इस्लाम की बुनियाद पर सियासी जमात या जमातों की मौजूदगी की फ़र्ज़ीयत:
وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ
وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُون﴾َ {3:104}
“तुम में एक जमात ज़रूर ऐसी होनी चाहिए जो ख़ैर (इस्लाम) की तरफ़ दावत दे और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर करे और यही लोग कामयाब हैं ।”
وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ
وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُون﴾َ {3:104}
“तुम में एक जमात ज़रूर ऐसी होनी चाहिए जो ख़ैर (इस्लाम) की तरफ़ दावत दे और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर करे और यही लोग कामयाब हैं ।”
बयान की गई आयत ख़ालिसतन इस्लामी सियासी जमातों की मौजूदगी के फ़र्ज़ होने के
हुक्म को ज़ाहिर करती है किसी दीगर किस्म की जमात का ज़िक्र क़तई नहीं करती।
इस तरह आयत जमात की ज़िम्मेदारी और इसके काम की आम नौईयत को बतला देती है।
अलबत्ता जिन मारूफ़ात के क़याम और जिन मुनकिरात के ख़ात्मे के लिए काम करना
फ़र्ज़ है इनका ताय्युन इस हक़ीक़त की बिना पर है जिन हालात मे यह जमात काम कर
रही है ताकि जमात हक़ीक़त के मुताबिक़ अपने लिए शरई अहकाम निर्धारित कर सके ।
चुनांचे वो जमात जो ऐन इस आयत की बुनियाद पर क़ायम की गई हो और जो
हुकमरानों (ख़लीफ़ा और हुक्काम) के मुहासबे के लिए काम करती हो तो उसका काम
और उसका तर्बीयती निसाब और सक़ाफ़्ती मवाद इस हक़ीक़त के मुताबिक़ होगा, ये जमात
हुक्मरान को हक़ तक सीमित रखने और हक़ पर कारबन्द करने के साथ साथ उसके आमाल
की निगरानी करेगी और कोताही की सूरत में उसका मुहासिबा करेगी और उम्मत में
बेदारी पैदा करेगी और हाकिम के साथ मिल कर इस्लाम की दावत को रियासत से
बाहर तब्लीग़ यानी फैलाने के लिए काम करेगी। अब रहा सवाल ऐसी जमात का जो
बयान की गई आयत के आधार पर वजूद में आई है लेकिन हक़ीक़त ये हो कि ख़लीफ़ा और
ख़िलाफ़त दोनों ही मौजूद ना हो तो फिर उस जमात पर ये फ़र्ज़ है कि उन तमाम
अहकामात की तबन्नी (वज़ा और इख़्तियार/adopt) करे जो ख़लीफ़ा को वजूद में
लाने की ज़िम्मेदारी से संबधित हैं । चुनांचे जमात पहले उसके मक़सद को तय
करती है और फिर इसके बाद उसको हासिल करने के रास्ता यानी तरीके-कार का
निर्धारित करती है और उन तमाम अफ़्क़ार और राय को निर्धारित करती है जो
ख़िलाफ़त के क़याम और इसके बाद की ज़िम्मेदारीयों के लिए ज़रूरी और आवश्यक हैं ।
लिहाज़ा ये फ़र्ज़ है कि सियासी जमात मौजूद हो चाहे इस्लामी रियासत मौजूद हो
या ना हो और उसका मक़सद, उसका तरीक़ा कार और उसके सक़ाफ़्ती मवाद का ताय्युन
जमात जिस हक़ीक़त में मौजूद है इससे मुताल्लिक़ है।
आज चूँकि हम ऐसी हक़ीक़त में रहते हैं कि मुसलमानों का ख़लीफ़ा मौजूद नहीं है
जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करता है और
मुसलमान जिस ज़मीन (दार) में रहते हैं वो दारुल कुफ्र है, आज समाज के
ताल्लुक़ात और निज़ाम इस्लामी बुनियादों पर नहीं हैं ये ग़ैर-इस्लामी समाज है।
लिहाज़ा आज लाज़िम हो जाता है कि ऐसी जमात मौजूद हो जिसका काम दारुल-कुफ़्र
को दारुल-इस्लाम में तब्दील करने और ग़ैर इस्लामी समाज को इस्लामी समाज में
तब्दील करने और हुकूमत को दुबारा अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात के
मुताबिक़ क़ायम करने पर मुतवज्जोह और केन्द्रित हो, यानी ज़िंदगी गुज़ारने के
इस्लामी तरीक़ा को दुबारा ज़िंदगीयों में वापिस लाए और इस्लाम की दावत को
दुनिया के सामने पेश करे। ये है वो मक़सद व ग़ायत जिसको हासिल करने के लिए
जमात या गिरोह पर जद्दो-जहद करना ज़रूरी और लाज़िम है।
1. हिज़्ब (गिरोह) या सियासी जमात बनाने का क़याम किस तरह किया जाये:
2. शरई रास्ता क्या है जिस तरीके-कार पर चल कर जमात अपने शरई मक़सद को हासिल करे?
3. कौन से अहकामात हैं जो इस मक़सद को हासिल करने के लिए जमात की ज़रूरत हैं और जिन पर तबन्नी (वज़ा और इख़्तियार करना) जमात के लिए लाज़िम है?
4. वो क्या शरई उसूल व ज़वाबित (criteria and principles) हैं जो इन शरई अहकामात के मुताल्लिक़ जमात की समझ को निर्धारित करते हैं जो मक़सद के हुसूल के लिए दावत की ख़ातिर लाज़िमी हैं जिनकी सही समझ की बुनियाद पर जमात आगे बढ़ती है?
5. हुक्मे शरई के साथ उसका मामला किस तरह है ? जमात का शरई हुक्म मालूम करने का तरीक़ा क्या है ? किन ज़राए यानी स्रोत से हुक्म हासिल करती है ? क्या जमात राय रखती है कि किसी एक मसले पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) के एक से ज़ाइद कई हुक्म मौजूद होसकते हैं ? इन शरई अहकामात जिन में इख़्तिलाफ़ मौजूद है उनके बारे में जमात की अपनी राय क्या है ?
6. अक़्ल के बारे में जमात क्या मामला रखती है और हुक्मे शरई को अख़ज़ और इख़्तियार करने और अक़ीदे को इख़्तियार करने में अक़्ल का क्या किरदार है?
7. हक़ीक़त और हालात के बारे में जमात किस तरह मामला करती है? क्या जमात हक़ीक़त और हालात से सोच को हासिल करती है यानी हक़ीक़त और हालात उसकी सोच को प्रभावित करते हैं ? या वो हक़ीक़त और हालात को फ़िक्र का विषय बनाती है?
8. मस्लिहत के बारे में जमात क्या राय रखती है, मस्लिहत यानी फ़ायदे को शरअ ने निर्धारित कर दिया है या इंसानी अक़्ल भी अब उसको निर्धारित कर सकती है ?
2. शरई रास्ता क्या है जिस तरीके-कार पर चल कर जमात अपने शरई मक़सद को हासिल करे?
3. कौन से अहकामात हैं जो इस मक़सद को हासिल करने के लिए जमात की ज़रूरत हैं और जिन पर तबन्नी (वज़ा और इख़्तियार करना) जमात के लिए लाज़िम है?
4. वो क्या शरई उसूल व ज़वाबित (criteria and principles) हैं जो इन शरई अहकामात के मुताल्लिक़ जमात की समझ को निर्धारित करते हैं जो मक़सद के हुसूल के लिए दावत की ख़ातिर लाज़िमी हैं जिनकी सही समझ की बुनियाद पर जमात आगे बढ़ती है?
5. हुक्मे शरई के साथ उसका मामला किस तरह है ? जमात का शरई हुक्म मालूम करने का तरीक़ा क्या है ? किन ज़राए यानी स्रोत से हुक्म हासिल करती है ? क्या जमात राय रखती है कि किसी एक मसले पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) के एक से ज़ाइद कई हुक्म मौजूद होसकते हैं ? इन शरई अहकामात जिन में इख़्तिलाफ़ मौजूद है उनके बारे में जमात की अपनी राय क्या है ?
6. अक़्ल के बारे में जमात क्या मामला रखती है और हुक्मे शरई को अख़ज़ और इख़्तियार करने और अक़ीदे को इख़्तियार करने में अक़्ल का क्या किरदार है?
7. हक़ीक़त और हालात के बारे में जमात किस तरह मामला करती है? क्या जमात हक़ीक़त और हालात से सोच को हासिल करती है यानी हक़ीक़त और हालात उसकी सोच को प्रभावित करते हैं ? या वो हक़ीक़त और हालात को फ़िक्र का विषय बनाती है?
8. मस्लिहत के बारे में जमात क्या राय रखती है, मस्लिहत यानी फ़ायदे को शरअ ने निर्धारित कर दिया है या इंसानी अक़्ल भी अब उसको निर्धारित कर सकती है ?
इसके बाद जब एक मर्तबा हम जमाअत के मक़सद, इसके काम, तरीके-कार और सोचने के
तरीके-कार को निर्धारित कर चुकें तो हम जान जाऐंगे कि जमात कौन से काम
अंजाम दे और कौन सी बुनियादों पर जमी रहे। तब हम ये भी जान सकते हैं कि अगर
जमात उन क़ायम करदा बातों से भटक जाये तो उसको क्या नसीहत की जाएगी और अगर
वो गुमराही इख़्तियार करे तो हम उसको किस तरह दरुस्त करें ।
इस शरई तरीक़े कार की बेहस में जाने से पहले जिस पर चलना जमात पर लाज़िम है हमारे लिए इंतिहाई ज़रूरी होगा कि एक उसूल की याददेहानी करलें जिसके बारे में ग़फ़लत जायज़ नहीं, और वह उसूल ये है कि शरअ ने दुनिया व आखिरत और ख़ैर व शर से मुताल्लिक़ उन तमाम छोटे या बड़े मामलात के बारे में बात करदी है जो इंसान के लिए लाज़िमी हैं और उनका हुक्म बयान किया है। ऐसी कोई बात नहीं छोड़ी जो इंसान के लिए अहम हो । चुनांचे इंसान जब लिबास पहनता है, या लिबास उतारता है। घर में दाख़िल होता है या मस्जिद में दाख़िल होता है, मस्जिद से निकलता है या किसी और के साथ कोई मामला करता है, शादी करता है या नमाज़ पढ़ता है, रोज़ा रखता है या बातचीत करता है या कोई और काम करता है, अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस काम के करने का तरीक़े और उसका हुक्म बयान कर दिया है, अगर किसी काम के करने का हुक्म है तो फिर वो फ़र्ज़ है अगर किसी काम से रोका गया है तो इससे रुकना फ़र्ज़ है, अगर मंदूब है तो इसको करना बेहतर है, अगर मकरूह है तो छोड़ना पसंदीदा है और अगर मुबाह है तो फिर इसके इख़्तियार में है कि चाहे तो कर ले । एक मुसलमान के लिए इंसानी अफ़आल (human actions) के बारे में तमाम अहकामात की इन हदूद की पाबंदी करना लाज़िम है । जो हुक्म अफ़आल (actions) का है वही हुक्म अशया (वस्तु/material) का है लेकिन अशिया के हुक्म में कुछ तफ़्सील है। वो ये कि अस्लन तमाम वस्तुएँ मुबाह यानी जायज़ हैं सिवाए उन वस्तुओं को छोड़कर जिनको हराम बयान किया गया है यही वजह है कि कोई ऐसा फे़अल या चीज़ नहीं जिसके बारे में अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हुक्म ना दे दिया हो, ये हुक्म इन दो क़ाईदों पर आधारित है:
इस शरई तरीक़े कार की बेहस में जाने से पहले जिस पर चलना जमात पर लाज़िम है हमारे लिए इंतिहाई ज़रूरी होगा कि एक उसूल की याददेहानी करलें जिसके बारे में ग़फ़लत जायज़ नहीं, और वह उसूल ये है कि शरअ ने दुनिया व आखिरत और ख़ैर व शर से मुताल्लिक़ उन तमाम छोटे या बड़े मामलात के बारे में बात करदी है जो इंसान के लिए लाज़िमी हैं और उनका हुक्म बयान किया है। ऐसी कोई बात नहीं छोड़ी जो इंसान के लिए अहम हो । चुनांचे इंसान जब लिबास पहनता है, या लिबास उतारता है। घर में दाख़िल होता है या मस्जिद में दाख़िल होता है, मस्जिद से निकलता है या किसी और के साथ कोई मामला करता है, शादी करता है या नमाज़ पढ़ता है, रोज़ा रखता है या बातचीत करता है या कोई और काम करता है, अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस काम के करने का तरीक़े और उसका हुक्म बयान कर दिया है, अगर किसी काम के करने का हुक्म है तो फिर वो फ़र्ज़ है अगर किसी काम से रोका गया है तो इससे रुकना फ़र्ज़ है, अगर मंदूब है तो इसको करना बेहतर है, अगर मकरूह है तो छोड़ना पसंदीदा है और अगर मुबाह है तो फिर इसके इख़्तियार में है कि चाहे तो कर ले । एक मुसलमान के लिए इंसानी अफ़आल (human actions) के बारे में तमाम अहकामात की इन हदूद की पाबंदी करना लाज़िम है । जो हुक्म अफ़आल (actions) का है वही हुक्म अशया (वस्तु/material) का है लेकिन अशिया के हुक्म में कुछ तफ़्सील है। वो ये कि अस्लन तमाम वस्तुएँ मुबाह यानी जायज़ हैं सिवाए उन वस्तुओं को छोड़कर जिनको हराम बयान किया गया है यही वजह है कि कोई ऐसा फे़अल या चीज़ नहीं जिसके बारे में अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हुक्म ना दे दिया हो, ये हुक्म इन दो क़ाईदों पर आधारित है:
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