ख़लीफ़ा फ़ौज का सरबराह होता है और वही फ़ौज के चीफ आफ़ स्टाफ़ और हर डवीज़न और हर ब्रिगेड
के कमांडर का तक़र्रुर करता है। जहां तक फ़ौज के दूसरे ओहदों का ताल्लुक़ है तो ब्रिगेड
कमांडरज़ इस पर लोगों का तक़र्रुर करते हैं। फ़ौज के स्टाफ़ कमांडरज़ का तक़र्रुर अस्करी
सक़ाफत के लिहाज़ से किया जाना चाहिये और चीफ आफ़ स्टाफ़ इन का तक़र्रुर करता है।
उस की वजह ये है कि ख़िलाफ़त दुनिया के तमाम मुसलमानों के आम नेतृत्व का नाम है।
अहकाम-ए-शरीयत को नाफ़िज़ करना और इस्लाम के पैग़ाम को दुनिया तक पहुंचाना ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी
है। इस्लाम के पैग़ाम को दुनिया तक पहुंचाने का तरीका जिहाद है। लिहाज़ा जिहाद के अलम
को उठाना ख़लीफ़ा के कंधों पर है क्योंकि ख़िलाफ़त का अक़्द (अनुबन्ध) उस की ज़ात के साथ
तै पाता है और ख़लीफ़ा के सिवा किसी और के लिये जायज़ नहीं कि वो ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी
अंजाम दे । लिहाज़ा ख़लीफ़ा बज़ात-ए-ख़ुद जिहाद की ज़िम्मेदारी उठाता है और किसी और के
लिये इस ज़िम्मेदारी का मुतवल्ली
(trusty) बनना जायज़ नहीं, अगरचे हर मुसलमान जिहाद करता है। पस जिहाद करना अलग चीज़ है और
जिहाद की ज़िम्मेदारी को उठाना एक अलग चीज़ है। जिहाद करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है लेकिन
जिहाद की ज़िम्मेदारी को अंजाम देना सिर्फ़ ख़लीफ़ा के लिये खास है। जहां तक इस बात का
ताल्लुक़ है कि ख़लीफ़ा किसी शख़्स को अपनी तजवीज़ पर इस फ़र्ज़ की अंजाम देही के लिये मुक़र्रर
करे तो ऐसा करना जायज़ है बशर्तिके वो शख़्स ख़लीफ़ा के ज़ेर निगरानी ये काम अंजाम दे
और ख़लीफ़ा को इस से बाख़बर रखे। लेकिन उस शख़्स की तरफ़ से ख़लीफ़ा को अपने काम से मतला
(बाखबर) ना करना और इस का मुकम्मल तौर पर आज़ाद और ख़ुदमुख्तार होना जायज़ नहीं । बल्कि
ये काम ख़लीफ़ा की बराह-ए-रस्त निगरानी के तहत होगा। इस मुआमले में ख़लीफ़ा को बाख़बर रखना
मुआविन (वज़ीर) की तरफ़ से ख़लीफ़ा को मुआमलात से बाख़बर रखने से मुख़्तलिफ़ (भिन्न) है।
इस मुआमले में ख़लीफ़ा को खबरदार करने का मतलब ये है कि जो शख़्स ख़लीफ़ा की सवाबदीद
(तजवीज़/युक्ति) पर जिहाद कर रहा है वो ये काम ख़लीफ़ा की सीधी निगरानी में अंजाम देगा।
पस फ़ौज की क़ियादत (नेतृत्व) इस कैद के साथ होगी यानी ख़लीफ़ा अपनी बराह-ए-रास्त
(सीधी) निगरानी के तहत जिसे चाहे ये नियाबत सौंप सकता है। ताहम ये बात जायज़ नहीं कि
फ़ौज की क़ियादत ख़लीफ़ा की बराह-ए-रास्त निगरानी के बगैर हो और ख़लीफ़ा महज़ फ़ौज का अलामती
सरबराह हो। क्योंकि ख़िलाफ़त का अक़्द (अनुबन्ध) ख़लीफ़ा के साथ होता है लिहाज़ा जिहाद की
ज़िम्मेदारी को उठाना इस पर लाज़िम है। लिहाज़ा जो सिलसिला गैर इस्लामी निज़ामों में
मौजूद है कि रियासत का सरबराह (प्रमुख) फ़ौज का सुप्रीम लीडर होता है यानी वो फ़ौज का
अलामती सरबराह होता है जबकि कोई और शख़्स फ़ौज के मुआमलात को मुकम्मल आज़ादी और ख़ुदमुख्तारी
के साथ चलाता है, ये इस्लाम की नज़र में बातिल है । ऐसा करना शरह के मुताबिक़ नहीं
बल्कि शरह क़रार देती है कि ख़लीफ़ा अमली तौर पर फ़ौज का क़ाइद हो । ताहम ख़लीफ़ा के लिये
जायज़ है कि वो दूसरे क़यादती मुआमलात मसलन इंतिज़ामी और तकनीकी मुआमलात में किसी को
अपने नायब के तौर पर मुक़र्रर करे जो इन मुआमलात को चलाने में आज़ाद हो जैसा कि ख़लीफ़ा
सूबों के गवर्नरों को मुक़र्रर करता है और उन के हर मुआमले की सीधे तौर पर निगरानी
ख़लीफ़ा पर लाज़िम नहीं होती। रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم बज़ात-ए-ख़ुद फ़ौज की क़ियादत किया करते थे। वो लड़ाईयों में फ़ौज की क़ियादत फ़रमाते
और जब फ़ौज आप صلى الله عليه
وسلم के बगैर जंग के लिये जाती तो आप صلى
الله عليه وسلم फौज के मुख़्तलिफ़ हिस्सों के कमांडरों का तक़र्रुर करते।
हर जंगी मुहिम के मौक़े पर आप صلى الله عليه
وسلم लश्कर के लिये अमीर मुक़र्रर किया करते थे और कईं बार आप صلى
الله عليه وسلم एहतियाती तौर पर इस बात का भी ताय्युन फ़रमाते कि अगर फौज का अमीर शहीद हो जाये
तो इस के बाद कौन अमीर होगा जैसा कि जंग मौता में हुआ। बुख़ारी ने अब्दुल्लाह बिन उमर
(رضي
الله عنه) से रिवायत किया:
))أمَّر رسول اللہﷺ في غزوۃ مؤتہ زید
بن حارثۃ۔فقال رسول اللّٰہﷺ:إن قُتِل زید فجعفر، فإن قتل جعفر فعبد اللّٰہ بن رواحۃ((
रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने ज़ैद बिन हारिस (رضي
الله عنه) को जंग मौता के मौक़े पर अमीर मुक़र्रर फ़रमाया। रसूलुल्लाह
صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: अगर ज़ैद (رضي
الله عنه) मारे जाएं तो फिर जाफ़र (رضي
الله عنه) (अमीर) होंगे और अगर जाफ़र मारे जाएं तो फिर अब्दुल्लाह
बिन रवाहा (رضي الله عنه) (अमीर) होंगे ।
लिहाज़ा ख़लीफ़ा ही अफ़्वाज के उमरा और कमांडरों को मुक़र्रर करता है,
उन्हें झंडे सौंपता है और फ़ौज की डिवीज़नों के अमीर मुक़र्रर
करता है। वो लश्कर जो रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने शाम की तरफ़ रवाना किया जैसा कि जंग मौता का लश्कर और लश्कर-ए- उसामा,
ये एक ब्रिगेड थी। उस की दलील ये है कि रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने उसामा (رضي الله عنه)को अलम अता किया। और वह लड़ाईयां जो जज़िया तुल अरब में लड़ी गईं और जंग
के बाद लोग मदीना वापिस लौट आए, जैसा कि साद बिन अबी वक़्क़ास (رضي
الله عنه) की जंगी मुहिम जिसे आप صلى
الله عليه وسلم ने मक्का की तरफ़ रवाना किया,
ये फ़ौज की डिवीज़नों की मानिंद थीं। ये सब इस बात पर दलालत करता
है कि ख़लीफ़ा ही ब्रिगेडज़ और डिवीज़नों के कमांडरों का तक़र्रुर करता है। इस अम्र की
जानिब ये बात भी इशारा करती है कि जंगी मुहिमों के दौरान रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم फ़ौजी ओहदेदारों और कमांडरों के साथ करीबी राबिता (संपर्क) रखते थे और आप صلى
الله عليه وسلم फ़ौजी ओहदेदारों और कमांडरों के ज़रीए फ़ौज यानी आम सिपाहियों की सूरत-ए-हाल से बाख़बर
रहते थे। जहां तक फ़ौज के अमीर और कमांडरों के अलावा दूसरे लोगों के तक़र्रुर का ताल्लुक़
है तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه
وسلم से ये बात साबित नहीं कि आप صلى
الله عليه وسلم ने उन का तक़र्रुर फ़रमाया, जो इस बात की तरफ़ इशारा है कि आप صلى
الله عليه وسلم ने जंग के दौरान उसे अफ़राद के तक़र्रुर को फ़ौज के उमरा (अमीरों) की सवाबदीद पर
छोड़ दिया । जहां तक चीफ आफ़ स्टाफ़ का ताल्लुक़ है जो कि तकनीकी उमूर पर ज़िम्मेदार होता
है तो वो फ़ौज के क़ाइद की तरह होता है जिसे ख़लीफ़ा मुक़र्रर करता है और वो ख़लीफ़ा की
सीधी निगरानी के बगै़र काम करता है, अलबत्ता वो ख़लीफ़ा के हुक्म के मातहत (अधीन) होता है।
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