
जब ख़िलाफ़त मौजूद थी तो वो इस्लामी रियासत के तहत ज़िंदगी बसर
कर रहे थे ,यानी वो गुज़शता (गुज़रे) ख़लीफ़ा के ज़ेर हुक्मरानी थे। और अगर ख़िलाफ़त मौजूद ना हो
तो ये वो लोग होंगे जिन के ज़रीये इस्लामी ख़िलाफ़त का इनेक़ाद हुआ,
और उन्होंने ख़िलाफ़त के क़याम और इस के ज़रीये इस्लामी ज़िंदगी के
नये सिरे से आग़ाज़ के लिए जद्द-ओ-जहद की। जो मुसलमान इस के इलावा हैं,
ख़लीफ़ा की बैअत में ना उन की बैअत शर्त है और ना ही उन की रजामंदी।
क्योंकि या तो वो इस्लाम की अथार्टी से ख़ारिज हो गए हैं या वो दारुल कुफ्र में रहते
हैं और उनके लिये दारुल इस्लाम के साथ मिलना मुम्किन नहीं। इन दोनों को बैअते
इनेक़ाद का हक़ हासिल नहीं। अलबत्ता उन पर बैअते
इताअत फ़र्ज़ है। क्योंकि जो इस्लाम की अथार्टी से ख़ारिज हो जाएं,
वो बाग़ीयों में से हैं। और जो लोग दारुल कुफ्र में हैं तो उन
के लिए इस्लामी इक़तिदार उस वक़्त तक मुम्किन नहीं, जब तक कि वो अमलन उसे क़ायम ना कर लें और इस में दाख़िल ना हो
जाएं। लिहाज़ा जिन मुसलमानों को बैअते इनेक़ाद का हक़ हासिल है और जिन की रजामंदी ख़लीफ़ा
के तक़र्रुर के लिए शरअन ज़रूरी है, ये वो मुसलमान हैं जिन के ज़रीये इस्लामी इक़तिदार अमलन क़ायम
हुआ हो। ये कहना सही नहीं कि ये अकली बेहस है और इस के बारे में कोई शरई दलील मौजूद
नहीं। क्योंकि ये बेहस मनात-ए-हुक्म (हुक्म के मौज़ू) के बारे में है,
ना कि हुक्म के बारे में। लिहाज़ा शरई दलील पेश करने की बजाय
सिर्फ़ इस मौज़ू की हक़ीक़त की वज़ाहत की ज़रूरत है। मसलन मुर्दार खाना हराम है। ये एक
शरई हुक्म है जबकि इस बात की तहक़ीक़ करना कि मुर्दार क्या है,
ये मनात-ए-हुक्म है। यानी जिस के बारे में शरई हुक्म वारिद हुआ
हो।
चुनांचे ख़लीफ़ा का तक़र्रुर एक शरई हुक्म है और इस तरह ये भी शरई हुक्म है कि ये
इंतिख़ाब रजामंदी और इख्तियार से होना चाहिए। लिहाज़ा उन के मुताल्लिक़ शरई दलायल लाए
जाऐंगे। अलबत्ता वो कौन लोग हैं जिन के ज़रीये ख़लीफ़ा का तक़र्रुर होता है और वो कौनसी
अलामत है,
जिस से रजामंदी और इख्तियार साबित होता है,
तो ये मनात-ए-हुक्म है। यानी वो मौज़ू कि जिस के हल के लिए वो
हुक्म वारिद हुआ है। इस मौज़ू के साथ शरई हुक्म की मुताबिक़त ही हुक्मे शरई को मुहक़्क़िक़
(खोजती) और नाफ़िज़ (लागू) करती है। इसलिए उस चीज़ की हक़ीक़त समझना निहायत ज़रूरी है जिस
के मुताल्लिक़ वो शरई हुक्म नाज़िल हुआ हो।
ये नहीं कहा जा सकता कि मनात-ए-हुक्म दरअसल हुक्म की इल्लत (वजह) है और इसके लिए
शरई दलील ज़रूरी है। ये कहना इसलिए ग़लत है कि मनात-ए-हुक्म और हुक्म की इल्लत बाहम मुख़्तलिफ़
(भिन्न) हैं। इल्लत और मनात में बहुत फ़र्क़ है। इल्लत वो मक़सद है जिस की वजह से हुक्म
भेजा गया,
यानी वो चीज़, जो इस अम्र (बात) की तरफ़ इशारा करती है कि इस हुक्म से शारा
का मक़सद क्या है। और इस के लिए शरई दलील का होना ज़रूरी है। ताकि ये मालूम किया जा
सके कि इस हुक्म से शारा का मक़सद यही है या कुछ और। जबकि मनात-ए-हुक्म वो मौज़ू है
जिस के मुताल्लिक़ हुक्म नाज़िल हुआ। यानी वो मसला, जिस पर वो हुक्म जारी किया जाये। चुनांचे ये ना तो हुक्म की
दलील है और ना ही उस की इल्लत है। किसी चीज़ के मनात-ए-हुक्म होने से मुराद है कि ये
वो मौज़ू है, जिस के साथ हुक्म मुंसलिक (सम्बन्धित) है। यानी हुक्म इस के लिए बा हैसीयत हल आया
है,
ना कि इस मनात को अपना मक़सद बनाने के लिए,
कि हम उसे इल्लत कह सकें। पस मनात,
हुक्म का ग़ैर मनक़ूल पहलू है (जो वही में मौजूद नहीं) और उस
की तहक़ीक़ इल्लत की तहक़ीक़ से मुख़्तलिफ़ है। क्योंकि इल्लत की तहक़ीक़ के लिए तो इस नस
(क़ुरआन-ओ-सुन्नत के अल्फाज़) के मफ़हूम की तरफ़ रुजू किया जाता है जिस में इल्लत बयान
की गई हो,
और ये नक़लियात (क़ुरआन-ओ-सुन्नत) का फ़हम है ना कि मनात-ए-हुक्म
का फ़हम । जबकि मनात नक़लियात में से हरगिज़ नहीं और इस से मुराद वो मौज़ू या हक़ीक़त है,
जिस पर ये शरई हुक्म जारी होता है।
ख़िलाफ़त का उम्मीदवार
(प्रत्याक्षी) बनना:
ख़िलाफ़त का उम्मीदवार बनना और इसके लिए मुक़ाबला करना तमाम मुसलमानों के लिए जायज़
है और ये मकरूह भी नहीं। ख़िलाफ़त के लिए मुक़ाबला करने की मुमानअत (मनाही) की कोई दलील
नहीं। ये बात साबित है कि मुसलमान सक़ीफ़ा बनू साअदा में ख़िलाफ़त के मसले पर बेहस मुबाहिसा
करते रहे और अभी रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का जिस्म-ए-मुबारक बिस्तर पर बिला तदफ़ीन
रखा हुआ था। इसी तरह ये भी साबित है कि छः अस्हाब-ए-शूरा,
जो अकाबिर सहाबा में से थे, तमाम सहाबा (رضی اللہ عنھم
) के सामने ख़िलाफ़त के लिए एक दूसरे के
सामने खड़े हुए। और सहाबा (رضی اللہ
عنھم ) में से किसी ने भी उन की मुज़म्मत नहीं
की,
बल्कि उन्होंने इस मुक़ाबले से इत्तिफ़ाक़ किया। ये बात ख़िलाफ़त
के हुसूल के लिए मुक़ाबले के जवाज़ के मुताल्लिक़ सहाबा के इजमा पर दलालत करता है। और
इस बात पर भी कि ख़िलाफ़त का उम्मीदवार बना जा सकता है और इस के लिए जुस्तजू भी की जा
सकती है,
नीज़ इस के हुसूल की ख़ातिर एक दूसरे की राय का जवाब देना और दलायल
पेश करना भी जायज़ है। अहादीस में इमारत तलब करने के मुताल्लिक़ जो मुमानअत वारिद हुई
है,
वो कमज़ोर लोगों के बारे में है जो उस की सलाहीयत ना रखते हों, जैसे अबूज़र ग़िफारी (رضي الله عنه) थे ।
जो लोग इमारत की सलाहीयत रखते हैं तो उन के लिए इमारत तलब करना जायज़ है। उस की
दलील सक़ीफ़ा बनी साअदा का वाक़िया और छः अस्हाब शूरा का तर्ज़-ए-अमल है। चुनांचे इस
(मुतालिबा से मुमानअत) के बारे में जितनी भी अहादीस मिलती हैं,
वो ऐसे अफ़राद के साथ मख़सूस हैं,
जो उस की क़ाबिलीयत ना रखते हों,
ख़ाह ये ख़िलाफ़त हो या इमारत। जो शख़्स इस (हुक्मरानी) का अहल
था,
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस के मुतालिबे
(माँग) पर इनकार नहीं किया बल्कि उसे हाकिम बना दिया। जब दोनों तरह की अहादीस मिलती
हैं कि आप صلى
الله عليه وسلم ने एक तरफ़ तो मुतालिबा करने पर इमारत दे दी और दूसरी तरफ़ इमारत तलब करने पर मना
फ़रमाया तो मालूम हुआ कि ये मुमानअत उन लोगों के लिए है जो उस की क़ाबिलीयत नहीं रखते
और ये मुमानअत मुतलक़ (स्थिर) नहीं है।
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